मृत्यु को बिना बताए नहीं आना चाहिए। वह आती हुई दिखनी चाहिए। पता चलना चाहिए कि वह दरवाज़े से आ रही है या खिड़की से। ये क्या बात हुई कि अचानक कहीं से भी टपक पड़ी। व्यक्ति मृत्यु से पहले अगर कुछ करना चाहे, किसी से मिलना या कोई आख़िरी बात कहना चाहे, तो उसे मौका भी ना मिले! यह तो सरासर बेईमानी है। लोग कहते हैं कि यही मृत्यु का रोमांच है। झूठ कहते हैं लोग। मृत्यु के इस तरह आने में कोई रोमांच नहीं है। मृत्यु डरावनी चीज़ है। बेहद डरावनी। अचानक आदमी हैं से थे बदल जाता है। कोई नहीं जान पाता कि मरने वाला अंतिम समय में क्या सोच रहा था। वह आजकल दिन रात मृत्यु के ही बारे में सोच रहा है। रात में भी मृत लोग ही उसके सपने में आते हैं। लोग इसे अच्छा नहीं मानते। इसके बावज़ूद उसे सपने में वही लोग दिखाई देते हैं, जो मर चुके हैं। पिता तो उसके सपने में हर दूसरे दिन आ जाते हैं। लगभग उसी तरह जिस तरह जीते जी आते थे। उसे याद है, पिता से झगड़े के बाद उसने घर छोड़ दिया था। कुछ ही दूरी पर उसने एक फ्लैट किराये पर लिया था। पिता के घर से अभी सामान पूरा भी नहीं आया था कि पिता उसके घर चले आए। बैठे, चाय पी। कहा, घर में इस तरह के झगड़े होते रहते हैं, लेकिन इससे कोई अपना घर नहीं छोड़ देता। लेकिन अपना घर छूट ही गया। घरों की दूरियाँ बढ़ीं तो पिता से भी दूरी बढ़ती चली गई। फिर दूरी इतनी बढ़ गई कि वह पिता को कभी नहीं देख पाया, कभी उन्हें आवाज़ नहीं दे पाया और कभी उनसे लड़ नहीं पाया। कई बार तो उसे लगता है कि पिता सपने में आकर उसकी समस्याओं का हल भी बता रहे हैं। कभी-कभी तो पिता उसे बड़ी मज़ेदार बात बताते हैं। एक बार सपने में पिता ने उसे बताया कि पैसा कैसे कमाते हैं। हालांकि वह यह भूल गया कि पिता ने क्या बताया था। बस इतना याद रहा कि पिता ने पैसा कमाने के उपाय बताए थे। सुबह सपने को याद करके उसे हँसी आई। वह सोचने लगा कि जो आदमी अपने पूरे जीवन में कभी पैसा नहीं कमा पाया, वह सपने में अपने पुत्र को बता रहा है कि पैसा कैसे कमाया जाए। पिता को लगता होगा कि अब पुत्र अकेला हो गया है। उसे सलाह देने वाला कोई नहीं है। वह आज भी पिता को फ्रैंड,फिलॉस्फर और गाइड मानता है। निरंतर सपने में आने से उसे लगता है कि पिता उसे अपने पास बुला रहे हैं। वह सोच रहा है कि क्या पिता के पास जाने जाने का समय आ गया है!

