मन्नू जी से पहली बार मिलना तब हुआ था जब दिल्ली में बिलकुल नयी थी पर जानती उन्हें उससे बहुत पहले से मतलब ‘रजनी’, ‘एक कहानी’ और ‘दर्पण’ के दिनों से ही थी. ठीक-ठीक कबसे यह बताना मुश्किल हो शायद, क्योंकि वो धुर बचपन के दिन थे. लेकिन पहले पहल मुहल्ले कि पढ़ी लिखी लड़कियों के बीच उनके नाम की धूम देखी थी, ‘आपका बंटी की लेखिका बतौर। यह उपन्यास तब धर्मयुग में धारवाहिक रूप से आ रहा था। लेकिन इसके बाद ही उन्हें रजनीगंधा के लिए जाना। फिर उसके माध्यम से 'यही सच है' और उनकी अन्य कहानियों के माध्यम से।
यह बात दिल्ली आने से कुछ वर्ष पूर्व ही पता चली थी कि वे और राजेन्द्र यादव पति पत्नी हैं। वह भी उनके एक उपन्यास ‘एक इंच मुस्कान’ के माध्यम से। वर्ना इससे पहले मैं दोनों को स्वतंत्र रूप से जानती थी, राजेन्द्र यादव को लेखक और हंस के संपादक बतौर और मन्नू जी को ‘आपका बंटी’ उनकी कहानियों और उनके लिखे धारवाहिकों के माध्यम से। ‘एक इंच मुस्कान’ को मेरी एक पड़ोस की दीदी जो उस वक्त इकोनोमिक्स से एम॰ए कर रही थीं, अपने कॉलेज की लाइब्रेरी से इश्यू करवाकर लायी थीं। उनसे लेकर ही मैंने यह किताब पढ़ी थी।
इसे पढ़ने के बाद मन्नू जी के लिए मन में और ज्यादा आदर और सम्मान हो आया था। मैंने तबतक अपने आसपास ऐसी एक भी स्त्री नहीं देखी थी, जिसने पति का सरनेम अपने नाम से न जोड़ा हो। तब हमारे कस्बे और आसपड़ोस की स्त्रियों में बस इतनी भर चेतना देखी थी कि वे उमा देवी, गिरजा देवी कहलाने कि बजाय सगर्व और सोत्साह पति के सरनेम को अपने नाम के साथ जोड़कर लिखने-बोलने लगी थीं। उनकी आधुनिकता की पराकाष्ठा यहीं आकार समाप्त हो जाती थी। ऐसे में किसी स्त्री का पति के पहचान से इतर अपनी पहचान रखना और उस पहचान के लिए उसकी जिद बहुत आकर्षित करने वाली बात लगी मुझे।
बाद में दिल्ली आ जाने के बाद मैं राजेंद्र जी के साथ काम कर रही थी और एक बार जब मैं किसी गर्ल्स हास्टल की तलाश में थी कि तभी राजेंद्र जी ने कहा था- 'तू मन्नू से जाकर मिल। उसे आंख की परेशानी है इस कारण उसका लिखना पढना बंद है। तू उसके साथ ही रह लेना और जो वह बोले लिख दिया करना।‘मेरे लिए यह एक अद्भुत प्रस्तावना थी।जिस लेखक की मुरीद थी उनके साथ रहने का संयोग याकि अवसर सामने था।
हालांकि मिलना तो हुआ उस वक्त उनसे, पर साथ रहने का संयोग फिर भी नहीं बन सका था। मन्नू जी को कलकत्ते जाना पड़ा था। एक तरह से कहें तो इस तरह मेरी दुविधा भी समाप्त हुयी थी। उनके घर की साफ सफाई, व्यवस्था आदि देखकर एक छोटे से शहर से आई खूब बड़े परिवार में रहनेवाली लड़की के मन में जो घबड़ाहट-सी तारी थी, उससे मुक्ति मिल गयी थी।
