लेखक ऐसे होते हैं जिनकी कहानियां हमें अपनी-सी लगती हैं। उनकी कहानियों के पात्रों को हम अपने आसपास देख सकते हैं। अपने प्रभावशाली किरदारों को दुनिया के सामने एक अलग अंदाज में पेश करने वाले ऐसे ही लेखक थे शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय। सोचिए तो यह अचंभे जैसा ही है कुछ। देवदास, परिणीता, श्रीकांत उनके ठेठ बांग्‍ला में लिखे गए उपन्यास थे। लेकिन उनके अलग-अलग भाषा में हुये अनुवादों ने उनको देश-विदेश में मशहूर कर दिया। 

शरतचंद्र को यह गौरव हासिल है कि उनकी रचनाएँ हिन्दी सहित सभी भारतीय भाषाओं में आज भी चाव से पढ़ी जाती हैं। बल्कि यह कहना भी गलत न होगा कि शरतचंद्र भारत के सार्वकालिक सर्वाधिक लोकप्रिय तथा सर्वाधिक अनूदित लेखक हैं। लोकप्रियता के मामले में शायद बंकिम चंद्र चटर्जी और रवीन्द्रनाथ टैगोर से भी कहीं आगे। वह इसलिए कि पुरुष होते हुए भी उन्होंने स्त्री मनोभावों को बहुत ही सूक्ष्मता से पकड़ा और अपनी रचनाओं में बखूबी उनकी प्रस्तुति भी की।

शरतचंद्र की जनप्रियता नपे तुले शब्दों और जीवन से ओतप्रोत रचनाओं के कारण तो हुयी ही, उनके उपन्यासों में नारी जिस प्रकार परंपरागत बंधनों से मुक्त होने को छटपटाती नज़र आती हैं, उसने भी पाठकों का ध्यान खूब खींचा। शरतचंद्र की स्त्री जीवन की परिकल्पना बहुत ही प्रगतिशील है। उन्होंने स्त्री को केवल स्त्री बने रहने से अलग मनुष्य बनने के लिए प्रेरित किया। उन्होंने हमेशा यह प्रयास किया है कि स्त्री का अपना अलग अस्तित्व समाज में बने, वह पराश्रित न दिखे। वे बांग्ला के उन श्रेष्ठ साहित्यकारों में से हैं जिन्होंने बांग्ला साहित्य की धारा को बिल्कुल नई दिशा दी। इसीलिए बांग्ला साहित्य में जितनी जल्दी शरतचंद्र को ख्याति मिली, उतनी जल्दी शायद ही किसी और साहित्यकार को मिली हो।

स्त्री जीवन और समाज पर शरतचंद्र का दृष्टिकोण

उन्होने न सिर्फ अपनी कहानियों में सशक्त महिला पात्रों का निर्माण किया बल्कि उनके पुरुष पात्रों से उनकी नायिकाएँ हमेशा मानसिक रूप से अधिक ताक़तवर और सबल नजर आती रहीं। जिस प्रकार पुरुष और स्त्री के संबंधों को एक नए आधार पर स्थापित करने के लिए वे हमेशा अपनी रचनाओं में अपना पक्ष प्रस्तुत करते हैं, उससे उन्हें बहुत ज्यादा लोकप्रियता मिली। वे एक कट्टर नारीवादी थे, इसलिए रूढ़िवादिता के खिलाफ भी। उन्होंने अंधविश्वास और कट्टरता के खिलाफ लिखा। वे चलती आ रही सामाजिक व्यवस्थाओं और उसमें स्त्रियों की स्थिति से संतुष्ट नहीं थे। 

जिस तरह से उन्होंने सामाजिक मानदंडों को खारिज किया, वह उनके लेखन में स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। एक कारण यह भी है कि बांगला समाज ने स्त्रियों को इंसान और हमराह की तरह देखना सबसे पहले शुरू किया और उनमें स्त्री के प्रति सम्मान, समानता, चेतनता, जागरूकता, ममत्व और प्रेम का भाव भी सबसे पहले आया। वहाँ की स्त्रियाँ इसलिए साहित्य, संस्कृति, कला और तरक्की के तमाम पायदानों को पार करके सबसे पहले एक सम्पूर्ण मनुष्य और मानवी की तरह चेतन हो सकी। यह उनके किए और लिखे का ही प्रतिदान है कि हर साल जनवरी के अंत में पश्चिम बंगाल के हावड़ा में उनके काम और जीवन को आज भी 'शरत मेला' के रूप में दिखाया जाता है और यह वार्षिक आयोजन पूरे सप्ताह भर चलता है।

