कालजयीः गोदान- भूमंडलीकरण के दौर में किसान गाथा

कालजयी कृतियाँ अपने संदर्भ और प्रस्तुति में समय की विशाल सीमाओं को लांघ जाती हैं। वे यथार्थ का बयान भर नहीं होतीं, बल्कि बेहतर भविष्य का रचनात्मक स्वप्न भी सिरजती हैं। शैली, भाषा और प्रस्तुति की नवीनता के साथ बृहत्तर मानवीय मूल्यों की सार्वकालिक प्रस्तावना इन्हें सुदीर्घ जीवन प्रदान करती है। यह शृंखला भारतीय और विश्व साहित्य की ऐसी ही कृतियों के पुनर्मूल्यांकन का सिलसिला है। इस शृंखला की ताज़ा कड़ी में प्रेमचंद के सर्वप्रसिद्ध कालजयी उपन्यास गोदान की पुनर्व्यख्या कर रहे हैं, सुपरिचित आलोचक नीरज खरे।

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Photograph: (बोले भारत)

प्रेमचंद ने हिंदी कथा साहित्य को आधुनिकता, नई दृष्टि और विचार दिए। भक्तिकालीन कविता में कबीर, जायसी और तुलसी, आधुनिक कविता में निराला, प्रसाद और मुक्तिबोध तथा आलोचना में आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने जो 'प्रस्थान' या 'नई नींव’ रखी, वही प्रेमचंद ने कथा साहित्य के लिए किया। कविता की दीर्घ परंपरा के चलते जब कहानी-उपन्यास की तरफ किसी का मुकम्मल ध्यान भी नहीं था या सिर्फ समकालीन सरोकारों को लेकर इन विधाओ की खास चिंता नहीं थी, तब प्रेमचंद ने उनकी समकालीन सोद्देश्यता और अहमियत निर्धारित की। उन्होंने साहित्य की धारा ही बदल दी। समग्रता में प्रेमचंद आधुनिक साहित्य की चेतना-रूपांतरण के बड़े लेखक हैं। यही नहीं उन्होंने अपने परवर्ती लेखकों के मानस विस्तार को सर्वाधिक प्रभावित किया। अकारण नहीं कि कथा साहित्य में उनके नाम की परंपरा ही कायम हुई।

प्रेमचंद का सर्वश्रेष्ठ उपन्यास 'गोदान' (1936) आज भी नए परिप्रेक्ष्य में विचार के लिए प्रेरित करता है। 'गोदान' पर अनेक दृष्टियों से विचार हुआ और किया गया है। उनके लेखन की सहजता और सादगी के भीतर निहितार्थों की असीम संभावनाएं है। किसी कृति के कालजयी होने की परख इसी आधार पर ही सुनिश्चित की जा सकती है कि उसमें आज के अहम् सवालों, सामयिक जीवन-चिंताओं और मनुष्य के संघर्ष की प्रतिध्वनि कैसे और कहाँ मौजूद है? आज गोपाल कृष्ण कौल का वह कथन सच साबित हो रहा है कि 'गोदान में अपने युग का प्रतिबिंब भी है और आने वाले युग की प्रसव-व्यथा भी।’ (गोदान : मूल्यांकन और मूल्यांकन, सं. इन्द्रनाथ मदान,पृ. 43)

‘'गोदान’ के मूल्यांकन और इसके बहाने लेखकीय चिंताओं की पहचान के लिए लिखी आलोचनाओं के परिप्रेक्ष्य में यह उल्लेखनीय है इस कृति से विभिन्न असहमतियाँ रखने वाले भी कोई-न-कोई खूबी इसमें ढूँढ़ ही लेते हैं! आजकल समकालीन साहित्य-विमर्श में प्रचलित दो प्रमुख आयामों के 'बीज' रूप भी प्रेमचंद के लेखन और विशेषतः 'गोदान' में ढूँढे़-परखे जा रहे हैं। जिनका संबंध क्रमशः स्त्रियों और दलितों की मुक्ति तथा कथा-साहित्य में विकसित हो रही इन आंदोलनात्मक प्रवृत्तियों से जोड़कर देखा जाता है। विवेकशील, कुछ तर्कसंगत एवं गहरी समझ रखने वाले इन प्रवृत्तियों के प्रेरणा स्रोत प्रेमचंद को मानते हैं। भ्रामक या कुपाठ करने वाले जो प्रेमचंद की कृतियाँ जलाते हैं, पाठ्यक्रमों से उन्हें हटवाते हैं या अनर्गल विचारों की आग उगलते हैं, इनसे अलग हटकर देखें तो सर्वाधिक अहम् पहलू है; जो गोदान को नए परिप्रेक्ष्य में देखने और विचार करने को प्रेरित करता है। यही पहलू 'गोदान' को उत्तर ब्रिटिशकाल के उपनिवेशवाद से खींचकर समकालीन नव-उपनिवेशवाद और मौजूदा भूमंडलीकरण की चुनौतियों और उसके विमर्शों से सामना करने वाली सच्ची रचना बनाता है। 

