संयुक्त अरब अमीरात (यूएइ) में बसे एक वैश्विक-महानगर में निर्मित एक विशाल स्विमिंग पूल का दृश्य। जाते हुए मार्च की आख़िरी दोपहरों में यहाँ लगभग हर रोज़ धूप सेंकती हुई दो फ़्रांसीसी महिलाएँ मुझे मिलती रहीं हैं। धूप से साथ साथ आगे खिसकते हुए, गुनगुने पानी में कंधों तक डूबी यह दोनों सहेलियाँ घंटों पूल के किनारे पर यूं ही टंगी रहती। आसपास तैरते पुरुषों और खेलते बच्चों से बेख़बर, मद्धम स्वर में जारी अपनी लम्बी बातों में गहरे तक मशगूल। बीच बीच में कभी हमारी नज़रें टकराती तो अक्सर वह मुझे पूल के किनारे पढ़ते या फिर तैरते हुए देखतीं और ‘हाय’ कहतीं। कुछ ही दिनों बाद एक दोपहर स्विम के दौरन उन्होंने मुझसे मेरी ‘हिंदी की किताबों’ के बारे में उत्सुकता जताते हुए बातचीत शुरू की। उस अनौपचारिक पहचान के बाद पता चला कि कई साल पहले द्वितीय विश्वयुद्ध की हिंसा के दौरान मार्च के इन्हीं दिनों में उन्होंने अपने परिजनों को खोया था। फिर उनके ‘सारा दिन पानी में रहकर बातें करने’ के बारे में मेरी जिज्ञासा को सूंघते हुए उन्होंने मुस्कुराकर जवाब में सिर्फ़ इतना कहा- 'ऐसे हम ‘हील’ होते हैं। एक ज़ख़्मी आदमी को और क्या चाहिए होता है? थोड़ी सी गुनगुनी धूप और ज़ख़्म पर मलहम रख कर गहराई में सुनती हुई सी बातचीत।'
उस दोपहर के स्विम के बाद मैं देर तक पानी में पैर लटकाए बैठी रही। ऊपर अरब के साफ़ आसमान में धुंधला सा चाँद टिमटिमाने लगा था। और नीचे कुछ ही दूरी पर चेंजिग रूम के मेरे लॉकर में बंद थी प्रिय लेखक निर्मल वर्मा की किताब ‘धुंध से उठती धुन’। तैरना शुरू करने के ठीक पहले तक मैं इसी किताब के पन्नों में डूब कर उतरा रही थी। या शायद पानी के साथ-साथ अब भी किताब में डूबी हुई थी? ठीक ठीक कहा नहीं जा सकता कि उस लम्हे में मैं किताब में ज़्यादा डूबी हुई थी या पानी में।
किताब की शुरुआती पन्नों में दर्ज एक पंक्ति बार-बार याद आ रही थी - 'साहित्य हमें पानी नहीं देता, वह सिर्फ़ हमें हमारी प्यास का बोध करता है।' क्या इसी तरह कठिन समय में जीवन भी हमें दुखों से बचने का कोई उपाय नहीं देता बल्कि सिर्फ़ उस दुःख के बरक्स हमें खड़ा करके हमें हमारे जीवित होने के सौभाग्य और श्राप, दोनों का एहसास दिलाता है? निश्चित तौर पर नहीं कह सकती। लेकिन जो एक बात निश्चय ही सच है वह यह कि उन दो फ़्रांसीसी महिलाओं से हुई चंद मिनटों की बातचीत ने मुझे निर्मल जी की किताब ‘धुंध से उठती धुन’, जिसको मैं बीते दस सालों से पढ़ती रही हूँ, को समझने के लिए मानवीय दृष्टि से भरी एक अलग खिड़की की ओर अग्रसर किया। 'और क्या चाहिए होता है एक ज़ख़्मी इंसान को? थोड़ी सी गुनगुनी धूप और ज़ख़्म पर मलहम रख कर गहराई में सुनती हुई सी बातचीत।' ‘धुंध से उठती धुन’ का गद्य धीरज से दुखों को सुनती हुई मानवता का वही मलहम है।
