पुस्तक समीक्षा: टुकड़ा-टुकड़ा ज़िंदगी से बनी बहुरंगी तस्वीर

सीमा कपूर की आत्मकथा 'यूँ गुज़री है अब तलक' हिन्दी सिनेमा और रंगमंच के एक विशेष दौर का दस्तावेज है। इस पुस्तक में हिन्दी सिने-जगत के कई अहम और अज्ञात पहलू पाठकों के सामने खुलते हैं। सीमा प्रसिद्ध अभिनेता ओम पुरी की जीवनसंगिनी रही हैं। सिने और कला जगत के कई प्रसिद्ध नामों का उनके परिवार से गहरा रिश्ता रहा है। इस आत्मकथा में एक कलाकार के सामाजिक-आर्थिक संघर्ष और सुख-दुख एक-एक कर सामने आते हैं। इस जरूरी आत्मकथा पर पढ़िये प्रभात सिंह को-

seema kapoor book

हिंदी में इन दिनों कई आत्मकथाएं आई हैं, कुछ मूल तो कुछ दूसरी भाषाओं में लिखी गई आत्मकथा के अनुवाद भी। आत्मकथा में दिलचस्पी रखने वालों का एक बड़ा तबक़ा है, जो अपने नायकों की ज़िंदगी को विस्तार से जानना-समझना चाहता है और इसकी एक वजह शायद यह भी है कि दूसरों की ज़िंदगी में ताँक-झाँक करना मनुष्य की स्वाभाविक वृत्ति है। दूसरों की ज़िंदगी की कहानियाँ सुनने-पढ़ने में हमें रस मिलता है। 

छपे हुए शब्दों की ताक़त कहे-सुने से कहीं ज़्यादा होती है, सो उन पर यक़ीन भी ज़्यादा आता है। क़िस्से-कहानियों से इतर आत्मकथा के मामले में सच्चाई, ईमानदारी और तटस्थता की शर्त हमेशा ही महत्वपूर्ण और विश्वसनीयता की कसौटी होती है।
  
सीमा कपूर की आत्मकथा ‘यूँ गुज़री है अब तलक’ इस पैमाने पर तो खरी उतरती ही है, अपनी कहन में उपन्यास की तरह की दिलचस्पी भी पैदा करती है। उसी तरह के ब्योरे और विस्तार, चरित्रों का विकास, उनकी ख़ूबियाँ-ख़ामियाँ, पृष्ठभूमि, पर यह सब तो उनकी ज़िंदगी की हक़ीक़त का बयान है। उन्होंने अपनी ज़िंदगी की कहानी बेहद संवेदनशीलता और साहस के साथ दर्ज की है। क़ुदरत को उन्होंने जितनी आत्मीयता से जिया है, उतने ही सुघड़ तरीक़े से पन्नों पर उतारा है। कई जगह तो यह बिना छंद की सुंदर कविता मालूम होने लगती है—नदियाँ, जंगल, पहाड़, खेत, फ़सलें, फूल, परिंदों और जानवरों से उनका प्रेम उनकी अपनी शख़्सियत की तर्जुमानी भी करता है। 

उत्तर भारत के निम्न मध्य वर्ग के परिवारों की ज़िंदगी की उनकी मंज़रकशी में कितना कुछ ऐसा मिलता है, तमाम पढ़ने वालों ने जिसे क़रीब से देखा-जाना होगा। भोगा न हो तो भी उससे वाक़िफ़ ज़रूर होंगे, बावर्चीख़ाने में आटे के ख़ाली कनस्तर और पड़ोस के घरों से आटा उधार माँगकर लाने के प्रसंगों से लेकर रास्तों में मिलने वाले आम, बेर, महुआ से भूख मिटाने तक।
                     