उनसे दूसरी मुलाकात होने में फिर कई वर्ष लगे थे। सालों बाद जब संजीव जी (कहानीकार ) ‘अक्षरपर्व’ के संपादक नियुक्त हुये तो उसके एक ख़ास अंक के लिए मन्नू जी का इंटरव्यू करने के सिलसिले में फिर उनसे मुलाक़ात संभव हो सकी थी। इस इंटरव्यू के हो जाने में मैं खुद से भी कहीं ज्यादा योगदान संजीव जी के यशस्वी कथाकार का ही मानती हूँ। नहीं तो इस बीच मैंने अन्य कई पत्र-पत्रिकाओं के लिए उनसे इंटरव्यू के लिए कितनी बार पहल की होगी, पर हर बार यह पहल सिरे से खारिज हो जाती। कहीं-न-कहीं यह बात मन्नू जी के जगह से ज्यादा व्यक्ति को महत्व देने के स्वभाव को ही बताता है। वर्ना जनसत्ता, हिदुस्तान, राष्ट्रीय सहारा, कादंबिनी जैसे मुख्य और प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं को छोड़कर वे अक्षरपर्व को चुनती तो क्यों?
उन दिनों फ्रीलान्सिंग में होने के कारण रोटी-रोजी का जुगाड़ या तो लेख लिखने से हो पाता था, या फिर इंटरव्यू लेकर। पर मन्नू जी थीं कि हाथ आ ही नहीं रही थीं। यूं कुछ सालों से उन्होंने इंटरव्यू देना छोड़ भी रखा था। और इसके लिए उनके तर्क अजीब भले न हों पर मेरी दृष्टि में अनोखे जरूर थे। अभी तक मैंने किसी और लेखक को एक भी बार ऐसा कहते कभी नहीं सुना था। वो या तो अपनी अस्वस्थता की बात कहतीं या फिर –‘जब लिखने लगूंगी तब इंटरव्यू दूँगी। बिना लिखे कोई लेखक कैसा लेखक और फिर उसका काहे का इंटरव्यू ?’
हालांकि बातचीत के क्रम में बाद में एक दिन उन्होंने कहा था- 'मैं तुमसे इंटरव्यू के लिए इसलिए तैयार नहीं हो रही थी कि तुम राजेंद्र के बहुत करीब हो। तुम्हें शायद मेरा पक्ष नकली लगे या फिर उस तरह उसे समझ नहीं पाओ... ' मैंने कहा था -'राजेंद्र जी को पढ़ने से पहले से मैंने आपको पढ़ा है। आपको पसंद करती आई हूं। यह तो संयोग है कि मिलना पहले मेरा उनसे हुआ। और सबसे पहली बात यह कि 'मैं भी एक स्त्री हूं...'
हालांकि किन्हीं कारणों से उस अंक की योजना पहले स्थगित हुयी, फिर संजीव जी ने भी अक्षरपर्व छोड़ दिया था। वह इंटरव्यू फिर वैसे ही पड़ा रहा था मेरे पास। यूं तो मैं उसे जहां भी देती वह प्रकाशित हो जाता और जैसा कि मुझे लग रहा था कई मामलों में वह एक यादगार इंटरव्यू हो सकता था पर उसे कहीं अन्यत्र नहीं छपवाने के निर्णय के पीछे मेरे इस निजी सोच का योगदान था कि हर ऐसे किसी इंटरव्यू के बाद चाहे वह राजेन्द्र जी का हो या फिर मन्नू जी का, उन दोनों के बीच एक लम्बी चुप्पी पसर जाती थी। उनदोनों के अलग-अलग घरों में रहने के बावजूद समरस भाव से चलता उनका सम्बन्ध कुछ दिनों के लिए अव्यवस्थित और उबड़-ख़ाबड़ हो जाता था।
रोज-रोज के टेलीफोन वार्तालाप, छोटी-बड़ी ख़बरों का आदान–प्रदान सबकुछ कुछ दिनों के लिए बाधित। उन वर्षों में हंस और राजेन्द्र जी के साथ लगातार जुड़े रहने के क्रम में मैंने यह कहीं गहरे महसूस किया था। यह बात मुझे भली नहीं लगती थी। यही कारण है कि बार-बार कहने के बावजूद मैंने बातचीत का वह कैसेट राजेन्द्रजी को कभी सुनने के लिए नहीं दिया, जबकि उस इंटरव्यू के लिए पहली बार टेप रिकार्डर मुझे उन्होंने ही उपलब्ध कराया था। वर्ना मैं तो अबतक बाकायदा नोट करके हीं अपने सारे इंटरव्यू करती आई थी। बाद में जब मन्नू जी से भी मैंने इस इंटरव्यू को कहीं देने-न-देने के अपने उहापोह के बारे में कहा तो उन्होने भी यही कहा- ‘रहने ही देते हैं इसे...’
