अपने समय में रहते हुए समय नहीं दिखता। अपने घर में रहते हुए घर नहीं दिखता। अपने गोल में रहते हुए गोल नहीं दिखता। कभी-कभार कुछ ऐसे हादसे होते हैं जो वक्त के गुब्बारे में कील चुभो जाते हैं। हम अपने समय, अपने घर, अपनी बिरादरियों में इतने मसरूफ़ होते हैं कि हादसे को एक विचलन मानकर फूल चढ़ाते हुए आगे बढ़ जाते हैं। फिर हादसे होते जाते हैं और हर नए हादसे के साथ पुराना वाला विस्मरण की कोठरी में कैद हो जाता है। अपनी दुनिया इस तरह किसी केंचुए-सी आगे सरकती चली जाती है, खुद को पीछे से सिकोड़ने की बाध्यता में दाएं-बाएं से बेखबर।
तब राजेंद्र यादव जिंदा थे। अभी तो उनका नाम लेते हुए भी सोचना पड़ता है कि पिछले दसेक साल में बने हिंदी के नए पाठकों को पहले उनका परिचय दिया जाए, फिर लिखा जाए क्या! बहरहाल, हंस की सालाना गोष्ठी थी प्रेमचंद जयन्ती वाली, और शायद राजेंद्रजी का वह अंतिम वर्ष ही था क्योंकि उसके बाद मुझे याद नहीं कि मैं कभी ऐवान-ए-गालिब गया। राजेंद्रजी वहीं सभागार के बाहर जहां नाश्ता-पानी चलता है, एक कुर्सी पर विराजे थे। हम लोग, मने चार-पांच शाश्वत अनामंत्रित किस्म के पुरबिया पत्रकार बाहर खड़े होकर गप कर रहे थे कि अचानक एक अलग से चमकते हुए व्यक्ति पर निगाह पड़ी। इकत्तीस जुलाई की उमस और पसीने में वह चुस्त लाल कोट, उसके भीतर कोटी, ऊपर छोटी नेकटाई, नीचे चुस्त पैंट और सबसे नीचे चमकते हुए जूते पहने अकेला खड़ा आकाश में ताक रहा था। हर कोई दो या दो से ज्यादा के समूह में था वहां, केवल फ्रैंक हुजूर अकेला था।
फ्रैंक हुजूर, जो दस दिन पहले वाया दिल्ली ही दुनिया से चला गया, उसे मैंने आवाज लगाई थी- अरे, मनोज भाई! हम में से दो और साथियों का उससे मनोज यादव के रूप में संक्षिप्त परिचय पहले से था, तो नमस्तेबंदगी हुई पहले, फिर लखनऊ का हालचाल भी हुआ। हमने चाहा कि साथ ही वे गोल में खड़े रह जाएं, हो सकता है अकेला महसूस कर रहे हों, लेकिन उनकी अरुचि दिखी। वे फिर से कोने में हो लिए। अवमानना के शाश्वत भाव से ग्रस्त हम लोग भी एक तरफ हो लिए और हंसी-ठिठोली में लग गए। गाजीपुर, गोरखपुर, देवरिया के पत्रकारों से बक्सर का एक पत्रकार सांस्कृतिक रूप से इतना भिन्न कैसे हो सकता है, जबकि उम्र में महज दो-ढाई बरस का अंतर है? अपनी कोना-गोष्ठी का उस दिन यही विषय रहा।
दरअसल, वह फ्रैंक हुजूर के उत्कर्ष का समय था। अवध के आकाश पर उनका सितारा बुलंद था। ‘सोशलिस्ट फैक्टर’ की कवरस्टोरी में अखिलेश यादव को भारत का चे ग्वारा और उनके पिता नेताजी मुलायम सिंह यादव को फिदेल कास्त्रो लिखकर फ्रैंक ने अतिरंजना को शर्मिंदा कर डाला था। लखनऊ के विशाल सरकारी बंगले में पलने वाली उनकी बहुप्रचारित बिल्लियां दक्षिणी दिल्ली के बिल्लीपालक नव-कुलीनों की आंख का कांटा बन चुकी थीं। यह 2013 की बात है, जब अखिलेश को उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बने साल भर ही हुआ था। अखिलेश जैसे युवा चेहरे के सत्ता में आने के बाद सूबे के सहजात युवाओं में बहुत उत्साह था। गाजीपुर और बनारस के मेरे वे तमाम दोस्त जो हमेशा से अराजनीतिक और करियरवादी रहे थे, अचानक समाजवादी हो गए। याद करें, 2013 में ही