सुबह का समय है। दस-ग्यारह बजे होंगे। दिसंबर का महीना है। सर्दियाँ अभी तक बहुत ज़्यादा नहीं पड़ी। पहले तो सितंबर में ही सर्दी पड़नी शुरू हो जाती थी। वह अपनी बालकनी में खड़ा है। देख रहा है आसपास। शायद कोई ऐसा दृश्य दिखाई पड़ जाए, जिसमें जीवन हो, जो सुन्दर हो! जिसमें मृत्यु ना हो। दायीं तरफ़ कुछ ऊंचे-ऊंचे पेड़ लगे हैं। पेड़ों के पत्ते हिल रहे हैं। उसे पल भर को लगा कि शायद पत्ते उसे कुछ इशारा कर रहे हैं। अगले ही पल उसे पेड़ अपनी तरफ़ आते दिखाई दिए। उसे लगा, मृत्यु पेड़ की पत्तियों पर बैठकर उसकी तरफ़ आ रही है-रूमानी अंदाज़ में। उसने भीतर सिहरन-सी महसूस की। पेड़ों को देखना बंद कर दिया। ऊपर देखने लगा। आसमान की ओर। उसे लगा, आसमान का रंग मटमैला-सा होता जा रहा है। धरती के रंग जैसा। एक दिन दोनों का रंग एक जैसा हो जाएगा। सूरज उसे कहीं दिखाई नहीं दिया। शायद कहीं खेलने चला गया होगा। छुपम छुआई। उसने आसमान से भी नज़र हटा ली। वह नीचे सड़क पर देखने लगा। कुछ बच्चे खेल रहे हैं। रेस लगा रहे हैं। उम्र सात आठ साल रही होगी। बच्चे शेष दुनिया से एकदम बेख़बर हैं। मन में फिर एक ख़राब विचार आया। एक दिन ये बच्चे भी बूढ़े हो जाएँगे। उसने बच्चों से भी नज़र हटा ली। 

सड़क पर एक बुढ़िया खरामा-खरामा चलती हुई, आ रही है। वब सड़क पर चल पा रही है। तभी उसके सामने एक गड्ढा आ गया। गड्ढा बहुत चौड़ा नहीं है। लेकिन बुढ़िया जानती है कि वह उसे पार नहीं कर सकती। गड्ढों को पार करने की उसकी उम्र निकल चुकी है। शायद किसी के घर पानी नहीं आ रहा होगा। उसने कनेक्शन को ठीक कराने के लिए यह गड्ढा खुदवाया होगा। कनेक्शन ठीक होने के बाद गड्ढा इसी तरह खुला छोड़ दिया गया। इस कॉलोनी में यही होता है। एक बार जहाँ गड्ढा खुद गया तो वह खुदा ही रहता है। बुढ़िया गड्ढे के किनारे खड़ी है। उसे गड्ढे को पार करके सामने वाले मकान में जाना है। वह सोच रही होगी कोई बच्चा या किशोर आएगा तो उसे सड़क पार करा देगा। तभी बुढ़िया के पास एक किशोर लड़की आती है। बुढ़िया उससे कुछ नहीं कहती। जब लड़की उसके बिल्कुल करीब आती है तो बुढ़िया ने लड़की का बायाँ हाथ अपने हाथ में ले लिया। बुढ़िया ने गड्ढा पार कर लिया। वह सामने वाले मकान में चली गई।

वह सेकेंड फ्लोर पर रहता है। इस वक्त वह बालकनी में खड़ा सिगरेट पी रहा है। अचानक नीचे ग्राउंड फ्लोर पर उसकी नज़र पड़ी। यह कॉर्नर वाला फ्लैट है। एक के ऊपर चार फ्लैट खड़े हैं। उसका फ्लैट कोने के बराबर वाला है। कोने वाले फ्लैट में जगह थोड़ी ज्यादा है। आप एक कमरा अतिक्रमण करके अतिरिक्त बनवा सकते हैं। नीचे फ्लैट वाले ने बाहर कमरा नहीं बनवाया है। बस चारों तरफ ईंटों की बाउंड्री है। ऊपरवाले ने आगे कमरा बनवाया हुआ है तो नीचे वाले को छत मिल गई। नीचे कोई हरक़त दिखाई नहीं देती। बस कभी-कभी एक बूढ़ा और बुढ़िया ईंटों की बाउंड्री से बाहर आते दिखाई देते हैं। इस वक्त भी बूढ़ा बाहर है। बूढ़ा बड़ी तल्लीनता से लोहे की तार पर कपड़े सुखा रहा है। उसने ख़ुद पट्टे का कच्छा और बनियान पहना हुआ है। उसने ध्यान से देखा। बूढ़े आदमी की हड्डियाँ निकली हुई हैं। उसकी उम्र 80 वर्ष से ऊपर होनी चाहिए। वह अभी सक्रिय है। वह शायद सुबह नहाता होगा। उसे घर के बाहर ही टहलते हुए भी देखा जा सकता है। कभी वह घर के बाहर की नाली में गिर गए पत्थर निकालने लगता है और कभी बाहर खड़ी स्कूटी के मालिक को उसकी अनुपस्थिति में गालियाँ देने लगता है, सारे रास्ते रोक दो…मुझे घर से बाहर मत निकलने देना...यहीं क़ैद कर दो...यहीं मर जाऊंगा मैं...
   
