रेलगाड़ी के पहियों का आहिस्ता आहिस्ता आगे सरकना जैसे अपने आप ही पीछे छूटे शहर और अपने लोगों को विदा देने की रस्म अदायगी शुरु कर देता है। सुमन की आंखें नम हो आई। अपने छोटे भैया को राखी बांधकर दिल्ली से लौट रही है अपने घर सहारनपुर। अपनी छोटी सी अटैची उसने सीट के नीचे सरकाई और ठहर कर लंबी सांस ली। सचमुच भाई की कलाई पर राखी बांधने और भाई के मुह में अपनी पसंदीदा मिठाई का टुकड़ा डालने से बड़ा सुख दूसरा कोई नहीं। राखी का दिन एक सबब बन जाता है भाई से मिलने का। पर अब वह एक-दो दिन से ज्यादा वहां रह नहीं पाती। जाने क्यों पैबंद सा लगता है अपना आप वहां। एकबार छोटे शहर में सुकून भरी जिंदगी जीने की आदत हो जाए तो बड़े शहर लुभाते नहीं। बस, एकाध दिन सबका लाड़ दुलार पाया और अपने ठिकाने पर। इस बार तो एक अप्रत्याशित सुख इसमे और जुड़ गया था।
कल राखी बांधने जा रही थी कि भैया ने मुस्कुराते हुए कहा सुम्मी दीदी, एक सरप्राइज है। इन्हें पहचानो।
कमरे से निकल कर एक सज्जन अचानक सामने आ खड़े हुए। आखों में नमी और चेहरे पर मासूमियत लिए एक अनजाना लेकिन पहचाना सा सामने था। एकाएक जबान पर नाम नहीं आया।
भैया ने राज़ खोला 'वसीम।'
अब पहचाना?
ओह, हां! भैया के सहपाठी वसीम। वही चेहरा मोहरा, वही कद काठी। बस, कुछ सेहतमंद हो गए थे। कॉलेज के बाद वसीम भैया विदेश पढ़ाई करने चले गए। वहां एक अश्वेत लड़की से शादी करने की खबर से भैया के घर मातम का सा माहौल बन गया था।
कैसे है भैया? सुमन ने पूछा तो वसीम भैया ने आगे बढ़कर उसे गले से लगा लिया।
बहुत सारी यादें ताजा हो आईं। सहारनपुर में उनके घर जाकर भैया सबसे छुपकर ऑमलेट खाया करते थे। यहां तो सब शुद्ध शाकाहारी थे। घर की रसोई में अंडा तो क्या, नवरात्र में प्याज लहसुन भी वर्जित था। वसीम भैया जन्माष्टमी का प्रसाद खाने आया करते और मां बहुत सा धनिए का चूरमा और खीर उन्हें दोने में भरकर दे देतीं। दादी कहती रहतीं अरे ये क्या मुसलमान दोस्तों को बुला लेता है, इनके लिए अलग बरतन रखे हैं परछत्ती में। वे दादा के मुस्लिम मित्रों के लिए अलग स्टील की थाली और गिलास रखती थीं और उन्हें उसमें खाना परोस कर धो-मांज कर वापस आले में रख देतीं। लेकिन मां ने कभी ऐसी छुआछूत नहीं मानी।
एकबार सुमन ने वसीम भैया को राखी भी बांधी। उसके बाद फिर कभी मिलना हुआ नहीं। बीसेक सालो मे कितना कुछ बदल गया। इस बार दो कलाइयों पर राखी बाधते सुमन को गर्माहट महसूस हुई। दोनों भाइयों को उसने उनके मनपसंद मोतीचूर के लड्डू खिलाए।
वसीम भैया को जैसे ही पता चला कि सुमन का स्थायी निवास सहारनपुर में है, बोले दीदी, मुझे दो दिन बाद वहीं जाना है। अपने पुराने घर। रुक जाओ, साथ ही चलेंगे। तुम्हारे हाथ का खाना भी बरसो से ड्यू है।
क्या देखेंगे वहां सुमन कुछ सकुचा गई आप आइए जरूर भैया, सुमन ने कहा पर मुझे तो आज ही लौटना होगा।
भैया ने बात को संभाला ये रुक नहीं सकती। तुम्हें मालूम नहीं, दीदी के बीस बच्चे हैं। उनके केरियर का जिम्मा इनपर ही है। भैया जानते थे कि बच्चों को पढ़ाना सुम्मी दीदी के लिए पेशा नहीं, एक जुनून बन गया था।