इस इंटरव्यू के लिए मुझे उनके पास किशन (राजेंद्र जी का ड्राईवर और सहायक) छोड़ जाया करता था। मन्नू जी को भी राजेंद्र जी से यह पता चला होगा मैं सब्जियों में सिर्फ आलू खाती हूं, सो वह रोज़ मेरे लिए आलू की सब्जी बनवाकर रखती थीं। मातृवत भाव से खड़े होकर ठीक से खाने के लिए जिद भी किया करतीं। मैं निकलने को होती तो वो परेशान हो जातीं'- 'अभी बहुत धूप है, थोड़ी छांव होने दो, फिर जाना।' स्वतंत्र पत्रकारिता के क्षेत्र में होने के कारण दिन-रात की भागदौड़, और कुछ बचपन से किये हुये संघर्षों की बदौलत, मुझे इस धूप-छांव से तब कोई खास फर्क नहीं पड़ता था। फिर भी उनका मन रखने के लिए मैं थोड़ी देर ठहर जाया करती।
'छांव', इस शब्द का जिक्र उनकी बातों में उन दिनों कई-कई बार आता। दिन भी वे धुर गर्मी के थे सो उस वक्त उतना गौर भी नहीं किया। हम जब बातचीत करते होते मैं देखती सुबह बैठक से शुरु हुई हमारी बातचीत, इसी छांव की तलाश में कमरे-कमरे से गुजरती हुई उस अंतिम कमरे में जाकर खत्म होती जो उनके हिसाब से सबसे अधिक ठंढा रहता था उस वक्त।
मु्झे वो उस समय अपने द्वारा बताई गयी अपने अतीत की कहानियों से बिलकुल अलग लगतीं। कहाँ एक विद्रोही लड़की, कहां एक बगावती लेखिका और कहां घर में बंद इस कमरे से उस कमरे तक छांव तलाशती एक बुजुर्ग महिला। बाद में लगा यह 'छांह' की तलाश भीतरी से कहीं ज्यादा बाहरी थी, वह छांह जो उन्हें जिन्दगी में कभी हासिल ही न हो सकी। अमूर्तन में उसे हीं तो वे बाहर तलाश रही थीं...