एक लोकप्रिय उपन्यासकार और लघु कथाकार होने के नाते, शरतचंद्र ने 30 से ज़्यादा उपन्यास, लघु उपन्यास और कहानियाँ लिखीं। उन्होंने अपने उपन्यासों के आधार के रूप में अपनी व्यक्तिगत त्रासदियों का इस्तेमाल तो किया ही पर अपने लेखकीय संस्पर्श से उसमें एक अमिट छाप भी छोड़ी। उन्होंने अपने उपन्यासों में जिन विषयों का इस्तेमाल किया, उससे स्पष्ट लगता है वे बंकिम चंद्र चटर्जी के लेखन से प्रभावित थे। वे खुद कहते थे कि उनका लेखन रवीन्द्र और बंकिम चंद्र दोनों से प्रभावित है। पर एक बात जो उन्हें इन दोनों से बिलकुल अलग करती थी वो है उनके स्त्री-चरित्र, उनकी बहुलता और उनकी तेजस्विता। इन दोनों में से किसी के भी पास इतने बहुल स्त्री चरित्र नहीं, न उनके चरित्र वर्ग-वर्ण, जाति-प्रांत आदि के स्तर पर इतने भिन्न हैं। 

शरतचंद्र का व्यक्तिगत जीवन

शरतचंद्र चट्टोपाध्याय का जन्म 15 सितंबर, 1876 को हुगली में हुआ था। वे मोतीलाल चट्टोपाध्याय और भुवनमोहिनी के पुत्र थे। उन्होंने 1906 में शांति देवी से विवाह किया और उन से उन्हें एक बेटा भी हुआ। पर दुर्भाग्य यह कि 1908 में उनकी पत्नी और बेटा दोनों प्लेग में मारे गए। अपने परिवार को खोने से वे पूरी तरह टूट गए। इसलिए इस दुख से उबरने का रास्ता उन्होने किताबों में ढूंढा। उनके प्रिय विषयों में समाजशास्त्र, इतिहास, दर्शन, मनोविज्ञान आदि शामिल थे। लेकिन, 1909 में स्वास्थ्य समस्याओं के कारण, उनकी पढ़ने की इच्छा कुछ धीमी हुयी।

हालांकि, शरतचंद्र ने 1910 में एक युवा विधवा मोक्षदा से दोबारा शादी की, जिसका नाम उन्होंने हिरण्मयी रखा। उन्होंने उसे पढ़ना-लिखना भी सिखाया। उन्होंने अपना समय भी दुबारा पढ़ने लिखने में लगाया चाहा। पर भीतर से वो इतने टूट चुके थे कि ये तमाम राह और राहतें भी उन्हें दुबारे ज़िंदगी की तरफ खींचकर ले आ पाने में नाकाम ही रहीं और उनकी मृत्यु हो गयी। 16 जनवरी, 1938 को लीवर कैंसर से कोलकाता में उनका निधन हुआ। 

उन्होंने छोटी सी उम्र में ही लेखन शुरू कर दिया था। एक बार उन्होंने जमुना पत्रिका में तीन अलग नामों से अपनी तीन कहानियाँ प्रकाशित करवाई – पहली खुद के नाम से, दूसरी अनिला देवी (उनकी बहन) के नाम से और तीसरी अनुपमा नाम से। शरतचंद्र ने इन्हीं दिनों ‘बासा’ (घर) नाम से एक उपन्यास भी लिख डाला पर यह रचना कभी प्रकाशित नहीं हुई। यही नहीं 1903 में, उन्होंने अपने चाचा सुरेंद्रनाथ गांगुली के नाम से 'मंदिर' शीर्षक से अपनी पहली लघु कहानी लिखी। जिसके लिए उन्हें 1904 में कुंटोलिन पुरस्कार मिला। अपनी किशोरावस्था के दौरान, वह मैरी कोरेली, चार्ल्स डिकेंस और हेनरी वुड जैसे लेखकों की पश्चिमी रचनाओं के इतने दीवाने हो गए कि उन्होंने अपना उपनाम ‘सेंट सी. लारा’ रख लिया। 

