रवींद्रनाथ टैगोर ने ‘गोरा’ (1910) उपन्यास लिखकर परंपरा, संस्कृति व मनुष्यता के संबंध में हलचल मचाते कई मूलभूत सवालों को बौद्धिक विमर्शों के केंद्र में स्थापित किया है। टैगोर ने गोरा तब लिखा था जब उन्हें नोबल पुरस्कार मिला नहीं था और जो राष्ट्रवाद जन्म ले रहा था, वह समूचे बौद्धिक चिंतन व मानवीय संबंधों को, खासतौर पर जागरूक शिक्षित वर्ग को, गहराई से प्रभावित कर रहा था। गोरा से पहले टैगोर चार महत्त्वपूर्ण उपन्यास लिख चुके थे। ये उपन्यास थे- राजर्षि, नष्टनीड़, चोखेर बाली तथा नौकाडूबी। पर ‘गोरा’ के विशाल कथा-फलक व तत्कालीन सामाजिक बहसों की जीवंत प्रस्तुति ने उन्हें सही मायने में उपन्यासकार के रूप में स्थापित किया। राजनीतिक पृष्ठभूमि पर रचित उनके दो अन्य उपन्यास घरे-बाइरे (1916) और चार अध्याय (1934) भी विशेष चर्चित हुए पर ‘गोरा’ उनकी राजनीतिक तथा सांस्कृतिक आस्थाओं का अधिक जीवंत दस्तावेज साबित हुआ है। उनका यह उपन्यास बांग्ला पत्रिका ‘प्रबासी’ में अगस्त 1907 से फरवरी 1910 तक प्रकाशित हुआ था और फरवरी 1910 ई. में ही किताब के रूप में छपकर आया था।
यह उपन्यास 1880 के दशक पर केंद्रित है क्योंकि इसमें उपन्यास नायक गोरा का जन्मवर्ष 1857 बताया गया है। उपन्यास का नायक गोरा अपनी विश्वविद्यालयीन शिक्षा पूरी कर चुका है। उपन्यास अपने लिखे जाने के वर्ष से लगभग तीन दशक पहले के बांग्ला समाज की उन घटनाओं को वर्णित करता है जब विविध वैचारिक प्रवृत्तियां बंगाल के शिक्षित वर्ग को उद्वेलित कर रही थीं। लेकिन इसमें 1880 के दशक की घटनाओं के साथ टैगोर के समकालीन समाज की भी कई घटनाएं शामिल हैं जिनमें स्वदेशी मूवमेंट की लोकप्रियता, उग्र हिंदू राष्ट्रवाद का उदय तथा राष्ट्रवाद के अवधारणात्मक दायरों में स्त्रियों व किसानों के प्रश्नों के प्रसंग शामिल हैं। इस प्रकार यह उपन्यास कथावस्तु के वर्णन में ‘टाइम’ का पालन ही नहीं करता बल्कि कालक्रम को भंग भी करता है।
उपन्यास का मुख्य नायक गौरमोहन यानी गोरा पढ़ा-लिखा व्यक्ति हैं और एक शिक्षित मनुष्य के तौर पर उसका अंग्रेजी ज्ञान भी अच्छा है। वह अक्सर कलकत्ता की भीड़ भरी सड़कों पर घूमता दिखता है। सड़क पर तेजी से चलता एकाग्रमना गोरा नए जन-नायक के आगमन का सूचक है जिसे कुछ दुःखद संयोगों व आत्मप्रयासों के बल पर बहुत सारी वैचारिक भ्रांतियों से मुक्ति प्राप्त करनी है। वह देशभक्त हिंदू है जो मिशनरियों, अंग्रेजों तथा समाज सुधारकों आदि किसी के मुंह से हिंदू धर्म की निंदा नहीं सुन सकता। विरोधी पक्ष से बहस में वह किसी पर किसी भी प्रकार की दया नहीं करता और उसके भीतर शिकारी जंतु जैसी हिंस्रता जाग उठती है। वह चौड़े माथे व तगड़ी काया का है और अक्सर माथे पर तिलक लगाए रखता है। उसके बाहरी रूपरंग के विषय में उपन्यास में लिखा गया है- ‘देखने पर गौरमोहन को सुंदर नहीं कहा जा सकता, किंतु उसे देखे बिना रहा भी नहीं जा सकता।’ वह ब्राह्मण वर्ण के कृष्णदयाल नामक पूर्व सरकारी नौकर के परिवार में बचपन से पाला-पोसा गया था। कृष्णदयाल एक वृद्ध इंसान हैं जो नौकरी से सेवानिवृत्ति के बाद से पूरी तरह कर्मकांडी हिंदू बन चुके हैं। वे छुआछूत तथा पवित्रता के भाव से इतना ग्रस्त हैं कि अपनी पत्नी आनंदमयी व गोरा से भी बचते फिरते हैं। गोरा भी एक समय ब्राह्म-समाज की ओर झुकाव रखता था और शास्त्र-लोकाचार की निंदा करता था। पर अंग्रेज मिशनरियों ने जब हिंदू धर्म पर आक्रमण किया तब वह देशभक्ति के आवेग में इसे सहन न कर सका। उसे लगा कि किसी विदेशी को यह अधिकार नहीं कि अपनी अदालत में पूरे देश को अभियुक्त की तरह खड़ा करे। उसके बाद उसे हिंदू धर्म के समर्थन में पुस्तक लिखी और शिखा रखने, गंगा स्नान करने तथा संध्या-वदन जैसे कार्य आरंभ कर दिए। वह हिंदू हितैषी सभा का सभापति बनता है और यह मानता है कि ख्रिस्तानी शिक्षा का फंदा पड़ा होने के कारण लोग हिंदू धर्म के वास्तविक रूप को विस्मृत कर रहे हैं।
गोरा का मित्र है विनय, जिसके बारे में उपन्यासकार का कहना है कि उसकी पढ़ाई बहुत दिन हुए पूरी हो गई थी, पर सांसारिक जीवन में अभी उसका प्रवेश नहीं हुआ था। विनय पर गोरा के विचारों का गहरा प्रभाव है और वह भी मानता है कि अंग्रेजों द्वारा किए जा रहे दमन के इस दौर में ब्राह्मणों के पाप, जात-पांत या अस्पृश्यता जैसी बुराई की आलोचना नहीं की जानी चाहिए। गोरा और विनय के अलावा उपन्यास में ब्राह्म धर्म के अनुयायी परेश बाबू का परिवार है जिसमें सुचरिता, ललिता, लावण्य, लाली नामक लड़कियां तथा उनकी मां वरदासुंदरी मौजूद हैं। उपन्यास में चरित्रों के जोड़े बनाए गए हैं और गोरा-विनय के साथ-साथ सुचरिता-ललिता की भी जोड़ी है। ये जोड़ियां अकेले मनुष्य की अपूर्णता व अधूरेपन से मुक्त होकर किसी अन्य के माध्यम से पूर्णता प्राप्त करने की मानवीय चेतना की प्रतीक हैं। किसी ‘अन्य’ के माध्यम से अपने ही विचारों तथा अनुभूतियों को एक समग्र इकाई में ढालने का प्रयास है। इसमें एक किस्म का छिपा हुआ, अव्यक्त समलैंगिक भावबोध (subterranean homoeroticism) भी मौजूद रहता है। इसी परिवार में हारान बाबू का आना-जाना है जो स्वयं ब्राह्म समाज के सदस्य हैं और तीक्ष्ण बुद्धि व विद्धता का स्वामी होने के कारण उनकी विशेष ख्याति है। उनका विवाह सुचरिता के साथ तय हो चुका है।
उपन्यास में विनय का परिचय परेश बाबू से तब होता है जब एक दिन अकस्मात उनकी बग्घी उलट जाती है और अपने घर लाकर विनय उनकी सेवा-सत्कार करता है। इसी के बाद उसका परेश बाबू का परिवार में आना-जाना आरंभ हो जाता है और विनय उस परिवार की लड़कियों से मिलकर अपने भीतर यौवन के पदार्पण का अनुभव करता है। उस साधारण परिवार के भीतर भी उसके लिए अचरज भरा जगत प्रकाशित हो उठता है। पर गोरा को लगता है कि विनय मार्ग भटक रहा है इसलिए वह विनय को ब्राह्म-समाज से जुड़े परेश बाबू के परिवार से अलग रहने की सलाहें देता रहता है। वह ब्राह्म समाज से इतना अधिक नाराज है कि कई बार स्वयं परेश बाबू के घर पहुंचकर ब्राह्म-समाज द्वारा देश के बहुसंख्यकों की अनुचित आलोचना किए जाने के खिलाफ बहस खड़ी कर देता है। उसके धारदार और अतिरिक्त आत्मविश्वास से भरे तर्कों को सुनकर आरंभिक विरक्ति के बाद सुचरिता धीरे-धीरे उसके प्रति आकर्षण का अनुभव करने लगती है।
