अभी बैग रखा भी नहीं था कि सामने वाली सुमन जी अंदर आ गयीं। "आ जाऊँ क्या?" ये तो बस औपचारिकता भर थी क्योंकि वह भरपूर अंदर आ चुकी थीं और दीवान पर विराज चुकी थीं। ये उनकी पुरानी आदत है।

हाँ आइये बैठिये”।

अरे जी क्या बैठना,आपको कुछ पता है क्या हुआ!”

अंकिता को सच में कुछ नहीं पता था कि क्या हुआ। वैसे वह अखबार पढ़ती है लेकिन गली में क्या हुआ होगा, उसे कैसे पता चलेगा? अखबार में तो छपता नहीं है।

"सही में कुछ नहीं पता। बताइये, कुछ हुआ है क्या?"

"आपको बताऊंगी तो आप दंग रह जायेंगी।"

अंकिता हँसते हुए कहने लगी- "मैं दंग रह गयीं हूँ, प्लीज बताइये न क्या हुआ।"

"अरे उसको पुलिस पकड़ के ले गयी है।"

"किसको?"

“अरे, उसी को जो ‘बौरहा’ पहले गुप्ता जी के यहां किरायेदार था। आप तो जानती हो उसको।”

उसको! उसको पुलिस पकड़ के ले गयी है, क्या कर दिया उसने”।

वही तो हमलोग सोच रहे हैं। कैसा सीधा सा दिखता था। हमको तो इतना सीधा लड़का आज तक नहीं दिखा।”‌सुमन जी अब थोड़ा संजीदा हो रही थीं।

अंकिता किसी तरह खुद को संयत दिखा रही थी। उस लड़के को औरतों की गोल 'बौरहा' ही कहती थी, क्यों कहती थी उसके पीछे एक कहानी है। वैसे दो तीन कहानियाँ हैं।

चाय पियेंगी” अंकिता ने पूछा।

अंकिता को अब थोड़ा और जानना था। बेटी भी ट्यूशन चली गयी थी तो खुलकर बात करने में खतरा नहीं था।

बौरहा अभी पिछले दशहरे तक सुमन जी का पड़ोसी था।

बड़ा ही बौझक लड़का था, इतना लम्बा लड़का कैसे तो कच्चे बांस की तरह लचका रहता था। सबसे बड़े ही प्यार से बोलता था। इतवार के दिन सीढ़ी पर झाड़ू लगा देता था। अगल-बगल का कोई एक मर्द जो जरा सा झाड़ू पकड़े, लेकिन वह झाड़ू बड़े सधे हाथों से पकड़ता था।

पुलिस कह रही है कि वह बहुत खतरनाक आदमी है..

मिसेज गुप्ता का तो रो-रो कर बुरा हाल है। पुलिस वाले उनसे भी पूछ रहे हैं कि वह क्या-क्या करता था? कौन आता जाता था? अब वह पुलिस वालों से कैसे कहे कि आते जाते तो उसके चिन्टू-मिन्टू भी थे। पिछले दशहरे पर जब गुप्ता जी ग्वालियर से घर नहीं आ पाये थे तब उनके बच्चों ने कितना कोहराम मचाया था कि मेला देखने जाना है। मिसेज गुप्ता बता रही थी कि मेरी तबियत ठीक नहीं थी, लेकिन समझ लो ये बौरहा था कि उसकी वजह से चिन्टूमिन्टू ने उनकी जान बख्श दी। वही उनको मेला लेकर गया। चाट-फुल्की खिलाया और एक पत्ता चाट उनके लिए पैक करा कर भी ले आया। मिसेज गुप्ता तो समझ ही नहीं पा रही हैं कि क्या बोलें?”