रंगमंच, टेलीविज़न और फ़िल्मी दुनिया से वाबस्ता सीमा कपूर ने कई धारावाहिक लिखे हैं, निर्देशन और निर्माण किया है, डॉक्यूमेंट्री बनाई हैं, और फ़िल्मों के लिए लिखा भी है। उनकी आत्मकथा में कितने ही किरदार ऐसे हैं, पढ़ने वाले जिनके नाम-काम और शोहरत से पहले ही वाक़िफ़ हैं—उनके बड़े भाई और मशहूर रंगनिर्देशक रंजीत कपूर, अभिनेता अन्नू कपूर, छोटे भाई और कवि निखिल कपूर, अंतरंग दोस्त विधु विनोद चोपड़ा, बंधुवत भानु भारती, रघुवीर यादव, पत्रकार आलोक तोमर, अपराजिता कृष्ण और उनके पति (भूतपूर्व) ओम पुरी।

मार्च में मुंबई में जब उनकी आत्मकथा का विमोचन हुआ तो उसकी ख़बर में उनके पिता मदन लाल कपूर की नाटक कंपनी का ज़िक्र कुछ इस तरह से आया था कि मैंने तभी तय कर लिया कि इसे तो पढ़ना ही है।      

तक़रीबन चार सौ पन्ने की यह किताब मोटे तौर पर दो हिस्सों में बँटी हुई है, एक हिस्से में सीमा कपूर का बचपन, कैशोर्य, उनका परिवार, गाँव-क़स्बे के लोग, मित्र-पड़ोसी, प्रकृति और माँ-पिता के जीवन संघर्षों का विस्तार है और दूसरा हिस्सा दिल्ली और बंबई की उनकी अपनी ज़िंदगी और जीने के संघर्षों, ओमपुरी से मुलाक़ात, उनसे ब्याह और अलगाव पर केंद्रित है। यों ओम पुरी की दूसरी पत्नी लेखक-पत्रकार नंदिता सी.पुरी की लिखी हुई उनकी जीवनी ‘अनलाइकली हीरोः ओम पुरी’ नाम से दिसंबर 2008 में ही छप चुकी है, और जिसे लेकर तब काफ़ी बंवडर भी मचा था। पर सीमा कपूर हमें जिस ओम पुरी से मिलाती हैं, वह अपनी स्क्रीन वाली छवि से काफ़ी अलग हंसोड़, स्नेहिल, उदार, समझदार, जुझारू, उसूलपसंद और बेहद ज़िंदादिल इंसान हैं, जो प्यार से लबरेज़, मगर दुनियादारी से वाक़िफ़ कम हैं। और ज़िंदगी के आख़िरी हिस्से में अपनी कमज़ोरियों के कुछ इस तरह शिकार हुए कि वो प्रसंग पढ़ते हुए मन व्याकुल हो उठता है और उदासी तारी हो जाती है।
 
सीमा कपूर के नाना क्रान्तिकारी, और दादा फ़ौज में कर्नल थे। पर उस कुलीन ख़ानदान के उनके पिता ने लाहौर में बीएससी और फिर क़ानून की पढ़ाई के बाद नाटकों के अपने जुनून के चलते लाहौर छोड़ दिया और पहले दिल्ली और फिर भोपाल आकर दो-ढाई सौ कलाकारों को साथ लेकर पारसी नाटक कंपनी खोल ली। समय के साथ जिसके नाम बदलते रहे—हमीदिया पार्क, जय हिंद थिएटर और फिर भोपाल थिएटर। 

सीमा कपूर ने पिता की कंपनी और उसके कलाकारों की ज़िंदगी को बहुत क़रीब से देखा और जिया है, इसलिए उन्होंने कलाकारों के उरूज़ और उनकी बदहाली दोनों की ख़ासी दिलचस्प और मार्मिक दास्तान बयान की है, जिसे देश की नाटक कंपनियों के इतिहास के कुछ पन्ने ज़रूर माना जा सकता है। अभी जिन चीज़ों की नज़ीर दे-देकर बहुतेरे लोग जिनके गुज़र जाने पर गहरी साँसें भरते हैं, उनके बारे में यह हक़ीक़त उन्हें खुरदुरी ज़मीन पर लाकर पटक देगी। 