अफवाहों और अपवादों से घिरा जीवन

शरतचंद्र को अपने लिए भ्रांतियों, अफवाहों और अपवादों से घिरे रहने का शौक था। वे परले दर्जे के अड्डाबाज थे और इस अड्डेबाजी से रोज उनके बारे में नई-नई कहानियां निकलती रहती थीं।  वहीं अगर किसी ने इनकी सत्यता जानने के लिए उनसे पड़ताल की तो वे हंसकर कह देते थे, ‘न रे गल्प (कहानी) कहता हूं, सब गल्प मिथ्या, एकदम सत्य नहीं।’ वह कोई फिक्रमंद ही होता होगा जो इन कहानियों की तस्दीक उनसे करने जाए। अमूमन तो लोग सुनते और उसमें दो चार बातें और मिलाकर परोसते-उड़ाते। यूं भी उनके नशा करने और एक अनजान स्त्री के साथ यूं ही रहने को समाज में बुरी नजर से न देखने वाले लोग दुर्लभ ही थे। इस अनजान महिला के बारे में भी तरह-तरह के अनुमान आसपास के लोगों में थे। इनपर कभी उतनी स्पष्टता न आ पाती यदि विष्णु प्रभाकर इस घटनाक्रम को ‘आवारा मसीहा’ मतलब उनके द्वारा लिखी गयी शरतचंद्र की जीवनी में शामिल न करते। इस किताब के मुताबिक उस ‘अनजान’ स्त्री को शरतचन्द्र ने अपनी वसीयत में अपनी ‘पत्नी’ कहा था और अपनी चल-अचल संपत्ति पर उनका ही हक माना। इन लोकोपवादों को फैलाने में खुद शरतचंद्र का हाथ भी कुछ कम नहीं था। शरतचंद्र की यह आदत थी कि वे अपने बारे में कहीं भी कुछ भी बोल सकते थे। कई बार ये बातें सच होतीं तो कई बार निरी कहानी। वैसे भी कहानियां बनाने में उन्हें मजा तो आता ही था, भले ही वे उन्हीं को छवि को खंडित क्यों न कर रही हों। और शरत को इससे कोई बहुत फर्क नहीं पड़ता था। उनकी प्रवृति बहुत जटिल थी। साधारण बातचीत में वे अमूमन अपने मन के भावों को ऊपर नहीं आने देते थे पर कपोल कल्पनाएं गढ़ने में उनका कोई सानी नहीं था। 

शरतचंद्र में यह गजब-सी बात थी कि वे जन-जन के प्रिय लेखक थे लेकिन सामाजिक तौर पर उनके साथ हमेशा बहिष्कृत सरीखा बर्ताव किया गया। ऐसे में विष्णु प्रभाकर के लिए आम लोगों से शरतचंद्र के बारे में कुछ विश्वसनीय बातें पता लगा पाना मुश्किल था। वहीं दूसरी तरफ जो लोग उनसे प्यार करते थे, वे या तो मुखर नहीं थे या फिर कोई सूत्र था ही नहीं उनके पास कि वे कुछ बताएं या जताएं। शरत का बहिष्कार करनेवाले लोगों का विष्णु प्रभाकर से कहना था - ‘छोड़िए महाराज, ऐसा भी क्या था उसके जीवन में जिसे पाठकों को बताए बिना आपको चैन नहीं, नितांत स्वच्छंद व्यक्ति का जीवन क्या किसी के लिए भी अनुकरणीय हो सकता है?’ ऐसी और भी टिप्पणियां थीं - ‘उनके बारे में जो कुछ हम जानते हैं वह हमारे ही बीच रहे तो अच्छा। लोग इसे जानकर भी क्या करेंगे। किताबों से उनके मन में बनी वह कल्पना ही भ्रष्ट होगी बस।’ 

