कुछ यात्राएँ ना चाहते हुए भी वर्षों के लिए स्थगित रह जाती हैं। ऐसी ही एक यात्रा मेरी भी बरसों स्थगित ही रह गई थी। यह यात्रा थी ग़ज़ल सम्राट दुष्यंत कुमार के गाँव राजपुर नवादा की। एक छोटा सा गाँव, जो ग़ज़ल का तीर्थ सा बन गया है। ऐसा बिल्कुल नहीं था कि मेरे लिए वह यात्रा इतनी दुरूह थी कि उसे आसानी से मैं ना कर पाती। राजपुर नवादा बिजनौर से मात्र इकत्तीस-बत्तीस किलोमीटर की दूरी पर होगा और बिजनौर मैं हर दो - चार माह में जाती ही रहती हूँ, क्योंकि वहाँ मेरा पीहर हैै।
दूसरे आकाशवाणी नजीबाबाद से मेरी कहानियाँ भी प्रसारित होती रहती हैं, जो बिजनौर के पास ही है।
मैं वहाँ क्यों जाना चाहती थी? कारण? इस गाँव में एक बालक का जन्म हुआ, यूँ बालकों के जन्म होते ही रहते हैं पर यह बच्चा दूसरों जैसा नहीं था। वह तो विलक्षण था। राजपुर नवादा गाँव के पास मालन नदी बहती है। उसके किनारे कण्व ऋषि का आश्रम था जहाँ कभी शकुंतला और दुष्यंत के प्रेम ने साँस ली थी। सम्भवतः इसीलिए पिता और माता ने अपने पुत्र का नाम दुष्यंत रख दिया। पिता खेती के साथ-साथ कोर्ट कचहरी भी देखते थे। वे शेरों-शायरी के भी शौक़ीन थे, जिसका असर बालक दुष्यंत पर भी पड़ा। किसे पता था कि वह बालक विलक्षण होगा और वह जरा से गाँव राजपुर नवादा का नाम आसमान की ऊँचाइयों पर टाँक देगा। अपनी लेखनी का ऐसा जादू चलाएगा की ग़ज़ल की धारा को बदल कर रख देगा। पुरातन लीक पर चलती हुई गजल को एक नई राह देगा। उसे उर्दू और अरबी की दहलीज़ से निकाल कर उसका लिबास पूरी तरह ही बदल देगा।
यह भी कौन जानता था कि वह बालक युवा होकर इतना निडर होगा कि सरकार में रहकर सरकार के विरोध में बोलने से भी भय नहीं खाएगा। भले उसे मंत्रियों द्वारा तलब ही क्यों ना कर लिया जाए। नहीं, मेरा मकसद दुष्यंत कुमार पर कोई शोध आलेख जैसा लिखना नहीं है, बल्कि उनके पैतृक घर को देखना और उसमें उन्हें और उनकी स्मृतियां तलाशना है।
दुष्यंत कुमार के पैतृक गाँव राजपुर नवादा जाने की योजना अंततः संभव हो पाई, नजीबाबाद कहानी रिकॉर्डिंग कराने के बाद। मेरा वहाँ जाने का उद्देश्य उनके घर को देखना भर नहीं था, उस घर में उन्हें महसूस करना था। उन्हें खेलते, बढ़ते और उनकी आँखों में विद्रोह के तेवर की शुरुआत को अनुभव करना था। दुष्यंत कुमार को केंद्र बनाकर असंख्य शोध किए जा चुके हैं और अनेक आलेख लिखे जा चुके हैं। उनका जीवन, उनका लेखन, उनकी राजनीतिक चेतना, उनकी सामाजिक प्रतिबद्धता, उनकी रचनाओं में प्रेम या अन्य अनेक विषयों पर विपुलता में लिखा गया है। मैं भला क्या कुछ नया ला सकती थी। इसलिए मेरा यह वृत्तांत उनके घर से होते हुए उन तक जाएगा।
इनसे मिलिए ये हैं दुष्यंत कुमार!
