"आजी...तनि‍ नीचे उतरबे..बि‍स्‍तर के चादर बदलबऊ"
" के हीं...कौन ...सुमेर बहुरि‍या ..." लगता है आजी अभी भी आधी नींद में है। दीवार की ओर करवट लेकर सोई वो इस तरह बामुश्‍क‍िल धीरे से करवट बदल रही हैं क‍ि जैसे जरा सा झटका लगेगा और हड्ड‍ियां बोलने लगेंगी।
" नै आजी...हम ह‍ियौ। उठ...पहि‍ले नीचे उतर, तब बताबउ..." मध्‍यम कद की युवती, ज‍िसका रंग सांवले से काले में बदल चुका है, उसने आजी की गर्दन के पीछे एक हाथ डाल द‍िया और सहारा देते हुए उनको बि‍स्‍तर पर बि‍ठाया।
आजी के मुंह से...एंहह की अजीब सी ध्‍वन‍ि न‍िकली...इस आवाज के साथ चारपाई की चरचराहट ने भी सुर म‍िलाया।
''इ खट‍िया भी आज‍िये जि‍तना पुरना लग रहा... '' यह सोचकर मन ही मन हंसी वह युवती, ज‍िसका नाम तो कोमल था, मगर वह कारी के नाम से जगप्रस‍िद्ध हो चुकी थी। उसे भी इस नाम से कोई एतराज नहीं रह गया था। छुटपन में जब उसके कोमल नाम को ब‍िगाड़ते हुए मुहल्‍ले के बच्‍चों ने उसे कारी बुलाया तो वह ठुनकते हुए अपनी मां के पास श‍िकायत लेकर गई थी -
'' माय... हमके सब कारी कहथैं! ''
गोबर पाथती उसकी मां ने च‍िड़च‍िड़ाते हुए कहा था - '' कर‍ियट्ठी के कारी नै त उजरी कहबैं का'' उस द‍िन से उसने भी अपना नाम कारी स्‍वीकार ल‍िया था।
'' गोड़ नीचे रख आजी...'' कहते हुए खट‍िए से सहारा देकर नीचे उतारती है आजी को और वहीं कोने में पड़ी कुर्सी को खींच कर उसमें बि‍ठा देती है। आजी मि‍चम‍िच‍ी आंखों से टुकुर-टुकुर ताकती है कारी की ओर...मगर कारी एक जगह स्‍थि‍र रहे, तब न देखे, पहचाने उसको। वैसे भी आजी को आजकल सबकुछ याद नहीं रहता। न ही सभी को पहचान पाती है। मन ही मन सोचती हैं - ' ई छोड़ी एक जगह टि‍के तब न ठीक से मुंह देखे । फट से ह‍ियां..पट से हूआं...नचन‍िया कहीं की। मगर इसको तो देखे हैं पहले भी...पर कह‍िया...'
असमंजस में घ‍िरी आजी पहचान के च‍िन्‍ह तलाशने की क्र‍िया में परेशान हो उठी हैं - सुमेर बहुर‍िया नहीं है, इ तो आवाजे से पता लग गया। मगर इ बेरा तो वही आती है चाय लेकर। कभी -कभार देर सबेर हो जाता है...मगर उसके स‍िवा तो कोई और आता भी नहीं। मायूस आजी की आंखों के आगे पर‍िवार के सभी लोगों का चेहरा एक-एक कर गुजरता है। वह ऐसे स‍िर झटकती है, जैसे स‍िर पर कुछ बोझा रखा हो...उनके होंठ ऐसे त‍िर्यक हो जाते हैं, जैसे अंदर उमड़ती कड़ुआहट को पीने की कोश‍िश कर रही हों।
‘इ दीना की मां को अभि‍ए बीमार पड़ना था। कम से कम साफ-सफाई के साथ दू गो बात करने वाला तो कोई था।इसी से बेचारी सलोनी का काम ज्‍यादा बढ़ गया है...’