सुमन जी पूरे मोहल्ले की बीबीसीलंदन थीं। हर खबर के साथ उनका स्पेशलइफेक्ट न हो, हो ही नहीं सकता। लेकिन आज वो थोड़ा परेशान सी लग रही थीं।

क्या जी कौन क्या है, क्या बतायें। विनेश के पापा जब कोरोना में बहुत बीमार हो गये थे तब जान लीजिए वही बौरहा खड़ा था। आपको तो पता है कि हमारी भी तबीयत बहुत खराब हो गयी थी। विनेश को भी बुखार था, हमारी बगल वाली तो फोन भी नहीं उठा रही थी कि जैसे फोन से कोरोना घुस जायेगा। लेकिन बौरहा नहीं डिगा। जान लीजिए पूरा हफ्ता सब्जी-दवाई पहुँचाता रहा।”

अंकिता का दिमाग घूम रहा था वह क्या बताये और क्या छुपाये। उसे खुद भी कुछ समझ नहीं आ रहा था।

अंकिता को इस घर में रहते तकरीबन एक साल हो गया था। ये गली आगे से बंद थी और सड़क भी थोड़ी चौड़ी थी और कई मकान एक लाइन से बने थे। ज्यादातर मकान दो मंजिला थे, उनके अगल-बगल, ऊपर-नीचे कमरे बने थे। ज्यादातर किरायेदारों के साथ मकान-मालिकों का भी वहीं निवास था। कई बार तो किरायेदार का हिस्सा ज्यादा खुला और सुन्दर होता था और मकान-मालिक का अंधेंरे से भरा सीलन वाला घर।

मकानमालिकों को बहाना मिल जाता था, कभी कपड़ा फैलाने तो कभी ये कहने कि- :अरे जी आपकी तरफ तो बड़ी धूप है। कहकर छत पर आ जाते थे।'

बहरहालसबका अपने गुजारे का तरीका था। आटा-चूनी वाली नाम से मशहूर ये गली ऐसे ही मकानों से भरी थी। ज्यादातर किरायेदार एक घर से दूसरे, दूसरे से तीसरे घर का सफर करते थे। यहाँ सब एक दूसरे को जानते थे फिर रहते-रहते आदत पड़ जाती है। गली के नुक्कड़ पर किराने की दुकान, दूसरी ओर आटाचक्की, उसके कोने पर सब्जी वाले की गुमटी और दो गली पार करते ही आटो और ई-रिक्शे की सुविधा। ऊपर से किरायाबाकि मोहल्लों से कम। अंकिता भी शादी के बाद प्रतापगढ़ से इसी गली के एक छोर से दूसरा छोर करते हुए दो घर बदल चुकी थी।

बौरहा वैसे बौरहा नहीं था, लेकिन सीधा-साधा था तो ये नाम पड़ गया। इस गली में औरतों की मंडली ऐसी ही थी, उन्हें जो भी पुरूष अपने पुरूषीय अहंकार से तना नहीं मिलता वो उसे बुद्धू ही समझती थी। वैसे इसमें उनका प्यार भी घुला मिला था। लेकिन ‘बौरहा’ नाम तो अंकिता ने ही अचक्के में रखा था। अंकिता को तो उसके बारे में सब पता था। गाँव से शहर पढ़ने आया था। गाँव में भी ऐसा ही था, जब लड़के बाइक लेकर गुंडई झाड़ते थे, तो वह बाग-बुहार डालता। वैसे गाँव भर के बच्चे उसके मुरीद थे। औरतें अपने लड़कों से कहती कि- 'फलाने को देखो कैसा सीधा है, यहां तुम लोगों को आटा पिसाने का भी काम दे दो तो पेंपियाने लगते हो।'

बौरहा अंकिता की चचेरी मौसी के गाँव का था। मौसी उसकी मम्मी से काफी बड़ी थीं, उसकी मम्मी को बिटिया की तरह देखती थीं। अंकिता ने चाची के यहाँ रहकर बीएससी इलाहाबाद से किया था। बीएससी के बाद शादी हो गयी। कुछ सोचने विचारने का मौका नहीं मिला। भला हो कि पति की नौकरी इलाहाबाद में थी तो वहीं वापस आना हो गया। इस बीच एक बेटी भी हो गयी। फिलहाल अंकिता एक प्राइवेट स्कूल में पढ़ाती है और वहीं दो घंटे ज्यादा रूक कर टयूशन देती है। उसके मन में शादी के बाद से क्या चल रहा है, वह किसी से कुछ नहीं कहती थी। बस हर दिन यही समझती थी कि उसे कितनी देर से सबकुछ समझ आया।