सीमा कपूर ने विस्तार से लिखा है कि कैसे उस ज़माने में लाइन लगाकर, टिकट ख़रीदकर नाटक या नौटंकी देखने के लिए जुटने वाली भीड़ उसी समाज का हिस्सा होती थी, जिनके पास नाटक कंपनी में काम करने वालों के लिए हिकारत और बेइज़्ज़ती के सिवाय कुछ नहीं था। जिनके लिए कंपनी के मर्द भड़ुए और औरतें रंडी के अलावा कुछ और नहीं थे, जिनसे किसी क़िस्म का नाता रखना लोगों की शान के ख़िलाफ़ था। और इसका ख़ामियाजा उन्हें और उनके परिवार को भी भुगतना पड़ता था। 

दूसरों को छोड़िए, सहपाठी और पड़ोसी तक उनकी उपेक्षा करते, और उनसे बचते। इन्हीं पन्नों में कुछ कलाकारों की ख़ूबियों का बयान करने वाले दिलचस्प ख़ाके हैं, और सिनेमा के असर में आजीविका छिन जाने के बाद की उनकी गहरी और उदास कर देने वाली बदहालियों के ब्योरे भी।
  
कभी टीकमगढ़ रियासत के दीवान रहे उनके नाना सरोद भी बजाते थे, गीत-संगीत उनकी माँ को विरसे में मिला था। वह ख़ुद भी बहुत अच्छा गाती थीं। नाटक कंपनी की हालत जब ख़स्ता होने लगी तो बेहद तंगी के दिनों में मोहर्रम के दौरान वह शिया साहेबान की मजलिसों में मर्सिया पढ़ने चली जातीं, स्कूल में पढ़ातीं ताकि घर में चूल्हा जलता रहे। बच्चों की पढ़ाई चलती रहे। बाद में शबनम तख़ल्लुस से उन्होंने कविताएं लिखना और कवि-सम्मेलनों में जाकर पढ़ना भी शुरू किया।
 
सीमा कपूर ने अपनी आत्मकथा अपने माँ-बाबूजी को समर्पित की है, और अपनी कहानी में उनकी ख़ुद्दारी, इंसाफ़पसंदी, बेबाकी, बेलागपन और इंसानियत के जज़्बे का प्रेरक और दिलकश ख़ाका खींचा है। ख़ासे कुलीन ख़ानदान के दोनों ही जन अपनी लगन, साहित्य और संस्कृति से अपने लगाव के चलते ठाठ की ज़िंदगी छोड़कर बेहद मुफ़लिसी में भी जिये मगर अपने उसूलों का दामन हमेशा पकड़े रखा। पहले उनके पिता और फिर माँ के गुज़र जाने के प्रसंग आत्मकथा में जिन सघन भावनाओं के साथ आते हैं, वे किसी को भी भावुक कर देंगे, रुला भी सकते हैं। और इनकी तफ़्सील उनके घरेलू हालात उजागर करने के साथ ही लेखक के उनसे लगाव का पता भी देती हैं।

मध्य प्रदेश और राजस्थान के कई नामालूम से गाँवों-क़स्बों में बीते अपने बचपन को सीमा कपूर बेहद आत्मीयता से याद करती हैं—दुनियादारी से बेख़बर बचपन के दिन, मासूमियत, शरारतें, भाई-बहन की तक़रार, नोंकझोंक, मार-पिटाई, स्कूल, मास्टर, मज़ार, मंदिर, नदी, नाले, महुआ, नीम, खेत-खलिहान, गिलहरी, कुत्ते, बकरी, ख़रगोश, इब्ने सफ़ी, ओस्त्रोवस्की, कविता-कहानी के दिन कितना कुछ तो है। वह ख़ुद कहती हैं- ‘बचपन में मिट्टी, धूल, पेड़, पंछी और उनसे संवाद...जितना मैंने किया है बहुत कम लोगों की क़िस्मत में रहा होगा।’ 

