नई दिल्लीः भारत ने हाल ही में पाकिस्तान को एक औपचारिक नोटिस भेजकर सिंधु जल संधि (आईडब्ल्यूटी) की समीक्षा और संशोधन की मांग की है, जिसमें परिस्थितियों में मौलिक और अप्रत्याशित बदलाव का हवाला देते हुए दायित्वों के पुनर्मूल्यांकन की आवश्यकता पर जोर दिया गया है। लेकिन इससे पहले यह जानना बेहद जरूरी है कि भारता और पाकिस्तान के बीच आखिर यह जल संधि क्यों और किन परिस्थियों में हुई थी। और दोनों देशों के लिए यह इतना महत्वपूर्ण क्यों है?
19 सितंबर 1960 को कराची, पाकिस्तान में एक ऐतिहासिक घटना घटी, जब भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति मार्शल मोहम्मद अयूब खान ने सिंधु नदी के जल बंटवारे को लेकर एक संधि पर हस्ताक्षर किए। यह संधि भारत और पाकिस्तान के बीच जल संसाधनों के उपयोग के लिए सहयोग की एक नई शुरुआत थी। इसका उद्देश्य सिंधु नदी के जल का पूर्ण और संतोषजनक उपयोग सुनिश्चित करना और दोनों देशों के बीच आपसी अधिकारों और दायित्वों को स्थापित करना था।
सिंधु नदी और उसका महत्व
सिंधु नदी दुनिया की सबसे प्राचीन सभ्यताओं में से एक, सिंधु घाटी सभ्यता की आधारशिला रही है, जो लगभग 2500 ईसा पूर्व फली-फूली थी। यह नदी तिब्बत के दक्षिण-पश्चिम क्षेत्र से निकलकर कश्मीर और पंजाब के हरे-भरे मैदानों से होती हुई अरब सागर में मिलती है। इस नदी की प्रमुख सहायक नदियाँ झेलम, चेनाब, रावी और ब्यास हैं, जो क्षेत्र के कृषि तंत्र के लिए अत्यधिक महत्वपूर्ण हैं।
जल विवाद की पृष्ठभूमि
1948 में, जब भारत और पाकिस्तान के बीच जल विवाद गहराया तो पाकिस्तान के पश्चिमी पंजाब के लोग, जो सिंचाई के लिए कृत्रिम नहरों पर निर्भर थे, संकट में आ गए। भारत के पूर्वी पंजाब में स्थित हेडवर्क्स के जरिए पानी के प्रवाह को नियंत्रित करने की क्षमता भारत के पास थी। इस कारण पाकिस्तान के पानी की आपूर्ति पर भारत का महत्वपूर्ण नियंत्रण था।
भारत ने अपने क्षेत्र के भीतर सभी नदियों के जल पर संपूर्ण स्वामित्व का दावा किया, जबकि पाकिस्तान ने अपने अधिकारों की रक्षा की मांग की। इस विवाद में सिंधु घाटी की सभी प्रमुख नदियाँ शामिल थीं, जिनमें सिंधु, झेलम, चेनाब, रावी, ब्यास और सतलुज थीं।
समाधान और संधि
सिंधु जल विवाद के समाधान के लिए विश्व बैंक ने मध्यस्थता की। अंततः 19 सितंबर 1960 को भारत और पाकिस्तान के बीच सिंधु जल संधि पर हस्ताक्षर किए गए। इस संधि के तहत, भारत को पूर्वी नदियों — सतलुज, ब्यास और रावी — का अनियंत्रित उपयोग करने का अधिकार मिला, जबकि पाकिस्तान को पश्चिमी नदियों — सिंधु, झेलम और चेनाब — के जल का अधिकार दिया गया।
भारत की संधि में संशोधन की मांग
यह संधि एशिया में सबसे महत्वपूर्ण अंतररााष्ट्रीय जल-बंटवारा संधियों में से एक है, जो भारत और पाकिस्तान जैसे परमाणु-सशस्त्र पड़ोसियों के बीच शांति बनाए रखने में सहायक रही है। हालांकि 1965 और 1971 के युद्धों के बावजूद, दोनों देशों ने इस संधि का सम्मान किया है।
हाल ही में भारत ने संधि की समीक्षा और संशोधन की मांग की है। इस साल 30 अगस्त को पाकिस्तान को दिए गए नोटिस में, भारत ने इस बात पर प्रकाश डाला कि, आईडब्लूटी के अनुच्छेद XII (3) के तहत, इसके प्रावधान को समय-समय पर दोनों सरकारों के बीच उस उद्देश्य के लिए संपन्न विधिवत संधि द्वारा संशोधित किया जा सकता है।