कई बार हमें अपने स्वभाव से बिलकुल विपरीत चीजें भली लगती हैं। वे हमें अपनी तरफ चुम्बकीय आकर्षण के साथ खींचती हैं, जैसे कोई जादू हो उनके होने में। विष्णु प्रभाकर द्वारा लिखी गयी शरतचंद्र की जीवनी ‘आवारा मसीहा’ भी ठीक इन्हीं विपरीत ध्रुवों के आकर्षण का परिणाम-सा जान पड़ती है। कहां पक्के गांधीवादी, पूरे खद्दरधारी, बहुत हद तक आर्यसमाजी और नियमों से बंधकर जीनेवाले विष्णु प्रभाकर, कहां अपनी मनमर्जी चलनेवाले मनमौजी लेखक शरतचंद्र। यह लगाव दुनियावी नजरिए से अव्यवहारिक ही लग सकता है। 

इस संबंध में अचरज की दूसरी बड़ी बात यह थी कि एक मसीजीवी मतलब लेखन के पैसों पर ही निर्भर रहने वाला कोई शख्स अपनी जिंदगी के अनमोल 14 बरस बस इन्हीं खोजबीन और उधेड़बुन को कैसे दे सकता है? लोगों को यह भी अजीब लगता था कि एक गैर-बंगाली व्यक्ति शरतचंद्र की जीवनी लिखने के लिए इतना कष्ट उठा रहा। जबकि बांग्ला-भाषा में अभी तक उनकी कोई संपूर्ण और प्रामाणिक जीवनी नहीं।  किसी ने विष्णु जी से भी जब यही सवाल पूछा, तो वे बोलें- ‘तीन लेखक हुए जिन्हें जनता दिलो जान से प्यार करती है। तुलसीदास, प्रेमचंद और शरतचंद्र। अमृत लाल नागर ने ‘मानस का हंस’ लिखकर तुलसी की छवि को निखार दिया। अमृत राय ने कलम का सिपाही लिखा, प्रेमचंद को हम नजदीक से देख सके। पर शरत के साथ तो कोई न्याय न हुआ। यह बात मुझे 24 घंटे बेचैन किए रहती थी इसीलिए मुझे लगा कि मुझे ही यह काम करना होगा।’

शरतचंद्र को विरासत में क्या मिला था?

शरतचंद्र  ने एक बार कहा था- ’उन्हें अपने पिता से अपनी बेचैन आत्मा और साहित्य में गहरी रुचि के अलावा कुछ भी विरासत में नहीं मिला।‘ तो शरत को लेखन में रुचि अपने पिता से विरासत में मिली थी। उनके पिता लेखक, घुमक्कड़ और आजाद प्रकृति के इंसान थे। उनकी दिलचस्पी पारिवारिक जिम्मेदारियों में उस कदर बिलकुल नहीं थी, जिस तरह किसी गृहस्थ याकि पारिवारिक की हुआ करती है। ‘यह एक अजीब सी त्रासदी थी, जिस पिता के फक्कड़ और लापरवाह रवैये से ऊबकर और खीजकर उनकी माँ भुवनमोहिनी उन्हें और अपने अन्य बच्चों को भी लेकर अपने मायके चली जाती थीं, खासकर जिस शरत के लिए वे चाहती थीं कि वो अपने पिता जैसा बिलकुल न बने, शरत बहुत हद तक उनकी ही प्रतिकृति थे।  
     
पर यह उससे भी बड़ा सच है कि जो कि लोगों कि उनके बारे में राय और गलतफहमियों को  झुठलाता है। कथाओं और लोकोपवादों के ठीक विपरीत शरतचंद्र अपनी जिम्मेदारियों और परिवार के संदर्भ में अपने पिता पर बिलकुल न गए थे। उन्होने अठारह साल की उम्र में बारहवीं पास की थी। शरतचन्द्र ललित कला के छात्र थे, लेकिन आर्थिक तंगी के चलते वे इसकी पढ़ाई नहीं कर सके। विश्वविद्यालय प्रवेश परीक्षा पास करने के बाद, वह अपने परिवार की दयनीय वित्तीय स्थिति के कारण अपनी उच्च शिक्षा पूरी नहीं कर पायें। शरतचंद्र नौ भाई-बहन थे और उनका दायित्व अपने अन्य भाई बहनों के लिए भी था। वे अपने परिवार के प्रति वे अपनी ज़िम्मेदारी को बखूबी बूझते थे। इन्हीं पारिवारिक दायित्वों के तहत 1900 में उन्होंने बिहार में बनैली एस्टेट से खुद को जोड़ा और बाद में संथाल जिले में बंदोबस्त अधिकारी के सहायक के रूप में काम किया। बाद में, उन्होंने बर्मा रेलवे में स्थायी नौकरी हासिल की, लेखा विभाग में। बर्मा में रहते हुए उन्होंने भागलपुर में लिखे अपने मसौदों को संशोधित किया और साथ-साथ नई कथाएँ भी लिखीं। वहाँ 13 साल रहने के बाद, वे 1916 में हावड़ा लौट आए। बर्मा में उनका संपर्क बंगचंद्र नामक एक शख़्स से हुआ जो बड़ा विद्वान और साथ ही शराबी भी था। उनके उपन्यास चरित्रहीन की प्रेरणा वही थे। इस उपन्यास में उनके जीवन के वर्णन के साथ उनका उनकी नौकरानी से प्रेम भी कहानी का मुख्य विषय बना। 1917 में प्रकाशित इस 'चरित्रहीन’' में वे चार महिला चरित्र भी हैं, जिनके साथ अन्याय हुआ। समाज ने जिनके साथ अन्याय किया।

