कभी-कभी किसी लेखक की एक ही कृति उसे अमर रखने के लिए काफी होती है और हर बड़े लेखक के हिस्से कोई एक ऐसी कृति जरूर होती है। यह जरूरी नहीं कि वह उसकी सर्वोत्तम रचना हो, पर अक्सर वह लेखक का अगला पिछला सब लीलते हुए उसकी पहचान का पर्याय जरूर हो जाती है। 'काला जल' भी शानी लिखित एक ऐसा ही उपन्यास है।
हिंदुस्तानी उपन्यास के विकास क्रम में 'काला जल' की दस्तावेजी अहमियत उसके पहले संस्करण (1965) से ही स्थापित हो गई थी और यह उपन्यास आज भी हिंदी के 10 सर्वश्रेष्ठ कालजयी उपन्यासों में से एक है। अब तक इसके बेशुमार और रिकॉर्ड संस्करण प्रकाशित होते आ रहे हैं और इस लिहाज से यह सबसे ज्यादा पढ़ी जाने वाली साहित्यिक किताबों की पहली कतार में है। यही नहीं कई भाषाओं में इसका अनुवाद भी हुआ और विश्व स्तर पर चर्चा भी। बल्कि यह कहना ज्यादा उपयुक्त होगा कि यह शानी की वह रचना है, जिसने उन्हें युवावस्था में ही 'महानता' के सन्निकट ला खड़ा किया था।
'फ्रेंच साहित्यकार और यथार्थवादी कहानी के प्रणेता माने जाने वाले मोपांसा ने कहा है कि-' हम में से हर एक का जीवन एक उपन्यास है बशर्ते हमें अपने अनुभवों को उपन्यास में ढालना आता हो।' लेकिन सच यह भी है कि अपने को रचने से ज्यादा दुष्कर कुछ और नहीं होता। वह भी बिना किसी आसक्ति और अतिरिक्त छूट के बगैर। शानी ने इस लोभ और लालच को साध लिया था। इस साध लेने के ऐवज में उन्हें जो मिला वो अवर्णनीय था।
किसी लेखक के लिए इससे ज्यादा बड़ा क्या हासिल हो सकता है कि महज उसकी एक कृति उसे किवदंती बना दे और लाख कोशिशों के बावजूद वह उस सरीखी दूसरी रचना संभव न कर पाए। यही नहीं कोई अन्य रचनाकार भी वैसा कुछ या उसके समानांतर न रच पाये? इसीलिए यह भी कहा जाता है कि 'काला जल' शानी का कीर्ति स्तंभ भी है और समाधि-लेख भी।
शानी ने इसे 1959 के आसपास लिखना शुरू किया था और 1961 तक अंजाम दे दिया। इस अवधि तक वे बाकी सबकुछ भूलकर 'काला जल' में डूबे रहें और खुद को सौंपते रहें। इसकी हस्तलिखित पांडुलिपि 372 पृष्ठों की थी। जिस उपन्यास को आगे चलकर एक ऐतिहासिक मुकाम हासिल करना था, उसकी रचना प्रक्रिया की भी कई दिलचस्प कहानियां हैं और इसके प्रकाशन के किस्से भी कम अजब-गजब नहीं। लेकिन बदनसीबी इस उपन्यास के पात्रों की ही नहीं, बल्कि इसके प्रकाशन की भी नियति थी। पूरे चार साल 'काला जल' की पांडुलिपि छपने के लिए कभी इधर, कभी उधर भटकती रही। यह राजकमल प्रकाशन के पास दो वर्ष तक पड़ी रही, अंततः 1965 में यह राजेंद्र यादव के 'अक्षर प्रकाशन' से आई। और जब अक्षर बंद हुआ तो यह पुनः राजकमल को लौटी। इसका प्रकाशन आलोचकों और पाठकों के बीच एक महत्वपूर्ण साहित्यिक घटना बन कर उभरा।
मुस्लिम-मन की गहरी परतों को इससे पहले किसी ने इस मानिंद नहीं खोला था। यही नहीं कहीं भी, किसी भी भाषा में नहीं। व्यापक हिंदी समाज में जैसे खलबली-सी मच गयी थी।
काला जल' के प्रशंसकों में महान लेखक यशपाल भी शुमार थे। इसे पढ़कर उन्होंने 14 सितंबर, 1966 को उन्होंने शानी को एक पत्र लिखकर उनकी तारीफ की थी -'काला जल' के लिए आपके सामने सादर सिर झुकाता हूं...!' बुजुर्गवार यशपाल की इन पंक्तियों को पढ़ते वक्त शानी की उम्र बमुश्किल 30 साल के आसपास की रही होगी।
