"कभी कभी मेरे दिल में ख़याल आता है", "मेरे दिल में आज क्या है तू कहे तो मैं बता दूँ", "जो वादा किया वो निभाना पड़ेगा", "तुम अगर साथ देने का वादा करो", "ए मेरी ज़ोहराजबीं तुझे मालूम नहीं", “नीले गगन के तले, धरती का प्यार पले", "अभी ना जाओ छोड़कर, के दिल अभी भरा नहीं" ऐसे सैकड़ों मधुर प्रेमगीतों के रचनाकार साहिर लुधियानवी प्रेम गीतों के अनोखे गीतकार हैं।
यही नहीं 'आज सजन मोहे अंग लगा लो, जनम सफल हो जाये/हदय की पीड़ा देह की अगनी, सब शीतल हो जाये।" जैसे प्रेम में समर्पण के गीत लिखकर तो जैसे वे प्रेम का एक मानक हीं रच देते हैं। प्यार में नारी के समर्पण की भावना को साहिर से ज़्यादा शायद ही किसी गीतकार ने इतने खुबसूरत शब्दों में बयाँ किया होगा।
हलांकि उनके अपने जीवन में कई मुहब्बत कई बार आई पर कभी भी वह चिर स्थायी नहीं हो सकी। साहिर के लफ़्ज़ों में जितनी चमक है, उनका व्यक्तिगत जीवन उतना ही उदास और अकेला रहा। विख्यात पंजाबी लेखिका अमृता प्रीतम से बहुत आत्मीय और गहरे लेकिन असफल प्रेम और गायिका सुधा मल्होत्रा के साथ नाकाम प्रेम संबंधों के बाद उन्होंने आजीवन अविवाहित रहना पसंद किया। हालांकि इससे पहले भी उनके दो प्रेम सम्बंध रहे थे, जिसमें से एक को उनसे उनके बैरी ख़ुदा ने छीन लिया था, दूसरी को मजहब की दीवारों ने।
गौरतलब यह भी है कि अमृता ने जितने खुले दिल से साहिर के लिए अपने प्रेम को स्वीकार किया, सुधा उतना हीं इससे इंकार करती रहीं। साहिर के साथ अपने नाम के जोड़े जाने से वे इस कदर दुखी थीं कि उन्होंने न सिर्फ गायकी का अपना चमकता कैरियर दांव पर लगा दिया वरन अफरा-तफरी में बेहद कम उम्र में शादी रचाकर अपने पति के साथ दूसरे देश जा बसी। साहिर ने ज़िंदगी का साथ निभाते हुये और दूर जानेवाले लोगों को भूल जाते हुये जीवन जीने का फ़लसफ़ा सीख लिया था, यह बात उनकी इन पंक्तियों से समझा जा सकता है।
'तू मेरी जान मुझे हैरतो-हसरत से न देख,
हममें कोई भी जहां नूर-जहांगीर नहीं।
तुम मुझे छोड़ के ठुकरा के भी जा सकती हो,
तेरे हाथों में मिरा हाथ है ज़ंजीर नहीं! '
उनकी जिंदगी को इन पंक्तियों की रोशनी में स्पष्ट तौर पर जाना जा सकता है। छोड़कर चले जानेवालों और पीछे छूट जानेवालों के लिए कभी उनके मन में कोई कड़वाहट नहीं रहा। उनके लिए प्यार कभी कोई इकतरफा मामला नहीं रहा। यहां दूसरे की इच्छा, उसका मन और सम्मान हमेशा जरूरी थे और रहें-
'मेरे ख्वाबों के झरोखों को सजाने वाली,
तेरे ख्वाबों में कहीं मेरा गुज़र है कि नहीं?
पूछकर अपनी निगाहों से बतादे मुझको,
मेरी रातों की मुक़द्दर में सहर है कि नहीं?'
प्यार पर बस तो नहीं है मेरा लेकिन, फिर भी
तू बता दे कि तुझे प्यार करूं या न करूं?
तूने ख़ुद अपने तबस्सुम से जगाया है जिन्हें
उन तमन्नाओ का इज़हार करूं या न करूं?'