उसका जन्म भगवत सहाय और रामकिशोरी देवी के घर में हुआ था, राजपुर नवादा गाँव के पास...उनका बालपन भले ही किसी ज़मींदार के पुत्र की तरह बीता हो, परंतु वे गाँव के बच्चों में मिलजुल कर रहें। बचपन में ही कविता उनके भीतर अँखुआने लगी थी। पाँचवी तक शिक्षा अपने गाँव की पाठशाला में प्राप्त की। 1948 में एस. एन. एस हाईस्कूल, नहटौर से दसवीं और 1950 में एस. एन. इंटर कॉलेज चन्दौसी से बारहवीं पास की। वे कुछ दिनों तक अपने भाई महेंद्र नारायण के साथ रहकर मुज़फ़्फ़रनगर भी पढ़े थे परंतु भाई की ट्रेन हादसे में मौत के कारण वे वापस नहटौर लौट आए।
1950-54 तक उन्होंने इलाहबाद में रहकर बी.ए और एम.ए की शिक्षा ग्रहण की। वहाँ उनकी दोस्ती मार्कण्डेय और कमलेश्वर से हुई। इन तीनों की तिकड़ी को “त्रिशूल” नाम से जाना जाता था। तत्कालीन इलाहाबाद का साहित्य सुमित्रा नंदन पंत, महादेवी वर्मा, धर्मवीर भारती, निराला आदि के नाम से पहचाना जाता था, कहते हैं कि त्रिशूल ने इस वर्चस्व को तोड़ दिया था। धर्मवीर भारती जी ने दुष्यंत कुमार के विषय में कहा था कि-
“पाँव से सिर तक जैसे एक जुगनू,
माथे पर चिंताओं का एक समूह।
भौंहों पर बैठी हरदम यम की रूह।
तिनकों से उड़ते रहने वाले बाल,
कितने अजीब हैं इनके भी व्यापार,
इनसे मिलिए ये हैं दुष्यंत कुमार ।”
मुझमें बसते हैं करोड़ों लोग, चुप कैसे रहूं?
यही समय था जब दुष्यंत कुमार ने गीत, ग़ज़ल कविताएँ, मुक्तक, नाटक और कहानियाँ लिखना शुरू किया। उन्होंने उपन्यास भी लिखे। चन्दौसी में पढ़ाई के दौरान, एक बार कॉलेज देर से आने पर हिंदी के प्रोफ़ेसर श्री गंगा शरण शील जी ने दुष्यंत कुमार से उनका परिचय पूछ लिया, तो वह भी बताया उन्होंने अपने निराले अन्दाज़ में। कहा मैं ज़िला बिजनौर के उस क्षेत्र का निवासी हूँ, जहाँ कण्व के आश्रम में शकुंतला और दुष्यंत की प्रणय लीला हुई और इत्तफ़ाक़ से मेरा नाम भी दुष्यंत ही है। इतना ही नहीं वे छात्राओं की ओर भी
मुड़े और बोले 'परदेसी' नाम से कविताएँ लिखता हूँ। आपके लिए अब तक हूँ भी परदेसी ही, किंतु आगे परदेसी नहीं रहूँगा, प्रियतम बन जाने का इरादा है।' कहते हैं कि उनकी किसी सहपाठिन प्रेम लता त्यागी से उनका प्रेम भी था। उन्होंने मुरादाबाद से बी एड किया फिर किरतपुर में अध्यापन। ग़ज़लों के सिवा वे पंजा लड़ाने के भी चैम्पियन थे।
1958 में उन्होंने आकाशवाणी दिल्ली के हिंदी वार्ता विभाग में स्क्रिप्ट राइटर के रूप में कार्य किया। यहाँ उनकी प्रतिभा निखरी और राजेंद्र यादव तथा मोहन राकेश से मुलाक़ात हुई। अपने छोटे भाई और बच्चों की पढ़ाई के लिए उन्होंने मेरठ में रहना बेहतर समझा क्योंकि इतने कम पैसों में दिल्ली में गुज़ारा होना मुश्किल था। उसके बाद उनका स्थानांतरण भोपाल हो गया। यहीं उनका लेखन गम्भीरता से आरम्भ हुआ। आकाशवाणी की नौकरी छोड़ दी और फिर राज्य सरकार के राजभाषा विभाग में सहायक सम्पादक के पद पर नौकरी कर ली। यहीं उनका उस विभागीय मंत्री से विवाद हुआ था। वेेे निलम्बितत हुए और पुनः बहाल भी। देश में आपात काल के समय दुष्यंत कुमार का स्वर विद्रोही बन गया था, उन्होंने कहा- 'मुझमें बसते हैं करोड़ों लोग, चुप कैसे रहूं?/हर गज़ल अब सल्तनत के नाम इक बयान है।'
हम घर में भटके हैं कैसे ठौर-ठिकाने पाएँगे?
