मनोज कुमार ने एक अभिनेता, निर्देशक और पटकथा लेखक के रूप में फिल्म इंडस्ट्री मेँ दशकों तक काम किया। बल्कि यह भी कहें तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि आधी सदी से भी कुछ अधिक समय का एक बड़ा कालखंड मनोज कुमार के नाम और काम से जाना जाता है। अपने दर्शकों में राजनीतिक चेतना बढ़ाने के उद्देश्य से फ़िल्म लिखने, बनाने और अभिनय करने वाले मनोज कुमार उन फ़िल्म निर्माताओं में आते हैं, जिन्होंने हिन्दुस्तानी सिनेमा को एक नई ऊर्जा दी।  

उनकी फिल्में समाज और देश के तत्कालीन भ्रष्टाचार को उजागर करती रहीं। उस जमाने मेँ ‘इकतारे’ की धुन (’इकतारा बोले तुन-तुन, क्या कहे वो हमसे सुन-सुन...’) पर अव्यवस्था और राजनीति के ढोल की पोल खोलने वाला और देश-हित में दुनिया को जगानेवाला (फिल्म: यादगार) ऐसा कोई दूसरा नायक नहीं था, जिसका तमाम अभिनय-जीवन हर गलत के खिलाफ और हर सही के साथ खड़ा हो। जो उसके लिए लड़ा हो। जिसने उसके लिए आवाज उठाई हो। आजादी के बाद के स्वप्नभंग और आदर्शों की मिट्टी से गढ़ी उस युवा पीढ़ी ने इसीलिए उन्हें अपना नायक कबूला और पूरे दिल से कबूला। सिनेमा को जमीन से जोड़ने और उसे लोकप्रिय बनाने में उनकी भूमिका बेहद सचेत नागरिक की रही। 

मनोज कुमार की फिल्मों की देशभक्ति ने एक ऐसा मानदंड हमारे सामने रखा जहां ‘देशप्रेम’ और ‘देशप्रेमी होने के लिए अमीर-गरीब, दलित-सवर्ण, हिन्दू-मुस्लिम-सिक्ख-ईसाई जैसा कोई भी विभाजन मायने नहीं रखता था। बल्कि वो इन सारे विभाजनों और दूरियों के परे पूर्ण भारतवासी की ऐसी सिनेमाई छवि गढ़ते हैं, जहां इस तरह के खांचे नहीं थे। बल्कि इसके खिलाफ देशप्रेमी की एक मुकम्मल छवि थी। इस देशप्रेम का फ्रेम आज के तथाकथित पोले और खोखले देशप्रेम से कहीं बहुत बड़ा था और वर्तमान के धर्म-निरपेक्ष भारत के स्वरूप के स्वप्न के बेहद करीब। वह मानवता के प्रति हमारे प्रेम की पहली सीढ़ी जैसा था, जहां देश का मतलब मानवता को कमतर करके आंकना कभी नहीं रहा। उनके जीवन का वह एक ऐसा दौर था जब उन्होंने राज कपूर के लिए 'मेरा नाम जोकर' लिखी तो अपने लिए ‘रोटी, कपड़ा और मकान।‘

अभिनय, निर्देशन, कथा-पटकथा लेखन में सिवाय राज कपूर के उनका कोई साथी और प्रतिस्पर्धी नहीं रहा। वे राज कपूर की तरह स्वयं ही फिल्म निर्माण का जीवित-जागृत संस्थान थे। लेकिन कई मायने में वे राज़ कपूर से अभिन्न रहकर भी बेहद भिन्न थे। राज कपूर ने ‘मेरा नाम जोकर’ के बाद लोकप्रियता और कामयाबी के नाम पर हल्के फुल्के रोमांस और नग्नता की जो उथली राह चुनी, मनोज कुमार ने कभी उसे नहीं अपनाया। चाहे फिल्म बने याकि बंद हो। बिके या फिर न बिके। अपने सिद्धांतों से एक स्तर के बाद उन्हें समझौता करना मंजूर नहीं था। 