नीचे के इस फ्लैट यही दो लोग रहते हैं-पति-पत्नी। बूढ़ा कपड़े सुखाता है और पत्नी शाम को कपड़े उतारकर भीतर ले जाती है। यह दोनों की दिनचर्या का एक ज़रूरी हिस्सा है। जो कपड़े बूढ़ा भीतर से लाया था। उन्हें उसने पास खड़ी स्कूटी पर रख दिया है। सबसे पहले कच्छे को उठाया और दोनों हाथों से झटक झटकर उसे रस्सी पर डाल दिया। इसी तरह उसने एक पेटीकोट, एक मैक्सी और एक ब्लाउज़ भी सुखाया। लेकिन शायद वह कपड़े सुखाने के अपने ढंग से संतुष्ट नहीं था। वह कपड़ों को इधर-उधर खिसकाने लगा। कभी इधर, कभी उधर। उसकी आँखें पूर्व की ओर थीं। शायद वह यह देखने की कोशिश कर रहा था कि धूप इस तरफ कब आएगी। काफी देर तक वह यही करता रहा। कपड़ों की जगह बदलता रहा। लेकिन शायद कपड़ों तक धूप नहीं पहुँच रही थी। बूढ़े लोगों का इस उम्र में धूप की बहुत ज़्यादा जरूरत होती है, उन्हें सर्दियों में बाहर बैठकर धूप सेंकने में सुख मिलता है। लेकिन धूप यह बात नहीं जानती। बूढ़ा भीतर चला गया।

वह सोचने लगा। इस उम्र तक आदमी को यह दुनिया छोड़ देनी चाहिए। बूढ़ा भी दुनिया को छोड़ना चाहता होगा। इसलिए हमेशा ऊबा हुआ दिखाई देता है। पता नहीं वह दूसरों से ऊब रहा है या ख़ुद से। हो सकता है, वह भी अपनी मृत्यु का ही इंतज़ार कर रहा हो। वह भीतर आकर दीवान पर लेट गया। सोचने लगा। अगर जीवन को 80 या उससे ऊपर तक चलना है, तब तो अभी उसके लगभग 20 साल बचे हैं। इतने साल गुजारने तो बहुत मुश्किल हैं। लेकिन किया क्या जा सकता है...मृत्यु आपकी इच्छा से नहीं आती...पिता होते तो कहते, जीवन के बारे में सोचो, मृत्यु, इस सोच पर अपने आप विराम लगा देगी। हो सकता है पिता सपने में आकर उसकी इस समस्या को कोई हल बतायें। आँखें बन्द करने के बावज़ूद बूढ़ा उसे कपड़े सुखाता हुआ दीखता रहा। 

अचानक उसे सीढ़ियों पर कुछ शोर-सा सुनाई दिया। वह उठकर बाहर आया। चौंक गया। सीढ़ियों से एक बूढ़े आदमी का शव नीचे उतारा जा रहा था। चार आदमी उठाकर उसे उतार रहे थे। एक दो आदमी साथ चल रहे थे। उसका चेहरा साफ दिखाई दे रहा था। शव को वह फौरन पहचान गया। वह दौड़ते हुए नीचे जाने लगा। वह पिता के शव से लिपटकर रोना चाहता था। पता नहीं कहाँ क्या हुआ शव अचानक उन लोगों को हाथों सो फिसलकर गिर पड़ा। शव को उठाने वाले सभी लोग शर्मिंदा हो गये। वह जोर से चीखा...संभालकर नहीं उठा सकते...