कहा जाता है कि शरत जब एक बार बर्मा से कलकत्ता आए तो अपनी कुछ रचनाएँ कलकत्ते में एक मित्र के पास छोड़ गए। उनके उस मित्र ने शरत को बिना बताए उनमें से एक रचना ‘बड़ी दीदी’ को 1907 में धारावाहिक प्रकाशन के लिए दे दिया। स्थानीय पत्रिका’ ‘भारती’ ने उनके इस उपन्यास 'बरोदीदी' (बड़ी दीदी) को उनके ही नाम से प्रकाशित किया। इसकी एक-दो किश्त निकलते ही लोगों के बीच सनसनी फैलने लगी लगे कि रवींद्रनाथ टैगोर अपना नाम बदलकर शरतचंद्र के नाम से यह किताब लिख रहें।

जब 'चरित्रहीन' आग की भेंट चढ़ गया

शरतचंद्र धारवाहिक रूप से ‘बड़ी दीदी’ के छपने के कारण ख्याति तो पा रहे थे, फिर भी "चरित्रहीन" को प्रकाशित करवाने के लिए उन्हें ढेर पापड़ बेलने पड़े। यह किताब कुछ हद तक इसलिए भी दुर्भाग्यशाली थी कि ‘चरित्रहीन’ का एक बड़ा हिस्सा एक बार गलती से आग की भेंट चढ़ गया, उसके तमाम पन्‍ने जल गए थे। शरतचन्द्र ने तब भी हार नहीं मानी, वे उदास भी नहीं हुए, बल्कि उन्‍होंने उस उपन्‍यास को फिर से लिखा था। और फिर यह चरित्रहीन उपन्‍यास उनके प्रसिद्ध उपन्‍यास में जाकर शुमार हो सका। 

बड़ी दीदी के प्रकाशक उसी ‘भारतवर्ष’ के संपादक कविवर ‘द्विजेंद्रलाल राय’ ने ‘चरित्रहीन’ को यह कहकर छापने से मना कर दिया किया कि यह किताब ‘सदाचार के ख़िलाफ़ है। वे इसे प्रकाशित नहीं कर सकते।‘ लेकिन बात बस इतनी सी थी कि ‘किसी महिला या पुरूष को समाज ‘चरित्रहीन’ किन पैमानों के आधार पर समझता है,’ इस उपन्यास में इसे इक कटाक्ष की तरह दिखाया गया है। समाज के दकियानूसी रिवाज किस तरह जिंदगियों को प्रभावित करते हैं यहाँ, सावित्री, किरणमयी, सुरबाला, सरोजनी के किरदारों के इर्द-गिर्द की कहानियों से यह पता चलता है। उन्होंने स्त्री के आदर्शवादी रूप के साथ उनके पतित समझे जाने वाले रूप को भी सृजित किया। हर तरह के स्त्री-चरित्रों को चित्रित कर शरतचंद्र ने अपनी गहरी स्त्री संवेदना का परिचय दिया। उनके व्यक्तिगत जीवन में भी ऐसी कई स्त्रियाँ समय-समय पर आईं जिनके स्त्रीत्व को समझने में समाज विफल रहा। यह भी एक वजह है कि उनके स्त्री पात्र सामाजिक बंदिशों को तोड़ने की छटपटाहट से भरे रहते हैं। उनका स्पष्ट मानना था कि जब तक स्त्रियों को समाज में पूर्ण रूप से मुक्ति नहीं मिलती, तब तक किसी समाज का विकास असंभव है। शरतचंद्र का पूरा साहित्य ही कम-ओ-बेश नारी जीवन और उनके इन्हीं जरूरी अधिकारों के ही इर्द-गिर्द नज़र आता है। 