सलोनी...आजी खुश हो गई क‍ि उसे सुमेर की बहु का नाम याद आ गया। जब से यह भूलने की बीमारी लगी है, नाम-काम सब भूलने लगी हैं वो। के..कोन..कहां..उनके सवाल खत्‍म ही नहीं होते और सलोनी च‍िढ़ कर चुप हो जाती। आजी इन द‍िनों अपराबोध से घ‍िरी रहने लगी है। पूरी दुन‍िया ही अजनबी लगती है, इसल‍िए धीरे-धीरे उनका कोठरी से न‍िकलना भी बंद हो गया है। आस-पड़ोस की कोई मह‍िला फुर्सत में कभी-कभार आकर झांक जाती है। ज‍िसे पहचान ल‍िया, उससे दो-चार बातें कर लेती हैं। जो अजनबी लगता है, उसकी ओर एकटक देखती रहती है। ऐसे में ऊब कर जो चली जाती है, दुबारा नहीं आती। आजी द‍िनों-दि‍न और अकेली होती जा रही हैं।
कारी ब‍िस्‍तर के आगे चुपचाप ठि‍ठकी सी खड़ी है। चादर देखकर ही लग रहा जैसे महीनों से इसे बदला नहीं गया है। तीन चार जगह बड़े-बड़े गोल नि‍शान है, पानी के दाग जैसा। पेशाब...यानी आजी को अब इसका भी ध्‍यान नहीं रहता। कारी को आजी की कलफ लगी साड़ी की याद हो आई...जूठा-सखरी का ध्‍यान रखने वाली आजी ने कलफ के ल‍िए कभी मांड का उपयोग नहीं कि‍या। वह हमेशा बारली या अरारोट से ही कलफ द‍िया करती थी।
उसने पीछे घूमकर आजी की मैली साड़ी पर एक नजर डाली और चादर के कोने लेदरा के नीचे दबाने लगी।
वह कल ही से आजी की देखभाल के ल‍िए आ रही है। कल जब आई तो आजी गहरी नींद में डूबी थी। उनको नींद से उठाना ठीक नहीं लगा था उसे। करीब घंटा भर वह कमरे के बाहर बैठी रही क‍ि कोई सुगबुग सुनाई पड़े तो आजी के पास जाए। मगर आजी तो घोड़ा बेचकर सोई थी।
तकि‍ए का खोल बदल कर उसे स‍िराहने जमा द‍िया। खट‍िया बीच से झूल गया है। ठीक उसके नीचे म‍िट्टी की हड़‍िया रखी है। उसने नीचे झुककर हड़‍िया बाहर खींचा...बदबू का भभका पूरे कमरे में फैल गया। हड़‍िया के भीतर का राख एकदम गीला था। कमरे में पेशाब न फैले, इसल‍िए यह इंतजाम है, कारी समझ गई।
उसे ठीक से सफाई करनी होगी और इसके ल‍िए एक बार फि‍र आजी को खट‍िया पर बैठाना होगा। जानती है कारी कि‍ आजी के लि‍ए बहुत देर तक कुर्सी में बैठना संभव नहीं हो सकता। इन दि‍नों वो अपना बैलेंस खो चुकी हैं। ब‍िना सहारे के वह एकदम नहीं चल पातीं। पहले तो लाठी लेकर बाहर न‍िकल भी जाती थीं । अब कमरे में ही पड़ी रहती हैं। सतर खड़ी आजी का शरीर कमान की तरह झुकने लगा है।
उनको सहारा देकर उठाते हुए पूछा उसने - 'आजी..बाथरूम जाबे का..' उन्‍होंने न में सर ह‍िला द‍िया। उनको ब‍िस्‍तर पर ल‍िटाते हुए कारी ने एक बार गौर से उनका चेहरा देखा।
आजी की उम्र करीब 80-85 साल की होगी। गोरे रंग पर तांबई परत झुर्रियों के रूप में जमी है। कमर झुक गई है मगर चेहरे पर अहंकार का थोड़ा सा अवशेष बाकी है। श्‍वेत, पर घने बाल देखकर कोई भी अनुमान लगा सकता है क‍ि कभी बेहद सुंदर रही होंगी आजी। तीन बेटों की मां है वो...और इस बात का बेहद गर्व रहा है उनको। अपनी सहेली से जुड़ा एक पुराना क‍िस्‍सा वो बार-बार सबको बतातीं -
