अकसर प्रगतिशील बहसों में यह सवाल उठाया जाता है कि क्यों 'ब्रैंड राजस्थान' का प्रचार सिर्फ राजसी किलों और महलों के स्थापत्य के कारण किया गया है? क्यों रजवाड़ाशाही की निशानियों को प्रचार का माध्यम बनाया जाता है? क्यों अभी तक राजस्थान की छवि को शाही हैंगओवर से निकलने नहीं दिया गया? लेकिन इन बौद्धिक बहस मुबाहिसों से इतर अगर साफ़ नज़र और साफ़ नीयत से पुनर्वलोकन करें, तो यही बोध होता है कि राजस्थान की ख्याति में इस मरुभूमि के कण-कण का योगदान रहा है। इसीलिए ब्रैंड राजस्थान सिर्फ राजसी प्रतीकों ही नहीं, बल्कि अपने ज़र्रे ज़र्रे के योगदान के बूते पर भी विश्व विख्यात हुआ है।
राजस्थान का नाम और पहचान
राजस्थान के इतिहास से परिचित कोई भी व्यक्ति ब्रिटिश इतिहासकार कर्नल जेम्स टॉड से भी उतना ही परिचित होगा। इस राज्य का वर्तमान नाम राजस्थान कर्नल जेम्स टॉड द्वारा प्रचलित किया गया था, जिसे पहले राजपूताना के नाम से जाना जाता था। टॉड की महान कृति ‘राजस्थान’,जो कि तीन खंडों में समाई हुई है, उसे राजपूतों की उत्पत्ति, सिद्धांतों और इतिहास का मैग्ना कार्टा माना जाता है। टॉड के शोध ने राजस्थान की राजपूत राजशाही और इतिहास को वैधता प्रदान की, जिसके चलते अंतर्राष्ट्रीय पटल पर राजस्थानी रजवाड़ों को ख्याति मिली। लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि राजस्थानी समाज के और पहलुओं का इतिहास और वर्तमान अनदेखा किया गया हो।
रेज़ा रेज़ा राजस्थानी
ईमानदारी से टटोलें तो राजस्थान को हम सांगानेरी ब्लॉक प्रिंटिंग और मिनिएचर पेंटिंग करने वाले कलाकारों की मार्फत भी जानते हैं। मांगणियारों, बंजारों, मरासियों, लंगाओं का लोकसंगीत और पारंपरिक नृत्यकला भी राजस्थान की वैश्विक पहचान है।
भाट-चारणों की किस्सागोई, बिश्नोईयों के प्रकृति-प्रेम के अलावा भव्य जैन मंदिरों और गरीब नवाज की अजमेर शरीफ़ दरगाह भी राजस्थान की संस्कृति का परिचायक है। कठपुतली वाले कलाकारों को ढूंढते हुए लोग भी राजस्थान का रुख करते हैं। दुनिया भर से सैलानी पुष्कर जैसे मेले में रबारी समाज की पशुपालन संस्कृति को देखने आते हैं।
अल्लाह जिलाई बाई, दपू खान, मेहदी हसन, जगजीत सिंह, इला अरुण, डागर ब्रदर्स, बाड़मेर बॉयज़, लाखा खान, मरू कोकिला गवरी देवी जैसे मौसीकार भी तो जाति-संप्रदाय की सरहद से ऊपर उठकर बतौर राजस्थानी कलाकार जाने जाते हैं।
राजस्थान जी.डी. बिड़ला, जमनालाल बजाज और दुनिया भर में फैले मारवाड़ी व्यवसायियों से भी तो जाना जाता है। राजस्थान में ही मेजर सोमनाथ शर्मा, मेजर शैतानसिंह भाटी, जनरल सगत सिंह और वागड़ के गाँधी भोगीलाल पण्डया जैसे देशसेवा के प्रतीक हुए।
जहां तक रही सांस्कृतिक-सामाजिक आंदोलन की बात तो राजस्थान के कबीर कहाने वाले दादू दयाल, रूढ़िवाद और पाखंडवाद के खिलाफ़ बोले, मीराबाई ने पितृसता और परम्परा को चुनौती दी, गोरखनाथ पंथ का सामाजिक भेद मिटाने का संदेश इसी धरा पर फला-फूला, यहीं जांभोजी की वाणी से प्रकृति प्रेम की सीख मिली, यहीं संत पीपाजी ने भक्ति व समाज सुधार की अलख जगाई।
आदिवासियों और घुमंतुओं का ठिकाना