वह लम्बी और किश्तों में हुई मुलाक़ात मेरी स्मृतियों में आज भी ताज़ा है। उस टेप के कहीं विनष्ट हो जाने और उस कॉपी के कहीं बहुत संभालकर रखे रहने के बावजूद कहीं गुम हो जाने पर भी... एकदम जीवंत और साकार। मन्नू जी के चले जाने के बाद तो कहीं और ज्यादा। वे तमाम सवालात और उनके सधे हुये जबाब। किताबों-पत्रिकाओं, साहित्य-सम्बंध अपने लिखने और न लिखने पर उनकी कही गयी तमाम बातें। उनकी हंसी, उदासी, चुप्पी, दर्द और दर्प सब जैसे और ज्यादा साकार और जीवंत। मन्नू जी की बात चलने पर लोग उन्हें जिस निरीहता में याद करते हैं, उन्हें वैसे याद किया जाना मेरे लिए उदासी का ही वायस हो सकता है कि वह मेरी जानी हुयी उस छवि के एकदम विपरीत जो है।
लेखकीय स्वाभिमान, आत्मसम्मान और बावजूद इसके घोर विनम्रता और आत्मीयता से पगा उनका सरल सहज व्यक्तित्व, जहां न आत्मदया थी, न आत्मरति। बहुत दो टूक होकर कहती थीं वो जो भी कहतीं। उन्होंने बरबस चुप्पी साध ली हो भले पर वह चुप्पी उनके स्वभाव का स्वाभाविक अंग न थी न हो सकती है, यह उन्हें उन दिनों लगातार बोलते हुये देखके जाना था। बाद के दिनों में वो साधिकार जिस तरह कहतीं-‘ टेप ऑन नहीं करो, सुनो'... 'नहीं, नोट नहीं करो '... उससे लगता कहने को न जाने कितना कुछ है उनके अंदर भरा हुआ, कोई धधकती हुयी ज्वालामुखी है उनके भीतर, जिसका निकल जाना और बाहर आना बेहद जरूरी है। मेरा चुपचाप सुनते जाना भी... बस यही सच है बाकी तो...
मैंने अपने बचकानेपन में ही एक सवाल किया था उनसे (शब्द चाहे जो भी रहे हों पर उनका भावानुवाद शायद यही होगा)- 'आपकी कहानी ‘यही सच है’ में नायिका दीपा लगातार दो पुरुषों के बीच डोलती रहती है, तय नहीं कर पाती कि उसके लिए कौन है, वो किसको चुने? फिर आप राजेन्द्र जी से सिर्फ इसलिए कैसे मुंह मोड़ सकती हैं या उन्हें अपनी ज़िंदगी से इसलिए निकाल सकती हैं कि उनके ज़िंदगी में आपके सिवाय कोई और था?’
उन्होंने कहा था- 'एक 20-22 वर्ष कि अविवाहित लड़की के भीतर के मानसिक द्वंद, जीवन साथी के उसके चुनाव की एक उलझी प्रक्रिया और एक अधेड़ विवाहित व्यक्ति के विवाहेतर संबन्धों को एक ही तराजू पर कैसे तौला जा सकता है? वह भी एक नहीं एक से कहीं ज्यादा बार? एक बार हुयी किसी ऐसी घटना या दुर्घटना को एक बार को माफ किया भी जा सकता है, पर बार-बार बिलकुल नहीं... कितनी बार और क्यों?’ उसके बाद एक लंबी चुप्पी पसरी रही थी हमारे बीच...