शरतचंद्र की रचनाओं में स्त्री जीवन और उनका प्रभाव

आज बंगाली समाज में अगर शरतचंद्र इतने स्वीकार्य हैं तो इसी कारण की बंगाल की स्त्रियाँ आज भी उनकी रचनाओं में अपने जीवन की उधेड़बुन को देख पाती हैं। अपनी मुक्ति की कामना लिए, युगों से अपने पैरों में बँधी बेड़ियों को तोड़ने की छटपटाहट वे इन रचनाओं को पढ़कर और शिद्द्त से महसूस करती हैं। उनका साहित्य मूलतः नारी मन की संवेदनाओं, उनके जीवन के विविध पक्षों, उनके उत्थान और उनके अधिकारों के चित्रों से भरा पड़ा है। ये चित्र किसी एक वर्ग की स्त्रियों के नहीं हैं, बल्कि विभिन्न वर्गों और समुदायों से आने वाली स्त्रियों के हैं। उनकी कथाओं में नारी मन की कुंठाओं और द्वन्द का जो वर्णन है वह बेजोड़ है। नारी मन की विभिन्न परतों को इतनी गहराई से जानने वाला रचनाकार निःसंदेह विश्व-साहित्य में भी मिलना विरल होगा।

उनकी कहानी ‘मंझली दीदी’ की दीदी भी उनकी असल जिंदगी की एक किरदार थी। बचपन में उनके घर के पास एक विधवा स्त्री रहती थी, जिन्हें वो प्यार से दीदी कहते थे। जब फिल्म बनी तो इसमें विख्यात अभिनेत्री मीना कुमारी ने जैसे मँझली दीदी के चरित्र में जान ही फूँक दी।मीना कुमारी बेहतरीन अभिनेत्री थी, इस तथ्य से भला किसको गुरेज हो सकता है? लेकिन दूसरी तरफ ऐसा इसलिए भी संभव हो सका क्योंकि यह चरित्र कमोबेश जैसे उनके जीवन का ही आईना था।

उन दिनों विधवा स्त्री पर समाज की बहुत-सी बंदिशे होती थी, जो कमोबेश आज भी हमारे समाज में चलती ही आ रहीं। दीदी की मुलाकात एक रोज एक नौजवान से होती है। दोनों प्रेम करने लगते हैं लेकिन वो नौजवान उस विधवा स्त्री को धोखा देकर चला जाता है, तब सभी उस स्त्री को नीच, चरित्रहीन कहने लगते हैं। नायिका कहानी और फिल्म में आत्महत्या कर लेती है, शरत बाबू की मुंहबोली दीदी ने भी आत्महत्या की थी। जीवन की इस घटना ने उनपर इतनी गहरी छाप छोड़ी कि उन्होंने इस घटना के इर्द-गिर्द  ‘चरित्रहीन’ उपन्यास और ‘मंझली दीदी’ कहानी को लिखा। 

शरतचंद्र की कृतियां और फिल्में

यूं तो 1917 में प्रकाशित 'देवदास' एक प्रेम कहानी थी पर इसमें भी हमेशा की तरह देवदास से कहीं अधिक प्रेम में सबल और सक्षम नारियों की तरह ‘पारो’  और ‘चन्द्रमुखी’ ज्यादा स्थान घेरती हैं, अपनी तमाम नारी-सुलभ कोमलताओं और सामाजिक बंधनों के विपरीत जाकर भी। बचपन के प्यार पर किस तरह समाज की बनाई जात-पात का असर पड़ता है और कैसे दो जीवन बर्बाद हो जाते हैं, शरतचंद्र की इस रचना से बखूबी पता चलता है। उनकी इस सबसे प्रसिद्ध कृति को समीक्षकों ने बहुत नहीं सराहा। पर यह उनकी सबसे यादगार कृति थी, यह उस पर बनने वाली तमाम फिल्मों ने भी साबित किया। अकेले 'देवदास' उपन्यास के करीब 16 संस्करण आए और सिर्फ हिन्दी भाषा की ही बात करें तो इस ‘देवदास’ को आधार बनाकर तीन फ़िल्में बन चुकी है। जिसके बारे में सबको पता है- पहली फ़िल्म देवदास ‘कुन्दन लाल सहगल’ अभिनीत थी। दूसरी देवदास में दिलीप कुमार और तीसरी देवदास में शाहरुख़ थे।  