इस लेख में मूलतः ‘धुंध से उठती धुन’ में शामिल ‘जहां कोई वापसी नहीं : सिंगरौली’ और ‘सुलगती टहनी : प्रयाग’ नामक दो निबंधों पर कुछ बिंदु रखने का प्रयास कर रही हूँ। लेकिन इन निबंधों पर आने से पहले संक्षिप्त में इस लेख के लिए इनके चुनाव के आधार का संदर्भात्मक ज़िक्र भी इस टेक्स्ट के साथ मेरे सम्बंध को रेखांकित करने के लिए ज़रूरी हूँ।
बचपन में जब से मैंने दुनिया को थोड़ा-बहुत समझने की कोशिश शुरू की, तब से ही मुझे लगने लगा कि मैं एक बहुत ही चोटिल दुनिया में पैदा हुई हूँ। छोटी-बड़ी असमानताओं के बारूदी ढेर पर सिसकती ज़ख्मों और हिंसा से भरी दुनिया में। दुनिया और इसमें रह रहे लोगों के दुखों से मेरा दिल हमेशा ही दुखता रहता। रिपोर्टर होने की वजह से मेरी नियति में भी मावनता के घावों को चुनना ही आया। जेंडर, जाति और सामाजिक न्याय के अलग अलग मुद्दों पर देश भर में घूम घूम कर रिपोर्टिंग करते हुए जैसे मैं हिंदुस्तान के सीने पर लगे अनगिनत घावों से संवाद कर उन्हें गुनने-समझने की कोशिश ही करती रही थी। हर छोटी-बड़ी आज़ादी के लिए पितृसत्ता से लड़ते हुए गुज़ारे गए मेरे निजी जीवन में भी घावों की कोई कमी नहीं थी। प्रेम में जोड़े गए निजी दुःख तो थे ही। और इतने थे कि एक वक्त के बाद मैंने सिर्फ़ खुद पर हंसना ही ठीक समझा। इस तरह से सीधे-सीधे देखा जाए तो मेरी सार्वजनिक और निजी दुनिया निर्मल जी कि दुनिया से बहुत अलग थी।
निर्मल जी को अकेलेपन का कवि भी कहा जाता है। दूसरी ओर मानव तस्करी, पुलिस एनकाउंटर, कुपोषण, यौन हिंसा, जातिगत हिंसा और चमकी बुख़ार से मरते बच्चों जैसे कई मुद्दों से जूझ रहे आम भारतीयों की कहानियाँ दर्ज करता मेरा जीवन खून ख़राबे और हिंसा के बीचों-बीच खड़ा रहा है। इस लिहाज़ से दूर से देखने पर किसी को भी लग सकता है कि मेरी परिधि निर्मल जी के संसार से बहुत दूर है। लेकिन बस इसी बिंदु में ऊर्जा का वह सारा सोता छिपा है जो न सिर्फ़ इस लेख की बल्कि मेरे जीवन की बुनियाद में भी शामिल है। वह सोता मेरे दिल के उस पाँचवें वाल्व में मौजूद है जिसको थामे निर्मल जी का गद्य हिंसा को दर्ज करने में डूबे हुए मेरे इस जीवन में मेरे साथ साथ सालों से चला आ रहा है।
दिल का पाँचवा वाल्व
निर्मल जी के गद्य से मेरा पहला परिचय सन 2005 के आख़िर में, उनके दुनिया से जाने के कुछ ही हफ़्तों बाद हुआ। बारहवीं कक्षा पास करके स्कूल अभी छोड़ा ही था और यूनिवर्सिटी के पहले साल के पहले दिनों में ही ‘वे दिन’ हाथों में आ गयी थी। निर्मल जी हिंदी साहित्य के वह पहले लेखक थे जिन्हें मैंने ठीक से पढ़ा या जिन्हें पढ़ते हुए पढ़ना सीखा भी। ‘धुंध से उठती धुन’ मास्टर्स के दौरान मिली और तब से एकदम संग-संग किसी जीवित इंसान की तरह मेरे साथ ही रहती रही है। कई बार सोचती हूँ यह कैसे सम्भव है कि कोई किताब इंसान की तरह आपके साथ रहे? इस प्रश्न के उत्तर शायद उस भूमिका में छिपा है जो इस किताब ने मुझे ज़िंदा रखने में निभाई है।