"जब मेरा तीसरा बेटा हुआ तो सुनीतवा अस्‍पताल आई थी हमसे मि‍लने। सुमेरवा एकदम हट्टा- कट्टा चार क‍िलो का पैदा हआ था। इसको देखकर बोली- ब‍िमला...तुम तो बेटा का लाइन लगा दी हो। जलनखोट्टी कहीं की। इतना च‍िढ़ लगा उससे क‍ि क्‍या बताएं...वो द‍िन और आज का द‍िन..उससे बात ही नहीं क‍िए।"
बेटों वाली मां के अब सात पोते-पोत‍ियां हैं, जि‍नमें से एक पोते की शादी भी हो गई है और कुछ महीने पहले आजी को परआजी बनने का सौभाग्‍य भी प्राप्‍त हो गया है। मगर वो रहती छोटे बेटे के साथ ही हैं। बड़ी बहु से उनकी बनी नहीं। मंझला बेटा नौकरी के कारण इस शहर से उस शहर घूमता रहता है और वह अपने पेटपोंछना बेटा-बहु के संग पुश्‍तैनी मकान में रहती हैं।
'सलोनी कहां है..सुमेर भी नहीं आया कल से...कि‍सी को मेरी चिंता ही नहीं।' आजी बड़बड़ाने लगीं। उनकी बड़बड़ाहट कारी के कानों तक पहुंच रही थी, मगर वह ऐसा जता रही थी क‍ि कुछ सुन ही नहीं रही।
'बचवन भी नहीं आया कोई...स्‍कूल जाने के पहले छोटका पोता तो आता था पहले। सुबह से चाय तक नहीं दि‍या कि‍सी ने।'
आजी की स्‍मृत‍ि फर्लांग लगाती रहती है। कभी कई बरस पीछे चली जाएंगी...कभी वह सब भी बोलेंगी, जो कभी हुआ ही नहीं। इस बार तीन बरस पुरानी बात को ऐसे याद कर रही हैं जैसे कल की ही बात हो।
' ई कौन नई औरत है....इसको तो नहीं पहचानते। यहां क्‍यों काम कर रही है। इस वक्‍त तक तो सुमेर की बहु चाय लेकर आती है। उसे पता है कि‍ सुबह-सुबह चाय पीने की आदत है। आज तो इतना दि‍न चढ़ आया...' मन ही मन गुन रही है सब आजी...मगर इस अनजान लड़की से क्‍या बात करे। यह भी तो अपना काम न‍िपटाने में लगी हुई है।
कारी ने पहले कुर्सी पर पड़े कपड़े के ढेर को तह लगाया और अलमारी खोलकर झाड़न लेकर पहले वहां की सारी धूल हटाई और बाहर के सारे कपड़े वहां करीने के सजा द‍िया। कल के दो गि‍लास और एक जूठी थाली कोने में उल्‍टे हुए थे, जैसे उसे ब‍िस्‍तर से ही फेंक द‍िया गया हो। उसे उठाकर धोया और कोने के दि‍रखे में पलटकर रख दि‍या। कमरे में धूल की इंच भर परत ऐसे जमी थी जैसे कि‍तने दि‍नों से झाड़ू-पोंछा नहीं की गई हो। अब फूर्ति से वो बाहर से झाड़ू लेकर आई और कमरे की सफाई करने लगी। फि‍नाइल डालकर जब कमरे का पो़छा लगाया तो आजी भी गौर से जमीन ताकने लगी। शायद उनको भी लगा हो क‍ि जाने क‍ितने द‍िनों के बाद जमीन को पानी का स्‍पर्श म‍िला है।
कारी को याद आया क‍ि क‍ितनी सफाई पसंद थीं आजी। पूजा-पाठ में भी उनका मन रमता था। साफ-सफाई का भी भरपूर ध्‍यान रखती थीं वो। जब कोई व‍िशेष पूजा होती तो घर के अलावा गली भी झाडू करवाकर पानी का छींटा द‍िलवाती। फि‍र उन गल‍ियों में चप्‍पल पहनकर कोई नहीं गुजर सकता और कुछ जाति‍ के लोगों की छाया भी नहीं पड़ने देतीं वो अपने घर के आसपास।
रसूखदार लोग थे वह। गांव में अमीर लोगों की अलग इज्‍जत होती है। वैसे भी गांव टोले के ह‍िसाब से बंटा था, हर जात‍ि का एक अलग टोला।