लेकिन यह खबर सुनकर उसका मन कसैला हो गया है। बस चाय देकर चाह रही थी कि सुमन जी पीयें और थोड़ी देर के लिए अकेले छोड़ दें, नहीं तो दो घंटे बाद तो उसको एक रत्ती फुर्सत नहीं मिलने वाली।

सुमन जी को यह खबर और जगह भी देनी थी तो उन्होंने चाय पीते पीते इतना ही कहा कि “जी हमको तो नहीं लगता कि गलत आदमी था। गलत होता तो..”।कहते कहते रूक गयीं।

अंकिता ने उनसे ज्यादा नहीं पूछा। उसका मन नहीं कर रहा था। सुमन जी गयीं नहीं कि अंकिता का दिमाग मौसी के गाँव की ओर घूम गया जहाँ उसकी शिवेन्द्र से पहली मुलाकात हुई थी।

बीएस सी सेकेंड ईयर की बात थी। मम्मी से पता लगा कि मौसी बहुत बीमार हैं तो उससे रहा नहीं गया। उसकी बचपन की ढ़ेरों स्मृतियां उनके साथ थी। मौसी को फालिज का अटैक पड़ा था। उनके बच्चे नहीं हुए,‌ मौसा ने एक उम्र में कुछ काम धाम किया, फिर जैसे कमाने की इच्छा मर चुकी हो वो घर आकर बैठ गये। बाद में जब काम ढ़ूढ़ने गये तो शरीर ने साथ नहीं दिया। संपत्ति के नाम पर दो कमरे और सरकारी शौचालय था और कुछ खेत था जिस पर पूरे परिवार की निगाह गड़ी थी।

अंकिता माँ के साथ आटो बुक करके उनके गाँव गयी। रास्ते से जो भी खरीद सकते थे, ले लिया। तेल-साबुन, सब्जी-फल, माँ ने कई चीजें खरीदने के लिए कहा। वहां पहुंच कर माँ-बेटी का दिल बैठ गया। महीनों से किसी ने घर में झाड़ू तक नहीं लगाई थी। अंकिता की मां मौसी और अपने जीजा से बातें करने लगी। अंकिता ने जल्दी जल्दी सफाई की फिर खाना बनाया। बहरहाल मौसा ने पनीर मंगवाया था, खुद मौसा भी बिस्तर पर थे। मौसी किसी तरह घिसट कर चल रही थी और साफ नहीं बोल पा रही थी। अंकिता ने पनीर की सब्जी, रोटी, चावल, रायता सब बनाया। मौसी खाने की बहुत शौकीन थीं, अंकिता को लगा कि उन्हें अच्छा खाना खाकर ठीक लगेगा। बिस्तर पर पड़े मौसा को भी खाना खिलाया। इस बीच बार-बार उनके पट्टीदार झांक रहे थे कि कहीं कोई कागज पर दस्तखत तो नहीं कर रहे हैं। खाना खाने से पहले मौसी को पेशाब करने जाना था तो वही उन्हें उठाकर बाहर लेकर आयी। उन्होंने बाहर ही टायलेट किया। अंकिता ने उसकी सफाई की। थोड़ा खराब लगा कि वही बर्तन मांजते हैं और वहीं नाबदान पर पेशाब भी करते हैं लेकिन मौसी की हालत देखकर वह कुछ ज्यादा नहीं सोच सकी।

लेकिन असली बात कुछ और है। पूरी दोपहर चढ चुकी थी अंकिता ने ड्राइवर को पानी और चाय दिया था। खाना पूछने जा रही थी कि मौसी ने लड़खड़ाती ज़बान में पास बुलाया और कहा कि- 'ए बिटिया, ड्राइवर कौन जात है, पहले पूछ लो। सब बर्तन न सानो।'

अंकिता का दिल बैठ गया लगा।

उसका रूआंसा चेहरा देखकर मौसी ने कहा ‘बौरहीहऊ का बिटिया?'