बायोलॉजी में पढ़ा था कि इंसान के दिल में चार वाल्व होते हैं। लेकिन जब मैंने 21 वर्ष की उम्र से रिपोर्टिंग करना शुरू किया तो बहुत जल्दी मेरे दिल के चारों वाल्व दुःख से भर गए। साल दर साल, गाँव देहात में भटक-भटक कर इस देश को दर्ज करते हुए अब दस साल हो गए हैं। इस दौरान किसानों की आत्महत्या, नागरिकता के संकट, विस्थापन और भीड़ द्वारा मारे गए लोगों जैसे कई मुद्दों पर कहानियाँ रिपोर्ट की। यौन हिंसा पर एक टूटी फूटी किताब करने की कोशिश भी की। इन सब के बीच दिल के चारों वाल्व तो अंधेरे और दुःख से न जाने कब के भर चुके थे। लेकिन हर बार जब रो रो कर मिट जाने का मन करता तो दिल में पाँचवा वाल्व बनाकर रहने वाला ‘धुंध से उठती धुन’ का गद्य बचा लेता मुझे।
अक्सर किसी मुश्किल यात्रा और दुरूह रिपोर्ट को फ़ाइल करने के बाद, चेक इन ख़त्म कर, बस्ता गोद में लिए एयरपोर्ट के किसी अकेले कोने में सर घुटनों में छिपाए पड़ी दर्द से तड़प रही होती कि तभी हाथों में झूल रही इस किताब में दर्ज कोई वाक्य मेरा बुझा हुआ चेहरा उठाकर वापिस कंधों के बीच में ठोंक जाता। 'यह ख़्याल ही कितना सांत्वना देना वाला है कि हर दिन। वह चाहे कितना ही लम्बा, असह्य क्यों न हो, उसका अंत शाम में होगा, एक शीतल से झुटपुटे में। मैं कमरे से बाहर जाऊँगा, स्मृतियों की छत से बाहर, गर्मी के खुले आकाश में, तारों के नीचे, बिना किसी आशा और प्रतीक्षा के।'
इस किताब पर मेरी भावनात्मक निर्भरता का आलम यह है कि रिपोर्टिंग के बीते दस वर्षों में मैंने इसे कभी खुद से अलग नहीं किया। जहां जहां मैं गयी, जितने जंगल, नाले, नदियाँ, रेगिस्तान और समंदर मैंने पार किए – इस किताब ने भी मेरे साथ वह सारी यात्रा निभाई। अमरीका, लंदन, रिचमंड में वर्जीनिया वुल्फ़ के घर से लेकर झारखंड के नक्सल प्रभावित गाँवों और त्रिपुरा-अरुणाचल के आदिवासी इलाक़ों से लेकर बाड़मेर के रेगिस्तान में भारत-पाकिस्तान सीमा पर बसे भारत के आख़री पोलिंग बूथ तक –यह किताब मेरे साथ हर जगह गयी है। जैसे पर्वतारोही हर चढ़ाई से पहले अपने साथ कम ऑक्सिजन में भी सक्रिय बने रहने की दवाइयाँ रखते हैं, वैसे ही मैं ज़्यादा दर्द में भी जी पाने के लिए ‘धुंध से उठती धुन’ की अपनी प्रति हर यात्रा से पहले अपने साथ रख लेती हूँ।
ऐसा नहीं है कि यह किताब मेरे दुखों का अंत करती है, बल्कि आला दर्जे के हर साहित्य की तरह यह किताब मुझे मेरे दुखों को समझने में और खुद को सहने में मेरी मदद करती है। इस तरह से अगर यह कहूँ कि निर्मल जी की इस किताब का मुझे अभी तक ज़िंदा रखने में सीधा सीधा योगदान है तो अतिशोक्तिय न होगा। फिर पूल में टंगी फ़्रांसीसी महिलाओं की वही बात दोहराती हूँ - एक ज़ख़्मी आदमी को और क्या चाहिए होता है? ज़ख़्म पर मलहम रख कर गहराई से सुनती समझती हुई सी बातचीत।'
सिंगौरली : जहां कोई वापसी नहीं