जब भी देशप्रेम और देश-भक्ति की बात चलेगी तो ‘शहीद’ फिल्म के जिक्र के बिना वह बात हमेशा अधूरी रहेगी। उनकी बेहतरीन फिल्मों में रही है ये फिल्म, जिसे हमलोगों के बचपन में स्कूलों में प्रोजेक्टर के द्वारा दिखाया जाता था और बार-बार दिखाया जाता था। भगत सिंह की पहली सिनेमाई छवि उन्होंने ही गढ़ी थी। ‘शहीद’ फिल्म के ‘सरफ़रोशी की तमन्ना’, ‘पगड़ी संभाल’ और ‘ऐ वतन’ तो भगत सिंह की पहचान से इस कदर जुड़ चुके हैं कि इन दोनों को अलग किया ही नहीं जा सकता। भगत सिंह के जीवन पर आधारित बाद की फिल्मों में भी उनका वह स्वरूप बार-बार दिखाई देता है। इस फ़िल्म ने 13वें राष्ट्रीय फ़िल्म अवार्ड की सूची में सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म के पुरस्कार के साथ-साथ राष्ट्रीय एकता पर बनी सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म के लिये ‘नर्गिस दत्त पुरस्कार’ को भी तब अपने नाम किया था।

बटुकेश्वर दत्त की कहानी पर आधारित इस फिल्म के पटकथा लेखन के लिये तब ‘दीनदयाल शर्मा’ को भी पुरस्कृत किया गया था। यही नहीं उन्होंने ‘ लाल बहादुर शास्त्री के’ जय-जवान, जय किसान’ जो उस वक्त हमारे स्वतत्र भारत के विकास का पहला नारा था, को केंद्र में रखकर ‘उपकार’ जैसी कल्ट फिल्म बनाई। इसके पूर्वार्द्ध में नायक किसान होता है और उत्तरार्ध में फौजी। 

मनोज कुमार की फ़िल्मों पर कुछ लोग देशभक्ति को ‘भुनाने’ का आरोप लगाते हैं। इस ‘भुनाना’ शब्द में एक तरह का व्यंग्य और तंज़ निहित होता है- ‘बिकाऊ या फिर बाजारू’ होने जैसा कुछ। अगर कोई चीज बिक रही या चल रही तो फिर यह तो अवश्य है कि उसमें ऐसा कुछ खास है जो जन साधारण को अपील कर रहा। उन्हें कहीं गहरे छू रहा…और तमाम सफल कलाकृति वह चाहे फिल्म हो, कहानी हो या फिर कला का कोई अन्य स्वरूप, वो कहीं-न कहीं हमारी भावनाओं का दोहन ही कर रही होती हैं। उन्हें भुना ही रही होती है। अगर मनोज कुमार ने ऐसा किया तो फिर क्या गलत किया? अपने देश या समाज से प्रेम करना न तो कोई गुनाह है और न कोई जुर्म। 

फिल्म क्रिटिक भले ही कहते रहें कि उनके अभिनय पर दिलीप कुमार की छाया दिखती थी याकि उनके अभिनय का बहुत सीमित रेंज था और वे अपने मैनरिज़्म के दायरों मेँ ही हमेशा गोल-गोल घूमते रहनेवाले कोल्हू के बैल जैसे थे। आधे चेहरे पर हाथ रखकर अभिनय करने की अदा को अगर उनकी अभिनय-शून्यता को छुपाने की तरह क्रिटिक देखते रहें तो युवा वर्ग में उस स्टाइल में तस्वीरें खिंचाने और नकल करने का एक अलग तरह का क्रेज और होड़ भी उसके साथ ही चलता रहा। पीढियां उनकी दीवानी थीं, हैं और रहेंगी- खासकर स्त्रियाँ और युवा वर्ग... 