अंकिता खिसिया के रह गयी जिस औरत का इतनी देर से कूड़ा-करकट, गू-मूत कर रही हूं, उसके दिल में कितनी गंदगी भरी है। अंकिता का दिल बैठ गया था और बिना खाना खाये लौट आयी।

बहुत दिन बाद मौसी सरोजनीनायडू अस्पताल दिखाने आयी थीं। अंकिता मम्मी के कहने पर उन्हें देखने दुबारा गयी।

मौसी कहने लगीं कि “नाराज हो बिटिया। एक दमैतोहरे नाई हमरेइयाँ एक बौरहा बा। शिवेन्द्र। क्या पढ़ा, क्या नहीं समझ लो कुछ भी समझ नहीं कि दुनिया कैसे चलती है। उसके बाबू भाई उसको पढ़ने इलाहाबाद भेजे थे और वोअजबै हो गया है।”

मौसी की बातों में अंकिता की कोई रूचि नहीं थी लेकिन बौरहे के प्रति एक उत्सुकता बस गयी। “यहीं सीएमपी में पढ़ता है। गाँव आता है तो बाजार जाते समय पूछ लेता है बाकि तो सबको तुम जानती हो। उसी के हाथ हम तुम्हारे लिए लठ्ठाबेसन गुड़ की ढ़ूढ़ी भिजवायेंगे, तुमको बहुत पसंद है। तुम्हार मौसी पुराने जमाने की हैं।”

मौसी लल्लो-चप्पो करने में लगी थी। दरअसल मौसी के अपने सगे भाई तो दिल्ली बस गये थे और शायद ही कभी हाल खबर लेते हों, बस एक अंकिता की मम्मी थी जो हाल-चाल लेती थी। उनके औलाद हुई नहीं सो अड़ोस-पड़ोस का कुल ध्यान इस पर था कि एक कठ्ठा खेत किसके नाम लिखेंगे ये लोग।

अंकिता का मन किया कि कहे चलो कोई तो है तुम्हारे गाँव में। लेकिन संकोच वश ज्यादा नहीं पूछ सकी, वैसे भी मौसी एक बात से दस बात निकालती हैं।

जनवरी की सुबह थी खिचड़ी का नहावन चल रहा था। अंकिता की चाची के यहां अक्सर ही कोई न कोई गाँव से आया रहता था। उसी एक सुबह शिवेन्द्र उनके घर आया था। चाची ने हाल पता लिया उसके माध्यम से मौसी ने झोला भऱ सब्जी और ढूढ़ी भेजी थी। अंकिता ने शिवेन्द्र से थोड़ी बहुत बातचीत की।

आप तो सीएमपी में पढ़ते हैं”।

जी, वहीं पढ़ता हूँ और छोटा बघाड़ा में एक दोस्त के साथ रहता हूँ। आपकी मौसी हमारी पट्टीदार हैं”।

अंकिता को और बात करने का मन था लेकिन संकोचवश ज्यादा नहीं पूछा।

दूसरी मुलाकात उसकी अपने कालेज के गेट पर हुई, वहाँ पर एक पोस्टर प्रदर्शनी लगी थी। अंकिता भी रूक कर देखने लगी। एक घऱ से दूसरे घर के बीच, सदियों से तलाश रही औरत, एक मुठ्ठी जमीन, का पोस्टर लगा था। अंकिता ध्यान से देखने लगी दूसरा पोस्टर भवानी प्रसाद मिश्र की कविता का था एक कठपुतली सहसा उछळी.. उसमें सुतली से कठपुतलियों के हाथ बंधे थे जैसे असली में कठपुतली हों। वह बड़े ध्यान से उसको देख रही थी तभी पीछे खड़े लड़के ने कहा- 'अंकिता कैसा है ये पोस्टर?'