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दूसरा प्रश्न उनकी कहानियों के बीच उनकी प्रिय कहानी और उपन्यास को लेकर था। जिसके चुनाव को लेकर वो एक पल को भी नहीं उलझी थीं। अपनी हर रचना को एक समान सराहने और उससे प्यार करने के बावजूद, उसकी ख्याति के तमाम किस्से सुनाने-बताने के बाद भी निर्विवादित रूप से उनकी नजर में ‘आपका बंटी’ और ‘त्रिशंकु’ उनकी पसंदीदा रचनाएँ थीं।
यहाँ एक पल ठहरकर गौर करें तो ये दोनों रचनाएँ एक माँ और बच्चे की कहानियाँ हैं, उनके बदलते और बनते-बिगड़ते सम्बन्धों की कहानियाँ, जिनसे कहीं-न-कहीं उनकी आत्मा बंधी हुयी थी। रचनाकार से ज्यादा मुझे लगा एक माँ की पसंदीदा रचनाएँ है ये। शायद इसलिए भी कि एक माँ बतौर ये रचनाएँ मुझे भी उतनी ही प्रिय हैं। मेरे मन के किसी कोने में अटकी याकि उससे बंधी हुयी भी।
उसी बातचीत में मन्नू जी ने आपका बंटी की रचना प्रक्रिया पर बात करते हुए कहा था –‘इस किताब को लिखने का पहला खयाल मोहन राकेश और सुशीला की शादी के टूटने और अनीता से उनकी शादी होने और सुशीला के भी तुरत-फुरत दूसरी शादी के निर्णय के बाद आया था। मेरे ख्याल में बार-बार उनका बच्चा घूमता रहता। अब वह कहाँ रहेगा? कैसे रहेगा? किसके पास? मुझे बार-बार लगता सुशीला को माँ होने के नाते थोड़ा रूकना था, इन्तजार करना था। मैं दूसरी शादी की विरोधी नहीं हूँ, औरतों की दूसरी शादी की भी नहीं… पर बच्चे का जूझना और पिसना, माँ-बाप के बीच, मुझे बुरा लगता है। तकलीफ होती है।’
उपन्यास के प्राक्कथन में मन्नू जी लिखती हैं- ‘अचानक से पी. का फोन आया -‘तुमसे कुछ जरुरी बातें करनी हैं। जैसे भी हो शाम को मिलो। मैं उस जरुरी बात से कुछ अपरिचित थी और कुछ चिंतित भी। उसने परेशानी और बदहवासी में कहा– ,'समस्या बंटी की है। तुम्हें शायद मालूम नहीं कि बंटी की माँ ने शादी कर ली। मैं बिलकुल नहीं चाहता कि वह वहां एक अवांछनीय तत्व बनकर रहे। इसिलिये तय किया है कि मैं उसे यहाँ ले आऊँगा। वे देर तक यह बताते रहे कि मैं बंटी से कितना प्यार करता हूँ… मैंने बहुत देर बाद अपनी प्रतिक्रया दी थी –‘आप ऐसा नहीं सोचते कि यह गलत होगा? मुझे यह लगता है कि उसे अपनी माँ के पास रहना चाहिए। साल में एक-दो बार मिलने के सिवाय उससे आपके कोई आसंग नहीं हैं, जबकि माँ के साथ वह शुरू से रहा है। इस नाजुक उम्र में वह वहाँ से उजड़ जाएगा और यहाँ जम नहीं पायेगा।'
अगर हम यहाँ एक क्षण को पी. के चेहरे में मोहन राकेश का चेहरा तलाशें तो साक्षात्कार और पूर्व-कथन के इस बातचीत की सारी कड़ियाँ स्वयंमेव एक दूसरे से जुड़ जाती लगेंगी।