और ऐसा इसलिए था कि वे अपनी मां सरदार अली के बेटे थे और इसलिए उन्हें स्त्री की इच्छा, उसकी सहमति-असहमति का सम्मान करना आता था। उन्होंने स्त्री के जीवन की त्रासदी को बरास्ते अपनी माँ भोगा था और उसे अपनी शायरी में आवाज़ भी दी थी।
"ज़िंदगी भीख में नहीं मिलती ज़िंदगी बढ़ के छीनी जाती है,
अपना हक़ संग-दिल ज़माने से छीन पाओ तो कोई बात बने।
पोंछ कर अश्क अपनी आँखों से मुस्कुराओ तो कोई बात बने
सर झुकाने से कुछ नहीं होता सर उठाओ तो कोई बात बने।"
और
'न मुंह छुपा के जियो और न सर झुका के जीयो/ गमों का दौर भी आये तो मुस्कुरा के जीयो।' के माध्यम से स्त्रियों को अपने हक के लिए लड़ने और खड़े होने की सीख देनेवाले गीतों के साथ-साथ उन्होंने समाज में स्त्रियों के साथ हो रहें तमाम वहशतों और अन्यायों के खिलाफ भी आवाज़ उठाई-
लोग औरत को फ़क़त एक जिस्म समझ लेते हैं,
रूह भी होती है उस में ये कहाँ सोचते हैं।
औरत ने जनम दिया मर्दों को, मर्दों ने उसे बाज़ार दिया।
जब जी चाहा कुचला मसला, जब जी चाहा दुत्कार दिया।'
मर्दों के लिये हर ज़ुल्म रवाँ, औरत के लिये रोना भी ख़ता,
मर्दों के लिये लाखों सेजें, औरत के लिये बस एक चिता।
मर्दों के लिये हर ऐश का हक़, औरत के लिये जीना भी सज़ा,
मर्दों ने बनायी जो रस्में, उनको हक़ का फ़रमान कहा।
औरत के ज़िन्दा जल जाने को, क़ुर्बानी और बलिदान कहा।
क़िस्मत के बदले रोटी दी, उसको भी एहसान कहा।
औरत ने जनम दिया मर्दों को, मर्दों ने उसे बाज़ार दिया। "
दुनिया में औरत पर सदियों से होते आ रहे ज़ुल्मों के ख़िलाफ़, इतनी शिद्दत से आवाज़ उठाने वाले भी शायद वह अकेले ही शायर रहे।
लुधियाना में प्रारंभिक शिक्षा
लुधियाना के ख़ालसा हाई स्कूल में अपनी प्रारंभिक शिक्षा पूरी करने के बाद साहिर गवर्नमेंट कॉलेज ऑफ़ लुधियाना में दाख़िल हुये। वहाँ की सियासी सरगर्मियों का उन पर असर होने लगा; और उस दौर के मशहूर शायर - इक़बाल, फ़ैज़, मजाज़, फ़िराक़ वगैरा की विद्रोही शायरी से भी वह रूबरू होने लगे।
सन 1945 में केवल 24 साल की उम्र में 'तल्ख़ियाँ' नाम से उनका पहला काव्य संग्रह प्रकाशित हुआ, जिसकी वजह से उन्हें बतौर शायर बड़ी क़ामयाबी हासिल हुई। साहिर ने बचपन से ही जीवन की कठोर वास्तविकता का अनुभव किया था, उस किताब के समर्पण में उनका लिखा ये शेर इसी बात की तस्दीक करता है-
'दुनिया ने तजुर्बातो-हवादिस के शक्ल में,
जो कुछ मुझे दिया है वो लौटा रहा हूं मैं।'
पाकिस्तान छोड़कर लौटे हिंदुस्तान
साहिर ने कॉलेज की पढ़ाई पूरी करने के बाद प्रसिद्ध उर्दू पत्र ‘अदब-ए-लतीफ़’, ‘शाहकार’ (लाहौर) और द्वैमासिक पत्रिका ‘सवेरा’ के संपादक की ज़िम्मेदारियाँ निभाई । 'सवेरा' पत्रिका में उनकी एक रचना छपी थी जिसे सरकार के विरुद्ध समझा गया और पाकिस्तान सरकार ने उनके ख़िलाफ़ वारंट भी जारी कर दिया था। सन 1949 में साहिर अपनी माँ के साथ पाकिस्तान छोड़कर हिंदुस्तान आ गये। उसके बाद अपना नसीब आज़माने के लिए बंबई शहर पहुँचे। फ़िल्म 'आज़ादी की राह पर' (1949) से उन्होंने गीतकार के रूप में अपनी पहचान बनाई।
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साहिर की स्मृति में बचपन की वह शाम बदस्तूर ताउम्र दस्तक देती रही, जिसमें एक ट्रेन धड़धड़ाते हुए गुज़र रही थी और 13 साल के साहिर अपनी माँ से लिपट जाते हैं और रोते हुए अपनी माँ से कहते हैं " अम्मी मुझे रेलगाड़ी से बहुत डर लगता है, वापस अपने घर चलो ना ! साहिर कभी नहीं भूल पाए उस भाव को जो उस वक़्त उनकी माँ की आँखों में उभरा था। और वो रंग भी जिससे यकबयक उनकी माँ का चेहरा भर गया था। उन्होंने अपने बच्चे को अपने सीने में भींचते हुए कहा था- "वो घर हमारा नहीं है। अब हम वहाँ कभी वापस नहीं जा सकते। अपने अब्बा को भूल जाओ, वो तुमसे और मुझसे नफ़रत करते हैं। उन्होंने तुम्हें मारने का अहद (प्रण) लिया है"। सरदार बेग़म ये सब ना जाने किस बदहवासी, किस कैफ़ियत में एक साँस में कह गईं थीं... उनका ये कहा साहिर ताउम्र कभी भुला नहीं सके।
साहिर और उनकी माँ एक साथ रो रहे थे, एक दूसरे से लिपटे हुए। साहिर सिसकियाँ भरते हुए माँ से कह रहे थे "अम्मी! वादा करो तुम मुझे छोड़ कर कभी नहीं जाओगी"। और सरदार बेग़म ने साहिर के आँसू पोछते हुए कहा था "मैं वादा करतीं हूँ, मेरे बच्चे, तुझे कभी छोड़ कर नहीं जाऊँगी।" और ताउम्र उन्होंने अपने इस वादे को निभाया।
साहिर को क्यों खत्म करना चाहते थे पिता?