गोदान के कई आयाम हैं भारतीय ग्रामीण-जीवन, स्वाधीनता आंदोलन, महाजनी सभ्यता, दलित, स्त्रियाँ, गाँव और शहर, आदर्श और यथार्थ आदि। पर इस कृति की केंद्रीय भूमिका या लेखक की सहानुभूति और चिंता का प्रमुख स्थल किसान जीवन है। कहना न होगा कि पिछले कुछ वर्षों के बदलावों के फलस्वरूप गाँवों की बदलती (बदसूरत) तस्वीर में सबसे चिंताजनक हालत किसानों की है। गोदान को लेकर लगभग रूढ़ हो चुकी मान्यता, आज भी उतनी ही सच है कि यह 'भारतीय किसान जीवन का महाकाव्यात्मक उपन्यास है।’

गोदान को फिर से पढ़ते हुए, सबसे जरूरी है आज के परिदृश्य की वास्तविक पहचान। यानी समय की संपूर्ण गतिशीलता से बदले 'यथार्थ' की पहचान, जो पिछले बीस-तीस सालों में घटित हुआ। विकसित देश भारत जैसे विकासशील देशों को पुनः अपना उपनिवेश बनाने में लगे है। चंद बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा पूंजीनिवेश से भारत एक बाजार में बदल गया है। सारा समाज उपभोक्तावाद की अंधी दौड़ में शामिल है। इधर के तमाम कारक बता रहे हैं कि सब कुछ बदल गया है। टी.वी., इंटरनेट, कम्प्यूटर, मोबाइल की नयी खुशहाल दुनिया में किसी को गाँवों की सुध-बुध नहीं रही। इस चकाचैंध भरी रंगीन दुनिया में गरीबों के लिए कोई स्थान है? क्या यही 'ग्लोबल विलेज' की उस परिकल्पना का साकार रूप है! जो कभी मार्शल मैकलुहान ने संचार-क्रांति में पीछे विश्व कल्याण की अपरिमित सम्भावनाओं को देखकर कल्पित किया था। महानगर से नगर, कस्बा और गाँव तक इस नवसाम्राज्यवाद के हमले हैं। आज भारत के मुट्ठी भर उद्योगपतियों और पाँच-छह करोड़ खुशहाल लोगों को छोड़कर कहीं और उत्साह की कोई लहर दिखायी नहीं देती। भूमंडलीकरण की आर्थिक नीतियों से न तो औद्योगीकरण की कोई लहर उठ खड़ी हुई और न ही दावों के अनुसार करोड़ों रोजगार पैदा हो रहे हैं। जबकि बचे-खुचे भारतीय उद्योग भी नष्ट हो रहे हैं, कारखाने धड़ाधड़ बंद हो गए हैं या लोगों की छटनी हो रही है। सभी लघु, कुटीर, हस्तशिल्प और कृषि आधारित उद्योगों की बुरी हालत हैं। रोजगार के कुछ अवसर सिर्फ चुनिंदा महानगरों में बढ़े हैं जिनके लिए बढ़ रहे हैं वे ही भूमंडलीकरण के युग में गौरव महसूस कर रहे हैं। इसके उलट भारतीय गाँवों के किसान और मजदूर आत्महत्या कर रहे हैं। तकनीक बाहर बहुत कुछ बदल रही है, भीतर क्या हो रहा है! जहाँ सब कुछ बदल रहा है खान-पान, रहन-सहन, आपसी रिश्ते-नाते। हमारे ग्रामीण काम-धंधे सिर्फ अर्थव्यवस्था और रोजगार के साधन ही नहीं थे, वे हमारी सांस्कृतिक जीवनधारा में भी उतने ही हिले-मिले थे। इस सीधी-सच्ची धारा पर भी अब बाजार का फंदा पहुँच चुका है।