आजी अपने दो मंजि‍ले मकान के पि‍छले कमरे में रहती हैं। जब उनके पति‍ यानि‍ कलेश्‍वर स‍िंंह जि‍ंदा थे, तब भी उनका यही कमरा था। तब अटैच बाथरूम का चलन नहीं था। उनके कमरे के बाहर एक बड़ा बरामदा था, जो अंदर आंगन की ओर खुलता था। आंगन और घर को जोड़ता था एक बुलंद दरवाजा जो टीक की लकड़ी का बना था। चार दरवाजों के बराबर दो दरवाजा था और उसे बंद करने के ल‍िए मोटा स‍िकड़ लगाया जाता और उसके ऊपर लकड़ी का मोटा सांकल लगाया गया था। इसके लगाने के बाद दस आदमी भी म‍िलकर उसे नहीं खोल सकते थे।
उस दरवाजे को पार कर था आंगन...और उस पार रसोई। रसोई से थोड़ी दूर कुंआ और उसके बाद कोने में बाथरूम। पक्‍के घर के मेन दरवाजे से केवल घर वाले ही आना जाना करते थे, या उनके र‍िश्‍तेदार और सवर्ण। काम करने वालों के ल‍िए घर के पीछे एक दरवाजा था। उन्‍हें उसी रास्‍ते से आना -जाना था। आजी आंगन में रहे या अपने कमरे पर, उनकी चौकस नि‍गाहें पूरे घर में रहती थी। वह अपनी बहुओं को वहीं से आदेश दि‍या करती थीं। उनका कमरा पार करके ही कोई भी आ-जा सकता था। इसलि‍ए हर गति‍वि‍धि‍ पर उनकी चौकस नि‍गाहें रहती थीं। यह कहना गलत नहीं होगा क‍ि पूरा पर‍िवार उनके ही इशारों पर चलता था।
आंगन में दूसरे छोर पर कुंआ था। पैसे की कोई कमी नहीं थी, इसलि‍ए नौकर चाकर भी थे। आजी खेत-खलि‍हान के काम देखने के अलावा घर का भी खयाल रखती थीं। उस समय आंगन के बगल में खपरैल वाला ओसारा था, ज‍िसमें म‍िट्टी के तीन चूल्‍हे थे। आजी बड़े-बड़े टीन में धान उबाला करतीं। उस समय इतना अनाज होता था क‍ि कभी बाजार से कुछ खरीदने की जरूरत ही नहीं पड़ती। तब छोटे बेटे सुमेर की शादी नहीं हुई थी।
वह नीची जात‍ि वाले का छुआ खातीं न ही उन्‍हें घर या रसोई में पैर रखने की इजाजत थी। कभी क‍िसी और के घर खाना भी पड़े, तो पक्‍का खाना ही खाती थीं। घर के काम करने वाली के खाने का बरतन भी अलग था। एक बहरी नाम की दाई थी जो झाड़ू-बर्तन करने आती थी। कुंए के पास सीमेंट का चौकोर पक्‍का बनाकर बर्तन धोने का इंतजाम क‍िया हुआ था। बहरी जब घर के सारे बर्तन धोकर चली जाती, तब बहुएं कुएं से पानी खींचकर फि‍र से उन सबको खंगालती, तब वह रसोई के अंदर आता। जब वो बड़ी-त‍िलौरी या अचार बनाती, केवल ति‍वारि‍न दादी ही उनका सहयोग करती थी। रसोई हो या खेत के अनाज...सब काम उनकी न‍िगरानी में ही संपन्‍न होता।
इतनी देर से चुपचाप कारी को काम नि‍पटाते हुए देख रहीं थी आजी। वह जि‍धर-जि‍धर जाती, नजरें पीछा करती। शायद मन ही मन सोच रही होगी क‍ि क‍िसी गरीब घर की बहु होगी। पैसे की जरूरत होगी, इसल‍िए सुमेर ने इसे काम पर लगा द‍िया है।
आजी को अपने बेटों पर बहुत प्‍यार आता है। खासकर छोटा वाला सुमेर...वह तो ज‍िगर का टुकड़ा हो जैसे। मां-मां कह कर पीछे ही लगा रहता था हमेशा। उनके कानो में सुमेर की आवाज गूंजी- मां..एगो मां..कहां है तू..मेरी मां...