उनकी क़लम से निकले ये जीवंत ब्योरे तत्कालीन समाज, सामाजिक ज़िंदगी और लोगों के किरदार की बानगी भी हैं, जिनमें कंपनी के उनके गोवर्द्धन भैया, परसराम भैया और लच्छू मामा जैसे किरदार हैं, जो ज़िंदगी के आख़िर तक साथ बने रहे। जागीरदारनी मौसी और सरपंच कालू मामा सरीखे लोग हैं, और अनाम राक्षस सरीखे लोग भी, जिनकी यौन लिप्सा बड़ों और बच्चों में भी कोई अंतर नहीं करती। जिनके जुगुप्सा से भरे कारनामे रोंगटे खड़े कर देते हैं और इस बात से आगाह भी करते हैं कि वैसे राक्षस हमारे ही बीच रहते हैं, मुखौटा अलबत्ता मददगार इंसान का पहनकर घूमते हैं। कई बार ऐसा महसूस होता है कि आप इन जगहों को, इन लोगों को जानते हैं।

वह सीमा जो बचपन में सोचा करती थीं कि बड़े होकर सिर्फ़ दो ही काम करने हैं—ख़ूब सोना और ख़ूब-ख़ूब फ़िल्में देखना। बड़े होने पर अलीगढ़ की पढ़ाई और फिर दिल्ली और बंबई के अपने सफ़र के जिस जिद्द-ओ-जहद का ब्योरा उनकी आत्मकथा में मिलता है, उसमें सोने का तो पता नहीं मगर फ़िल्में देखने के मौक़े तो ज़िंदगी ने उन्हें ख़ूब फ़राहम किए। 

यह पूरी किताब ज़िंदगी के छोटे-बड़े ब्योरों की तफ़्सील से बुनी गई है, और जहाँ वह ठहरती हैं, वहाँ इन वाक़यों पर उनकी मीमांसा या छोटी-सी टिप्पणी जीवन-दर्शन की झाँकी बनकर आती है। ये टिप्पणियाँ कभी बेचैन करती हैं, तो कभी भावुक और ज़िंदगी के किसी सबक़ की तरह याद रह जाती हैं। उनकी कहन में भाषा का प्रवाह एक और कारक है, जो पढ़ने का सुख बनाए रखता है।

हनुमान के पराक्रम की कथा सुनकर उड़ने की कोशिश में पहले चोट और फिर मार खाने की उनकी बचपन की दास्तान, दूरदर्शन के धारावाहिक ‘शक्तिमान’ के असर में बच्चों के चोट खाने की ख़बरों की याद दिलाती है, अलबत्ता से आस्तिक से नास्तिक बन जाने का यह दुर्लभ प्रसंग है। जिस आत्मीयता और ख़ामोशी से वह कैप्टन सारस्वत की ग़ैर-मौजूदगी में उसके टेंट के पास से सिगरेट के फेंके हुए टोटे इकट्ठा करने का ज़िक्र करती हैं, बरबस ही ओरहन पामुक की ‘म्यूज़ियम ऑफ़ इनोसेंस’ का ख़्याल आ जाता है। 

विधु विनोद चोपड़ा के साथ उनकी दोस्ती के कई वाक़ये सिनेमा के पर्दे पर चल रही किसी प्रेम-कहानी का हिस्सा मालूम होते हैं। फ़रहत भाई की हाफ़िज़ जी की केसर के पानी से लिखी हुई जंत्री से चमत्कार की उम्मीद मेरे लिए अंधविश्वास या नास्तिकता-आस्तिकता का द्वंद्व भर नहीं है, यह वाक़या ऐसे समाज का प्रतिनिधित्व भी करता है, जिसमें आदमी मज़हब-ओ-मिल्लत के ख़ानों में बंटा नहीं था, एक-दूसरे से हमदर्दी और आपस के रिश्तों में अक़ीदे की हद तक भरोसा करता था। यों आत्मकथा में ऐसे बहुतेरे प्रसंग मिलते हैं, जो उनकी ज़िंदगी के बहाव का हिस्सा हैं।
            