उसकी नींद खुल गई। कुछ पल वह कमरे में ही देखता रहा। याद आया, पिता की मृत्यु को तो कई वर्ष गुज़र चुके हैं। फिर आज उनका शव क्यों दिखाई दिया। और शव सीढ़ियों से उतारते समय फ़िसल क्यों गया। जब पिता की मृत्यु हुई, तब तो वे ग्राउंड फ्लोर पर रहते थे। उनकी अर्थी बाहर के कमरे में ही बनी थी। सब लोगों ने वहीं उन्हें अंतिम प्रणाम किया था। एकबारगी उसे यह भी लगा कि शायद उसने शव को देखने में ग़लती कर दी है। कहीं वह उसका अपना ही शव तो नहीं था। कहीं मृत्यु अपने आने का संकेत तो नहीं दे रही थी। कहीं शव नीचे रहने वाले बूढ़े का तो नहीं था। कहीं बूढ़े को कुछ हो तो नहीं गया...कुछ होने वाला तो नहीं...। वह दीवान से उठकर बाहर आया। नीचे उसे बूढ़ा दिखाई नहीं दिया। सामने नज़र गई तो उसने देखा बूढ़ा अपने कपड़ों को सामने वाले ब्लॉक के बाहर बंधी रस्सी पर सुखा रहा है। धूप अब वहाँ आ रही है। बूढ़े का पूरा दिन इसी तरह कपड़े सुखाते हुए बीतता है। धूप का पीछा करते हुए। धूप बूढ़े तक मुश्किल से पहुँचती है। बूढ़े को ही धूप तक जाना पड़ता है।।

कई दिन इसी तरह गुज़र गए। वह बालकनी के कई चक्कर लगाता। बूढ़े को कपड़े सुखाते देखता। बूढ़ा हमेशा ही पट्टे वाले कच्छे और बनियान में मिलता। शाम के समय बूढ़े की पत्नी उन कपड़ों को भीतर ले जाती। वह बूढ़े को देखकर हमेशा सोचता कि एक दिन ऐसा आएगा, जब यह कपड़े सुखाने वाला नहीं होगा। तब हो सकता है बुढ़िया को ही कपड़े सुखाने पड़ें। हाँ ऐसा ही होगा। बूढ़े को ही पहले जाना है...जाना होगा। धीरे-धीरे उसका यह विश्वास मजबूत होता चला गया। उसने पाया कि अब वह अपनी मृत्यु को लेकर कुछ नहीं सोचता, बल्कि हर समय बूढ़े की मृत्यु के विषय में सोचता है। बल्कि उसकी मृत्यु की कामना करता है। उसकी तरफ़ आने वाली मृत्यु शायद परकाया प्रवेश कर चुकी है। उसने मान लिया है कि अब उसकी नहीं बूढ़े की मृत्यु आने वाली है। वह इस मृत्यु का बाकायदा इंतज़ार करने लगा। वह जानता है कि यह बेहद ख़राब बात है। लेकिन वह इसी तरह सोचता है...सोचने लगा है। इसमें वह कुछ नहीं कर सकता।

एक दिन बूढ़ा कपड़े सुखाने नहीं आया। दूसरे दिन भी नहीं आया। फिर कई दिनों तक बूढ़ा दिखाई नहीं दिया। बुढ़िया भी दिखाई नहीं दी। रस्सी पर कपड़े भी सूखते नहीं दिखे। उसे कुछ अजीब-सा लगा। एक खालीपन सा। सोचा, हो सकता है दोनों कहीं चले गए हों। अपने किसी बच्चे के पास या किसी रिश्तेदार के पास। दिन बीतते रहे। वे वापस नहीं आए। फिर उसे लगने लगा कि बूढ़े की मृत्यु हो गई होगी...बुढ़िया अपने किसी बच्चे या रिश्तेदार के पास ही रह गई होगी। अब यहाँ अकेली केसे रहेगी! बालकनी से उसे नीचे फ्लैट में हमेशा ताला लगा दिखने लगा। उसके मन ने यह मान लिया कि अब वे नहीं आएंगे। एक महीना बीत गया। एक दिन वह नीचे उतरा उसने देखा कि बूढ़ा अपने घर के बाहर बैसाखी लेकर खड़ा है।

पहली बार उसने बूढ़े को कहा- 'राम...राम...अरे, कहाँ चले गए थे आप...'