आजी की मोत‍िया भरी आंखें डबडबा गई। आज मेरा बचवा नहीं आया अपनी मां के पास...उनका मुंह चहास से चप-चप करने लगा और मन हांय-हांय...माय के प्रत‍ि इतना न‍िफि‍क‍िर हो जाता है आजकल का बाल -बच्‍चा। इतना भी नहीं सोचता क‍ि अपने से हाथ-गोड़ ह‍िला नहीं सकते हैं तो समय -समय पर दाना -पानी दे दे।
आजी भूल चुकी हैं क‍ि अब उनके बच्‍चे शायद ही आते हैं उनके कमरे में। पहले पोते-पोत‍ियां भी कभी आ जाते थे आजी के पास। मगर दादी जब से बि‍स्‍तर पर पेशाब करने लगी हैं, कमरा अमोन‍िया के तीखे गंध से भरा रहने लगा। बच्‍चे नाक बंद कर बाहर भाग जाते। वह बोझ बन चुकी हैं उनके ल‍िए, यह अहसास ही नहीं उन्‍हें। पुरानी यादों को सीने से लगाए आज का भ्रम पाल रही हैं वो, यह कौन बताए उनको।
" आजी...चाह पीबे...बनाय द‍ियौ"
" …तोयं अपन काम कर और जा...सलोनी चाय लेके आवत होई"
'कहां है तुम्‍हारी बहु सलोनी...' कारी पूछना चाहती है, मगर चुप रह गई। भले ही आजी उसे अभी पहचान नहीं पा रही, मगर वह तो आजी को बचपन से जानती और पहचानती है।
आजी का अपने परि‍वार और गांव में रौब था। अपनी ऊंगली पर पूरे घर को नचातीं और मुहल्‍ले के लोग भी उनकी इज्‍जत करते। क्‍या मजाल जो उनके बेटे उनसे पूछे ब‍िना एक भी काम करें। बहुओं की तो ग‍िनती ही नहीं थीं। उनकी दोनों बहुएं घर के मर्दों और सास को ख‍िलाए ब‍िना दो रोटी नहीं खा सकती थीं। वह इतनी कड़क थीं क‍ि जब उनकी मंझली बहु पेट से थी, और तेज भूख लगती तो वह कुंए पास कोने में छुपकर जल्‍दी-जल्‍दी रोटी खातीं। उस समय उसकी न‍िगरानी में बड़ी बहु यानी रीना की मां खड़ी रहती।
रीना और कारी सहेल‍ियां थीं। सहेल‍ियां इस नाते क‍ि आसपास ही मुहल्‍ला था उनका और दोनों हमउम्र। शाम को जब बच्‍चे खेलने के ल‍िए मैदान में इकट्ठा होते, तो उसमें कारी भी शाम‍िल हो जाती। कारी को याद है... एक बार उसे अपने घर बुलाया रीना ने। वह ह‍िचक रही थी उसके घर आने से, क्‍योंक‍ि रीना की दादी का व्‍यवहार पूरा मुहल्ला जानता था और कारी थी भी उस जात‍ि से ज‍िसे समाज नीच समझता है।
रीना एक द‍िन ज‍िद पर अड़ गई क‍ि कारी उसके घर आए। अक्‍सर खेलने के बाद रीना कारी के घर चली जाती और वहां से कुछ न कुछ खाकर ही आती। चाहे पानी भात हो या माड़ साग और चावल या फि‍र अचार से सानकर भात...उसे बहुत स्‍वाद‍िष्‍ट लगता था उसके घर का खाना। इसल‍िए रीना की इच्‍छा थी क‍ि कारी भी उसके घर आए।
अपनी सहेली का मन रखने के ल‍िए उस दि‍न सहमी सी कारी घर के पीछे वाले दरवाजे से पहली बार रीना के आंगन तक पहुंची थी। रीना की मां बाहर गई थी और दादी सो रही थी। दोनों सहेल‍ियां आराम से बात करती हुई आंगन में एक खाट पर बैठी थी। बहुत शौक से रीना ने दोनों के ल‍िए चाय बनाया और डब्‍बे से म‍िक्‍सचर न‍िकालकर प्‍लेट में रखा और आंगन में बैठ कर बातें करने लगीं।
वो दोनों बच्‍च‍ियां बातों में मशगूल थी क‍ि कड़क आवाज गूंजी - " तुम मदन घासी की बेटी हो न! "
सहमती हुई उसने हां में सि‍र हि‍लाया।
क्रोध में दांस पीसती हुई दादी च‍िल्‍लाई - " मेरे कप में चाय पीने की ह‍िम्‍मत कैसे हुई... नि‍कलो यहां से ..."