स्त्रियाँ उनमें गर अपने प्रिय पुरूष या स्वप्न-पुरुष का चेहरा तलाशती रहीं, तो वह यूं ही नहीं था। ये यूं ही नहीं हुआ था कि स्त्रियाँ ‘जिस पथ पे चला उस पथ मेँ मुझे’ गीत की तरह उनकी राहों में आंचल बिछाने को तैयार बैठी थीं। और साथी न माने जाने की हर संभव गुंजाइश के बावजूद, साथ चलने की इच्छा से जां-व-लब भरी हुयी भी। यह  इसलिए भी हुआ कि स्त्रियों के मनोभाव को वे अपनी फिल्मों मेँ भरपूर अभिव्यक्ति देते रहे। वो चाहे ‘साजन’ हो, ‘हिमालय कि गोद में’ हो, ‘नील कमल’ हो या ऐसी अन्यान्य फिल्में, जिनमें उनकी भूमिका महज एक नायक की थी, वहाँ भी वो स्त्री को अपने बराबरी का हक और सम्मान देते हुये दिखते हैं। उन्हें सजावटी गुड़िया की तरह नहीं सोचते।

स्त्रियों की संवेदना के तार को छू लेना और झकझोर देना उनकी लोकप्रियता का एक प्रमुख वजह रहा। उनका मासूम सा चेहरा, कुछ भोली अदाएं और मानवीय भावुकता से भरी बातें…किसी स्त्री मन को छू लेने के लिए कम नहीं थे। लेकिन वे ‘बस यही अपराध मैं हर बार करता हूँ’ की तरल उद्घोषणा के साथ-साथ यह भी कहते रहें कि ’ज़िंदगी और कुछ भी नहीं तेरी-मेरी कहानी है’, ‘हाँ तुम बिल्कुल वैसी हो, जैसा मैंने सोचा था’  और ‘लग जा गले कि फिर ये हँसी रात हो न हो।‘ जिसके प्रत्युत्तर में स्त्रियां अपनी दबी ढँकी मनो-भावनाओं और प्रेमाकांक्षा को भी मुखर होकर कह सकीं - ‘कितने सावन बीत गए बैठी हूँ आस लगाए, जिस सावन में मिले सजनवा, वो सावन कब आए..(.तेरी दो टकिया की नौकरी में मेरा लाखों का सावन जाए!) अगर इस अनुरक्ति का आधा वजह उनका सुंदर, भोला और काम्य चेहरा था तो आधे से कहीं अधिक भूमिका उनके मानवोचित पुरुष रूप की भी थी और यकीनन थी।  

एक कारण यह भी रहा कि मनोज कुमार की फ़िल्मों के गीत भारतीय जनमानस में लोकोक्तियों और कहावतों की तरह लोकप्रिय हुये- ‘ कसमें वादे, प्यार, वफा सब बातें हैं, बातों का क्या?,’ ‘है प्रीत सदा की रीत जहां, मैं गीत वहाँ के गाता हूँ’ , जैसे अनेक गीत इस बात का जीवंत उदाहरण हैं। 

हिंदी सिनेमा के दिग्गज फिल्मकार मनोज कुमार न केवल शानदार अभिनेता रहे, बल्कि उन्होंने एक उतने ही सफल निर्माता-निर्देशक के तौर पर भी अपनी पहचान बनाई। उनके द्वारा अभिनीत फिल्मों ने ही नहीं उनकी बनाई फिल्मों ने भी गोल्डन जुबली और डायमंड जुबली का जश्न देखा और खूब देखा। यह उनके कामयाबी की अभूतपूर्व उड़ान थी।  

मनोज कुमार की सबसे दिलचस्प बात ये है कि जब राजेश खन्ना ‘आराधना’ जैसी फ़िल्मों के साथ अपने शबाब पर थे, वे तब भी ‘नीलकमल’, ‘साजन’, ‘पूरब और पश्चिम’ के साथ इंडस्ट्री में  सबसे ज़्यादा कमाई करने वाले सुपरस्टार थे। ‘पूरब और पश्चिम’ ने तो लंदन तक में गोल्डन जुबली मनाई थी। 70 के दशक के मध्य में जब राजेश खन्ना के सितारे ढलने लगे गए और अमिताभ बच्चन का प्रादुर्भाव हुआ तब भी 1974 की सबसे बड़ी हिट फिल्म उनका ‘रोटी कपड़ा और मकान’ थी। 1975 में ‘दीवार’, ‘शोले’ और ‘जय संतोषी माँ’ जैसी तूफानी हिट फिल्मों से लड़-भिड़कर भी ‘सन्यासी’ ब्लॉकबस्टर रही। यही नहीं इसके अगले साल आई ‘दस नंबरी’ भी इसी राह पर चलती नजर आई।