मेरे छोटे वाले भैया वीपेन्द्र वीर सिंह जी, वरिष्ठ कवि इंद्रदेव भारती जी, आकाशवाणी में कृषि चर्चा करने वाले आलोक त्यागी जी (दुष्यंत कुमार के सुपुत्र नहीं, उनके बालसखा सत्यदेव जी के पुत्र), मेरे बड़े भतीजे की पत्नी संजना सिंह और मैं, हम सब राजपुर नवादा गाँव की ओर जाने वाली सड़क पर मुड़ गए। नजीबाबाद की ओर से आने पर बाईं तरफ़ गाँव की सड़क पर मुड़ते ही, ग्रेनाइट पत्थर से बना एक बड़ा सा द्वार है, जिस पर लाल रंग से “कविराज दुष्यंत त्यागी जी स्मृति द्वार” अंकित है। हम आलोक त्यागी के मार्गदर्शन में बिजनौर जिले के इस गाँव पहुँचे। घर, जिसकी दीवारें जर्जर हो चुकी हैं। छत कहीं है, तो कहीं नहीं भी है। चिलचिलाती धूप और गर्मी, पसीना-पसीना हो जाना, हम पर कुछ भी तो असर नहीं कर रहा था। ना तो धूप ने हमें पिघलाया, ना पसीने ने परेशान किया और ना कोई थकान ही वहाँ दुष्यंत कुमार की उपस्थिति को अनुभव करने से रोक पाई।
कुछ ही देर में हम दुष्यंत जी के घर के ठीक सामने खड़े थे। मुख्य द्वार पर जाते ही एक सिहरन सी हो आई । यही है वह पावन भूमि जहाँ मेरे प्रिय कवि ने जन्म लिया! प्रवेश द्वार पर घर का नाम लिखा था -'राम जानकी भवन।' बरस दर बरस की प्रतिबद्ध बारिशों के कारण दीवारों से उखड़ते प्लास्टर, काई के सूखे निशान और गिरती हुई, टूटी-फूटी जालियों से गुजरना एक इतिहास से गुजरने जैसा ही था या फिर किसी टाइम मशीन में चले जाना और समय में पीछे लौटने जैसा कुछ। जहां दुष्यंत जी का बचपन, उनकी हठें और उन्हें युवा होते महसूस करना सहज आसान था। दुवारी की छत गिर चुकी है। बस कुछ कड़ियाँ अभी उस पर रखी दिखाई देती हैं। सिर उठाओ तो बिना छत वाली दुवारी निर्बाध आसमान का दर्शन करा देती है। यह दुवारी तो प्रिल्यूड भर है मिलन गीत का, घर तो अभी आगे है। दुवारी पार करते ही घर का मुख्य द्वार हैै, जहाँ जाकर एक टीस, एक दर्द भरी कराह उभरती है। दो पल्लों वाला एक दरवाजा हैै, जिसका एक पल्ला अब शेष नहीं। सहचर से बिछड़े एक पल्ले में साँकल लगी है और उसमें जंग खाया हुआ एक ताला भी लगा है बाक़ायदा। किवाड़ के एक पल्ले ने साथ छोड़ दिया तो क्या ताला तो अपना धर्म निभा रहा है। उसकी मज़बूती में कोई शक नहीं। शायद इस साँकल और ताले के बल पर ही वह अकेला पल्ला अभी तक खड़ा है। ठीक वैसे ही जैसे डूबते को तिनके का भी सहारा हो जाता है।