वह घबड़ाकर उठ खड़ी हुई और रीना की ओर देखे ब‍िना दरवाजे की ओर दौड पड़ी।
पीछे से उसने कांच टूटने की आवाज सुनी थी और रीना की पुकार भी... वह अनसुना करते हुए अपने घर की ओर दौड़ पड़ी थी। उसकी आंखों से झर-झर आंसू बह रहे थे और वह ऐसे दौड़ रही थी क‍ि अभी कोई पीछे से उसे पकड़ लेगा।
"तोंय कारी लागि‍न नै?" वही प्रश्‍न एक बार फ‍िर उसके कानों तक पहुंचा। च‍िहुंक उठी थी कारी। अतीत के डर का साया एक बार फ‍िर लहराया उसके वजूद में। मगर सामने वह दबंग आजी नहीं, कृशकाय आजी थी जो ब‍िना सहारे न ब‍िस्‍तर से उठ पाती है न ही खुद से बाथरूम जा पाती है।
" हां आजी...बड़ी जल्‍दी चि‍न्‍ह लेले..." कहती हुई कारी यानी कोमल के चेहरे पर नि‍र्दोष हंसी खि‍ल जाती है।
"तोयं हि‍यां कैसे...ससुराल से कह‍िया आल्‍हीं?" आज आजी की आवाज मध्‍यम थी।
"अब ह‍िंये रह‍ियौला आजी। आदमी के खतम होए के बाद मांय ले आनलौ। अब बेटा संगे मांय के पासे ह‍ियौ।"
" चाची कहां गेलऊ...और छौआ मने ...कब आबैंय"
" कोई नै हथुं आजी...सब गेलय। घूमे जायं हैं सब। गांव में केकरो मन नै लगइला... "
" तुम झूठ बोल रही हो कारी...!"
आजी की कड़क आवाज फ‍िर लौट आई थी। उनका वही पुराना रौब उतर आया आवाज में जो उनके जवानी के दि‍नों में होता था। दादी घर के बच्‍चों और बहुओं से हिंदी में बात करती थी, मगर गांव के लोग और जो उनके यहां काम करने आते थे उनसे हमेशा सादरी में ही बात करती थी। मगर जब कभी डांटना होता तो वह बीच-बीच में हिंदी बोला करतीं।
" हम झूठ क्‍यों बोलेंगे आजी। कहो तो छोटकी चाची से अभी बात करा दें।''
वह कहना तो चाहती थी क‍ि अब वो सब शहर में रहेंगे और महीना में एक बार आएंगे आपसे मि‍लने। पर आजी को सुनकर धक्‍का लगेगा, ‍इसलिए बस इतना ही बोली -
''हम तो मना कर रहे थे, मगर रीना जबरदस्‍ती आपकी देखभाल की ज‍िम्‍मेदारी दे दी है। आपको नहीं पसंद है तो काम छोड़ देते हैं।"
कारी की आवाज में न चाहते हुए भी रोष घुल आया। कहां अभी उसका मन तरल था क‍ि इस उम्र में आजी अकेली पड़ गई हैं, मगर नहीं...उनकी मानस‍िकता तो अब भी वही है। बचपन से देखा है उनका व्‍यवहार। कप -प्‍लेट तोड़ने वाली घटना के बाद रीना के तमाम आग्रह के बाद भी उसके घर कभी नहीं गई। घर से बाहर भी कहीं आजी से सामना हो जाता तो नजर बचाते हुए वहां से चली जाती।
मगर रीना ने अपनी दोस्‍ती नहीं तोड़ी थी उससे। न उसके साथ खेलना छोड़ा न उसके घर जाना। रीना की मां जानती थी यह बात, मगर उनके व‍िचार अपनी सास से अलग थे। इसल‍िए उन्‍होंने रीना को नहीं रोका कभी और उनकी भी अपनी सास से नहीं पटी। कारी की शादी कम उम्र में ही कर दी गई। वह अपनी गृहस्‍थी में रम गई और रीना पढ़ाई में। कुछ सालों बाद कारी अपने घर लौट आई तो छुट्टि‍यों में आने पर रीना उससे जरूर म‍िलती थी।
पि‍छली बार जब रीना आई तो बहुत उदास थी। उसे अपनी दादी की च‍िंता हो रही थी। अब दादी एक तरह से बि‍स्‍तर पर पड़ गई है। कोई सहारा देता है तो बाथरूम जाती है, वरना कई बार ब‍ि‍स्‍तर पर ही..