अस्सी का वह दशक जब अमिताभ बच्चन बतौर हीरो अपने करियर की नैया डांवाडोल पा रहे थे,  तब भी इस समय की सबसे ज़्यादा कमाई करने वाली फ़िल्म ‘क्रांति’ थी।  इस फिल्म ने  तबके नवोदित सलमान खान की ‘मैंने प्यार किया’ को भी कड़ी चुनौती दी थी। यह कोई जादूगरी नहीं थी। मनोज कुमार कोई तिलस्मी हीरो बिलकुल नहीं थे पर वक्त कि नब्ज पर उनकी सही और गहरी पकड़ उन्हें इस खेल में हमेशा जिताती रही। उनका अभिनय कई मायने में बेहतरीन अभिनय का उदाहरण हो कि न हो, पर उन्होंने वैसे किरदार जरूर गढ़े और निभाए, जो सामाजिक परिस्थितियों के कारण जीवन में कई कष्ट उठाते हैं और फिर आगे बढ़ते हैं। यही उनके फिल्मों के हिट होने की महत्वपूर्ण कुंजी भी थी। 

सत्ता के सार्थक संदेश पर ‘उपका’र के रूप में बेहतरीन फिल्म बनानेवाले मनोज कुमार जरूरत पड़ने पर सबसे पहले उनके विपक्ष में आ खड़े होते थे। इमरजेंसी लागू होने के कुछ ही दिनों बाद जब सूचना और प्रसारण मंत्रालय के एक अधिकारी ने उन्हें इमरजेंसी के समर्थन में एक डॉक्यूमेंट्री बनाने का अनुरोध करते हुये फोन किया  तो उन्होंने तुरंत इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया। चूंकि इस फिल्म की पटकथा प्रसिद्ध लेखिका अमृता प्रीतम ने लिखी  थी मनोज कुमार ने उनसे उनके लेखक होने के अर्थ और उसकी भूमिका की बात की। अमृता प्रीतम जिसे सुनकर शर्मिंदा हो गयीं थी। सरकार ने जब उनकी फिल्म ‘दस नंबरी’ पर रोक लगा दी थी तब मनोज कुमार ने हार मानने की बजाय सरकार के खिलाफ कानूनी लड़ाई लड़ने का फैसला किया। वे एक अकेले ऐसे अभिनेता और निर्माता थे, जिन्होंने सरकार के खिलाफ केस लड़ा और उसे जीता भी।

अवार्डों का ऐसे व्यक्तित्व के जीवन में कुछ खास मानी नहीं होता। उनका कद इन पुरस्कारों से कहीं बहुत ऊपर होता है। लेकिन मनोज कुमार को भारतीय सिनेमा और कला में उनके योगदान के लिए भारत सरकार द्वारा 1992 में ‘पद्म श्री’ से सम्मानित किया गया। 2015 में फिल्म जगत का सर्वोच्च पुरस्कार ‘दादा साहब फाल्के पुरस्कार’ भी उन्हें मिला था। लेकिन उनके जीवन और अभिनय-यात्रा के सामने ये कम ही दिखते हैं। 

ठीक अपने गढ़े और अभिनीत नायकों की ही तरह था मनोज कुमार का पूरा व्यक्तित्व।  उनके जीवन के राजनीतिक निर्णयों और पड़ावों की बाबत सोचते हुए उनके समकालीन शायर दुष्यंत कुमार की ये पंक्तियाँ याद आती हैं और खूब याद आती हैं- ‘वो आदमी नहीं है, मुकम्मल बयान है...’