उस निरीह एकांत में जब दरवाजे के एक पल्ले ने भी उसका साथ छोड़ दिया था। तब उसका साथ देने के लिए किसी पौधे का वहाँ होना ऐसा लगता है जैसे वह उस अकेले उदास दरवाज़े से आत्मीयता से कह रहा हो कि- 'चिंता क्यों करते हो- मैं हूँ ना।' हालाँकि वह अकेला पल्ला भी चौखट से तो अलग हो ही चुका है। अगर ताला और साँकल ना होते तो वह भी अपने दूसरे हिस्से की तरह इतिहास बन चुका होता। ताले को स्पर्श कर लेना मेरे लिए एक विचित्र ही अनुभव था। ताले का अपने धर्म पर अडिग रहना देखकर उसकी तो मैं मुरीद ही हो गई। पर सच कहूँ तो मन में एक बेचैनी भी उभरी। भीतर जाने के लिए मुझे उस बेचैनी से जैसे लड़ना-झगड़ना ही पड़ा। मैं एक खुले पल्ले से होकर भीतर चली गई। आँगन, आँगन ही क्या पूरे घर में हरी-हरी, लंबी-लंबी घास और छोटे-बड़े तमाम पौधों ने अपना डेरा डाला हुआ था। खाली होकर भी वह घर खाली तो बिल्कुल नहीं था। प्रकृति ने उसे अपनी सौगात सौंप रखी है, हरी-भरी घास और पौधों के रूप में। वह सुहृद माँ किसी को अकेला कहाां छोड़ती हैैी दरवाजे के ऊपर सुंदर सा डिजाइन है, जो तत्कालीन वास्तु कला का एक हिस्सा है। घर की बनावट देखकर आज भी गृहस्वामी की तत्कालीन संपन्नता और सुरुचि की झलक साफ दिखाई देती है।
घर में कई कमरे हैं। एक कमरे के एक कोने में एक आराम कुर्सी खड़ी है। मजबूत लकड़ी होने के बावजूद उसके अगले पाँव नहीं है। मजबूती कितनी भी क्यों ना हो पर बिना साज-संवार वह कमजोरी में परिवर्तित होती ज़रूर है, भले ही थोड़ी देर लगती हो। अपवादों को त्याग दे तो हर बल को एक दिन निर्बलता में परिवर्तित होना ही होता है, अपने अंत के आसपास या उससे कुछ पूर्व। जब दुष्यंत कुमार गाँव में रहते होंगे या भोपाल से जब गाँव आते होंगे, तब इस कुर्सी पर कभी बैठे तो जरूर होंगे। यही मन में आता रहा बार-बार। स्पर्श कभी मरते नहीं, काठ होकर भी नहीं शायद। काठ तो चीजों को और भी अच्छा सोखता है। तभी तो वह कुर्सी बेजान सी होकर भी जीवन से कुछ-कुछ स्पंदित सी लगी थी। हम जैसे घर में, उसके स्पंदन में खोए खड़े हैं-
'मेले में भटके होते तो कोई घर पहुँचा जाता
हम घर में भटके हैं कैसे ठौर-ठिकाने पाएँगे?'
