आज भी दुनिया याद करती है कि शाहजहाँ ने अपनी बेगम मुमताज़ की मोहब्बत में ताज महल जैसा वास्तुकला का एक बेजोड़ नमूना बनवाया। लेकिन इतिहास के पन्नों में यह भी दबा मिलेगा कि जिस हुमायूँ के मकबरे से प्रेरणा लेकर ताज महल बनवाया गया, उस हुमायूँ के मकबरे को बनवाने वाली एक महिला थी, बेगम हमीदा बानो, जिसने अपने शौहर और मुगल सुल्तान हुमायूँ की याद में चार बाग शैली में दिल्ली के बीचोंबीच इस मकबरे का निर्माण करवाया।

सदियों से किलों, शहरों, बागानों और महलों को बनवाने का श्रेय एकमुश्त दानी राजाओं, गुणी मर्द वास्तुकारों और मेहनती पुरुष कलाकारों को दिया जाता रहा है मगर इनके नामों की प्रतिध्वनि में उन हज़ारों औरतों का काम अनसुना अनदेखा कर दिया जाता है, जिनके बराबर योगदान से दुनियाभर के धरोहर आज खड़े मिलते हैं। 

तारीख उन तमाम रानियों और बेगमों की चश्मदीद गवाह है, जिन्होंने अपनी कुव्वत और दूरदर्शिता से मंदीर, मस्जिद, महल और कुएँ जैसे अनगिनत धरोहर बनवाए। साथ ही ऐसी भी दानी महिलाएँ हुईं जिन्होंने अपने बल पर समाज हित के लिए कई इमारतें, सड़कें और पुल बनवा दिए। ऐसी भी करोड़ों मज़दूर महिलाएँ रही हैं, जो शायद हमारे इतिहास में तो दर्ज नहीं हैं, लेकिन उनकी मेहनत की छाप उनके तराशे गए हर पत्थर पर और चिनी गई हर ईंट में मौजूद मिलती है।

सत्ताधीन रानियों का वास्तुकला में हस्तक्षेप

रानियों ने अपने प्रभाव और संसाधनों का इस्तेमाल वास्तुकला की अविस्मरणीय कृतियाँ बनवाने में किया। रोम की शक्तिशाली रानी लिविया ड्रुसेला का प्राइमा पोर्टा स्थित महल अनूठे भित्तिचित्रों से सजाया गया। इसी तरह कैरिया के राजा मोसोलस की विधवा अर्टेमिशिया ने अपने शौहर की याद में एक अनूठा मकबरा बनवाया। 

मिस्र की सम्राज्ञी हैत्शेप्सु ने तो दर-अल-बाहरी में कुदरती घाटी के साथ लीन होता हुआ ऐसा मंदीर बनवाया जिसे आज भी लोग देखने के लिए उमड़ते हैं। अफगानिस्तान चाहे आज महिला अधिकारों के दमन के लिए जाना जाता हो लेकिन यहीं गौहर शाद नाम की एक ऐसी सम्राज्ञी भी हुई जिसने अपने बूते पर छः मीनारों और दो मकबरों वाला मुसल्ला परिसर बनवाया, जो आज खुरासान के हेरात शहर की पहचान है। 

कर्नाटक के पट्टदकल में लोकमहादेवी ने अपने पति सम्राट विक्रमादित्य की पल्लवों पर विजय के बाद विरुपक्ष मंदिर बनवाया, जो आज यूनेस्को द्वारा चिन्हित विश्व धरोहरों की सूची में शामिल है। गुजरात की सोलंकी और वाघेला राजपूत रानियों ने भी अपनी दूरदर्शिता का परिचय देते हुए पाटन और अदालज में बावड़ियाँ बनवाई, जो न सिर्फ पीने के पानी के स्त्रोत बनीं बल्कि मूर्तिकला का अनुपम उदाहरण भी कहलाई; इन बावड़ियों में लोग पानी भरने के साथ-साथ धार्मिक अनुष्ठान करने भी आने लगे और मुसाफिर भी इन बावड़ियों में रैन बसेरा करने लगे। 

मुगलकालीन बेगमों के असल नाम बेशक इतिहास की पारखी नज़रों से छुपाकर रखे गए हों पर इनके द्वारा बनाए गए धरोहर आज भी इनके प्रभाव का प्रमाण हैं। एक तरफ अकबर की आया और मुग़ल साम्राज्य की सबसे ताक़तवर महिला माहम अंगा ने दिल्ली में खैर-उल-मनाज़िल नाम की मस्जिद बनवाई, वहीं शाहजहाँ की फतेहपुरी बेगम ने फतेहपुरी मस्जिद बनवाई, जो की दिल्ली की दूसरी सबसे बड़ी मस्जिद है। 