भूमि अधिग्रहण पर संशोधित कानून आया था और देश भर में सड़क परियोजनाओं के लिए नए सिरे से जमीनें कब्जायी जा रही थीं। पूर्वांचल में इसका एक खास पैटर्न उभर रहा था। ठीकठाक किसान परिवार जमीनें बेचकर मुआवजे के पैसे से पहले बोलेरो या फॉर्च्यूनर खरीदते, गले में सोने की सिकड़ी डालते, कड़क सूती में सफेद कपड़ा बनवाते, नाइकी के सफेद जूते पहनते, फिर गाड़ी पर समाजवादी पार्टी का झंडा लगाकर यहां-वहां हवा नापते फिरते थे।
यूपी की इस नई फसल में समाजवादी पार्टी का सांस्कृतिक प्रकोष्ठ थामने को कई युवा चेहरे उभरे। एकाध दिल्ली रिटर्न भी थे, जैसे मणींद्र मिश्र, लेकिन कोई दूसरा फ्रैंक पैदा नहीं हो सका क्योंकि उनके पास लंदन का एक्सपोजर नहीं था, अंग्रेजी नहीं थी, अंग्रेजी वाला स्वैग नहीं था। उधर दिल्ली में 2014 में सत्ता बदल चुकी थी, उसकी हवाएं लखनऊ तक पहुंच चुकी थीं, पर यूपी का समाजवादी निजाम शुतुरमुर्ग-सी अवस्था में स्वयंभू बना हुआ था। फ्रैंक भी अपनी जगह इकलौते कायम थे। अगर फ्रैंक हुजूर को हम एक सामाजिक परिघटना का आदिम प्रारंभ मानें (जिस पर आगे आएंगे), तो थोकभाव में फ्रैंकों को इस समाज में पैदा करने वाली घटना 2016 में घटी- जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय का नारेबाजी कांड।
जेएनयू औसतन पढ़े-लिखों का गढ़ रहा है। दिल्ली की सांस्कृतिक हवा यहां भी चलती है, जिसमें यूरोप की नमी होती है। जब नारेबाजी कांड हुआ, तो थोकभाव में कुछ सुसंस्कृत छात्रों का मुख्यधारा की राजनीति की ओर पलायन हुआ। संदीप सिंह, मोहित पांडे, प्रदीप नरवाल, कन्हैया कुमार, शहला राशिद, उमर खालिद, जैसे नाम शैक्षणिक परिसर से निकलकर मुख्यधारा की राजनीति में जा मिले। इसका और शैक्षणिक परिसरों पर प्रपाती प्रभाव हुआ। अलीगढ़, बनारस, इलाहाबाद, जामिया, हर जगह से नए चेहरे निकलने लगे। 2017 में जब अखिलेश यादव की सरकार यूपी से चली गई, तब खलबली मची। अगले एकाध साल के भीतर हम पाते हैं कि अपेक्षाकृत स्वतंत्र सामाजिक संगठनों, राजनीतिक समूहों, एजीओ और सांस्कृतिक प्रतिष्ठानों से ‘सेकुलरिज्म’ की रक्षा या ‘फासिज्म’ से लड़ाई के नाम पर भारी संख्या में पलायन हुआ। उत्तर प्रदेश में सपा, भाजपा, कांग्रेस से बराबर नीतिगत मसलों पर लड़ने वाले चेहरों ने 2020 के अंत तक (सीएए-एनआरसी विरोधी आंदोलन के आलोक में) धीरे-धीरे राजनीतिक दलों का दामन थाम लिया। शाहनवाज आलम, अनिल यादव, दिनेश सिंह, सदफ़ जफ़र, ऐसे बहुत से नाम हैं। यूपी से बाहर जिग्नेश मेवानी, हार्दिक पटेल जैसे चेहरे उभरे।
बीते पांचेक साल के राजनीतिक घटनाक्रम के साथ गैर-भाजपा राजनीतिक दलों के बीच का फर्क सामान्यत: मिटता चला गया और मोटा ध्रुवीकरण भाजपा बनाम गैर-भाजपा का हो गया। इस ध्रुवीकरण में किसी एक खूंटे को थामना लगभग ऐसी मजबूरी-सी बना दी गई, कि बिलकुल नए-नए पढ़-लिखकर बाजार में आए पत्रकार, शोधकर्ता और शिक्षक भी किसी न किसी राजनीतिक दल के परिचारक या सलाहकार या प्रवक्ता बन गए। ध्यान देने वाली बात है कि इस प्रक्रिया की शुरुआत तो 2011 में अन्ना आंदोलन से ही हो चुकी थी जब आशुतोष जैसे बड़े पत्रकार आम आदमी पार्टी में चले गए थे और पुण्य प्रसून जैसे