गोरा को कट्टर हिंदू चरित्र के रूप में चित्रित किए जाने के बावजूद उसके करुणावान ह्रदय, देश के लोगों के प्रति सच्चे लगाव तथा अंग्रेजों से द्वेष के रूप में उसके व्यक्तित्व के सबल पक्षों को उपन्यास में बखूबी उभारा गया है। वह खोखली मर्दानगी का ही नहीं बल्कि आदर्शवादी मर्दानगी का वाहक किरदार है। उसके चरित्र के वर्णन से ही यह उपन्यास औपनिवेशिकता का खंडन करने वाली रचना का रूप ग्रहण करता है। स्टीमर के फर्स्ट क्लास में बैठकर बेबस और असहाय यात्रियों के दुःखों का मजाक उड़ाते अंग्रेज तथा बंगाली व्यक्ति को वह लताड़ता है। सिर पर बोझा ढोकर ले जा रहे मुसलमान को जब घड़ी-चेन पहने बाबू गाड़ी की टक्कर से गिरा देता है तो वह मुट्ठिया भींचकर उसकी गाड़ी के पीछे गुस्से से दौड़ता है। किसी मुसलमान को घर लाकर उसकी सेवा करता है और रुपये-पैसे देता है। निम्न जाति के लोगों से मिलता-जुलता है और गांव की यात्रा पर निकल जाता है ताकि वह किताबों से बाहर आकर देश की वास्तविकताओं को समझ सके। गरीब मुस्लिमों के एक गांव में उसे अंग्रेजों के अत्याचार का साक्षात्कार होता है जहां किसानों को नील की जगह धान उगाने की जुर्रत करने के कारण जबरन मारा-पीटा जा रहा है, हवालात में डाला जा रहा है। गोरा जब मजिस्ट्रेट से शिकायत करता है, तो उलटा उसे ही एक महीने के कारावास की सजा प्रदान कर दी जाती है। इस प्रकार आरंभ से ही लेखक गोरा के चरित्र में जबरन ओढ़ी हुई कट्टरता के भीतर गहराई तक पैठी सच्ची मनुष्यता का परिचय करा कर उसके दिलचस्प नायकत्व को चित्रित करता है। धर्म और जाति के सवालों को लेकर उसका प्रतिक्रियावाद बहुत रणनीतिक तथा नकली प्रतीत होता है और उसका सच्चा देशप्रेम हर जगह झलकता है।
पर गोरा की इस विराट मानवीय करुणा व उदात्त व्यक्तित्व के विपरीत ब्राह्म समाजी हारान बाबू जैसे लोग हैं जो स्वयं को आधुनिक, शिक्षित व समझदार विचारक की तरह प्रस्तुत करते हैं। पर भारतीय दासता के विषय में मौन हैं। अंग्रेजों के सामने उनके शासन की प्रशंसा करते हैं और देश की दुर्दशा के प्रति संवेदनहीन बने रहते हैं। उनमें भारतीयता के सच्चे बोध का विकास नहीं हुआ है और खोखली अंग्रेजियत से मौकापरस्त किस्म का जुड़ाव है। उपन्यास में ब्रह्म समाज की लिबरल परंपरा तथा रूढ़िवादी हिंदू समाज के टकराव को प्रस्तुत किया गया है तथा दोनों ही श्रेणियां समरूप-समांगी नहीं हैं बल्कि उनमें आंतरिक विविधता है। ब्राह्म समाज में परेश बाबू जैसे उदारचित्त