सरदार बेगम के पति के पास बहुत पत्नियां भले कई रही हों पर बेटा सिर्फ एक था। सरदार बेगम अबतक ये समझती रही थी कि उनके पति एक अदद संतान की चाहत में अब तक इतनी शादियां करते रहे थे और बेटे अब्दुल हई को पाकर उनकी ये तलाश खत्म हुई। लेकिन ऐसा कुछ भी न था, उनके जमींदार और ऐय्याश पति ने बाद इसके एक और शादी की , जो साहिर की मां को बिलकुल न जंचा। मामला अदालत में पहुँच गया। अदालत में नन्हें साहिर ने अपनी माँ को चुना। और अदालत ने भी 'बच्चे को माँ की ज़्यादा ज़रूरत है', के सिद्धांत के पर साहिर को उनकी माँ सरदार बेग़म को सौंप दिया।
ये साधारण और सहज सी दिखनेवाली घटना मर्दवादी सोच और सत्ता पर आघात थी। कुल के चराग़ को एक औरत कैसे हथिया सकती है? वो तो बेटा पैदा करने की मशीन भर है। पितृसत्ता की नज़र में बेटा पिता की खेती है। उसका वंशज है,उसके पौरुष का फल। तो साहिर का उनकी माँ के साथ जाना उनके पिता फ़ज़ल मुहम्मद को अखर गया और उन्होंने अपने कारिंदे उन्हें ख़त्म करने के लिए लगा दिए।
ये ऐसे ही था जैसे जो वस्तु मेरी नहीं वो किसी और की नहीं हो सकती। एक जीती जागती जान का, एक इंसानी बच्चे का वस्तु में बदल जाना कितना त्रासद हो सकता है ये साहिर और उनकी माँ ही समझ सकते थे। साहिर की माँ ने अपने गहने ज़ेवरात बेंच कर अपने बच्चे के लिए अंगरक्षक रखे। ताकि वो उसे अपने पति के हाथों मारे जाने से बचा सके।
उनके जीवन में उनकी माँ के अलावा कोई नहीं था। वो जहाँ भी जाते अपनी माँ के साथ जाते। फ़िल्म की शूटिंग, गीतों की लॉन्चिंग, कोई मीटिंग, अवार्ड फंक्शन कहीं भी... उनके जीवन में सबकुछ अधूरा छोड़ देने की उनकी सनक उनकी माँ के जीवन के अधूरेपन की प्रतिध्वनि थी। मुकम्मल से उन्हें डर लगता था।
परिवार और शादी के नाम से उन्हें भीतरी तौर पर जैसे कोई वहशत थी। शायद इसलिए कि उन्होंने अपने जीवन में एक खराब रिश्ते का दंश झेला था। शायद इसलिए भी कि उन्होंने विवाह-संस्था के टूटने से पैदा होनेवाले दुख और उसके दंश को अपने और अपनी मां के जीवन में बहुत करीब से देखा था। इन्हें लेकर उनके मन में कोई एक गा़ठ थी, जो हमेशा बनी रही। इसलिए रिश्तों के प्रगाढ होने से पहले वे उससे दूर निकल लेते रहें।
साहिर और अमृता प्रीतम
अमृता प्रीतम ने 'रसीदी टिकट' लिखते हुए दर्ज़ किया है कि साहिर जब भी उनके घर आते, लगातार सिगरेट पीते रहते। सिगरेट अभी आधी हुई होती कि वे दूसरी जला लेते। उनकी आधी पी हुई सिगरेट को सहेजते हुये अमृता ने सिगरेट पीना शुरू किया था। यह साहिर को अपने इर्द-गिर्द महसूसना था उनके तईं।
कोई भी कमी न होते हुये बस उनके रिश्ते के अधूरेपन में कमी उस शदीदियत की थी, जो किसी भी रिश्ते को पूरा करने या फिर होने में एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है। और अमृता की आत्मकथा से गुजरते हुए यह साफ़ लगता है कि वह कमजोर कड़ी वे नहीं थीं। वह कमजोर कड़ी साहिर ही थे। उनके अंदर की तुर्शी और वो कड़वा खालीपन था।