कहाँ तो तय था चरागाँ हर एक घर के लिए
आगे चले तो एक और कुर्सी थी। सोफे की सिंगल वाली कुर्सी। वह जमीन में खुले आसमान के तले औंधी पड़ी थी, ना जाने कब से। उस पर तमाम मिट्टी एकत्रित हो गई थी । बरसात ने मदद की और कुर्सी की गोद में आ गई उस मिट्टी में कई नन्हें-नन्हें बरसाती पौधों ने जीवन पाया। यह प्रकृति की रचनात्मकता का अनन्य उदाहरण था, इस तरह उसने कुर्सी को सृजनशील और जीवित रखा था। कभी उस कुर्सी पर बैठकर कुछ रचनाएँ दुष्यंत जी द्वारा लिखी गई होंगी या उनका पाठ किया गया होगा और उस कुर्सी ने अतीत की दुष्यंत कुमार की रचनात्मकता को आत्मसात् कर लिया हो।; तभी तो उसने प्रकृति की वे कई सुंदर-सुंदर रचनाएँ अपनी गोद में लिख डाली थी, उन नन्हेंं-नन्हें पौधों के रूप में। आँगन घर के सदस्यों से रिक्त था पर अकेला नहीं। सैकड़ों तन्वंगी बेलेंं और जंगली घास के झुरमुट उसके साथ खड़े थेे, बिना किसी शर्त। आँगन की दीवार में बड़े-बड़े आले हैं, जिनमें से किसी में भी किसी चिराग का कोई तो नामों-निशान तक नहीं।
आज संदूक से वो खत तो निकालो यारों
आँगन में गड़ा खड़ा था जंग लगा बिना हत्थी वाला पुराना नल। संभव है प्रतीक्षारत है कि कोई आए और उसे संचालित कर उसके होठों को पानी से तर कर दे। क्योंकि वह जानता है कि धरती के भीतर जहाँ तक उसकी नाल गड़ी है वहाँ अभी तक पानी मौजूद है। वह खुद निष्क्रिय है तो क्या हुआ, पानी तो ख़त्म नहीं हुआ है। पर कौन जाने तब से अब तक पानी का स्तर कितना नीचे चला गया होगा? इसके बाद हम अंदर गए जहाँ कमरे में एक लकड़ी की मज़बूत खूँटी पर पोस्ट कार्ड पर लिखे, एक तार में खुँसे तमाम पत्र टंगे हैं, जिनकी लिखावट अभी तक सुरक्षित है, पढ़ी जा सकती है। भाषा उर्दू है। किसी ने बताया कि वे पत्र दुष्यंत कुमार के पिताजी के नाम हैं। यों नाज़ुक सा कागज़ भी बिना किसी देख-भाल, रख-रखाव इतने वर्षों तक जीवित रह जाता है ! तो क्या आश्चर्य है कि अभी तक आदम सभ्यताओं के सबूत या करोड़ों बरस पुराने डायनासोरों के जीवाश्म हमें धरती या बर्फ में दबे सुरक्षित मिल जाते हैं। खतों को देखकर दुष्यंत जी का एक और शेर याद आया-
आज सीवन को उधेड़ों तो जरा देखेंगे,
आज संदूक से वो खत तो निकालो यारों!