देवदास के अतिरिक्त उनकी अन्यान्य कृतियों पर भी कई भारतीय भाषाओं में करीब 50 से भी अधिक फ़िल्में और धारवाहिक बन चुकी हैं। बंगाली और हिंदी से लेकर तेलुगु और न जाने किन किन अन्यायन्य भाषाओं तक। यहां तक कि 'परिणीता' फ़िल्म भी दो बार बनी। 1914 में आई  सामाजिक वैषम्य और वर्गों के बीच की टकराहट पर आधारित इस उपन्यास ने भी जाति और धर्म के, छोटे और बड़े के प्रचलित खांचों को तोड़ने की कोशिश की थी।

उपन्यास 'स्वामी' भी उनके नारीवादी होने का प्रबल सबूत था। इस कहानी की नायिका सौदामिनी एक महत्वाकांक्षी और प्रतिभाशाली लड़की है, जो अपने पति घनश्याम और अपने प्रेमी नरेंद्र के प्रति अपनी भावनाओं को लेकर संशय में रहती है। इसका फिल्म के लिए स्क्रिप्ट लेखन लेखिका मन्नू भण्डारी ने किया था, जो इस कथानक को अपने समय से कहीं बहुत आगे का कथानक मानती थी और अपनी कहानी ‘यही सच है’ को इससे मिलता जुलता भी... । 

'इति श्रीकांत' उनका चार भागों वाला उवह पन्यास था जो क्रमशः 1916, 1918, 1927 और 1933 में प्रकाशित हुआ था। जिस पर आधारित धारवाहिक उस वक्त दूरदर्शन पर काफी लोकप्रिय हुआ था। इसे शरतचंद्र की 'उत्कृष्ट कृति' के रूप में काफी सराहा जाता है। इस उपन्यास का लेखन उन्होने बर्मा से लौटने के बाद किया था। था। उस समय समाज पूर्वाग्रह से ग्रस्त था जिसे मौलिक रूप से बदलने की आवश्यकता थी। उपन्यास में कथावाचक ‘श्रीकांत’ एक लक्ष्यहीन भटकता हुआ व्यक्ति है। हालांकि लोग श्रीकांत में शरत का चेहरा बार-बार टटोलते रहे। लेकिन इस उपन्यास के पात्रों के माध्यम से शरतचंद्र ने जैसे उन्नीसवीं सदी के बगाल को ही जीवंत कर दिया।  
 
1977 में रिलीज़ हुई ‘सब्यसाची’ उनकी कृति 'पाथेर दाबी' पर आधारित थी। इसे उन्होंने 1926 में लिखा था, यह एक ऐसी कहानी थी जो बर्मा और सुदूर पूर्व में संचालित एक क्रांतिकारी आंदोलन के इर्द-गिर्द घूमती थी। बंगाल के क्रांतिकारी आंदोलन को लेकर लिखा गया यह उपन्यास पहले ‘बंग वाणी’ में धारावाहिक रूप में निकाला, फिर पुस्तकाकार छपा तो तीन हजार का संस्करण तीन महीने में समाप्त हो गया। बाद इसके ब्रिटिश सरकार ने इसे जब्त कर लिया था।

अपनी मृत्यु के लगभग सवा सौ साल के बाद कोई लेखक अगर लोकप्रिय और समीचीन है और उस पर, उसकी कृतियों पर बात करना और पढ़ना प्रासंगिक। यह मान लेना चाहिए कि वह वह लेखक दूरंदेशी था। वो आगे आनेवाले समय और समाज को न सिर्फ देख रहा था बल्कि उसे उसकी चिंता भी थी। स्त्रियों और सामाजिक रूढ़ियों के प्रति उनकी सोच शरतचंदर को हमेशा नया और सार्वकालिक बनाए रखेगी।