हालांकि प्रश्न अब भी यहाँ यह है कि यह साबित भर हो जाने से इस उपन्यास में नया क्या जुड़ता या फिर बनता-बिगड़ता है? तो जहां तक मैं समझती हूँ इस सन्दर्भ के जुड़ भर जाने से यह कहानी एक काल्पनिक कहानी के खोल से छिटककर एक दस्तावेज हुयी जाती है। लेखकों की निजी जिन्दगी, उसकी परतें और उस पर पड़े पर्दें यहाँ खुलते हैं। हो सकता है मित्रता और समकालीनता के सन्दर्भ ने उन्हें एक कल्पित नाम रखने को मजबूर किया हो। और पी. की व्युत्पत्ति वहीं से हुयी हो। हो यह भी सकता है मन्नू जी के सामने ऐसे कई अन्य परिवार और बच्चे क्रमशः आते गए हों और बंटी का चेहरा आकार और गढ़त लेता रहा हो? होने को यह भी हो सकता है, मोहन राकेश और उनके परिवार से समकालीन पाठकों का ध्यान हटाने के लिए उन्होंने यह कहानी जोड़ी हो, कि कथाकार आखिरकार गल्पकार होता है ।अगर कहानी में गल्प कम हो तो वह भूमिका में गल्प का सहारा लेगा।
हालांकि इस जिक्र के बगैर भी बंटी उतना ही प्रामाणिक है, उतना ही स्मरणीय और उद्धरणीय। बीतते समय के साथ–साथ उसकी प्रासंगिकता कमने की बजाय बढ़ ही रही है, यह इस किताब के साथ जुड़ी सबसे बड़ी त्रासदी है। तलाक और पुनर्विवाह के नाम पर जितने भी घर टूटते या फिर जुड़ते हैं, हर एक घर में एकाध बंटी जरुर छूटे हुये होते हैं। माँ या बाप किसी एक के हिस्से आने या फिर हॉस्टल में जीने को अभिशप्त।
बच्चों के मनोजगत को केंद्र में लेकर लिखा गया ऐसा कोई दूसरा उपन्यास शायद ही हिन्दी साहित्य में उपलब्ध हो। बंटी के उहापोह, बंटी का दर्द, बंटी की बेचैनी, उसकी आंतरिक मनोदशा को वे जिस संवेदनात्मक लगाव और अंतरंगता से उकेरती हैं, ऐसा शायद इसलिए भी सहज-संभव हो सका क्योंकि वे उस वक्त लगभग उसी उम्र की एक बिटिया की माँ थीं।
उनके निजी अनुभव भी इस उपन्यास की समृद्धि का एक बड़ा कारण रहे हैं, यह एक गजब का संयोग रहा है कि जहाँ उपन्यास की स्त्री पात्र शकुन शिक्षिका है, वहीं सुशीला जी ( मोहन राकेश जी की पत्नी) और स्वयं मन्नू भंडारी जी भी शिक्षिका रही हैं। गौरतलब बात यह भी है कि इस उपन्यास को लिखने के लिए मन्नू जी भी अपनी बिटिया को घर में उनकी बुआ और पिता के साथ छोड़कर स्वयं कॉलेज के हॉस्टल में कुछ माह रहीं। पुत्री से अलगाव ने भी बंटी के दर्द को जैसे एक नया आकार प्रदान किया।
यह कहानी कहीं से एकरेखीय नहीं है, यह इस उपन्यास की सबसे बड़ी विशेषता है। गिने-चुने पात्र हैं इस उपन्यास में और उसमें से भी कोई खल नहीं। उनके नजरिये से देखेँ तो वो अपनी जगह बिलकुल सही नजर आयेंगे। चाहे वह बंटी की माँ शकुन हो, पिता अजय हो, सौतेली माँ मीरा हो, सौतेले पिता डा. साहब हों या फिर सहायक पात्रों में वकील चाचा और उसे जन्म से पालने-संभालने वाली घरेलू सहायिका फूफी। या फिर माली चाचा जिससे वह बागवानी के अपने शौक के साथ कहीं गहरे जुड़ा हुआ है। पहला घर छूटने और फूफी और माली चाचा से अलग होने के बाद तो वह जैसे एकदम से अकेला हो जाता है। बाबजूद इसके मानवीय दुर्बलताएं और चरित्रों के स्वेत-श्याम पक्ष हर चरित्र में हैं। वकील चाचा जब ये कहते हैं कि तलाक के कागज़ पर साईन कर देना तुम्हारे लिए और बंटी दोनों के