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अपनी जिन्दगी और अपने प्यार से जुड़े अनुभवों को गीतों में ढालने में माहिर साहिर ने तो बड़ी सादगी से अपने इन मनोभावों को भी कह दिया – ‘भूख और प्यास से मारी हुई इस दुनिया में मैंने तुमसे नहीं सबसे ही मुहब्बत की है।’ या कि - ‘चलो इक बार फिर से अजनबी बन जाए हम दोनों’. पर यह अजनबी बन जाना अमृता के लिए कभी आसान नहीं रहा।
साहिर के लिए प्रेम बहुत आगे चलकर सबके लिए यानी सामाजिक इंकलाब की राह बनता है पर अमृता के जीवन की घड़ी की सुई समय के आगे, बहुत आगे बढ जाने के बावजूद वहीं याकि साहिर पर हीं आकर अटकी रह जाती है तो अटकी रह जाती है।
मां के चले जाने के बाद साहिर भी नहीं जी सके
आख़िरकार वे लोग भी चले जाते हैं, जिन्हें नहीं जाना था। वे वादे भी टूट जाते हैं जिन्हें नहीं टूटना था। मौत किसी के वादे या फिर जरूरतों का खयाल नहीं रखती। सरदार अली का भी अपने बेटे के साथ हर -हमेशा रहने का वादा भी टूट गया था। साल 1978 में वे साहिर को छोड़ कर हमेशा हमेशा के लिए चली गईं।
माँ के जाने के बाद दुनिया का साहिर लुधियानवी और अपनी माँ का अब्दुल हयी दो साल भी नहीं जी सका। और 25 अक्टूबर 1980 की रात शराब की नीम बेहोशी में मौत के आग़ोश में समा गया। मौत की वजह हार्ट अटैक थी। 25 अक्टूबर 1980 को साहिर की कहानी में पूर्णविराम वाली रात आखिर आ ही गई।
माँ की रुखसती के साल ही फ़िल्म त्रिशूल (1978) आई थी। जिसमें उन्होंने अपनी माँ के जीवन संघर्ष, उनकी ज़िद्द और उनके सपनों को गीत में ढाल दिया था।
'तू मेरे साथ रहेगा मुन्ने
ताकि तू जान सके
तुझको परवान चढाने के लिए
कितने संगीन मराहिल से तेरी माँ गुजरी!'
साहिर को पाल-पोसकर बड़ा करने के लिए उनकी मां को जो कड़ा संघर्ष करना पड़ा था, फ़िल्म ‘त्रिशूल’ के इस गीत में उभर कर आया है, जिसमें अकेली मां की भूमिका निभाने वाली वहीदा रहमान, अपने बेटे की परवरिश के लिए कई कठिनाइयों से लड़ती है।
साहिर ने ताजिंदगी उनके इस संघर्ष को मान और सम्मान दिया। वे अपनी मां से बेइंतहा मुहब्बत करते थे, यह इससे भी समझा जा सकता है कि उनके जाने के बाद वे संभल नहीं सकें। वो साहिर जो अपने हर असफल प्रेम के बाद फिर से उठकर खड़े हो जाते थे और उन मंजरों और यादों को च़द गीतों और नज्मों की शक्ल में पिरो देते थे। वही साहिर अपनी मां के गुज़र जाने के बाद नाम मात्र गीत लिखते हैं और उससे भी कम फिल्में उन्होंने ली।
पिता के धन-दौलत, ऐश्वर्य और आराम भरी जिंदगी को छोड़कर मां का आंचल और उनका साथ बचपन में हीं चुननेवाले साहिर ने दरअसल अपनी जिंदगी में एक हीं मुकम्मल मुहब्बत की और पाई थी और वह थी उनकी मां 'सरदार बेगम' से उनकी मुहब्बत...