पंजाब में पटियाला की आबादियों से निकलकर जब लहलहाते खेतों की कतार शुरू होती है, तब रास्ते में दरबार मीरां भीखम शाह सरकार के बोर्ड दिखाई देने लगते हैं। गांव घुरम (घड़ाम) की सरहद शुरू होते ही एक सरहिंदी ईंटों वाली दीवार साथ-साथ दौड़ती है, जो इस अंचल के इतिहास और समाज, दोनों की नुमाइंदगी करती प्रतीत होती है। कुछ राहगीरों से पूछते-पूछते हम आ पहुंचते हैं सूफ़ी दरगाह बाबा भीखम शाह पर, जो सदियों से गांव घुरम (घड़ाम) की पहचान रही है।
दरगाह परिसर के अंदर-बाहर मौजूद हैं कई छोटे-बड़े चित्र, जिनपर पीर भीखम शाह और गुरु गोबिंद सिंह जी के जीवन से जुड़े प्रसंग दर्ज हैं। साथ ही पीर भीखम शाह के मौजूदा गद्दीनशीन 'बाबा मस्त दीवाना बुल्ले शाह' और 'बीबी मस्त दीवानी भोलू शाह' के चित्र भी यहां रंगीन पोस्टरों और फ्लेक्सबोर्ड पर देखने को मिलते हैं।
भीखम शाह दरगाह: 'सर्वधर्म सम्भाव' का सजीव नमूना
कमाल की बात यह है कि यह दरगाह परिसर अपनेआप में 'सर्वधर्म सम्भाव' का सजीव नमूना है, जहां एक तरफ़ पीर भीखम शाह का आस्ताना है, तो दूसरे छोर पर राम मंदिर और गुरुद्वारा भी मौजूद है। आस्ताने के साथ ही सटी है एक मस्जिद और रोशनदौला नाम के मुग़ल वज़ीर और उसके परिवार की समाधियां भी इसी परिसर में मौजूद हैं।
दरगाह में माथा टेकने के लिए आने वाले ज़ायरीन में सिख, मुसलमान और हिंदू शुमार हैं। स्थानीय निवासियों के इलावा यहां दूरपार से भी श्रद्धालु दर्शन के लिए आया करते हैं। हर माह की एकादशी या 'ग्यारवीं शरीफ़' को यहां मेला लगता है और बैसाखी पर लगने वाला सालाना विशाल 'जोड़ मेला' वह मौका होता है जब घुरम (घड़ाम) में स्थित मशहूर मिलापसर गुरुद्वारे से शुरू होने वाला नगर कीर्तन इस दरगाह परिसर तक आता है। सिखों की दरबार मीरां भीखम साहिब में आस्था की वजह है पीर भीखम शाह का गुरु गोबिंद सिंह से जुड़ाव।
लोककथाओं के मुताबिक जब गुरू गोबिंद सिंह जी ने पटना में जन्म लिया, तब मीरा जी पीर भीखम शाह ने पूर्व यानी बाल गोबिंद के जन्मस्थान की ओर नमाज अता की थी। इसके बाद वे पटना में जा कर गुरू गोबिंद सिंह जी से भी मिले। उसके बाद वे वापस गांव ठसका (कुरुक्षेत्र) लौट आए। लेकिन यह सर्वधार्मिक सौहार्द्र काफी पेचीदा और परतदार है।
दरगाह के सेवादार हरजिंदर सिंह का कहना है कि उनका जट्ट-सिख परिवार विभाजन के बाद घुरम में आकर बसा, जो कभी पटियाला रियासत का महत्वपूर्ण हिस्सा था। विभाजन से पूर्व इस गांव की ज्यादातर आबादी मुसलमानों की थी, जिनमें शेख और कंबोज के अलावा पठान, तेली और धोबी जातियां भी शामिल थीं।
अन्य जातियां जैसे मज़हबी, हरिजन, बाल्मिकी, रैदासिया और पंडितों आदि की बसावट भी यहां थी मगर बहुत मामूली तादाद में। विभाजन के बाद जट्ट-सिख और राजपूत-सिख पंजाब और गुजरात से आकर इस गांव घुरम में बसे। आज यहां सिर्फ़ दो ही मुसलमान परिवार बसते हैं। हरजिंदर सिंह का कहना है कि सिख, राजपूत और दलितों समेत सब जातियों के लोगों की अटूट आस्था इस दरबार पर सदियों से मुसलसल बनी रही है।
लेकिन दरगाह की चारदीवारी के बाहर जातीय समीकरण वैसे ही हैं, जैसे समाज में आमतौर पर देखे जाते हैं। वाल्मीकि-रामदासियों और जट्ट-सिख और राजपूतों में एक महीन दरार तो मौजूद रहती ही है, जो राजनैतिक दृष्टि से देखने पर और स्पष्ट हो जाती है।
जाति, राजनीति और बेरोजगारी
सेवादार हरजिंदर सिंह का कहना है कि पिछले कुछ समय से गांव में लड़के-लड़कियों ने भागकर अंतर-जातीय विवाह करवाए हैं, जिसके चलते भीतर-भीतर एक सुगबुगाहट पल रही है। हरजिंदर सिंह यह भी कहते हैं कि वाल्मीकि और रामदासी समाज के लोगों के चलते ही कांग्रेस सरकार को वोट मिलते हैं वरना असल ज़मीनी काम यहां सिर्फ अकाली सरकार ही करवाती है। उनके मुताबिक गांव के ज्यादातर युवा बेरोजगार हैं, और कोई उद्योग धंधा न होने के चलते खेती करने, दिहाड़ी करने या विदेश जाकर कमाने को मजबूर हैं। ऐसा बताते हुए हरजिंदर सिंह हमें दरगाह का लंगर हॉल दिखाने लेजाते हैं जहां बिना भेदभाव ज़ायरीन रोज़ लंगर ग्रहण करते हैं।