हक़ के लिए बेहतर है तो शकुन के लिए, बंटी के लिए अपना कलेजा काढ़कर रख देने वाले लगते हैं। लेकिन इसी क्रम में जब वे मीरा के प्रेग्नेंट होने की बात कहते हैं तो उनका पक्ष साफ़ स्पष्ट हो जाता है कि वे सिर्फ अजय के दोस्त हैं, उसके हक़ की सोचने वाले उसके साथ खड़े रहने वाले। मीरा के मन में भी बंटी को खुद से अलगाने और दूसरी शादी करने का बीज कहीं वही तो रोप जाते हैं। शकुन के साथ-साथ हमेशा परछाई की तरह खड़ी रहनेवाली, बंटी के लिए माँ की तरह चिंतित होती, स्नेह उड़ेलती और पिता के पास जाने पर शकुन से ज्यादा रुष्ट होती फूफी एक स्त्री होने के बावजूद शकुन के दूसरे विवाह के निर्णय पर उसके साथ नहीं खड़ी होती। सबकुछ छोड़कर हरिद्वार जा बसने का निर्णय लेती है तो इसलिए कि उसके हिसाब से शकुन यहाँ गलत है। पिता का दूसरा विवाह उसके लिए एक पल को क्षम्य हो सकता है, माँ का बिलकुल नहीं कि उसके हिसाब से दोनों ने ही बस बच्चे की मिट्टी ही पलीद की है।
खुद शकुन भी और अजय भी, बंटी को एक दूसरे से निरंतर चलने वाली अपनी लड़ाई में तलवार और ढाल की ही तरह तो इस्तेमाल कर रहें। शकुन को लगातार बंटी की नाराजगी में अजय का नाराज चेहरा ही तो दिखाई देता है। बस एक बार वकील साहब के कहने भर पर वह वर्षों से उपेक्षित डॉक्टर साहब के विवाह प्रस्ताव पर फिर से सोचना शुरू कर देती है तो सिर्फ इसलिए कि कहीं-न-कहीं यह उसके भी मन की बात है। अजय से लगातार नाराज रहते और लड़ते हुए मन ही मन हर पल वह खुद को अजय की ही तो निगाह से देखती-परखती रही है। अपनी तरक्की, नौकरी, यहाँ तक कि अपने बच्चे को अपने साथ रखकर वह एक तरह से अजय को ही तो नीचा दिखाना चाहती है। उसे मात देना, आहत करना। वह इस अज्ञात और निरंतर चलने वाले मानसिक युद्ध से मुक्ति चाहती है, उससे उबरना भी और उसकी यह मुक्ति डॉक्टर साहब और उनके बच्चों से जुड़ने में, एक बार फिर से नया घर जोड़ने और बसाने में ही है।पर बंटी यहीं कहीं पीछे छूट जाता है उससे, वह बंटी जो कभी उसके जीवन की धुरी होता था।शकुन की हर सोच और हर कार्य का केंद्रबिंदु।
इस आधार पर बंटी की रचना और शकुन के चरित्र पर, अपना क्वार्टर छोड़कर उसका डॉक्टर साहेब के घर जा सकने के निर्णय पर प्रश्नचिन्ह उठाने वालों से मुझे सिर्फ इतनी बात कहनी है कि शकुन का चरित्र आदर्श माँ के चरित्र की तरह बिलकुल नहीं रचा गया। कि कई बार आदर्श से अधिक कारगर युक्ति यथार्थ होती है गल्प के लिए। बिना किसी आदर्श स्थिति को पहुँचने वाली कोई कहानी अटकी रह जाती है देर तक और अक्सरहां यह 'अटका रह जाना' कितनी बार एक आदर्श स्थिति को उत्पन्न करने का कारक हुआ जाता है।