'बस, बाहर ही टहल रहा था, गिर पड़ा, बड़े बेटे को फोन किया, वह गाड़ी लेकर आया और अस्पताल ले गया। जाँच के बाद पता चला, कूल्हे की हड्डी टूट गई है, बेटे ने ऑपरेशन कराया...लोहे की रोड डली है...कुछ दिन बेटे के यहाँ रहे...फिर वापस आ गए...और कहाँ जाएँ...अब काफी दिन बाद इस बैसाखी के सहारे बाहर निकला हूं...'

'पता ही नहीं चला, वरना देखने आ सकता था...'

'आप तो किसी से बात ही नहीं करते...पता कैसे चलता...मैं तो आपको रोज़ देखता था...हर समय सिगरेट पीते रहते हो...'

'हाँ, मेरा स्वभाव थोड़ा अलग है...मुझे किसी से बात करना अच्छा नहीं लगता...किसी से भी...आपको यहाँ रोज़ कपड़े सुखाते देखता था...तो आपको देखने की आदत सी पड़ गई...काफ़ी दिन से आप दिखाई नहीं दिए तो सोचा...'

'अब शरीर साथ नहीं देता...बस भगवान उठा ले...
आपके तो बच्चे हैं, आप उनके पास क्यों नहीं रहते...'

'बच्चों की अपनी दुनिया है...उस दुनिया में ना हम रह सकते हैं और ना वे रख सकते हैं...अब यहीं देख लो...कोई हमसे बात नहीं करता...अकेला आदमी क्या करे...इसलिए टहलने चला जाता हूं...उस दिन भी गया था और...'
कहते —कहते ही वह अपने घर के भीतर चला गया। जैसे वह ख़ुद से बात कर रहा हो।

वह कहना चाहता था कि कभी-कभी वह आ जाया करेगा, बात करने के लिए। लेकिन नहीं कहा। वह ऊपर आ गया। अपनी बालकनी में आकर उसने सिगरेट जलाई और पीने लगा। उसे लगा कि जिस मृत्यु के बारे में वह सोच रहा था कि वह परकाया प्रवेश कर गई है, वह ग़लत था। परकाया प्रवेश लेखक के हाथ में ही होता है। वह अपने किरदारों के माध्यम से परकाया प्रवेश करता है। लेकिन यहाँ जीवन में यह सब नहीं चलता। यहाँ अपनी मृत्यु की प्रतीक्षा ख़ुद करनी पड़ती है। उसने आसमान को देखा, पेड़ों को देखा, सड़क को देखा सब शांत लगे। एकदम शान्त। कहीं कोई हरकत नहीं थी। वह बालकनी से अपने घर के भीतर आकर दीवान पर लेट गया।

लेखक सुधांशु गुप्त का परिचय

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लेखक सुधांशु गुप्त।

सहारनपुर में जन्म। दिल्ली में शिक्षा-दीक्षा । अनेक प्रकाशन संस्थानों के अलावा दिनमान, दैनिक हिन्दुस्तान में पत्रकारिता । सभी साहित्यिक पत्रिकाओं में कहानियाँ प्रकाशित। अनेक कहानियाँ रेडियो से प्रसारित। रेडियो के लिए विभिन्न भाषाओं की साहित्यिक पुस्तकों का रेडियो रूपांतरण किया। दूरदर्शन और अन्य सरकारी चैनलों के लिए धारावाहिकों का लेखन । पिछले पाँच साल से अनेक साहित्यिक पत्रिकाओं के लिए नियमित लेखन।चार कहानी संग्रह-खाली कॉफ़ी हाउस, उसके साथ चाय का आख़िरी कप, स्माइल प्लीज़ और तेरहवाँ महीना प्रकाशित। योगेश गुप्त समग्र (चार खण्डों में) का कथाकार महेश दर्पण के साथ सम्पादन। कुछ किताबें कुछ बातें-नेपथ्य में विमर्श, आलोचनात्मक पुस्तक प्रकाशित। फ़िलहाल एक उपन्यास पर काम ।

फोन: 9810936423, ईमेलः [email protected]