आदिवासियों के प्रति कृतज्ञता यहां कण-कण में है। मेवाड़ रियासत, डूंगरपुर रियासत और राजपीपला रियासत, तीनों ही रियासतों के कोट ऑफ आर्म्स पर भील आदिवासियों को जगह दी गई है। मेघवालों का बलिदान भी इसी इतिहास में दर्ज हैं और मीणाओं के इतिहास को भी सिर-माथे रखा जाता है।
जब जब बात तलवारों और बंजारों की होती है तो महाराणा प्रताप की फौज में रहकर तलवार जैसे हथियार बनाने वाले गाड़िया लोहार ज़रूर याद आते हैं। महाराणा कभी चित्तौड़गढ़ किला वापिस हासिल नहीं कर सके और उनके काफिले के साथ चलते इन गाड़िया लोहारों ने भी प्रतिज्ञा ली कि महाराणा के बिना वापिस चित्तौड़गढ़ नहीं लौटेंगे। तब से आज तक अपनी बैलगाड़ियों पर घुमंतू की तरह एक राज्य से दूसरे राज्य भटकने वाले ये गाड़िया लोहार अपनी निष्ठा और प्रतिज्ञा पर स्वाभिमान से डटे हुए हैं।
रजवाड़ों की धरा
जहां तक रही राजशाही की बात तो रजवाड़े यहां सिर्फ राजपूत ही नहीं रहे, भरतपुर-धौलपुर में जाट रियासतें भी रही, भील राजा भी रहे। हवेलियां यहां पटवों की भी मिलती हैं, मारवाड़ियो की भी। राजस्थान में क्षत्रीय राजाओं की छतरियों के अलावा रैदास की 8 खंभों की छतरी भी है और लाछा गूजरी की छतरी भी मौजूद है। यहां चेतक घोड़े की छतरी है तो भरतपुर में अकबर की छतरी भी मौजूद है।
रेत, पानी और दानवीरों की कहानी
स्वभाविक है कि मरुभूमि और प्यास को राजस्थान का रूपक बनाकर देखा जाता है लेकिन इसी मरुभूमि पर कई जल स्त्रोत बनाए गए जो आज भी दुनियाभर में जल संचयन का अनुपम उदाहरण हैं। मरुस्थल को हिमालय का पानी पिलाने वाले बीकानेर के दूरदृष्टा शासक महाराजा गंगा सिंह भी यहीं हुए जिन्होंने रेगिस्तान को नहर लाकर हरा-भरा किया।
बावड़ियों, वाव या झालरों का निर्माण करवाने में राजस्थान की शाही महिलाओं का योगदान सबसे अधिक रहा। इतिहास जिन पटरानियों और राजकुमारियों के बारे में मौन रहा, उन्होंने अपना नाम इन बावलियों को बनवाकर अमर कर दिया। हाड़ा रियासत में बूँदी की रानी द्वारा निर्मित बावड़ी आज भी अपनी भव्यता और रहस्यमयी आकर्षण के लिए जानी जाती है।
इसी प्रकार, जोधपुर के संस्थापक राव जोधा की पुत्री ने भी चित्तौड़ के समीप एक बावड़ी का निर्माण करवाया। झाली की बावड़ी, त्रिमुखी बावड़ी, और सुंदर बावड़ी जैसे कई अद्वितीय झालरों का निर्माण करके इन राजसी महिलाओं ने न केवल अपने सामाजिक दायित्वों का निर्वहन किया, बल्कि इतिहास में अपनी अमिट छाप भी छोड़ी। उदयपर, बीकानेर, जयपुर जैसे शहरों में राजाओं द्वारा बनवाई गई झीलें भी आमजन के लिए पानी के अमूल्य सोतों के रूप में प्रख्यात हैं।
सतरंगी ताना बाना
रंगीलो राजस्थान में सिर्फ राजपूती केसरिया ही नहीं, कालबेलिया का काला रंग भी शामिल है, मकराना के संगमरमर का सफ़ेद रंग भी शामिल है और रेतीले धोरों का सुनहरा रंग भी बराबर हिस्सेदार है। इसीलिए राजस्थान को समझने के लिए सुनहरी रेत पर बिखरे हुए इन अलग अलग सामाजिक धागों को एक सूत्र में जोड़कर देखने की ज़रूरत है।
यह भी पढ़ें- विरासतनामा: 'अमर शिला में गान तुम्हारा- इतिहास की चट्टानी पीठ पर इमारती इबारत लिखती औरत'