रेलगाड़ी ने अब स्पीड पकड़ ली थी। तोहफे का पैकेट हाथ में ही था। बादाम, काजू, किशमिश के एक खूबसूरत डिब्बे के साथ, भाभी ने तोहफे में उसकी पसंदीदा हरे रंग के बॉर्डर वाली आसमानी रंग की हैडलूम की संबलपुरी साड़ी दी थी। दोनों रंगों का मिलना जैसे एक सिहरन पैदा कर रहा था। यह सिर्फ साड़ी नहीं थी, रिश्तों का एक बार फिर से जुड़ना था जो बीच में कुछ सालों के लिए बदरंग हो गए थे।
कभी कभी समय खुद एक इबारत लिख जाता है और अनचाहे आप उसका हिस्सा बन जाते है।
रेलगाड़ी की तेज रफ्तार के साथ-साथ बीता हुआ सबकुछ एक फिल्म की तरह एक के बाद एक दृश्य की तरह सुमन के सामने से गुज़र रहा था जहां एक मंजिला कोठी थी जिसमें उसका बचपन बीता था। बस, एक सुमन और एक छोटा भाई। सुमन और भाई के बीच मां की दो संताने गुजर गई। मिन्नतों के बाद भाई पैदा हुआ। सलामत रहा। सबका लाड़ला । भाई बहन दोनों अक्सर लूडो और कैरम खेलते। रॉदू भाई हारता तो रोने लगता। कैरम में सुमन गलत निशाना लगाकर भाई को जीतने देती। हर बार जीतता था भाई और भाई को फुदकते देख, झूठमूठ ही वह रूठने का अभिनय करती। अपनी हार का भी जश्न मनाती, उसके गालों पर चिकोटियां काटती।
इसी कोठी की देहरी से, अपने माल असबाब के साथ सुमन दीदी एक दिन विदा हो गई। भाई बिलख बिलख कर रोया। पांच साल बाद भाई ने अपनी मर्जी की लडकी से शादी की। मा और पिता इस प्रेम विवाह के खिलाफ थे पर उन्हें किसी तरह सुमन ने मनाया। नयी नवेली भाभी का उसने खूब लाड़ चाव के साथ स्वागत किया।
फिर अचानक सबकुछ बदलता ही चला गया। इसी कोठी के सबसे बड़े कमरे में पिता को अचानक दिल का दौरा पड़ा और मां बेचारी सी अपने लहीम शहीम पति को जाते देखती रही। पिता नहीं लिख पाये अपनी वसीयत, नहीं देख पाये कि दामाद भी उसी साल हादसे का शिकार हो गया और बेटी अकेली रह गयी।
मां ने कहा- तुझे अकेले रहने की ज़रूरत नहीं। इस कोठी में एक हिस्सा तेरा भी है, तू उस हिस्से में रह लेना। मां के यह कहते ही भाई ने आंखें तरेरी और भाभी ने मुंह सिकोड़ लिया।
वकील ने इधर नोटिस के कागज तैयार किये और खबर उधर तैरती जा पहुंची। बस, उस एक साल भाई ने न अपने बेटे के जन्मदिन पर बुलाया, न राखी पर आने की इजाजत दी।
उसने न मां की सुनी, न वकील की। नोटिस के कागज के चार टुकड़े किए और कूड़े में फेंक दिए। लूडो और कैरम में हारने वाली बहन को अब अपने भाई को कटघरे में खड़ा कर अपनी जीत का जश्न नहीं मनाना। उसने कहा नहीं चाहिये मुझे खैरात। मैं जहां हूं, वहीं भली! अपने रोटी पानी के जुगाड में, बच्चों की ट्यूशन में अपने पैर जमा लिये। तब से वहीं है, अपने शहर सहारनपुर ।
पति भी असमय हार्ट अटैक से चले गए। मां भी एकाएक विदा हो गई। जाते-जाते मां ने उसकी हथेली अपने हाथों में थाम ली थी और उसे भरी भरी आंखों से देख रही थी। उसने मां की हथेली पर प्यार से तसल्ली दी मां चिंता मत करो। अपनी छोटी सी बगिया में खुश है तुम्हारी बेटी।
और सचमुच वह खुश थी। धीरे धीरे अपना वह छोटा सा कमरा भी सुमन को कोठी सा लगने लगा। जहां बच्चे खिलखिलाते आते-जाते थे, कॉपी किताबें बिखेर जाते थे, जिन्हें सहेजना सुकून देता था! 
