जब कोई गाँव से आकर शहर में बसता है, तो अपने साथ अपनी ग्रामीण संस्कृति के बीज भी सहेज कर लाता है। अगर चाह का खाद पानी मिले तो गाँव एक विचार की तरह तंग शहरी परिवेश में भी अंकुरित हो जाता है।
दिल्ली, बंबई, लखनऊ, चंडीगढ़, शिमला जैसे बड़े बरगदनुमा शहरों की छाँव में ग्रामीणता के बेल-बूटे पनपते हैं और इसका श्रेय जाता है उन लोगों को, जो अपनी जड़ों से जुड़ाव कायम रखने के लिए शहरों में भी अपनी आँचलिकता को ज़िंदा रखने की कोशिश करते हैं।
दिलचस्प है कि बंबई के अति आधुनिक जुहू अँधेरी इलाके में ही बसे मछवारों के गाँव वर्सोवा को चमकीली शहरियत छू भी नहीं पाई है और मछवारों का जीवन वहाँ वैसे ही सहज गति से चलता है, जैसे किसी तटीय गाँव में चलता।
शहरनुमा फिशटैंक में साँस लेती ग्रामीणता
गाँवों का सिलसिलेवार शहरीकरण क्षेत्रीयता के धीमे विध्वंस जैसा होता है लेकिन कई बार ग्रामीणता भी एक ज़िद्दी ठूँठ की तरह अपनी मिट्टी से अलग होने से इनकार कर देती है। शहरी मोहल्लों में मूलनिवासी अपना गँवई (सर चार्ल्स मेटकाफ् के शब्दों में) 'लिटल रिपब्लिक' ज़िंदा रखते हैं। गलियों में अपनी गाय भैंसें बांध और चौराहों पर चारपाई पसार कर हुक्का गुड़गुड़ाते बाशिंदे शहरियों को यह बिन कहे ही समझा जाते हैं कि इस ज़मीन की मिल्कियत आज भी उनके बाप दादाओं के ही नाम है। दिल्ली के रोहिणी, नजफगढ़ और मुनिरका जैसे इलाकों में आज भी स्थानीय बाशिंदे अघोषित चौधरी ही हैं।
मूलनिवासियों की ठसक से इतर प्रवासी भी शहर में अपने साज़ ओ सामान के साथ अपनी मिट्टी की खुशबू लेकर आते हैं। अपने सरकारी क्वार्टरों या किराए के डेरों में वे भी अपना निजी यूटोपिया गढ़ लेते हैं। मिट्टी के घड़े सुराहयों में पानी भर और छतों पर चूल्हे लीपकर उसपर बाटी-लिट्टी सेंकते इन लोगों का अपना गाँव से जुड़ाव इस तरह से बना रहता है।
हॉस्टल के कमरों में चटाई बिछाकर दाल भात खाते और अपनी मादरी ज़ुबान में बतियाते विद्यार्थी और मज़दूर अपना गँवईपन इस मेट्रोपोलिटन चारदीवारी में बचाए रखते हैं। खेतों को दूर छोड़ आए प्रवासी अपनी शहरी छतों पर गमलबानी कर मिर्ची बैंगन उगाकर सूक्ष्म सुख अनुभव करते हैं। यही लोग साप्ताहिक शनि बाज़ार में खरीददारी करते हुए देहाती मेले वाली अनुभूति में खुश हो लेते हैं।
क्या वाकई छोड़ आए हम वो गलियाँ?
बेशक, महात्मा गॉंधी ने कहा था कि असली भारत गाँवों में बसता है, लेकिन आज शहर अपना दायरा बढ़ाकर कई आसपास के गाँवों को लील रहे हैं और गाँव शहर की सीमा धुंधलाने लगी है। अर्बन विलेज के बाशिंदे विकास से लालायित भी होते हैं और अपनी मूलपहचान और हक को लेकर उधेड़बुन में भी रहते हैं। गाँवों सड़कों के मौलिक नाम बदलकर एक आधुनिक चाशनी में नए उभरते शहरों की पैकेजिंग की जा रही है।
उपजाऊ जमीनों पर अब सिर्फ नित नई हाउसिंग सोसाइटी उग रही हैं। गाँवों की पंचायतों और खापों की जगह अब सभ्रांत आरडब्ल्यूए (RWA) वाले बुज़ुर्गों ने लेनी शुरू कर दी है। जो पंचायती पहले गाँव की चौपालों पर होती थी, अब रिहायशी सोसाइटियों के व्हाट्सऐप् ग्रुप में होती है। गाँवों के जातीय भेदभाव से भागकर शहरों में आने वालों को यहाँ वर्ग-भेद घेर रहा है। गाँव में जिन्हें जातिवश अलग-थलग बिठाया परोसा जाता था, शहरों में उसी तर्ज़ पर वर्ग के आधार पर होता अलगाव देखने को मिलता है।
पुरातनपंथियों में गाँवों की रूमानियत के प्रति खुमार स्वभाविक होता है जबकि औरतों और युवाओं को ग्रामीण कट्टरता से दूर आकर आधुनिकता के अंकुर फूटने के लिए माकूल आब ओ हवा शहरों में ही मिलती है। शहर में मिलने वाली एक अजनबियत जहाँ आज़ाद हवा में साँस लेने की कुव्वत देती है, वहीं यह अजनबियत शहरी बुज़ुर्गों को और अकेला कर देती है।
गाँवों की पुरुष प्रधान चौपालों से जिन औरतों लड़कियों को सिर झुकाकर और पर्दे में चेहरा छुपाकर गुज़रना पड़ता था, वे शहरों में सिर उठाकर स्कूल, कॉलेजों, सिनेमाघरों में घूम पा रही हैं। जो ग्रामीण पहले अपनी गली में अपनी बिरादरी के अलावा किसी को गुजरने तक नहीं देते थे, वे बदलते शहरी परिवेश में अपने घरों के दरवाज़े आज अलग-अलग राज्यों, देशों और पृष्ठभूमि के किराएदारों के लिए खोल रहे हैं।
शहर, गाँव और बीच का रास्ता
गाँवों को अगर शहरीकरण पचा जाए और शहरों पर अगर देहाती तहज़ीब कब्ज़ा ले तो इन दोनों सूरतों में नुकसान दोतरफा होगा। हालांकि झगड़ा शहर बनाम गाँव का कभी था ही नहीं। मसला तो शहरों में ग्रामीण निष्छलता बचाए रखने और गाँवों में शहरी आधुनिकता की पौध जमाने का है।
शहरों में थोड़ा गाँव बचा रहे और गाँव में थोड़ा शहर उभर आए तो इस शक्ति संतुलन से समाज संभला रहेगा। शहर की भीड़ में गँवईपन को थोड़ी जगह मिले और गाँव की कच्ची मिट्टी में शहरी संभावनाएँ विस्तार पा सकें, इसी उम्मीदनुमा बीच के रास्ते पर चलना ही सबके विकास के लिए मुनासिब होगा।
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