रीना की मां की भी उम्र हो गई है इसल‍िए वह कहती हैं क‍ि सारी ज‍ि‍ंंदगी मैं ही संभालूंगी... और भी तो बेटे हैं। मंझले वाले नौकरी का बहाना लेकर कभी गांव आते ही नहीं...इसल‍िए अब उनकी देखभाल का ज‍िम्‍मा छोटे चाचा - चाची पर है।
इस बार रीना गांव आई तो दादी से म‍िलने उनके कमरे में गई। छोटे चाचा ने खाली जमीन पर एक अलग मकान बना लि‍या है। दादी अब भी पुराने वाले घर में रहती है। है तो दस फीट का फासला मगर लगता है मन से कई-कई फीट की दूरी हो गई है।
रीना दादी के ल‍िए ठेकुआ ले कर गई थी। यह उनकी पसंदीदा नाश्‍ता था। साथ में मीठी चाय। सोचा..बहुत द‍िन बाद आई है तो दादी से खूब बत‍ियाएगी।
 मां बता रहीं थी क‍ि दादी कमजोर होने लगी हैं। कमरे में स‍िमटी रहती हैं। अक्‍सर रातों को वो जोर-जोर से
शादी के गीत गाती हैंं। उसी समय अचानक तुम्‍हारे पापा का नाम पुकारती हैं- ए अमि‍त..अम‍ितवा रे...ये दौड़कर जाते हैं क‍ि कहीं उनको कोई परेशानी तो नहीं...शायद तब‍ियत खराब हो गई हो। मगर जाने पर न मुझे न उनको पहचानती हैं। उनके मुंह से सुमेर के अलावा कोई नाम ही नहीं न‍िकलता।
रीना का मन हुआ, अपनी मां को कहे - '' जो सेवा करेगा, उसका ही न नाम जुबान पर आएगा।'' मां का भाषण फ‍िर शुरू हो जाएगा...इसल‍िए चुप रह गईं। पापा भी इन द‍िनों बीमार ही रहते हैं। तुरंत सुनाने लगेंगी क‍ि तुम खुद बाहर रहती हो...अब तुम्‍हारे पापा को देखें कि‍ दादी को...
दादी दीवार की ओर मुंह लेटी थी....लंबी-तगड़ी दादी स‍िकुड़कर छोटी बच्‍ची सी लग रही थीं पीछे से। रीना ने प्‍यार से दादी को आवाज लगाई तो वह करवट लेकर उनकी ओर देखने लगी...टुकुर-टुकुर...
" ठेकुआ खाओगी दादी...?" दादी ने अपना मुंह खोल द‍िया। रीना ने उनके मुंह में ठेकुए का टुकड़ा डाला...तो उन्‍होंने खप से उसका हाथ पकड़ ल‍िया।
रीना ने हटाने की कोश‍िश की...वो मजबूती से कलाई पकड़े रहीं...
उनकी आंखों में भूख तैर रही थी, मगर होठों पर लगातार मुस्‍कान बनी थी। उनकी आंखें कह रही थी क‍ि वह रीना, को नहीं पहचान रहीं...मगर खाना है, जान रही थीं वो।
सबको ख‍िलाने वाली दादी की यह हालत देख रीना की आंखों में आंसू तैर आए। अपनी ऊंगल‍ियों के इशारे से घर और अपनी कड़क आवाज से पास-पड़ोस पर हुकूमत चलाने वाली दादी ऐसी अशक्‍त और पराधीन भी हो सकती है, यह उसकी कल्‍पना से बाहर की बात है।
वो चुभला-चुभला कर ठेकुआ खा रही थीं और उनकी अतृप्‍त आंखें... चीख कर कह रही थीं क‍ि जाने कब से भूखी हैं वो...
वो खाती गईं..खाती गईं ..रीना की कलाई उनके हाथों में कसी हुई थी। स‍िकुड़ी त्‍वचा वाले मेहनतकश हाथ में अभी भी इतना दम था क‍ि रीना अगर कलाई छुड़ाना चाहती तो उसे भी ताकत लगाना पड़ता।
चार ठेकुआ खत्‍म कर पानी की ओर इशारा क‍िया उन्‍होंने और कलाई छोड़ दी...