भारत की आधिकारिक अधिसूचना में संधि के विभिन्न अनुच्छेदों के तहत दायित्वों के पुनर्मूल्यांकन की आवश्यकता पर बल दिया गया है। भारत का मानना है कि परिस्थितियों में मूलभूत और अप्रत्याशित परिवर्तन हुए हैं। भारत की चिंताओं में जनसंख्या में बदलाव, पर्यावरण संबंधी मुद्दे, स्वच्छ ऊर्जा के विकास की आवश्यकता, और सीमा पार आतंकवाद का लगातार प्रभाव शामिल हैं।
यह अधिसूचना किशनगंगा और रैटल जलविद्युत परियोजनाओं से संबंधित एक अलग विवाद की पृष्ठभूमि में जारी की गई थी। इस मामले में, विश्व बैंक ने एक ही मुद्दों पर तटस्थ विशेषज्ञ तंत्र और मध्यस्थता न्यायालय दोनों को सक्रिय कर दिया है। भारत ने संधि के तहत विवाद समाधान प्रक्रिया पर पुनर्विचार करने की भी बात कही है और पाकिस्तान को संधि की समीक्षा के लिए सरकार-स्तरीय बातचीत का आमंत्रण दिया है।
सिंधु जल संधि: पाकिस्तान की आपत्तियां और भविष्य की चुनौतियां
भारत और पाकिस्तान के बीच सिंधु जल संधि पर आधारित सहयोग के बावजूद, हाल के वर्षों में दोनों देशों के बीच जल बंटवारे को लेकर तनाव बढ़ा है। पाकिस्तान ने भारत की दो प्रमुख हाइड्रोइलेक्ट्रिक परियोजनाओं — किशनगंगा परियोजना (झेलम नदी की सहायक नदी पर) और रतले परियोजना (चेनाब नदी पर) — पर गंभीर आपत्तियां दर्ज की हैं। पाकिस्तान का मानना है कि ये परियोजनाएं उसके क्षेत्र में जल प्रवाह को कम कर सकती हैं, जिससे विशेष रूप से उसकी सिंचाई व्यवस्था पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है।
पाकिस्तान की चिंताएं
पाकिस्तान का दावा है कि इन परियोजनाओं से उसके कृषि क्षेत्र में जल आपूर्ति बाधित हो सकती है, जो उसकी अर्थव्यवस्था का महत्वपूर्ण हिस्सा है। किशनगंगा और रतले परियोजनाएं पाकिस्तान के लिए खास तौर पर संवेदनशील हैं, क्योंकि सिंधु बेसिन में जल वितरण पाकिस्तान की खाद्य सुरक्षा और ग्रामीण जीवन के लिए आवश्यक है। इन परियोजनाओं से पाकिस्तान के लिए सिंचाई के लिए उपलब्ध जल की मात्रा कम हो सकती है, जिससे उसकी कृषि व्यवस्था पर नकारात्मक प्रभाव पड़ने की संभावना है।
जलवायु परिवर्तन से उत्पन्न खतरे
सिंधु जल संधि के भविष्य पर जलवायु परिवर्तन का भी गंभीर प्रभाव पड़ रहा है। हिमालय, काराकोरम, हिंदूकुश और तिब्बत के ग्लेशियर जो सिंधु बेसिन को पोषण देते हैं, वे वैश्विक तापमान में वृद्धि के कारण तेजी से पिघल रहे हैं। विशेषज्ञों के अनुसार, इस पिघलन से शुरुआती दौर में भारत को कुछ फायदा हो सकता है, क्योंकि जल प्रवाह में अस्थायी वृद्धि होगी, लेकिन लंबी अवधि में इसका विपरीत प्रभाव दिखाई देगा। जैसे-जैसे ग्लेशियर सिकुड़ेंगे, नदियों का प्रवाह धीरे-धीरे कम हो जाएगा, जिससे दोनों देशों के लिए पानी की आपूर्ति चुनौतीपूर्ण हो जाएगी।
इसके अलावा, मानसून के अनिश्चित पैटर्न और चरम मौसम की घटनाएं, जैसे बाढ़ और सूखा, इस क्षेत्र में रहने वाले लोगों के लिए गंभीर चुनौतियां पैदा कर सकती हैं। जल प्रवाह में अचानक आई गिरावट से विस्थापन की स्थिति उत्पन्न हो सकती है और इसका व्यापक सामाजिक और आर्थिक प्रभाव पड़ सकता है।
आवश्यक सहयोग और भविष्य की दिशा
विशेषज्ञों का मानना है कि भारत और पाकिस्तान को सिंधु जल संधि के केवल तकनीकी पहलुओं का पालन ही नहीं करना चाहिए, बल्कि इसके अंतर्निहित उद्देश्य — उपमहाद्वीप में शांति और समृद्धि को बढ़ावा देना — को भी अपनाना चाहिए। जल वितरण से जुड़े विवादों के बावजूद, दोनों देशों के बीच सहयोग और अनुकूलन की संभावनाएं अभी भी प्रबल हैं। अगर दोनों देश मिलकर जलवायु परिवर्तन के खतरों का सामना करते हैं और आपसी सहयोग को बढ़ावा देते हैं, तो यह न केवल सिंधु बेसिन के लिए, बल्कि समूचे क्षेत्र के लिए भी फायदेमंद साबित होगा।