इन बातों को समझने के लिए तो ख़ैर आत्मकथा पढ़ने की ज़रूर होगी, मगर यहाँ दो दिलचस्प प्रसंगों का ज़िक्र किए बिना नहीं रह सकता। एक तो स्कूल में पढ़ने वाले लड़कों के साथ रंजीत कपूर के अपहरण का क़िस्सा है। उन्हें पचास दिनों तक डाकू माधो सिंह के कब्ज़े में रहना पड़ा था। और दूसरा क़िस्सा झालावाड़ के दिनों का है, जब घर की तंगहाली से परेशान किशोरवय सीमा कपूर के तैश में आकर तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी को चिट्ठी लिखकर बैंरग भेज दी थी, और जिसे लिखने के बाद कई दिन तो वह इसी ख़ौफ़ में रहीं कि कहीं इस गुस्ताख़ी के लिए पुलिस उन्हें पकड़ने न आ जाए। और बाद में जिस चिट्ठी की बदौलत झालावाड़ के ‘कलेक्टरी स्कूल’ में उर्दू टीचर का पद सृजित करके उनकी माँ को नौकरी दी गई थी। 

घर से भागकर मदन लाल कपूर की कंपनी में काम पाने के लिए जाने और गाने में तलफ़्फुज़ की ग़लतियों पर ध्यान दिलाने पर अपना हँस-हँसकर लोटपोट हो जाने वाला जवाब तो ख़ुद रघुवीर यादव के मुँह से सुना है, पर बरेली आते-जाते रहने वाले रंजीत कपूर ने अपनी ढेर सारी बातचीत में माधो सिंह वाले क़िस्से का कभी ज़िक्र नहीं किया। 
             
किताब में कई पारिवारिक तस्वीरों के साथ ही नंदिता चौधरी की हस्तलिपि में ओम पुरी को लिखे कुछ लंबे-चौड़े ख़त हैं, सीमा कपूर को लिखे ओम पुरी के कुछ ख़त और उनके ख़िलाफ़ नंदिता की तरफ़ से गंभीर आरोपों में थाने में दर्ज कराई गईं एफ़आईआर और वकीलों के दस्तावेज़ भी शामिल हैं।  किताब में इनकी ज़रूरत शायद उन गंभीर आरोपों के जवाब में साक्ष्य के तौर पर पड़ी हो, जिनका ज़िक्र आत्मकथा के आख़िरी हिस्से में आया है। 

नंदिता पुरी की ओर से पैदा किए गए असहज करने वाले तमाम हालात और हमले, औपचारिक तौर पर ओम पुरी से अलग हो जाने के बावजूद, सीमा कपूर को जिनका सामना करना पड़ा था, मुमकिन है कि ओम पुरी के चले जाने के बाद उन आरोपों का जवाब देने का यह सायास जतन हो। बहरहाल, ‘यूँ गुज़री है अब तलक’ पढ़ लेने के बाद चकबस्त का यह शे’र ज़रूर याद आया, जिसे इस आत्मकथा का सार भी कह सकते हैं-

'दर्द-ए-दिल पास-ए-वफ़ा जज़्बा-ए-ईमाँ होना,
आदमियत है यही और यही इंसाँ होना।'
                                 
पुस्तकः यूँ ही गुज़री है अब तलक
लेखकः सीमा कपूर
विषयः आत्मकथा 
प्रकाशकः राजकमल प्रकाशन
मूल्यः 599 रुपये

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