एक खत को ध्यान से देखा तो 1965 जुलाई की कोई तारीख थी। वह पत्र देखना भी जैसे इतिहास की किसी उथली कोटर में लौट जाने जैसा था।
प्रयोग करने वालों से उपेक्षित ही सही, कुछ और सामान आज भी है घर में। तीन तख़्तों को जोड़कर बनाई गई लकड़ी की एक मेज़ वहाँ मुखरता से अपनी उपस्थिति दर्ज करा रही थी। समय ने उसे वृद्ध अवश्य कर दिया है, परंतु किसी दीमक, किसी घुन की यह मजाल नहीं हुई कि उसे ज़रा भी हानि पहुँचा सके। निश्चय ही उस पर बैठकर भी कभी तो कोई नायाब ग़ज़ल उतर आई होगी किसी झक सफ़ेद काग़ज़ पर। शायद उनकी युवावस्था में, शायद उन दिनों कभी जब वे भोपाल से गाँव आते थे, अपनी प्रौढ़ावस्था में। कोई चाहे तो उस मेज को झाड़-पोंछ कर आज भी इतिहास से वर्तमान में ला सकता है।
किसी स्थानीय निवासी ने बताया कि पिछले बरस तक यह मेज़ ख़ाली नहीं थी। इस पर एक ग्रामोफोन रखा रहता था। अब वह वहाँ नहीं है ।यह भी उन्हीं स्थानीय निवासी ने बताया कि पिछले दिनों डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट आए थे घर देखने। वे दुष्यंत कुमार के बहुत बड़े प्रशंसक हैं। घर की दशा देखकर उनकी आँखें भर आई थी और वे उस ग्रामोफोन को अपने साथ ले गए। बाद में दुष्यंत कुमार के ज्येष्ठ पुत्र श्री आलोक त्यागी जी के द्वारा पता लगा कि वे डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट उस घर के जीर्णोद्धार के लिए प्रयासरत हैं। तो आशा जगती है कि इस घर की निर्जनता इतिहास हो सकती है। इसका कष्टदाई, भाँय-भाँय करता एकांत बीते समय की बात हो जाएगा।
वरांडे में एक अलमारी बनी है। खााली-खाली हर सामान से, पर मकड़ियों से उसका अकेलापन देखा नहीं गया होगा। उन्हें किसी के द्वारा वसीयत या किसी कानूनी प्रक्रिया की ज़हमत उठाने की आवश्यकता भी नहीं थी। अतः उन्होंने उसमें अपना निवास या कहें शिकारगाह बना लिया। सच कहूँ तो दिल धार-धार रोया तब, जब मोटे-मोटे घने जालों से भरी उस अलमारी को देखा, उस घर को देखा और अब फिर जब उसे लिखकर एक दस्तावेज के रूप में सहेज रही हूँ। फिर-फिर देख रही हूँ। मध जैसे दुष्यंत कुमार की ही ग़ज़ल गुनगुना रहा है।
'हो गई है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिए,
इस हिमालय से कोई गंगा निकालनी चाहिए।'
आज वीरान अपना घर देखा, तो कई बार झाँक कर देखा
बड़े से कमरों में बनी अलमारी के पल्ले नीले रंग के पेंट से रंगे सुरक्षित है। रंग के नाम पर पौधों और काई के हरे रंग के अलावे बस यही रंग बचा है घर के हिस्से में, जो वहाँ रखे बक्सों पर भी है। बक्से भी खाली है। मजबूत लकड़ी से बने बड़े -बड़े बक्से। एक कमरे के कोने में मिट्टी कंकर के सान्निध्य में खड़ी उसी नीले पेंट से पुती अलमारी भी अकेलेपन के दंश को झेल रही है। जिस दिन वह बनकर आई होगी उस दिन गृहिणी खुशी से फूली नहीं समाई होगी। संभव है कि वह गृहिणी दुष्यंत कुमार की माता जी रही हों।