देश के समाज का 'इंडिया' और 'भारत' में विभाजन दिनोंदिन स्पष्ट होता जा रहा है। एक चंद अमीर लोगों का है। दूसरा बहुसंख्यक गरीबों का, जो सर्वाधिक शोषित और उत्पीड़ित हैं। आलोचक मैनेजर पाण्डेय की इन पंक्तियों का उल्लेख यहाँ जरूरी लगता है "पहले भारत में भूमंडलीकरण का जश्न मनाया जा रहा है और दूसरे भारत के किसान भुखमरी के शिकार हो रहे हैं आत्महत्या कर रहे हैं। पहले भारत में उपभोक्तावाद का राज है और दूसरे भारत में असमानता, आर्थिक विपन्नता तथा दमन का। भारत के गाँवों में अब भी दलितों, स्त्रियों और दश्तकारों की गुलामी बड़े पैमाने पर मौजूद है। पहला भारत विश्व-ग्राम का हिस्सा हो गया है और दूसरा भारत पहले का चारागाह बना हुआ है। भारत के असली गाँव तबाही के कगार पर हैं और नकली विश्व-ग्राम के गीत गाए जा रहे हैं। पहले भारत में दृश्यों की दुनिया का मायालोक फैला हुआ है और दूसरे भारत का दैनिक जीवन उपनिवेशीकरण के शिकंजे में है। भूमंडलीकरण के कारण भारत की कृषि-व्यवस्था और किसान गहरे संकट में है।’’ (कथा में गाँव, सं. सुभाषचंद्र कुशवाहा, भूमिका, पृ. 5) अपने समय में प्रेमचंद अंग्रेजी राज में उभरे पूंजीवाद के गाँवों पर पड़ते दुष्प्रभावों को समझ रहे थे। इसकी चिंताएं उनके उपन्यासों की कथा-भूमियाँ हैं। पर 'गोदान' तक आते-आते प्रेमचंद को इसका एहसास पूरी तरह हो चुका था। 'किसान' उनके लेखन में अकारण नहीं आया। अतः जगदीश्वर चतुर्वेदी का यह कहना ठीक है कि "प्रेमचंद के कथा-साहित्य में किसान ऐसे समय दाखिल होता है जब वह मर रहा था। किसानी खत्म हो रही थी। प्रेमचंद ने ऐसे समय किसान गाथा लिखी है जब औपनिवेशिक शासन के दौरान समूची अर्थव्यवस्था गंभीर परिवर्तनों से गुजर रही थी।’’ (वर्तमान साहित्य-पे्रमचंद विशेषांक: जुलाई, 2005, पृ. 58) 'होरी' इन्हीं परिस्थितियों के बीच शोषण-चक्र में पिसता किसान है। आज गाँवों की परिस्थितियाँ कई गुना भयावह हैं।

भूंमडलीकरण को प्रेमचंद युगीन उपनिवेशवाद का पर्याय मानना अनुचित नहीं लगता। उस समय शोषण की एक श्रृंखला थी, जिस पर उपनिवेशवाद कायम था। गोदान में इस शोषण-श्रृंखला के एक-एक नियामक (जमींदार, महाजन, प्रशासन के नुमाइंदे और धर्म-बिरादरी के ठेकेदार) को पहचाना गया है। यही नहीं होरी की महागाथा कहते, प्रेमचंद ठहर-ठहर कर इनके किसान-विरोधी चरित्र का उद्घाटन करते हैं।

इन सबके शोषण-सूत्र अंततः अंग्रेजी राज यानी ब्रिटिश उपनिवेशवाद से ही जुड़े थे। आज हालत यह है कि किसानों की असमय मौंते या आत्महत्या की घटनाएं उन क्षेत्रों में ज्यादा हुई हैं जो कृषि के लिए अत्यंत समृद्ध माने जाते थे। वजह स्पष्ट है भूमंडलीकरण और नयी आर्थिक नीतियाँ। जिनके चलते बड़े-बड़े विज्ञापनों ने किसानों में धन उगाहने की हवस पैदा की। बैंकों ने सहायता दी यानी खूब ऋण बाँटा। विश्वनाथ त्रिपाठी 'होरी के बाद गाँव' नामक लेख में लिखते हैं कि "किसानों ने बेहतर फसल और उससे अभूतपूर्व धन कमाने के लोभ में कर्ज लिया। सफल सूख गयी, कीड़े लग गए या उत्पादित फसल की मांग कम हुई तो किसान ऋण के बोझ से दब गया। यह बोझ बहुत भारी है किसान और उसके परिवार के सदस्यों पर, जो खेती से इतना मुनाफा कमाने की आशा करता है जितना पूंजीवादी अपने उद्योग से। आर्थिक आघात इस किसान को आकाश से धरती पर नहीं, पाताल के ढकेल देता है। फिर सपरिवार आत्महत्या के अलावा और कोई रास्ता नहीं बचता। ऋण-ग्रस्त व्यापारी भी आत्महत्या करते हैं।’’ (सहारा समय, समग्र-प्रेमचंद : 125 वर्ष : 30 जुलाई, 2005, पृ. 22)