सिंगरौली पर 1983 में लिखा निर्मल जी का रिपोर्टाज वह सब कुछ है जिसकी कमी आज हमें 2021 की पत्रकारिता में पुरज़ोर रूप से महसूस होती है। इस टेक्स्ट में निर्मल जी ने दशकों से विस्थापन का दंश झेल रहे मध्यप्रदेश के सिंगरौली ज़िले के आदिवासी नागरिकों की व्यथा को न सिर्फ़ करुणा से देखा है, बल्कि इसके कुछ हिस्सों में वह लोकतंत्र के आख़िरी बिंदु पर खड़े आख़िरी आदमी के पक्ष उसी निष्ठा से आवाज़ उठाते नज़र आते हैं जिस निष्ठा की कमी का आरोप आज भारतीय मीडिया के सर किसी काँटों के ताज की तरह सजा हुआ है।
इसी उजाड़ गाँव के आगे हम खड़े थे। ऊपर शक्तिनगर का विराट पावर स्टेशन था, आधुनिक प्रगति का गर्वोन्नत प्रतीक। नीचे तेलंगावा के सूखे सुनसान खंडहर। जहां कुछ दिन पहले जीती जागती बस्ती थी, वहाँ अब कुत्ते लोट रहे थे। हमें बताया गया कि जब इस गाँव के कुछ प्रतिनिधि अपनी विपदा की कहानी लेकर शक्तिनगर के अधिकारियों के पास पहुँचे, तो उनका सीधा सा जवाब था : 'इस गाँव को तो उखाड़ना ही था। यह अच्छा ही हुआ कि लोग अपने आप चले गए।'
यदि औद्योगीकरण के नशे में सत्ता अपने देश के जीवंत, हाड़-मांस के लोगों के प्रति इतनी सनकी और ‘सिनिकल’ हो सकती है तो इस देश के प्राकृतिक जीवन–पानी, हवा , जगलों के प्रति – वह कोई समझ, सूझ बूझ और सहानुभूति बरतेगी, इसकी आशा करना ही व्यर्थ है।
सत्ता पर यूं सवाल उठाते हुए निर्मल यहीं नहीं रुकते, बल्कि किसी भी कुशल दृष्टिवान रिपोर्टर की तरह अपना ‘वैंटिज पोईंट’ बदल कर आगे लिखते हैं- 'यदि काम कुछ देर के लिए ‘औद्योगीकरण की अनिवार्यता’ का तर्क मान भी लें, तो भी यह प्रश्न रह जाता है कि क्या हमें अपने देश की भूमि, जन संस्कृति और पर्यावरण की नितांत उपेक्षा कर उसी ढंग और पैमाने पर पश्चिम के औद्योगिक ढाँचे की नक़ल करनी होगी, जिसका विकास एक ख़ास एतिहासिक संदर्भ में हुआ था।'
एक रिपोर्टर की तरह मैं निर्मल जी के इस टेक्स्ट से इसलिए भी खुद को गहरे में जोड़ पाती हूँ क्योंकि विस्थापन की त्रासदी को न सिर्फ़ मैंने सालों रिपोर्ट किया है, बल्कि एक खानाबदोश की तरह खुद भी ज़िंदगी किसी विस्थापित नागरिक की तरह ही बिताई है। मध्यप्रदेश में पैदाइश और रिहाइश होने की वजह से आँखें ही ‘नर्मदा बचाओ आंदोलन’ के तहत अपने डूबे हुए घरों के मुआवज़े के लिए लड़ रहे आदिवासियों के साथ खोलीं। एक ओर रिपोर्टर के तौर पर मुख्यधारा के नज़र में ‘घिस पिट’ चुके इस मुद्दे पर कई रिपोर्टें भी प्रकाशित की तो दूसरी ओर मध्यप्रदेश की नागरिक होने की वजह से नर्मदा पर बने बड़े बांधों के विस्थापितों की तीसरी पीढ़ी के साथ उनके टूटे घरों में बैठ कर खूब रोई भी। और फिर, नर्मदा की यह गूंज हमेशा सिंगरौली तक पहुँचती ही रही है। मध्यप्रदेश के हम अभागे नागरिकों से बेहतर कौन जानेगा विस्थापन का त्रास? उस पर भी एक रिपोर्टर का विस्थपान! - क्या एक रिपोर्टर के विस्थापन की भी कोई सीमा है? रिपोर्टर तो पहले ही अपनी आत्मा में इतना बेघर है कि कोई चारदीवारी कभी उसे खुद में बसा ही नहीं सकती। मुझे हमेशा से लगता रहा कि मैं दुनिया के बॉर्डर पर खड़े होकर सब कुछ देख रही हूँ... ‘विटनेस’ होना मेरा श्राप है, यही मेरा वरदान भी। इसलिए दुनिया के भीतर मेरा कभी कोई घर नहीं हो पाया।