“अरे, शिवेन्द्र तुम?”

हाँ, हमलोगों ने ये पोस्टर प्रदर्शनी लगाया है। ये वाला पोस्टर मैंने बनाया है,कैसा लगा?”

अंकिता ने कहा- “बहुत बढ़िया पता नहीं था कि तुम आर्टिस्ट हो।”

अरे नहीं, जब सब लोग पोस्टर बनाते हैं तो दिमाग अपने आप सोचने लगता है कि कैसे बढ़िया बनाये।”

वहीं पर बगल में एक छोटी सी पुस्तक-प्रदर्शनी भी लगी थी। शिवेन्द्र ने उसको एक किताब देते हुए कहा कि ये पढ़कर देखना। किताब थी ‘भागो मत दुनिया को बदलो’ अंकिता ने दाम देखा। फिर कुछ सोचकर खरीद लिया।

बाद में उसकी दोस्तों ने उसे चिढ़ाया कि- 'बड़ा उस लड़के से गपिया रही थी, कौन सी किताब खरीदवाया।' अंकिता ने किताब दिखा दी। लड़कियाँ खी-खी हँसने लगी। महापग्गल है वो लड़का।

अंकिता का कालेज में आखिरी साल था। शिवेन्द्र से किसी न किसी बहाने मुलाकात होने लगी थी। वह जब भी मिलता तो दुनिया जहान, औरतों की आजादी, बराबरी की बातें करता था। अंकिता सोचती थी कि कुछ मेरे बारे में भी बोल दे, लेकिन वो तो था ही ऐसा। एक दिन रेलवे लाइन के चौफटके पर ट्रैफिक जाम लगा था, शिवेन्द्र ने कहा कि तुम्हारे लिए एक किताब लाया हूँ। अंकिता को लगा कि कौन सी नयी बात है, किताब तो लाता ही है। उसने अंकिता को किताब पकड़ायी। अंकिता ने जैसे ही किताब खोला उसके भीतर सोनचम्पा के फूल की एक पंखुड़ी चिपकी थी और लिखा था-

'अब मैं सूरज को नहीं डूबने दूँगा।

मैंने सुना है उसके रथ में तुम हो

तुम्हें मैं उतार लाना चाहता हूं

तुम जो स्वाधीनता की प्रतिमा हो'...

अभी अंकिता कुछ कह पाती उसके पहले ही शिवेन्द्र वहाँ से गायब, दूसरी ओर धड़ाधड़ाती रेलगाड़ी गुजर गयी। उसका दिल धक से हो गया, क्या किताब देकर रेल के नीचे आ गया। लेकिन भला हो वह लाइन पार कर गया था। ‘इत्ता भी पग्गल नहीं है शिवेन्द्र’ सोच कर अंकिता मुस्काराने लगी।

उसके बाद कई दिनों तक वह बचता-बचाता रहा। इधर अंकिता के घरवालों को न जाने कहा से क्या भनक लगी कि उसकी शादी की ढ़ुढ़ाई तेज कर दी गयी। अंकिता ने शिवेन्द्र से कम्पनी बाग में मुलाकात की। वैसे उन दोनों की निजी मुलाकातें बहुत कम थी।

देखो, अगर मेरे घरवाले तुम्हारे बारे में पूछे तो कहना कि तुम सिविल की तैयारी कर रहे हो और प्रीक्वालिफाई कर लिया है, मेन्सअपीयरी होने वाले हो। ऐसे ही कहना चाचा के आगे। आगे मैं देख लूँगी।”

शिवेन्द्र ने कहा “लेकिन ये सच नहीं है, मैं तो सिविल की तैयारी नहीं कर रहा हूँ। कुछ ऐसा करना चाहता हूँ जिससे ज्यादा-से-ज्यादा लोग पढ़ें, उनका जीवन अच्छा हो।”

अंकिता को खिसियाहट होने लगी। “यार, तुम ऐसे क्यों बात करते हो, क्या ऐसे दुनिया चलती है?”