कई पत्रकार पार्टी के साथ परोक्ष रूप में जुड़े हुए थे। यही हाल 2016 के बाद बड़े स्तर पर देखने को कांग्रेस-सपा में मिला। अशोक कुमार पांडे, पीयूष बबेले, पंकज श्रीवास्तव, आलोक पाठक, अजय शुक्ला, राकेश पाठक, अभय कुमार दुबे, परिचित नाम हैं। नए लोगों में प्रशांत कनौजिया जैसे कई नाम हैं। जो लोग आधिकारिक रूप से दलों से नहीं जुड़े, वे उनकी मदद से उनकी प्रायोजित बातें करने लगे- ये पांचेक साल में पैदा हुए बड़े-छोटे यूट्यूबर हैं जो तकरीबन पूरी तरह या आंशिक रूप से राजनीतिक दलों के पैसों पर आश्रित हैं और पर्याप्त लोकप्रिय भी हैं। इन्हें छांट पाना मुश्किल है, लेकिन इनकी कवरेज को देखकर अंदाजा लगाया जा सकता है। बिलकुल दूसरी तरफ यानी भाजपा की समर्थक मीडिया-सांस्कृतिक फौज भी ठीकठाक ही खड़ी हुई है।
राजनीतिक दलों को थोड़े बहुत लाभ-लोभ के बदले में ये जो प्रत्यक्ष या प्रच्छन्न सांस्कृतिक सेवाएं देने वालों की भीड़ बीते वर्षों में बढ़ी है, यही वह परिघटना है जिसके आदिम प्रतिनिधि फ्रैंक हुजूर थे। फर्क यह है कि जब फ्रैंक हुजूर ने समाजवादी पार्टी का दामन थामा था, तो उनकी ऐसी कोई मजबूरी नहीं थी। इमरान खान पर उनकी किताब आ चुकी थी और वे चाहते तो स्वतंत्र रूप से अपना करियर लंदन में बना सकते थे, लेकिन सपा से जुड़ना उनका अपना चुनाव था। आज राजनीतिक ध्रुवीकरण के सघन माहौल में कोई एक खूंटा पकड़कर अपना वजूद बचाने के लिए सियारों की तरह अलग-अलग मंचों पर सरोकार के नाम पर चिल्ला रहे पत्रकारों की स्थिति इस मायने में बहुत नाजुक है। हमने दयाशंकर मिश्र का हाल देखा है, उनके सार्वजनक वीडियो देखे हैं, जो राहुल गांधी पर महत्वाकांक्षी किताब लिखकर भी आज कहीं नहीं हैं।
फ्रैंक तो फिर भी कई बरस टिक गए, तब जाकर उनका मोहभंग हुआ और वे 4 मार्च को राहुल गांधी से मिलने पहुंचे। फ्रैंक से पहले और बाद में बहुत से जहीन लोगों के राहुल गांधी से मिलने की तस्वीरें आती रही हैं। सब के सब या तो कांग्रेस को ज्ञान देने के बहाने या उससे अनुदान लेने की मंशा से उनसे मिलने जाते हैं। कुछ लहा लेते हैं, तो कुछ भटकते रह जाते हैं और क्षेत्रीय पार्टियों, विधायकों, सांसदों के ट्विटर हैंडलर बन के घर का राशन-पानी चलाते हैं। राहुल गांधी से मिलने के बाद जाने किस बोझ को दिल में लिए फ्रैंक हुजूर दुनिया से निकल लिए, पर अब भी बहुत बड़ी संख्या ऐसे लोगों की है जो अपने मूल पेशे में श्रम किए बगैर फ्रैंक हुजूर बनना चाहते हैं। बहुत से लोग ऐसे हैं जो फ्रैंक हुजूर की नियति को देखकर भी उसके जैसा भव्य जीवन देने वाले किसी चमत्कार का इंतजार कर रहे हैं। पॉलिटिकल कंसल्टेंसी और चुनावी एजेंसियों का बाजार जितना इधर बीच बढ़ा है, कभी नहीं बढ़ा था। बड़े पैमाने पर इसमें हो रही शिक्षित नवयुवकों की भर्ती उन्हें गुनाहे बेलज्जत की ओर ले जा रही है।
फ्रैंक हुजूर की असामयिक मौत हमें हमारे समय में थोड़ा-बहुत भी पढ़े-लिखे और जहीन आदमी की नियति से साक्षात्कार करवा सकती है- बशर्ते एक समाज के बतौर हम उसके परंपरागत विवेक को न बिसरा दें, जहां लक्ष्मी हमेशा उल्लू की सवारी कर के आती है।
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