निर्मल जी के इस निबंध को पढ़ते हुए मुझे सत्तर के दशक में अमेरिका में जन्मे गोंजो जर्नलिज़्म की याद भी आती है। साथ ही हंटर एस थोंपसन, हेमिग्वे और कपोटे से लेकर जॉन डिडीयन और रुडयार्ड कपुचिंसकी तक उन सभी लेखकों की याद आती है जिन्होंने मुश्किल जगहों से रिपोर्ट करके सघन और लम्बा ‘नैरेटिव नॉन फ़िक्शन’ लिखा। लेकिन वह लिखाई कभी भी ‘डेटेड’ नहीं हुई या पुरानी नहीं पड़ी। इसी तरह सिंगरौली पर लिखे इस निबंध का टेक्स्ट आज भीीेपढ़ने पर भी उतनी ही रौशनी देता है और उतना ही उद्वेलित करता है जितना शायद आज से तीन दशक से भी पहले करता होगा।
क़थेतर गद्य की सीमाओं को तोड़ता हुआ टेक्स्ट
सिंगरौली पर यह निबंध निर्मल जी का ऐसा टेक्स्ट है को कई-कई जगहों पर ‘सेन्स ओफ़ लॉस या खोने की भावना’ के साथ-साथ ‘सभ्यता की निरंतरता’ और ‘पाठकीय करुणा’ के बिंदुओं को इस कदर गहराई से पाठक के भीतर उकेरता है कि इसे मात्र क़थेतर गद्य की श्रेणी में रखना इस टेक्स्ट को सीमित दृष्टि से देखने का अन्याय ही होगा।
'अगर हम थोड़ी से हिम्मत बटोर कर गाँव के भीतर चलें, तब वे औरतें दिखाई देंगी जो एक पाँत में झुकी हुई धान के पौधे छप छप पानी में रोप रही हैं; सुंदर, सुडौल, धूप में चमचमाती काली टाँगे और सिरों पर चटाई की कश्तीनुमा हैट, जो फ़ोटो या फ़िल्मों में देखे हुए वियतनामी या चीनी औरतों की याद दिलाते हैं। ज़रा सी आहट पाते ही वे एक साथ सिर उठाकर चौंकी हुई निगाहों से हमें देखती हैं- बिल्कुल उन युवा हिरणियों की तरह जिन्हें मैंने एक बार कान्हा के वन्यस्थल में देखा था। किंतु वे डरती नहीं, भागती नहीं, सिर्फ़ विस्मय से मुस्कुराती हैं और फिर झुक कर अपने काम में डूब जाती हैं। यह समूचा दृश्य इतना साफ़ और सजीव है – अपनी स्वच्छ मांसलता में इतना सम्पूर्ण और शाश्वत-कि एक क्षण के लिए विश्वास ही नहीं होता कि आने वाले वर्षों में सब कुछ मटियामेट हो जाएगा – झोंपड़े, खेत, ढोर, आम के पेड़- सब एक गंदी ‘आधुनिक’ औद्योगिक कॉलोनी की ईटों के नीचे दब जाएगा – और यह हंसती मुस्कुराती औरतें भोपाल, जबलपुर या बैढ़न की सड़कों पर पत्थर कूटती दिखाई देंगी। शायद कुछ वर्षों तक उनकी स्मृति में अपने गाँव की तस्वीर एक स्वपन की तरह धुँधलाती रहेगी, किंतु धूल में लोटते उनके बच्चों को तो कभी मालूम भी नहीं होगा कि बहुत पहले उनके पुरखों का गाँव था- जहां आम झरा करते थे।'