प्रख्यात समालोचक डॉ धनंजय वर्मा इस उपन्यास की रचना-प्रक्रिया के चश्मदीद गवाह थे। यह उपन्यास भी उन्हीं को समर्पित है। बकौल डॉ धनंजय वर्मा इस उपन्यास को लिखते वक्त शानी की कैफियत यह थी- ' जब भी देखो, शानी एक तनाव में, व्यग्रता में, एक हौलदिली और हाय-हाय में रहते। जैसे सर पर पहाड़ आ गिरा हो।... सुबह पहुंचा हूं तो उपन्यास के अध्याय सुन रहा हूं, दोपहर मिले हैं तो पात्रों की स्थितियों पर बहस हो रही है, रात पहुंचा हूं तो कोई अनुच्छेद शानी की परेशानी का बायस बना हुआ है... कलम रख, चश्मा उतार, एक हथेली पर चेहरा टिकाए सोच रहा है या लिखे हुए को दो-दो, तीन-तीन बार जोर-जोर से पढ़कर तोला जा रहा है...।'
शानी ने खुद भी स्वीकारा है, ‘लिखना मेरे लिए नितांत निजी यंत्रणाओं से मुक्ति और कुछ तंग करने वाले सवालों से जूझने का माध्यम है। उन्होंने कहा - 'भारत की अल्पसंख्यक जाति मुस्लिम अपने आप में मुझे समस्या लगती है, अतः उसके बारे में सचेतन रूप से या वैसे भी लिखना मेरी विवशता है। मेरा उपन्यास' 'काला जल' इसी दिशा में एक प्रयास है- 'एक विशाल कैनवस पर लिखित, दरअसल, यह उपन्यास 'अतीत-वर्तमान-भविष्य-संबंध' का एक बड़ा नाटक है, जिसका रंगमंच मध्यमवर्गीय मुस्लिम परिवार है।'
काला जल को पढ़ते हुए लेखक के इस विचार से इत्तेफाक रखा जा सकता है। लेकिन उन्होंने इसे कुछ ऐसे रचा है कि यह सिर्फ लेखक की अपनी कहानी न होकर, पूरे मध्यमवर्गीय मुस्लिम समुदाय और उससे भी ज्यादा सभ्य कहाये जाने वाले समाज से किसी हद तक कटे और पीछे छूटे हुए ‘बस्तर’ का रूपक बनकर उभरता है- ‘देखिये मैं बस्तर में बरसों से रह रहा हूं, सोचता था मैं सभी को समझ सकता हूं। पर नहीं वह मेरी भूल थी। लगता है लोग बस यहां सुनते हैं, समझते कुछ नहीं.’ यहां हम बस्तर की जगह अपने गांव, अपने शहर, प्रदेश याकि देश का नाम रख दें तो भी क्या स्थिति वही नहीं रहेगी? संदर्भ से इतर इसके क्या अपने मायने नहीं होंगे। जब हम ’स्व’ में सब को जोड़ पाते हैं तो यह किसी कृति की सबसे बड़ी सक्षमता होती है। फिर वह व्यापक और विस्तृत हो जाती है और हमें भी फैलाकर बड़ा कर देती है, कुछ विस्तार और निस्तार देती हुई। काला जल के संदर्भ में बिलकुल यही कहा जा सकता है। ‘काला जल’ इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि इससे पहले शायद ही कभी मुस्लिम समुदाय का इतना प्रमाणिक चित्रण किसी अन्य कृति में हुआ हो।
‘काला जल’ का नायक बब्बन जो एक तरह से इस उपन्यास का सूत्रधार भी है, कमजोर, दब्बू और बेहद भावनात्मक किरदार है। सल्लो आपा के प्रति उसका किशोरवय आकर्षण सहज है। इस चरित्र से बार-बार शानी के बचपन की समानताएं खोजी जाती रही हैं और शानी ने भी इसे कुछ हद तक इसी तरह रेखांकित किया है। लेकिन क्या हम सब के अंदर एक बब्बन नहीं है? घटनाओ को देखते रहना मग़र उसे बदल न पाना और फिर एक निष्क्रिय तटस्थता से भरते जाना क्या हमारे समय का भी द्वंद्व नही है?