आजादी के इतने सालों बाद भी भारतीय गाँव जमीदारी, सामंतवादी और महाजनी सभ्यता का अभिशाप भुगत रहे हैं। प्रेमचंद के समय महाजनों का महाजन अंग्रेजी राज था और आज अमेरिकी साम्राज्यवाद जो भूमंडलीकरण के जरिए नीतियों में घुस कर, अदृश्य होकर आया है। देश में बड़े पैमाने पर किसानों की आत्महत्या या मृत्यु की खबरों के चलते ही बड़े पैमाने पर किसानों के कर्ज माफी की योजनाएं बनायी गई हैं। यद्यपि विकासधारा, शिक्षा-जागृति के कतिपय प्रयासों से गाँवों की स्थितियाँ कुछ बदली भी हैं, लेकिन राजनीति के विकेंद्रीकरण से जमींदार-साहूकार-बाहुबली वर्ग मतपेटी पर अपना कब्जा जमाकर और ताकतवर बन गया है। कुल मिलाकर इस व्यवस्थातंत्र में गरीब आदमी अब भी सर्वाधिक संकटग्रस्त है। जीवन और जीविका के लिए जूझते-झींकते 'होरी' आज भी भारतीय गाँवों में मौजूद हैं। प्रेमचंद ने 'गोदान' में मोटे तौर पर किसानों के तीन वर्ग वर्णित किए हैं। पहले में; पं. दातादीन, झिगुरी सिंह, पटेश्वरी आदि आते हैं जिनके पास अपनी जमीन है। लगान देते हैं। लेकिन खेती खुद नहीं करते, खेत-मजदूरों से करवाते हैं। यही लोग हैं जो जमींदार या कारिदों से मिलकर असहाय किसानों के शोषण में मददगार की भूमिका निभाते हैं। धनिया की नजर में यही लोग ‘हत्यारे’ और ‘गरीबों का खून चूसने वाले’ हैं। दूसरे में; हरखू, सिलिया और उनका परिवार है, जो दलित जातियों के हैं और खेत-मजदूर की श्रेणी में आते हैं और इनके प्रति प्रेमचंद की बराबर सहानुभूति है। किंतु इन दोनों वर्ग के लोगों को प्रेमचंद वास्तविक ‘किसान’ के रूप में स्वीकार नहीं करते।

प्रेमचंद की किसान संबंधी मान्यता में वे लोग शामिल हैं जिनकी अपनी जमीन है और जिस पर वे खुद खेती करते हैं और जमींदार को लगान भी देते हैं। किसानी करना जिनका स्वाभिमान है। गोदान में प्रेमचंद वस्तुतः इसी वर्ग के पक्ष में पूरी संवेदना के साथ खड़े हैं गोदान का ‘होरी’ किसानों के इसी वर्ग का प्रतिनिधि है जिसके पास पाँच बीघा मौरूसी जमीन है जिसको बचाए रखना उसके लिए जीवन-मरण का प्रश्न है। 'गोदान' के पैंतीसवें भाग में प्रेमचंद लिखते हैं ‘‘हारे हुए महीप की भाँति उसने अपने को इन तीन बीघे के किले में बंद कर लिया था और उसे प्राणों की तरह बचा रहा था। फाके सहे, बदनाम हुआ, मजूरी की, पर किले को हाथ से न जाने दिया; मगर अब वह किला भी हाथ से निकला जाता था। तीन साल से लगान बाकी पड़ा हुआ था और पंडित नोखेराम ने उस पर बेदखली का दावा कर दिया था। कहीं से रुपए मिलने की आशा न थी। जमीन उसके हाथ से निकल जायगी और उसके जीवन के बाकी दिन मजूरी करने में कटेंगे। भगवान की इच्छा! राय साहब को क्या दोष दें? असामियों ही से उनका भी गुजर है। इसी गाँव पर आधे से ज्यादा घरों पर बेदखली आ रही है, आवे। औरों की जो दशा होगी, वही उसकी भी होगी।’’ (प्रेमचंद साहित्य रचनावली, खंड-7, सं. कमल किशोर गोयनका, पृ. 419) गोदान में होरी ‘छोटा’ या ‘सीमांत’ किसान है, उस समय यही वर्ग सबसे अधिक दुर्दशा का शिकार था। कमोबेश वही हालत आज गाँव के इन्हीं किसानों की है।