अगले साल राखी पर आने का न्यौता दिया भाई ने। कहा बच्चे याद करते है बुआ को और अब तो हर साल बड़े चाव से जाती है उसके बच्चों के लिये अपनी औकात भर उपहार लेकर। जितना ले जाती है. उससे कही ज्यादा वे उसकी झोली में भर देते हैं। अब यह सिल्क की साडी ही तीन चार हजार से कम क्या होगी, वह एहतियात से तह लगाकर अटैची में डाल देती है।
कितना अच्छा है राखी का त्यौहार ! बिछडे भाई बहनों को मिला देता है, कोठी के एक हिस्से पर हक जताकर क्या वह सुख मिलता, जो मिलता है भाई की कलाई पर राखी बांध कर !
मायके का दरवाजा खुला रहने का मतलब क्या होता है, यह बात सिर्फ वह बहन जानती है जो उम्र के इस पड़ाव पर भी इतनी भोली है कि इसकी बहुत बड़ी कीमत चुका कर अपने को बडा मानती है।
रेल थम गई थी। रिक्शा लेकर वह अपने घर पहुंची। सामान रखा। रसोई समेटी। काम वाली इमरती बाई भी हाजिर हो गई। शाम होने से पहले चहकते हुए बच्चे भी अपनी किताबे सहेजे चहकते हुए आ पहुंचे। अपनी नियमित दिनचर्या से उसकी सांसें सम पर आ गई। क्लास के बाद उसने बच्चों का मुंह मीठा करवाया।
अगले दिन घंटी बजी तो सामने वसीम भैया थे। कलाई पर परसों का लाल धागा चमक रहा था।
चलो सुम्मी दीदी, आपको अपना घर दिखाने ले चलता हूं। सुमन जैसे तैयार ही बैठी थी। गाड़ी से वहां पहुंचने में पंद्रह मिनट ही लगे। सुबह सुबह सड़कों पर इतना ट्रैफिक नहीं होता। गाड़ी एक पुरानी बड़ी सी कोठी के सामने रुक गई। सुमन हकबकायी सी देखती रही।
गाडी रुकते ही एक बूढ़ा सा आदमी चला आया। यह रामदीन काका है. पिछले दस सालों से यही देख-रेख कर रहे हैं। इनका बेटा रुड़की के इंजीनियरिंग कॉलेज में पढ़ रहा है।
आओ न दीदी, यह अब्बू का पुश्तैनी घर है। दीदी, एक बात कहूं, मना मत करना। बहुत परेशान था कि इस घर का क्या करूं। ऐनी और दोनों बच्चे भारत आना नहीं चाहते। वे वहां रच-बस गए है। बस, मैं ही वहां का पूरी तरह नहीं हो पाया। कुछ समझ नहीं पा रहा था कि इस घर का क्या करूं। ईंट गारे की दीवारे ही हैं पर इनसे इस कदर जुड़ाव है कि छूटता नहीं। तुमसे ज्यादा भरोसेमंद कौन हो सकता है जिसने अपनी जिंदगी इन गरीब बच्चों में खपा दी। इन्हीं बच्चों में कल के जवाहरात छिपे हैं।
प्रकृति एक दिन उसके लिए इतनी मुलायम हो जाएगी, उसने सोचा भी नहीं था। स्तब्ध सी सुमन बस्, भरी आंखों से ताकती रही
वसीम भैया की आवाज रुंध गई थी मना मत करना दीदी। यह कोठी हमेशा तुम्हारी एहसानमंद रहेगी। इसे किसी और को सौंप नहीं सकता था। इसे बेचकर पैसा वहां ले जाऊ जहां इसकी जरूरत ही नहीं है? और इस मिट्टी का अहसान आखिर कैसे चुकाता जहां मेरी पैदाइश हुई। यहां रहकर कुछ कर नहीं पाया, इसका मलाल शायद कम हो सके। कल रजिस्ट्री करवाने चलेंगे दीदी...
सुमन की आखें नम थी। उसके बच्चे कैसे खिल उठेंगे इसे देखकर। और यह घर उनके लिए तो जन्नत था जिन्हें जगह की कमी की वजह से वह बुला नहीं पाती थी।
तभी वसीम भैया की आवाज आई- 'लेकिन दीदी, अब यह रामदीन काका भी तुम्हारी ही ज़िम्मेदारी है। बस, समझ लेना, इस जमीन के साथ इन्हें भी तुम्हारे हाथ सौंप रहा हूं। मेरी अमानत हैं ये।