मुहम्मद शाह रंगीला की रानी क़ुदसिया बेगम ने न सिर्फ निज़ाम संभाला बल्कि दिल्ली में अपने लिए लाल किले से थोड़ा दूर एक महलनुमा क़ुदसिया बाग भी बनवाया। जहाँगीर की बेगम नूरजहाँ ने आगरा में जमुना के किनारे अपने पिता मिर्ज़ा गियास बेग के लिए इत्माद्-उद्-दौलाह मकबरा बनवाया, जिसे संगमरमर का अद्वितीय उदाहरण भी माना जा सकता है। बेगम मुमताज़ महल न सिर्फ ताज महल की प्रेरणा रहीं बल्कि उन्होंने अपने राज में आगरा में ही ज़ेहरा बाग का निर्माण भी करवाया। 

भोपाल में तो बेगमों ने एक लम्बे समय तक शासन संभाला, जिस दौरान बेगमों द्वारा भोपाल में गौहर महल, मोती मस्जिद, ताज उल मस्जिद और ताज महल का निर्माण भी करवाया गया। 

समाज हित साधती परोपकारी महिलाएँ

रानियों-महारानीयों के संरक्षण में बनी इमारतों के अलावा कई संपन्न परोपकारी महिलाओं ने भी निर्माण शक्ति से अपना नाम अमर किया। ऐसी ही दानी महिलाओं में से एक थी बंगाल की रानी राष्मणि, जिन्होंने अपने ज़मींदार पति की मृत्यु के बाद कालि माँ के लिए कलकत्ता में दक्षिणेश्वर मन्दिर का निर्माण करवाया। हालांकि उन्हें शुद्र होने के चलते स्थानीय पुजारियों का विरोध सहना पड़ा लेकिन उन्होंने अपने इरादे कमज़ोर नहीं होने दिए। 

इसी तरह बंबई में ईस्ट इंडिया कम्पनी के मुकरने के बाद एक पारसी व्यापारी की बीवी लेडी अवाबाई जमशेदजी ने डेढ़ लाख के अपने निजी खर्च पर माहिम काउज़वे बनवाया ताकि बंबई के अलग अलग टापुओं में आपसी आवाजाही कायम हो सके। 

काग़ज़ पर खींची लकीरों से इतिहासशिला पर इबारतें लिखती औरत

इन साधन-संपन्न महिलाओं के पास धनबल और जनबल दोनों रहे लेकिन जब औरतों ने बतौर वास्तुकार दुनिया में कदम रखा तो अपने कौशल से अपनी जगह बनानी शुरू की। भारत की पहली वास्तुकार उर्मिला यूलि चौधरी उन इकलौती महिलाओं में से थी, जिन्हें ली कॉर्बुज़िए के साथ चंडीगढ़ शहर की प्रयोजन प्रक्रिया में शामिल किया गया। 

चंडीगढ़ का पहला मास्टर प्लान बनाने वाली भी एक महिला ही थी- जेन ड्रयू, जिन्होंने इस आधुनिक शहर में छोटे-बड़े रिहायशी इलाकों को स्कूल, स्विमिंग पूल, बाज़ार और हस्पतालों के साथ जोड़ने का काम किया। हिमाचल प्रदेश में मिट्टी, बांस और पत्थर से घर बनाने वाली दीदी कॉन्ट्रैक्टर ने स्थानीय कामगारों से पहाड़ी वास्तुकला सीखी और उभरते हुए वास्तुकारों को भी यह कला सिखाई। 

आख्यानों में जगह बनाती औरत

ऐसी ही कितनी महिला वास्तुकारों, रानियों और परोपकारी महिलाओं ने हमारे इर्द गिर्द खड़े इमारती पर्यावरण को ईंट दर ईंट खड़ा किया है। इनके हस्तक्षेप को इतिहास के वर्कों से टटोलकर लाने, मुड़कर देखने और दर्ज करने से हम इतिहास को एक समावेशी दृष्टि से देख पाएंगे और जानेंगे कि दुनिया बनाने वाले हाथ सिर्फ किसी आदमी के नहीं, औरत के भी रहे। 

समय साक्षी है कि इमारतें बनाना हो या उनका संरक्षण करना, औरत जात ने मिट्टी गारे पत्थर का हर काम अपने बूते पर भी कर दिखाया है। जब अपनी बीवी की याद में पहाड़ तोड़ सड़क बनाने वाले दशरथ माँझी का नाम लिया जाएगा तो सामाजिक बेड़ियाँ तोड़ नहरें बनवाने वाली गढ़वाली रानी कर्णावती का ज़िक्र भी आएगा। इतिहास-लेखन ने चाहे इन महिलाओं का योगदान महीन छपाई में छिपा दिया हो पर इन महिलाओं के बनाए शहर, विशाल इमारतें और भव्य परिसर आज भी इनके कौशल और संकल्प की मूक गवाही देते हैं।

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