शिवेन्द्र को भी गुस्सा आ गया कि “क्यों, ऐसे‌क्यों नहीं चल सकती। हमदोनों मिलकर किसी बस्ती में बच्चों को पढायेंगे, उन्ही के बीच रहेंगे।”

अंकिता का पारा चढ़ चुका था। उसने खिसिया कर कहा-“तुम महा-बौरहे हो। तुमसे मेरा निभेगा नहीं।”

उसके बाद अंकिता ने शिवेन्द्र की ओर देखा तक नहीं। उसे लगा कि एक दिन शिवेन्द्र उसकी बात मान जायेगा। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ।

अंकिता की शादी बीएससी पूरी होते ही हो गयी। उसके अपने पिता तो दुनिया में थे नहीं और चाचा ने पहले ही कहा था कि इससे ज्यादा उसके घर की कोई लड़की नहीं पढ़ेगी। तो आगे तो सबकुछ वैसा हुआ जैसा होता है। अंकिता की शादी हो गयी, पति पीडब्लूडी में नौकरी करते हैं और शादी के साल भीतर ही उसकी बेटी हो गयी। पति दुनियादार आदमी हैं। विभाग ऐसा है कि तनख्वाह के अलावा ऊपरी कमाई अच्छी खासी करते हैं, इसी के चलते तीन साल के भीतर ही शांतिपुरम में बड़ा प्लाट खरीद लिया है। अंकिता की पति से कई बार लड़ाई हो चुकी है।

तुम जितना उलजलूल पैसा ले रहे हो देखना पकड़ाओगे।” 

पति को अंकिता की बातें बिलकुल पसंद नहीं है। अंकिता को पति की बातें नहीं पसंद है। अंकिता दुनिया की सारी औरतों की तरह बस बच्चे का मुँह देखती रहती है। घर वाले उसके पति को समझदार और दुनियादार कहते हैं। उससे राय सलाह लेते हैं, वह कुछ ज्यादा नहीं बोल पाती है। वह समझ गयी है कि इस दुनिया में ऐसे समझदार कभी नहीं पकड़ायेंगे। उनके ऊपर वाले उनसे भी ज्यादा समझदार हैं। बस रह-रह कर उसको लगता है कि वही कठपुतली है, उसकी ऊंगलियों में मजबूत धागे बंधे हैं। दिल उलझाये रखने के लिए उसने एक प्राइवेट स्कूल की नौकरी पकड़ ली है। सबेरे जल्दी से उठकर नाश्ता खाना बनाना, घर ठीक करना, बाबू को तैयार करना, फिर उसको छोड़ना। भागते हुए स्कूल पहुँचना, फिर भागते हुए घर आना, फिर उसी अफरातफरी में फिर घर संभालना। फिर शाम को मिस्टर समझदार का स्वागत। उसे थोड़ा बहुत चैन सिर्फ स्कूल में पड़ता था।

उसे खबर थी कि शिवेन्द्र आज भी किसी बस्ती में बच्चों को पढ़ाने जाता है। वैसे ही थोड़ा झुक कर चलता है और जब तब किसी के लिए खड़ा रहता है।

इतने साल के दौरान दोनों में कोई भी संवाद नहीं हुआ, यहाँ तक कि एक दूसरे को देखा तक नहीं। सोशल मीडिया पर भी शिवेन्द्र का कोई पता नहीं चला था।

पिछले साल जब अंकिता इस कालोनी में आयी तब पहली बार पी के सिंह के यहाँ घर किराये पर लिया था। गुप्ता जी का घर दो घर छोड़कर था, जिसके दूसरे माले पर छह कमरे बने थे। जिसमें अलग-अलग लोग रहते थे और ऊपर सुमन जी रहती थी। अगल- बगल की औरतें, अगल-बगल के हर आदमी के बारे में कुछ न कुछ बताती थी।

कौन घूरता है,कौन बद्तमीज है, कौन अपनी बीवी को मारता है, वगैरह लेकिन वे एक आदमी के बारे में बात करते समय कहती थी, वो बहुत सीधा है।