किसानों की मुक्ति के बारे में प्रेमचंद चिंतित रहते थे। ‘जागरण’ में प्रकाशित उनकी संपादकीय ‘हतभागे किसान’ और ‘महाजनी सभ्यता’ जैसे लेख इसके प्रमाण हैं। कथा-विमर्श में भी वे इस चिंता को लेकर बराबर जूझते रहे। भारतीय संरचना में किसानों की ऐतिहासिक, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक भूमिका को वे भली-भाँति समझते थे प्रेमाश्रय’, ‘कर्मभूमि’ और ‘गोदान’ लिखकर उन्होंने यह सिद्ध भी किया। रामविलास शर्मा लिखते हैं ‘‘प्रेमचंद ने जब ‘गोदान’ लिखा था तब वह खुद भी कर्ज के बोझ से दबे हुए थे। ‘गोदान’ की प्रमुख समस्या ऋण की समस्या है।...किसानों के जीवन के अलग-अलग पहलुओं पर वह उपन्यास लिख चुके थेप्रेमाश्रय’ में बेदखली और इज़ाफा लगान पर, 'कर्मभूमि’ में बढ़ते हुए आर्थिक संकट और किसानों की लगान बंदी की लड़ाई पर लेकिन कर्ज की समस्या पर उन्होंने विस्तार से कोई उपन्यास नहीं लिखा था। ‘गोदान’ लिखकर उन्होंने किसान की उस समस्या पर प्रकाश डाला जो आए दिन उनके जीवन को सबसे ज्यादा स्पर्श करती है।’’ (प्रेमचंद ओर उनका युग, पृ. 96) ‘प्रेमचंद : समीक्षा के बहाने कथा-आलोचना की नई जमीन की तलाश’ नाम लेख में जगदीश्वर चतुर्वेदी ने लिखा है कि ‘‘ग्लोबल पूंजीवाद का किसानों के साथ सीधा अंतर्विरोध है। पुराने और नए किस्म के ग्लोबल पूंजीवाद में अनेक समानताएं हैं। उनमें से एक है किसानों की तबाही और उनका बर्बर शोषण। ग्लोबल पूंजीवाद की समृद्धि की धुरी है किसानों का शोषण। नए और पुराने ग्लोबल पूंजीवाद की केंद्रीय विशेषता है गाँवों में अकाल, सूखा, किसान का ऋण ग्रस्त हो जाना, लगान न दे पाना, अकाल मृत्यु, स्थानीय जमींदारों और सूदखोरों के खिलाफ किसान संघर्षों का बढ़ जाना। ये लक्षण ब्रिटिश शासन के दौरान भी थे और आज भी मौजूद है।’’ (वर्तमान साहित्य विशेषांक : जुलाई, 2005, पृ. 59)

दो भिन्न समयों की मान्यताएं, जहाँ किसान नामक प्राणी के शोषण की प्रक्रिया में अंतर है? हाँ, तरीके बदले हुए हो सकते हैं। इस दो ध्रुवों पर गोदान के पाठ की संगति, इस कृति की महत्ता और प्रासंगिकता ही दर्शाती है। 1936 के ‘होरी’ में आज के किसान और उसके परिवार की संघर्ष-गाथा पढ़ी जा सकती है। ध्यान रखना चाहिए कि ‘गोदान’ के अंतिम पृष्ठ पर किसान की मृत्यु का वह दृश्य: जहाँ धनिया पछाड़ खाकर गिरी थी और होरी की बंद आँखे और ढुलकते आँसू; मृत्यु की विवश, दीन और निरीह स्वीकृति मात्र थे। होरी और धनिया के ये त्रासद-क्षण कहाँ से चलकर आए थे? और किसने दिए थे? ‘गोदान‘ कर्मफलवादी, सामाजिक ‘मरजाद’ को ढोने वाले, प्राचीन-ग्रामीण-उदात्त मूल्यों के पोषक और किंचित बेईमानी या छोटी-छोटी चालाकियाँ करने वाले ‘भारतीय किसान’ का समस्त गुण-दोषों के साथ चरित्र ही नहीं खींचता उपर्युक्त प्रश्नों के गहन उत्तर भी देता है। आज गोदान को फिर से पढ़ते हुए, प्रेमचंद किसानों की मुक्ति के स्वप्न-द्रष्टा ही नहीं, भविष्य-द्रष्टा भी प्रतीत होते हैं। प्रेमचंद जैसे सचेत कर रहे थे कि यदि तमाम हालात न बदले तो ‘होरियों’ पर विपदा बार-बार आएगी। ‘गोदान’ में प्रेमचंद का विजन और सृजन अप्रतिम है। यह अपने समय को अतिक्रमित करता उपन्यास है।

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