निबंध के इस हिस्से तक आते आते निर्मल गद्य- क़थेतर गद्य और नैरेटिव जर्नलिज़्म की सभी सीमाओं को तोड़ कर अपना ही एक नया फ़ॉर्म गढ़ लेते हैं। एक ऐसा फ़ॉर्म जो कि न सिर्फ़ उनके लेखक की नागरिक चेतना से भरा हुआ है, बल्कि जो एक सभ्यता के तौर पर हम क्या खो रहे हैं -इसके ठोस एहसास से दिलों को भरकर, पैराग्राफ़ की अंतिम पंक्ति तक आते आते पाठक की अतड़ियो में पड़ी मर चुकी पुरानी करुणा को भी आंसुओं के साथ बाहर खींच लाए।
सुलगती टहनी
1976 में इलाहाबाद में लगे कुंभ पर दर्ज निर्मल जी का यह निबंध मुझे उनका सबसे मेडिटेटिव या चिन्तनशील टेक्स्ट लगता है। बहुत वर्षों बाद क्लरीस लिस्पेक्टर की किताब एग्वा वीवा से गुजरते हुए निर्मल जी के इस निबंध को पढ़ने की सी अनुभूति लौटी थी लेकिन उस अनुभव की तासीर और उसका परिवेश मेरे स्व से बहुत दूरी पर स्थित था। दूसरी ओर सुलगती टहनी का परिवेश, उसकी तासीर और उसमें होता आत्मिक मंथन मेरा इतना अपना है जैसे लेखक ने युगों युगों से मेरी पीठ पर लदा हुआ पीड़ा का गुच्छा उठाकर 23 पन्नों में उसे समझने लायक़ बना दिया हो।
‘सुलगती टहनी’ पढ़ते हुए मुझे निर्मल जी की प्रिय लेखक सिमोन वेल के दुःख और प्रेम पर लिखे टेक्स्ट याद आते हैं। रिल्के के प्रेम और जीवन पर लिखे पत्र और साथ ही अरनेस्ट योंगर के निबंध ‘ऑन पेन’ की स्मृति भी ताज़ा हो जाती है। गीता के सार और बुद्ध के उपदेशों की भी। लेकिन इतने सारे नाम गिनवाने का यह अर्थ नहीं है कि ‘‘सुलगती टहनी’ का टेक्स्ट इनमें से किसी से मिलता जुलता है। दरअसल बात सिर्फ़ इतनी सी है कि टेक्स्ट को परिभाषित करना या इसके बारे में कुछ भी निश्चित तौर पर कहना इतना मुश्किल है कि इसको छूने के लिए सिर्फ़ उन आभासों और स्मृतियों का सहारा लेना पड़ता है जो इसे पढ़ने के अनुभव के दौरन आपको महसूस होती हैं।
यह टेक्स्ट एक अजीब सा एहसास है – जिसे अपने जीवन के सबसे मुश्किल दिनों में किए गए इसके कई कई पाठों के दौरान मैंने जिया है। कभी अस्पताल में भर्ती किसी परिजन की तामीरदारी करते हुए, कभी माँ की याद में रोते हुए, कभी प्यार में टूटा दिल हाथ में लेकर मर जाने की चाहना से भरे हुए, कभी किसी अपने के मर जाने पर बेजां दर्द से कराहते हुए तो कभी किसी बगीचे में बैठे हरी घास के होने के सुख पर चौंकते हुए। लेकिन किसी भी क्लासिकल साहित्य के टुकड़े की तरह ‘सुलगती टहनी’ भी अपने हर पाठ में पाठक के सामने अपने नए अर्थ खोलता है। इसके हर पाठ में मैंने पिछले पाठ से अलग दृष्टि पायी है।
'आँखें खुलती हैं तो ढेर सा अंधेरा गटागट पीने लगती हैं, जैसे मुँह की प्यास आँखे बुझा रही हैं।' निबंध के शुरुआती पंक्तियों में ही निर्मल जी यह इशारा दे देते हैं कि यह कोई आम रिपोर्टताज नहीं बल्कि साहित्य के ज़रिए एक मनुष्य की आत्मा का ऐसा मंथन है जिससे हर पाठक अपनी परिस्थिति अनुसार रौशनी पा सकता है।
कुंभ पर लिखने की कई चुनौतियाँ