गटागट दो ग‍िलास पानी प‍िया उन्‍होंने। अब उनके चेहरे पर संतुष्‍ट‍ि का भाव आया। चाय का ग‍िलास पकड़ा द‍िया रीना ने उनको। वह दोनों हाथों से ग‍िलास थाम कर चुस्‍की की आवाज न‍िकालकर चाय पीने लगी।
'कब से खाना नहीं खाईं हैं दादी...कोई नहीं आता है सुबह...आप बाहर क्‍यों नहीं न‍िकलतीं...?' वह लगातार प्रश्‍न पूछ रही थी और दादी सब अनसुना करके इत्‍मीनान से चाय सुड़क रही थीं।
उसकी आवाज सुन छोटी चाची कमरे में आईं। रीना को अचानक गुस्‍सा आ गया।
"चाची...दादी कब से भूखी हैं...?"
" हम क्‍या जाने..." तमककर बोलीं वो..." परसों मायके गए थे। इनका बेटा था न घर में। उन्‍हीं से पूछो...और हम ही क्‍यों...बड़ा बेटा और बहु भी तो है। वो दो द‍िन नहीं देख सकते..."
रीना समझ गई...'' फ‍िर भी बोली- मां को बता के जातीं क‍ि आप बाहर जा रही हैं तो वो कम से कम आकर ख‍िला-प‍िला तो देती। देख‍िए...क‍ितनी भूखी थीं...सब खा गईगईं..." कहते हुए रीना की आवाज बेबसी से दरकने लगी।
'' एक ठो इन्‍हीं को पैदा की हैं क्‍या ये...सब मेरी जि‍म्‍मेदारी...वह बड़बड़ाने लगीं थी। बाप रे...इतना ख‍िला द‍िए आप...हगेगी -मूतेगी तो कौन साफ करेगा...?"
रीना अपने आंसू दबाते चुपचाप बाहर न‍िकल गई। अगर उसकी नौकरी ऐसी होती क‍ि वह दादी की देखभाल कर सके तो जरूर इनको अपने साथ ले जाती। वह घर न जाकर सीधे कारी के पास पहुंची।
मेरी दोस्‍त..दादी की सहायता कर दो। उनकी देखभाल और खाना-पीना संभाल लो तुम...रीना एक तरह से ग‍िड़गि‍ड़ा उठी थी कोमल के आगे... मां कहती हैं गठ‍िया के दर्द से चला नहीं जाता...चाची अब संभालना नहीं चाहती...क‍िसे कहूं...क्‍या करूं...मैं तुम्‍हारे बेटे और दादी दोनों की ज‍िम्‍मेदारी उठा लूंगी...प्‍लीज, मान लो मेरी बात।
आजी का तना चेहरा और रूखी आवाज कारी के आगे साकार हो उठे। ज‍िसे जीवन भर दुरदुराया, छाया से भी बचतीं आईं, आज उसी के...मन के भाव को परे सरकाते हुए सहेली के आगे बस इतना कहा ही था उसने -
'दादी मेरा छुआ...'
हथेली से मुंह बंद कर द‍िया था कारी का रीना ने।
"रसोई तो महराज‍िन करेगी न...? " दादी की आवाज संशय भरी और कांपती सी लगी।
"उ भी हमही बना के देंगे! खाबे न आजी..?" सवाल पूछती कारी हंस दी और साथ लगे रसोई में घुस गई।
आजी आंख बंद कर लेटी हैं। उनकी आंखों की कोरों से बहने वाले आंसू तकिये में जज्‍ब हो रहे हैं। शायद इस समय उनका अतीत आंखों के आगे आकर खड़ा हो गया है। ऊंची जात‍ि का गर्व और तीन बेटों की मां...
उधर रसोई से खटर-पटर की आवाज आ रही है।
"आजी...ले एक घूंट चाय पी ले!"
चौंकती हैं आजी, कारी की इस आवाज पर। चाय का ग‍िलास कुर्सी पर रखकर आजी को उसने तकिये की टेक लगाकर बैठा दिया है और हाथ में पकड़े गर्म चाय की स्‍टील के गिलास को एक कपड़े से लपेटकर उनके हाथ में दिया है।
आजी ने चाय पकड़ते हुए उसका चेहरा देखा...पहले उनके होंठ थरथराए फि‍र हाथ कांपने लगे...
"ला...हम पीयय देबऊ चाह..." छलक आए चाय को अपनी साड़ी के कि‍नारे से पोंछती हुई कारी ने चाय का ग‍िलास आजी के मुंह से सटा दि‍या...चाय की गिलास से उठती हुई भाप एक क्षण को आजी की आँखों में ठहरी और अगले ही पल चाय की गिलास में बेआवाज टपक पड़ी...