शकुन को मन्नू जी ने स्त्री और एक स्वतंत्र इकाई की तरह ज्यादा रचा है। यह उनकी रचनाओं की विशेषता रही है कि हमेशा उनकी रचनाओं की स्त्री पात्र अपने समय और समाज से आगे चलती हैं। यही सच है’ कहानी की नायिका दीपा उस समय किसी दूसरे याकि अनजान शहर में अकेली रहकर नौकरी करती है, जबकि उसी कहानी पर फिल्म बनाते वक्त बासु दा उसे भाभी-भैया के साथ रहते हुए दिखाते हैं। उन्हें पता था कि तबके आम दर्शक के लिए उसका अकेले रहना, एक साथ दो संबंधों में जीना अजूबा लग सकता है।
यह फिल्म के डूबने का कारण भी हो सकता है। तो वे फिल्म की मूल कहानी से बिलकुल भी छेड़छाड़ न करते हुए एक छोटा सा रद्दोबदल बस परिवेश में कर जाते हैं। शकुन भी तो ऐसी ही है, तलाकशुदा याकि कहें तो परित्यक्ता, फिर भी रोती- बिसूरती हुयी नहीं, अपने दम पर नौकरी, बच्चे और अपने घर को सहेजकर चलने वाली स्त्री। हाँ इस कड़ी में वह कहीं स्वार्थी भी लगती है, या हो सकती है। बच्चे की जिन्दगी पर खुद को तरजीह देती हुई, अपनी ख़ुशी को ऊपर रखती हुयी शकुन ऐसी ही है।
मन्नू जी ने मनुष्य के भीतर के विरोधाभासों को, उसके भीतर के निजी और निहित स्वार्थों को यहाँ खूब करीने से उकेरा है, अपने मन के विरुद्ध जाने वाले किसी की भी वह नहीं सुनती, उस फूफी को भी नहीं जिसपर वह बंटी के लिए खुद से ज्यादा यकीन रखती है। हम सब विरोधाभासों का समुच्चय और संकलन होते हैं, हमारे भीतर ही हमारी अच्छाई भी होती हैं और हमारे निहित स्वार्थ भी। जिसे बताने के लिए उन्होंने कुछ लोक कथाओं का इस कहानी में बेहतरीन प्रयोग किया है। जिसमें मुख्य है– सोनल रानी की कथा, वह रानी जो दरअसल एक चुड़ैल है, जो रात में भूख लगने पर अपने बच्चों को ही खाती है, सौतेले और सगे दोनों को। सुबह उन्हीं के लिए रोती-बिसूरती और कोहराम मचाती है। यह रोना भी कहीं से झूठ और नकली नहीं। भूख कब और कहाँ किसी में खाद्य-अखाद्य, अपने-पराये का बोध छोड़ता है? रूपकों के प्रयोग से इस कथा के कुछ अन्य पक्ष खुलकर सामने आते हैं।
जब बेस्ट सेलर की परिकल्पना उस तरह आम बात नहीं थी, तब भी या कहें कि तबसे ‘आपका बंटी’ अधिकतम बिकने वाली किताबों की सूची में शामिल रहा है। हिंदी की किसी किताब का अंग्रेजी अनुवाद आज भले ही एक आम बात हो पर जब आम बात नहीं थी तब भी इसका अंग्रेजी अनुवाद हिंदी-साहित्य-समाज के लिए एक बड़ी परिघटना जैसा ही था। यही नहीं न जाने तलाक-विषयक कितने फिल्मों का थीम कहीं–न-कहीं बंटी से मिलता-जुलता और बंटी जैसा मिल जाएगा। यह बंटी के लिए दुःख और प्रसिद्धि दोनों का सबब हो सकता है।
अंत लेकिन मन्नू जी के उसी कथन से करना चाहूंगी –‘जीते जागते बच्चे का तिल-तिल करके समाज की एक बेनाम इकाई बनते जाना यदि आपको सिर्फ विगलित करता है तो मैं यह समझूंगी यह पत्र सही पतों पर नहीं पहुंचा।’
दूसरों की बात मैं नहीं कह सकती कि यह किताब किन सही हाथों में पहुंचा या फिर नहीं, पर खुद मन्नू जी का बेटी के विवाह तक राजेन्द्र जी से अलग रहने के निर्णय को बचाये रहना कहीं-न-कहीं यह जरुर साबित करता है कि एक टुकड़ा बंटी उनमें जरूर अटका और बचा हुआ रह गया था जो...