दरगाह के मौजूदा गद्दीनशीन 'बाबा मस्त दीवाना बुल्ले शाह' और 'बीबी मस्त दीवानी भोलू शाह' भी लाला बाणा पहने हुए इसी बरामदे में बैठे हैं और भक्त उन्हें घेरकर कुछ सवाल पूछ रहे हैं। बाबा जी ब्रेन हेमरेज के बाद अब ज़्यादा बोलचाल नहीं सकते इसीलिए बीबी जी ही दरगाह की देखरेख का काम संभालती हैं।
बीबी जी से बात करने पर पता चलता है कि विभाजन के बाद इस दरगाह को भी दंगों में नुकसान पहुंचाया गया मगर 'बाबा मस्त दीवाना वारिस शाह' और 'बाबा मस्त दीवाना बुल्ले शाह' ने इस दरगाह की मरम्मत करवाई और इसे दोबारा बहाल करने का बीड़ा संभाला। बाबा वारिस शाह के इंतकाल के बाद बाबा बुल्ले शाह और बीबी भोलू शाह ही यहां गद्दीनशीन हैं।
गौरतलब है कि बाबा बुल्ले शाह जी 'कुम्हार' जाति से ताल्लुक रखते हैं और बीबी का कहना है कि सूफियों का संदेश ही मज़हब, जाति और बिरादरी जैसी तंगख्याली से ऊपर उठना है। बीबी जी बताती हैं कि अगली गद्दीनशीन भी घुरम की एक महिला ही होने वाली हैं जो कि अपनेआप में एक अनूठी परंपरा है, जहां जाति और लिंग के भेद बहुत पीछे छूटते दिखाई देते हैं।
ब्राह्मण रौशन दौला की समाधि
बीबी जी इस दरगाह में मौजूद रौशन दौला की समाधि के बारे में बताती हैं कि रौशन एक गरीब ब्राह्मण लड़का था जो पीरभीखम शाह की इनायत से शाहजहां के राज में वज़ीर बना और उसी के कहने पर मुगल सुल्तान ने इस दरगाह के नाम 26 गांव यानी तकरीबन 22500 किला ज़मीन कर दी थी। आज भी लंगर के लिए अनाज अपनी ही ज़मीन पर उगाया जाता है। बीबी जी का कहना है कि पंजाब वक्फ बोर्ड ने कभी दरगाह से जुड़ी ज़मीनों पर हो रहे अतिक्रमण हटाने की कोशिश नहीं की इसीलिए उनकी मुदालख्त भी इस दरगाह में नहीं होने दी जाती।
दरगाह के प्रांगण में बैठे एक और श्रद्धालु से बात करने पर मालूम चला कि वह गुज्जर समाज से ताल्लुक रखने वाला एक किसान है और कैथल ज़िले से यहां आया है। उसका कहना था कि मानसिक शांति के लिए वह पिछले 20 साल से इस दरगाह पर आता रहा है और सेवा करता रहा है। उसके पोते किसान आंदोलन में भी हिस्सा लेने पहुंचे थे क्योंकि अगर ज़मीन छिन गई तो गुज़ारा करने के लिए मजदूरी भी बमुश्किल ही मिलेगी, इसलिए संघर्ष ज़रूरी है।
गुरु ग्रंथ साहिब के बीर को सिर पर धारण किए हुए सिख ग्रंथी दरगाह परिसर में प्रवेश करते हैं और सब श्रद्धालु और बीबी भोलू शाह जी खड़े होकर और शीश नवाकर इस्तकबाल करते हैं। दरगाह प्रांगण में स्थित गुरुद्वारे के बाहर बैठे एक जट्ट-सिख (संधू) परिवार से बात करने पर पता चला कि यह परिवार भी विभाजन के बाद ही घुरम में आकर बसा था और तब से आज तक इस गांव के धार्मिक एकता का चश्मदीद रहा है।
जब श्रीराम की माता कौशल्या की मूर्ति लगाने पर हुआ था विवाद
हालांकि परिवार के बुज़ुर्ग मुखिया याद करते हैं कि कई साल पहले अकालियों ने घुरम के किले में श्रीराम की माता कौशल्या की मूर्ति लगाने और रावण दहन पर सख्त ऐतराज जताया था लेकिन ऐसी इक्का-दुक्का घटना का असर गांव की समरसता पर नहीं पड़ा। हालांकि संधू परिवार का मानना है कि पंचायती चुनावों में सियासी दबदबा जट्ट-सिखों और राजपूत-सिखों का ही रहता है और पंजाब में चरणजीत चन्नी के मुख्यमंत्री बनने के बाद दलितों का स्वाभिमान ज़रूर मज़बूत हुआ। इस परिवार की बड़ी बेटी नर्सिंग की पढ़ाई करके भी बेरोजगार है और नौकरी की उम्मीद में विदेश जाने के लिए IELTS की तैयारी कर रही है।
दरगाह की दूर तक फैली हुई चारदीवारी के बाहर गुरुद्वारे, मंदिर, समाधियाँ और मस्जिदें अलग-अलग छोर पर खड़ी दिखाई देने लगती हैं, बस्तियां अलग-अलग समाजों में बंटी दिखाई देती हैं लेकिन पीर मीरां भीखम शाह की दरगाह की मज़बूत किलेनुमा दीवारों को यह भेदभाव छू भी नहीं पाते। फिरकों में बँटे हुए समाज में सर्वधर्म सम्भाव् की अभेद्य दीवारों के बीच टिमटिमाता हुआ एक चिराग़ जैसी है भीखम शाह की दरगाह।