लोग हैं तो हारान बाबू जैसे कट्टर लोग भी हैं। इसी प्रकार रूढ़िवादी हिंदू परंपरा के भीतर आनंदमयी जैसी उदार मूल्यों वाली स्त्री है, जो अपने ही पति कृष्णदयाल के कर्मकांडी-रूढ़िवादी जीवनशैली से अलग होकर जीवन जी रही है। इस प्रकार यह उपन्यास शिक्षितों तथा अशिक्षितों के बीच नकली विभाजन पर आधारित नहीं है। उपन्यास औपनिवेशिक कालखंड के अशिक्षितों-अनपढ़ों की मानसिक दरिद्रता का चित्रण करता है तो दूसरी ओर शिक्षितों की संवेदनहीनता पर करारे व्यंग्य करता है जो शेष जनता के दुःख-दर्द में उसके साथ खड़ा होना तो दूर, उसकी पीड़ा का उलटा उपहास उड़ाकर स्वयं को समाज का सच्चा प्रतिनिधि बताते हैं। उपन्यास में गोरा के जेल जाने का प्रसंग भी है और जेल जाने के पश्चात परेश बाबू के घर में कई घटनाएं तेजी से घटित होती हैं। उनकी मंझली लड़की ललिता धीरे-धीरे विनय से प्रेम करने लग जाती है और इसे लेकर ब्राह्म समाज व हिंदू समाज में खलबली मच जाती है। दोनों ही पक्ष के लोग इस संबंध के प्रति असहिष्णु दिखते हैं। उधर, सुचारिता परेश बाबू का घर छोड़कर अपनी हिंदू धर्माग्रही मौसी के पास के घर में रहने चली जाती है।
उपन्यास का कथानक कई जगह विचारों के क्रमिक विकास व कसावट के बावजूद ढीला है और अधिकांश प्रसंगों में वह विचारप्रधान गद्य है। बहस, वैचारिक विवाद तथा सामाजिक चर्चाएं ही इस उपन्यास की मुख्य विषयवस्तु की तरह सामने आती हैं। लोग एक-दूसरे के घर आते-जाते ही नजर आ रहे हैं। पड़ोसियों और परिचितों के घरों में लोगों का उन्मुक्त प्रवेश एक नवजाग्रत समाज में चलने वाली बौद्धिक चर्चाओं की झलक प्रस्तुत करता है। यानी पात्रों के एक-दूसरे के घरों में आवागमन से ही कथानक को गति मिलती है और ब्राह्म समाज व हिंदू धर्म, दोनों की ही कट्टरता व टकराव के दृश्य चित्रित होते हैं। अधिकांश स्थल हिंदुत्व, ब्राह्म समाज या रूढ़िवाद को परस्पर बहस को गति देते प्रतीत होते हैं। ललिता व विनय, दोनों पर हर तरफ से प्रहार होते हैं। यहां तक कि हारान बाबू भी अखबारों में ब्राह्म समाज की दुर्गति को लेकर अखबारों में लेख प्रकाशित करते हैं और परेश बाबू के परिवार की सार्वजनिक आलोचना करते हैं। ब्राह्म समाज भी दो हिस्सों में बंट गया है। एक कट्टर हिस्सा है, दूसरा उदार हिस्सा। कट्टर हिस्सा अपने ही संगठन के उदारतावादी हिस्से पर हमले करता है। ललिता और विनय परस्पर प्रेम कर हिंदू समाज और ब्राह्म समाजी मूल्यों के ध्रुवीकरण को तोड़ देते हैं। यही काम बाद में सुचरिता तथा गोरा भी करते हैं। सुचरिता पूरी तरह से गोरा के व्यक्तित्व व विचारों के प्रति आकृष्ट होती चली जाती है और घर में ब्राह्म समाज से जुड़े साहित्य के स्थान पर गोरा द्वारा लिखित पुस्तक पढ़ती है। जेल से निकलने के बाद जब गोरा उससे मिलने घर आता है तो वह यह सोचकर लज्जित हो जाती है कि मेज पर फैली गोरा की पुस्तकें देखकर स्वयं गोरा क्या सोचेगा!