बब्बन के ठीक उलट है मोहसिन का किरदार। सशक्त, समझदार और संभावनाशील। स्वतंत्रता संग्राम का वाहक चरित्र और बेहद प्रखर। सलमा जैसी दबंग स्त्री भी जिसे प्यार करती है। ये दोनों पात्र एक दूसरे के जैसे विलोम हैं। लेकिन मोहसिन बदल जाता है, भटक जाता है। पलायनवादी हो जाता है। जल ‘काला’ है तो शायद इसलिए कि क्रांतिकारी व्यक्तित्व यहां बचते ही नहीं। इन चरित्रों में मुखरता और मौन सापेक्षिक ही है। राजेन्द्र यादव को सबसे बड़ी शिकायत इस किताब से यही थी। वे इसे शानी के किसी आगामी बड़े और महत्वपूर्ण उपन्यास की भूमिका की तरह देखते थे। लेकिन वह बड़ा उपन्यास कभी रचा ही नहीं गया। जो रचा गया वह कभी ‘वह’ नहीं हो सका।
राजेन्द्र जी ने शानी के ‘उपन्यास कला’ की तारीफ तो की पर पात्रों के ‘ठहराव’, ‘नियतिवाद’ की घुटन को भी रेखांकित किया। उन्होंने इसे स्वतंत्रता के बाद के महत्वपूर्ण उपन्यासों में स्थान देते हुए भी इसे आगामी श्रेष्ठ रचनाशीलता की ‘भूमिका’ कहा, और शानी ही नहीं अपनी पूरी पीढ़ी को लक्ष्य करते हुए कहा कि- ‘हम सब भूमिकाओं और प्रस्तावनाओं में ही रुक जाते हैं।' और बहुत हद तक यही सच भी है। सन् 1981 में इस किताब की भूमिका के रूप में आई राजेन्द्र यादव की यह टिप्पणी बेहद महत्वपूर्ण है। इस किताब से गुजरते हुये ऐसा लगता है कि हम सब एक हारी हुई लड़ाई लड़ रहे हैं और उसे स्वीकार नहीं पा रहे हैं।
मिर्जा, रज्जू मियां, रोशन, बब्बन के पिता, किसी की भी आर्थिक स्थिति मजबूत नहीं है। सबसे खराब स्थिति बब्बन के पिता की है। क्लर्की में गबन के कारण घर बेचना पड़ता है। ये पुरूष पात्र भले ही अलग-अलग ढंग से आर्थिक समस्याओं से जूझ रहे हैं, मगर उनकी कुंठा घर-परिवार पर ही प्रकट होती है। पुरुषवाद से ग्रसित इन चरित्रों के अपने-अपने अंतर्विरोध हैं। अपनी कुंठा अपनी पत्नियों को पीटकर निकालना इनके लिये आम है। नैतिक-अनैतिक के मानदंड इनकी अपनी सुविधा के अनुसार है। रज्जु मियां अपनी बहु की बाँह पकड़ लेते है। बब्बन के पिता का किसी और स्त्री से सम्बन्ध है मगर सल्लो आपा की ‘स्वच्छन्दता’ अस्वीकार्य है और हमेशा है।
सल्लो और इस उपन्यास की कुछ स्त्री पात्र बेहद सशक्त, संभावनाशील और आधुनिक हैं। सबसे पहले तो लड़कों के कपड़े पहनकर बब्बन के साथ जाने का बहाना करके मोहसिन से मिलने जानेवाली और धड़ल्ले से सिगरेट फूंकने वाली सल्लो आपा हीं। लेकिन आखिरकार उनकी मृत्यु या फिर आत्महत्या ठीक कुछ वैसी ही लगती है जैसे बहते जल का अचानक अवरुद्ध हो जाना।
यह किताब कहीं यह भी कहती है कि दरअसल अभिशाप की काली छाया हमारे चारों तरफ है। स्वयं लेखक के ऊपर भी...यह परिवार तो उसका प्रतीक भर है और कोई और कैसा भी फातेहा हमें इस परिणति से मुक्ति नहीं दिला सकता। काला जल यहां दरअसल उस ठहरे हुए गंदले समाज का पर्याय है जो विकासहीन है। जिस पर अंधविश्वास और कुरीतियों की जकड़न है। यह एक शोक गीत या मर्सिये की तरह गूंजता है हमारे भीतर-अपने दंश छोड़ते हुए। यह उपन्यास एक ऐसी खिड़की भी है जिसमें झांकने पर हलचलों से भरी एक दुनिया दिखाई देती है जिसमें विशिष्ट चरित्र और उनकी जीवन गंध भरी हुई है। पर उनकी विशिष्टताएं जिंदगी लील जाती है।