हर दूसरे दशक में लगने वाला यह इंसानी मेला अपने उत्कर्ष की रातों में पृथ्वी का ऐसा भौगोलिग बिंदु होता है जहां उस वक्त मनुष्यों की सबसे सघन जनसंख्या मौजूद होती है। सारे संसार के लिए विस्मय और कौतूहल का कारण, कुम्भ हमेशा से भारतीयों के लिए भी आस्था और जिज्ञसा का केंद्र रहा है।
किसी भी मास्टर राइटर की तरह, इतने घने शोर गुल और समंदर जैसी आबादी के बीच भी कुंभ में प्रवेश करने के लिए निर्मल जी ‘खामोशी’ और ‘ख़ालीपन’ का मेटाफ़र चुनते हैं।
उदाहरण के लिए - 'मैं इस मेले में ख़ाली होकर आया था। सब कुछ पीछे छोड़ आया था। तर्कबुद्धि, ज्ञान, कला, जीवन का अस्थेटिक सौंदर्य। मैं अपना दुःख और ग़ुस्सा और शर्म और पछतावा और लांछना – प्रेम और लगाव- और स्मृतियाँ भी छोड़ आया था। मैं बिल्कुल ख़ाली होकर आया था- ख़ाली और चुप- क्योंकि शब्द बहुत पहले किसी काम के नहीं रहे। चुप और अदृश्य। मैं अथाह भीड़ में अपने को अदृश्य पाना चाहता था' या 'मेरा संबंध इस खामोशी से रहा है – चेहरे के पीछे कविता की लाइनों के बीच – अपने भीतर और अब कुम्भ के मैदान में।'
यह महज़ इत्तेफ़ाक़ नहीं था कि एक ऐसी जगह जहां से लिखने वाला कोई भी लेखक सबसे पहले वहाँ मौजूद बेतहाशा भीड़ और लोगों के सैलाब के बारे लिखना चाहेगा, वहाँ से लिखते हुए निर्मल ख़ालीपन और खामोशी से शुरू करते हैं। इस थीम को टेक्स्ट में और गहरे तक सवाँरने के लिए वह समय भी भोर का चुनते हैं। तीसरे पहर के बाद के वह घंटे जब सबसे शोर भरी रातें भी थक कर चुप हो जाती हैं।
भीड़ में मौजूद इंसानी अकेलेपन का यह धागा आगे के पन्नों पर खिंचता हुआ श्रीनिवास तक चला आता है। 'श्रीनिवास मेरे अब तक पढ़े गए क़थेतर गद्य में मौजूद सबसे मिथिकीय चरित्र है। दिल में जिज्ञासा, कौतूहल, विचलन और करुणा एक साथ पैदा करने वाला। निर्मल जी से सिगरेट माँगता एक ऐसा मध्यवर्गीय आदमी जो घर पर यह बातकर नहीं आया है कि अब वह वापस नहीं जाएगा।
सिगरेट से शुरू हुई उनकी और निर्मल जी के बीच की तक़रीबन तीन पन्ने लम्बी बातचीत और उस बातचीत पर निर्मल जी की दर्ज अंतर्दृष्टि इस निबंध की आत्मा है। यह बातचीत हमें यह भी बताती है कि किसी भी टेक्स्ट में दो लोगों के बीच के स्पेस में सवाल जवाब के ज़रिए कितना कुछ गढ़ा जा सकता है। शायद इसलिए बुद्ध के भिक्षुओं को दिए गए उपदेश हो या कृष्ण का अर्जुन को दिया गया ज्ञान, दुनिया के सबसे महानतम टेक्स्ट दो लोगों के बीच की बातचीत से ही निकलते हैं।
श्रीनिवास की दुविधा और उनके कष्ट शायद कहीं न कहीं हम सबके कष्ट हैं। बस एक तरफ़ हममें से कई ‘घर’ छोड़ नहीं पाते तो दूसरी तरफ़ मेरे जैसे कई लोगों के पास छोड़ने के लिए कोई घर होता ही नहीं। फिर भी इस निबंध का पुनर्पाठ कर हम रोज़ दुनिया को थोड़ा थोड़ा छोड़ने का रियाज़ करते चलते हैं – ताकि जब आख़िरी दिन आख़िरी बार छोड़ने की बारी आए तब निर्मल जी का ‘सुलगती टहनी’ में पूछा गया वह सवाल याद रहे – क्या कृष्ण का यही मतलब था?