घर से अलग उसके सामने एक बैठक है। बैठक पुरानी है पर घर की तरह उसका वास्तु भी पुराने समय में परिवार की संपन्नता और उत्तम रुचि का परिचय देता है। उसके एक कक्ष के दरवाज़े पर ताला लटका है। जिस कक्ष के दरवाज़े पर ताला लगा है उस पर “दुष्यंत कुमार स्मृति पुस्तकालय” की पट्टी लगी है। भीतर क्या हाल है पुस्तकों का कौन जाने! परंतु उसके बाहर वरांडे का एक कोना कबाड़ से भरा पड़ा है। एक मशीन, शायद थ्रेशर, रखी है। सामने बड़ी सी नाँद है, जिसमें पशुओं को पानी पिलाया जाता है। और पानी पीने वाले एक दो पशु भी इस वरांडे में बंधे हैं। बाईं तरफ़ से ऊपर जाता हुआ जीना है। पीछे घने पेड़ों का झुंड है। सामने आँगन में कुट्टी काटने वाली मशीन लगी है।
जब हम पुस्तकालय देखने गए तो भीतर से गेट की साँकल लगी थी। हमारे गेट खटकाने पर कोई महिला आई, जिन्होंने दरवाजा खोला। हम उन्हें अभिवादन करके अंदर चले गए। वह हमें अपने हिस्से की सरहद बताने लगी। नहीं, हमें इनके-उनके किसी के हिस्से में कोई रुचि नहीं थी। हमारी निगाह तो बस पुस्तकालय पर टिकी थी। आँगन में सरहद पर खड़ा युवा अमरूद का पेड़ साक्षी है इस बात का। टेराकोटा रंग के मजबूत खम्बे, उन पर सुंदर डिजाइन की कटदार सफेद रंग से पुती जालियाँ, अतीत का सौंदर्य बनकर मौन खड़ी थीं। दुष्यंत कुमार स्मृति पुस्तकालय के बाईं तरफ़ वरांडे में एक कटिया (भैंस की बच्ची) बंधी थी, वह क्या जाने पुस्तकालय क्या, अक्षर क्या। उसके लिए तो काला अक्षर ...उस पुस्तकालय को देखना मुश्किल था, मन भारी हो उठा। उसके एक तरफ टूटी हुई एक चारपाई थी। टूटी खुद भी थी परंतु एक दूसरी चारपाई के अवशेष अपनी पीठ पर लादे थी। वे दो चारपाई मुझे तो अपनी युवावस्था के वैभव की स्मृतियाँ साझा करती दो बहनों सी लगी, जो एक दूसरे के गले लग कर अपनी दयनीय स्थिति पर आँसू बहा रही थीं या अपने सुनहरे दिनों को याद कर असहाय पलों में भी मुस्कुरा रही थीं जैसे। कहीं छत से गिरी कड़ियाँ, ईंट, तख्ते और मिट्टी पड़े थे जिन्हें देखना सचमुच बहुत कष्टकर था।
यों जगह-जगह अनेक खंडहर दिखाई देते ही है परंतु ऐसी टीस नहीं उठती मन में। इस खंडहर की बात कुछ जुदा है। इससे जुड़ी संवेदनाएं कितना कुछ कहला रही हैं मुझसे, हैरान हूँ! ऐसा लगा जैसे दुष्यंत कुमार खड़े हुए खुद ही अपना शेर पढ़ रहे हों-
'आज वीरान अपना घर देखा,
तो कई बार झाँक कर देखा।
होश में आ गए कई सपने,
आज हमने वो खण्डहर देखा।'
घर से बाहर निकलते हैं तो ऊँची शहतीर में जड़ी एक खिड़की है। उसके ऊपर कोई छत नहीं रही अब। सूरज तमाम बादलों को हटाकर उस खिड़की के भीतर से झाँक रहा था। नजरों को चौंधिया रहा था, ठीक दुष्यंत कुमार के नाम की तरह। वहाँ उस शहतीर पर उनका यह शेर छपा होोेजैसे -
'यह जो शहतीर है पलकों पर उठा लो यारों,
अब कोई ऐसा तरीका भी निकालो यारों।'
घर अपने अंतहीन एकांत को ख़त्म करने की गुहार कर रहा है। मैंने उसकी अनसुनी की हो मैं ठीक-ठीक यह नहीं कह सकती, पर उसकी इस करुण पुकार के लिए मैं क्या कर पाऊँगी यह भी नहीं जानती। हाँ लिखकर घर की गुहार को जन-जन तक पहुँचाने का ज़िम्मा लिया, सो कर रही हूँ।जो भी हो मैं घर से निकल आई हूँ। पर आई शायद मैं पूरी नही हूँ , मेरे मन का कोई हिस्सा वही छूट गया है जैसे।