उपन्यास के नाटकीय ‘क्लाईमेक्स’ का सर्वाधिक सघन बिंदु वह है जहां गोरा की मूल पारिवारिक पृष्ठभूमि का खुलासा होता है। जेल से आकर आत्मशुद्धि के लिए गोरा प्रायश्चित सभा का आयोजन करता है तो उसके पिता ही इसके विरुद्ध उसे चेतावनी देते हैं। गोरा नहीं मानता तो अत्यंत रुग्णावस्था में उसके आगे वे यह राज खोलते हैं कि गोरा किसी हिंदू ब्राह्मण की संतान नहीं बल्कि आयरिश दंपती की संतान है। इटावा में 1857 के विद्रोह के दौरान भागती उसकी मां गर्भावस्था में कृष्णदयाल के घर शरण लेने आई थी और गोरा को जन्म देने के पश्चात मर गई थी। यह सुनकर गोरा को पहले तो गहरा सदमा लगता है। उसका मन जिन सनातनी हिंदू संस्कारों पर गर्व करता था, उसे झटका लगता है। अब उसके लिए विधर्मी या निम्न जाति का होने के कारण हिंदुओं के समस्त मंदिरों के दरवाजे बंद हो गए हैं। पर सदमे से शीघ्र उबरकर स्वयं को मुक्त अनुभव करता है और कहता है- ‘आज मैं सारे भारतवर्ष का हूं। मेरे भीतर हिंदू, मुसलमान, ख्रिस्तान किसी समाज के प्रति विरोध नहीं है।’ वह यह भी महसूस करता है कि अब ऐसा पवित्र हो गया है कि चंडाल के घर भी अपवित्रता का डर नहीं रहा। बांग्ला लेखक-आलोचक शीर्षेंदु चक्रवर्ती ने माना है कि किसी अनजान तथा विजातीय वंश के लड़के को किसी स्त्री के द्वारा पालने-पोसने के प्रसंग का गहरा रूपकात्मक अर्थ है। यह केवल उपन्यास के कथानक का सामान्य हिस्सा नहीं बल्कि सबसे अर्थपूर्ण हिस्सा है। किसी स्त्री व उसके पुत्र के बीच गर्भ व वंश का संबंध न होना भारतवर्ष की अवधारणा को प्रकट करता है जिसमें भारत की असाधारण उदारता तथा सभी को अपना सकने की संस्कृति को अभिव्यक्ति प्राप्त होती है।
टैगोर ने अपने इस महान कालजयी उपन्यास में 19वीं सदी के अंतिम दशक में विकसित होती विविध आयामी राष्ट्रीय चेतना के कई पहलुओं पर प्रकाश डाला है। पर गोरा केवल राष्ट्रवाद के तनावों तथा उसके प्रसव-काल को व्यंजित करने वाली रचना नहीं है। यह ऐसा ‘थीसिस नावेल’ नहीं है जो पहले तो समस्याओं को गिनाए और फिर उपदेशात्मक ढंग से उनका समाधान प्रस्तुत करे। यह एक खास किस्म की कलात्मक कृति भी है जो अपने युग का इतिहास प्रकट करने के साथ-साथ उस इतिहास को कला में भी ढाल देती है। इसमें गोरा के चरित्र में भी कलात्मक तनाव हैं जो संकीर्ण विचारों की तरफ झुकता है पर उसकी संवेदनाएं उसके मूल विचारों के विपरीत उदात्त तथा मानवोचित हैं। गोरा जब भारत को समझने के लिए गांवों की यात्रा करता है तो वहाँ का जनजीवन उसके विचार-तंत्र को झकझोरकर रख देते हैं। जो गोरा आचार-विचार के स्तर पर रूढ़िवाद के पालन को हिंदू धर्म-रक्षा के लिए अनिवार्य मानता है, वहीं गांवों में आचार-विचार की कट्टरता तथा दकियानूसपन को देख कांप जाता है। वहां उसे लगता है कि कलकत्ता शहर में अपनी बातों को वह कल्पनाओं के जिन मनोहर रंगों में सजाकर प्रस्तुत करता था, वही बात गांवों में पूरी तरह से हानिकारक है। गांवों में देश का नितांत दुर्बल व दयनीय रूप उसे अपने ही विचारों के प्रति अविश्वास की ओर खींच ले जाता है। टैगोर के शब्दों में- ‘मूर्खता भरी रूढ़िवादिता के भयानक दुष्परिणाम गोरा को इन देहातों में इतने स्पष्ट व इतने रूपों में दिखने लगे।’ सामने कोई विरोधी या शत्रु न होने पर गोरा ज्यादा वस्तुगत नजरिए से सच्चाई को पहचानने लगा क्योंकि अब उस पर किसी वकील की तरह कैसे भी अपनी बात सिद्ध करने का दबाव नहीं है। सत्य को किसी तरह के आवरण के भीतर से देखने की जरूरत नहीं रह गई है। इस प्रकार गोरा की कट्टर हिंदू सांप्रदायिकता उसकी अपनी मानवतावादी संवदेनशील चेतना के आगे बार-बार बौनी तथा नकली प्रतीत होती है। उपन्यास में परेश बाबू का परिवार बौद्धिक ताप में पिघलता हुआ प्रतीत होता है। परेश बाबू के परिवार का विखंडन, उसकी भिन्न दिशाओं में गति व भीतरी आलोड़न पूरे राष्ट्र का दर्पण प्रस्तुत करता है। भारतीय राष्ट्र भी इसी प्रकार नई वैचारिक ऊर्जा के कारण अपनी बाहरी संरचना और आंतरिक मूल्यों की जड़ता को भंग होते देख रहा है। राष्ट्रवाद की जटिल वैचारिकी ने परिवार में बदलाव लाने के साथ-साथ स्त्री-पुरुष को भी समान धरातल पर लाकर खड़ा कर दिया है और जेंडर रिलेशन्स में परिवर्तन आने लगे हैं। सुचरिता व ललिता क्रमशः गोरा व विनय की जीवनसंगिनी बनकर जैसे यह सिद्ध करती हैं कि स्त्रियां अब पूर्वनिर्धारित रास्ते पर चलकर और मूर्ख पुरुषों के चक्कर में पड़कर जीवन का बेड़ा गर्क नहीं करेंगी। वे अब देश से सच्चा प्रेम करने वाले पुरुषों के साथ मिलकर किसी बड़ी राष्ट्रीय भूमिका की दिशा में जीवनयात्रा करेंगी।
उपन्यास में उनके अधिकांश पात्रों की एक ‘मेटाफारिकल’ उपस्थिति है। गोरा की अपनी मां आनंदमयी व उसके पिता कृष्णदयाल जैसे एक ही राष्ट्र के भीतर विपरीत दिशाओं में जाते समाज को व्यंजित करते हैं। आनंदमयी उदार, सहिष्णु बनती चली जाती है और कृष्णदयाल कर्मकांडी धर्मनिष्ठ हिंदू। एक अपनी दयालुता व उन्मुक्तता में सभी को अपनाकर समावेशी संस्कृति का रूपक प्रस्तुत करता है तो दूसरा स्वेच्छा से बहिष्कार पर आधारित धार्मिक संरचना की कैद में धंसता चला जाता है। परेश बाबू के परिवार के दो सदस्य ललिता व सुचरिता जब आनंदमयी के परिवार के अंग बनते हैं तो जैसे उसका अघोषित निहितार्थ यही हो जाता है कि विवेकसंपन्न नागरिक चेतना अब उदारतावादी भावनाओं की भूमि पर स्वयं को एकजुट करने के लिए तैयार है।
माना जाता है कि टैगोर अपनी रचनाओं में सुखांत को बहुत महत्व नहीं देते थे। पीड़ा से भरी मनोदशा तथा ह्रदयविदारक अनुभवों के बीच ही उनकी रचनाएं समाप्त होती हैं। पर ‘गोरा’ में सुखांत है और श्रेष्ठ विचार वाले भटके हुए नायक को सही मार्ग पर लौटते दिखाया गया है। गोरा की विजातीयता का उद्घाटन दरअसल उसकी निजी त्रासदी से कहीं अधिक भारत के सांस्कृतिक वास्तविकता की परिचायक है जिसमें विभिन्न धर्म-संप्रदाय, मत, समूह, संस्कृतियां उसके साथ जुड़ती चली गई हैं। भारत को ईसाईयत, इस्लाम या यहूदी धर्मों वाले देशों की तरह ‘मोनोलिथिक’ बना देने के प्रयासों के मूल पर आघात होता है। उस हिंदू धर्म की परोक्ष आलोचना भी होती है जो कर्मकांडों का विशाल जखीरा खड़ा कर बहिष्कारवादी हो चुका है और जिसमें जन्मतः ही कोई हिंदू का दर्जा प्राप्त कर सकता है। नीरद सी. चौधरी के अनुसार- ‘टैगोर ने अपने उपन्यास में नवहिंदुत्ववाद के बारे में विस्तार से वर्णन किया है हालांकि उन्होंने अंत में उदारवादी चिंतन को ही विजय प्रदान की है। लेकिन इसके बावजूद उन्होंने बहुत प्रभावशाली ढंग से यह दिखा दिया है कि राष्ट्रवाद को हड़पने की हिंदुत्ववादी धारा कितनी सशक्त है।’ उपन्यास में महाकाव्यात्मकता के दर्शन बांग्ला साहित्य में सही मायने में टैगोर के आगमन के बाद ही हुए थे। अपनी निष्पत्तियों में यह उपन्यास देशप्रेम को खारिज नहीं करता बल्कि उसका नया मानवतावादी वैचारिक आधार उपलब्ध कराता है। देश और उसमें बसे करोड़ों लोगों को संकीर्ण धार्मिक आस्थाओं की कैद से मुक्ति का आह्वान करने के साथ-साथ हिंसक व धार्मिक भेदभाव पर आधारित राष्ट्रवाद की कैद से मुक्त करने का संदेश भी देता है