‘शब-ए-बरात’ मुस्लिमों के लिए वह दिन होता है जब वे दिवंगतों को याद करते हैं।उस दिन दीपावली की तरह उनके घर रौशन होते हैं, और सूजी और बेसन के बने हलवे से बनी मिठाई बनती है उस दिन; जिसके साथ फातेहा पढ़कर उन्हें याद किया जाता है। यह बहुत कुछ वैसा ही है, जैसे हिंदुओं में पितृपक्ष मनाया जाना। इस लिहाज से तर्पण काफी कुछ फातेहा जैसा ही है। शानी ने इसी ‘शबे बरात’ को एक उपन्यास को बुनने वाली तकनीक की तरह इस्तेमाल किया है। इसमें नायक बब्बन प्रत्येक पात्र के लिए फातेहा पढ़ते हुए उसे कहीं अपने ही भीतर जीता और याद करता है। याद किये जाने की इस प्रक्रिया में व्यक्तियों के पारस्परिक और निजी रिश्ते, मान्यताएं और अंधविश्वास और उद्वेलन वाली स्थितियां सभी एक-एक कर सामने आती जाती हैं।
यह बात दीगर है कि इसके बाद और इससे पहले भी इस दुनिया से कई लेखक हमारे बीच आये और उन्होंने हमें इन जिंदगियों के यथार्थ से गुजरने का मौका भी दिया। इनमें राही मासूम रजा, अब्दुल बिस्मिल्लाह, असगर वजाहत, मेहरुन्निसा परवेज और नासिरा शर्मा जैसे कद्दावर नाम आते हैं। पर शानी वह पहले शख्स थे जिन्होंने इसे इतनी प्रगाढ़ता से जीवंत किया। राही मासूम रजा को जिस सच को रचने के लिए एक पूरे या आधा गांव को रचने की जरुरत पड़ी, शानी ने एक परिवार के कुछ चरित्रों के माध्यम से वह बात कह दी। सचमुच कहने की उनकी तरकीब बहुत आधुनिक और चौंकाऊ थी, साथ इसके बहुत हद तक आत्मीय भी। इतनी की कई-कई दशक बाद जब मैंने अपना पहला उपन्यास 'मेरा पता कोई और है' लिखा तो उसके एक अध्याय में शबे-बारात की इसी शैली का अनुकरण किया।
शानी के करीबी और मित्र रहे कांति कुमार जैन ने शानी के भीतर के अंतर्विरोधों पर भी बात की है। उनके अनुसार जगदलपुर या कहें तो बस्तर शानी के भीतर के रचनाकार का अक्षय पात्र था। इससे दूर होते ही वे अपनी क्रांतिकारी रचना दृष्टि से चूक गए। जबकि उन्हें लगता था दिल्ली जाकर वे और अधिक सक्रिय हो सकेंगे। पर वे इसका दोष शानी को न देकर उनके बचपन के दुखों और तंगियों में तलाशते हैं। यह सच भी तो है ही, असुरक्षाएं कई बार हमें खुलकर जीने और सांस लेने नहीं देती। हमें भीतर से कमजोर बनाती हैं। खासकर जातीय और धार्मिक असुरक्षाएं हमारे भीतर के संकीर्ण मनुष्य को निकालकर बाहर ले आती हैं। शानी के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ। उनके कटु जीवनानुभवों ने उन्हें शानी से फिर 'गुलशेर खां शानी' में तब्दील कर दिया। और शानी के भीतर के अंतर्विरोधों ने उस बेहद प्रतिभाशाली लेखक की असमय हत्या कर दी। वे लीवर और किडनी की समस्या से जूझते हुये चले गये थे।
‘काला जल’ में शानी अपने जिस मकड़ी के प्रतीक के द्वारा स्वतंत्रता प्राप्ति के समाज का भी बिम्ब रचते हैं, जहां लोग रह गए और चले गए के बीच में कहीं अटके हुए हैं। जो खो दिया और जो पास है, उसके बीचों बीच कहीं भटकते से। काला जल हमारे समय -समाज के उस ‘नो मैन्स लैंड’ की भी कथा कहता है। अशफाक की 82 वर्षीय अम्मी के द्वारा वे यहां एक ऐसे चरित्र की सर्जना करते हैं, जो विभाजन के बाद बड़े बेटे के साथ अपने देश रुक तो जरुर जाती है, पर उसका मन कहीं उस दूसरे बेटे में भी उलझा हुआ है। दो अपनों के बीच, अपने ही टुकड़ों में से कोई चुने तो किसे और छोड़े तो किसे? उसके सफ़ेद बालों की तुलना मकड़ी के जालों से करते हुए लेखक कहीं उस पीढ़ी के दर्द को तो रचता ही है, हमारे उस दर्द को भी रचता है, जो खो गये समय-व्यक्ति और समाज को भूलना नहीं चाहता, उससे आगे नहीं बढना चाहता, उसे अपने अंदर जकड़े और समोये बैठा हुआ है। वह न चुनने की स्थिति में है, न ही कुछ भूलने की।
शानी के काला जल को पढ़ते हुए लगातार यह पंक्ति याद आती है- 'जीस्त की नींव किसने डाली है / खूब प्याली है मगर खाली है।'