अंकिता के दिमाग में एक पुरानी खिसियाहट कौंधी, उसी के मुँह से निकला “सीधा नहीं बौरहा कहिये।”

औरतें हँसने लगीं। वैसे शिवेन्द्र को इस मुहल्ले में रहते चार-पांच साल हो गये थे। यही पास की बस्ती में बच्चों को पढ़ाने जाता था। इसके अलावा अगर किसी के यहाँ कोई बीमार है, कोई दुखी है, तो हारी-गाढ़ी में काम आता था। अब भी वह कालेज के दिनों की तरह हल्का सा झुक कर चलता था। कोई प्यार से चाय पीने को पूछ ले या खाने को पूछ ले तो मना नहीं करता था, ये भी नहीं सोचता था कि पीछे से कोई क्या सोच रहा है।

आज की खबर सुनकर अंकिता का दिल तरह तरह की आशंकाओं से उमड़-घुमड़ रहा था। इतना सीधा आदमी किसी के लिए खतरा कैसे हो गया? वह तो चींटी तक नहीं मार सकता है? अंकिता ने इस मोहल्ले में आने के बाद सब्जी बाजार में टकराई मुलाकात में उससे पूछा था -'और कैसे हो।' उसने भी पूछा-' तुम कैसी हो, बच्चे कैसें हैं।' अंकिता ने कोई जवाब नहीं दिया बस इतना ही कहा “तुम उत्ते ही बौरहे हो ना!”

शिवेन्द्र हँसने लगा। दोनों साथ-साथ मुख्य सड़क पर आये।

अंकिता का दिल किया कि कहे कि-“ चलो घर चलो, खाना खा के जाना।” उसको शिवेन्द्र से बहुत सारी बातें करनी थी, लेकिन फिर सोच के टाल गयी कि ये इतना सीधा है कि ‘हाँ’ बोल देगा। अंकिता ने उससे धीरे से पूछा- 'ये बताओ जब हम तुमको मना करके घर चले गये और फिर हमारी कहीं और शादी हो गयी तुमको दुख नहीं लगा? ‌ शिवेन्द्र ने उसकी तरफ हलके से देखा ज्यादा गहरे से नहीं, जहाँ आँखों का पानी एक दूसरे को डुबाने लगता।

फिर मुस्कुराते हुए कहने लगा- 'अरे तुम भी। हुए थे भाई, हम भी बहुत दुखी हुए थे। पहले किशोर कुमार के गाने सुनते थे, फिर मुकेश के सुनने लगे।

अंकिता ने पुराने दिनों की तरह कहा- “बकैती न करो, सही सही बताओ।”

शिवेन्द्र ने उसकी आँखों में झांक कर सिर्फ इतना कहा कि- “क्या जानना चाहती हो?” अंकिता का दिल धक से रह गया। वह कुछ भी नहीं जानना चाहती। वह तो तब भी बहुत नहीं जानना चाहती थी, जब उसे जानना ही चाहिए था। अभी तो गंगा-यमुना में बहुत पानी बह गया। दोनों गली के अंदर साथ नहीं आगे पीछे गये।

आज जब सुमन जी ने यह खबर सुनाई तो वह हर रील को पलटकर देख रही थी कि आखिर ऐसा क्या था शिवेन्द्र यानी उसके बौरहे में जो स्थानीय चैनल वाला दिखा रहा है कि ‘खतरनाक’ गतिविधि से जुड़ा शिवेन्द्र सिंह गिरफ्तार। अंकिता ने अलमारी खोली। लाकर के दो हिस्से थे। एक हिस्से में उसके पति पैसे और कागज रखते थे दूसरे हिस्से में, अंकिता के अपने कुछ गहने और एक डायरी थी। अंकिता ने डायरी खोली उसके बीच वाले पन्ने पर सोनचंपा की पंखुड़ी थी। उसने अपनी ऊंगली उस पर फिराई। फिर कुछ सोचकर फोन निकाला और एक परिचित वकील का फोन नम्बर डायल करने लगी।