दुष्यंत कुमार के बालसखा से मुलाकात और उन प्रसिद्ध पंक्तियों के रचे जाने की कथा
हमारे आलोक त्यागी जी भी साथ हैं। वह हमें अपने घर लिए चल रहे हैं। अपने बुजुर्ग पिता जी को भी हमसे मिलवाने के लिए बुला लाए हैं। दोपहर है। उनके आराम में ख़लल डालना ठीक नहीं। परंतु जब पता चला कि वे दुष्यंत कुमार के एकमात्र जीवित बाल सखा है, तो दुष्यंत कुमार के बाल सखा से बात करने का अनुभव कितना अनूठा होगा यह सोचकर मैंने उनके आराम में ख़लल डालने के बावजूद खुद को खुद ही अपराध मुक्त कर दिया है। उनसे बात कर अनेक रोचक बातें सामने आईं। दुष्यंत कुमार गाँव में रहते हुए और गाँव से निकल कर भी, उनके पास हमेशा आते रहते थे।
उनके बाल सखा जो अब 92 वर्ष के हैं वह रघुनाथपुर, राजपुर नवादा के नजदीक के ही निवासी हैं उनका शुभ नाम श्री सत्य कुमार त्यागी है। त्यागी जी ने हमारे साथ बहुत से अनुभव साझा किये। बातें करते हुए वे बार-बार भावुक हुए जा रहे थे। उन्होंने बताया कि दुष्यंत कुमार गाँव आते थे तो कहते थे कि 'मैं यहाँ ग्रामीण अनुभव लेने आता हूँ। वे नजीबाबाद स्टेशन से उतरकर जैसे ही अपने गाँव के रास्ते पर मुड़ते, सिगरेट फेंक देते और एक बीड़ी का पैकेट खरीदते ताकि स्थानीय पुराने लोगों में सरलता से शामिल हुआ जा सके और पूर्णतः ग्रामीण वातावरण का मकरंद पिया जा सके। गाँव जाने के लिए कभी किसी की बैल गाड़ी पर बैठ जाते और बतियाते चले जाते, कभी किसी की साइकिल पर। वे हमेशा यही करते।'
सत्य कुमार त्यागी जी ने यह भी बताया कि कभी उनका कोई मुकदमा चल रहा था, जो वे निचली अदालत में हार चुके थे और हाई कोर्ट में अपील की थी। हार वे हाईकोर्ट में भी गए। वहाँ हारने के बाद वे निराशा में बैठे थे। दुष्यंत कुमार ने उन्हें सुप्रीम कोर्ट में अपील की राय दी। अपील की गई और सत्य देव त्यागी जी वह मुकदमा जीत गए।तब अपनी जानी पहचानी रौ में दुष्यंत कुमार ने पहली बार अपना वह कालजयी शेर पढा था -
'कैसे आकाश में सूराख हो नहीं सकता,
एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो!'
दुष्यंत कुमार के बालसखा त्यागी जी यह बताते हुए सबसे अधिक भावुक हुए और सचमुच रो ही पड़े थे।
हम लौट कर चल पड़े हैं गाँव के रास्ते और पगडंडियाँ छूटती जा रही हैं। घर पुकार रहा है। सुनो, क्या तुम भी दूसरों की तरह एक औपचारिक दर्शक भर ही सिद्ध होगी या मुझे मेरा अभीष्ट गौरव मिले, उसके लिए कुछ करोगी भी? आख़िर मैंने तुम्हारे प्रिय कवि को पाला-पोसा है, अपनी गोदी में, अपने छांव में? मेरे पास बनवास झेल रहे उस निरीह घर के प्रश्न के उत्तर में कहने के लिए या आश्वासन देने के लिए कोई शब्द नहीं हैं, जो हैं भी वह भी मुकरे जा रहे हैं एकदम से। जैसे गूँगे हो गए हैं।
पर मैं यह कहना चाहती हूँ और जरूर कहना चाहती हूं कि जैसे भी हो, इस घर की सूरत ज़रूर बदलनी चाहिए।