आजकल रीता सबसे हिट कलाकार थी। रंगमंच की। कहते हैं कि रंग-कलाकार की अवधि महज़ दस साल होती है। उसके बाद उसका अवसान शुरू हो जाता है।
रीता को दक्षिण भारत से आये पंद्रह साल हो चले थे लेकिन वह आज पहले से ज़्यादा पसंद की जाती। उसके अभिनय, शोखी और लटके झटके हर बार अलग होते।
यों तो रंगमंच पर अभिनीत नाटक और एकांकी, नए और पुराने दोनों तरह के थे, पर रीता के व्यक्तित्व और अभिनय में ऐसा चुम्बक था कि उसके मंच पर आते ही हॉल में लहर सी दौड़ जाती। दर्शक अपनी दूरबीन निकाल लेते, मोबाइल कैमरे फोकस करने लगते और खड़े हो कर सराहना में तालियां बजाते। जब कोई दुखमय नाटक अभिनीत होता, दर्शक रीता के किरदार के साथ साथ रोते। इसलिए निर्देशक भी रीता के किरदार को ज़्यादा देर दुखी नही रखते। वे स्क्रिप्ट में फेरबदल कर उसे वापस सकारात्मक रंग दे देते। कई बार नाटककार शिकायत करते कि उनके पात्र के साथ मनमाना परिवर्तन किया गया है। निर्देशक माफी मांग लेते- 'दर्शक यही चाहते हैं, हम क्या करें।'
रंगमंच सामूहिक उपक्रम है। बालगणेश सभागार के पास बालाजी रंगमंडल में उन्नीस सदस्यों की टीम थी। उनका मुख्य कलाकार राजहंस भी कम न था। घुंघराले बाल, बादामी रंगत, लंबी कसरती देहयष्टि और गहन आवाज़ में वह हर किरदार में फबता चाहे उसे ऑथेलो बना दो चाहे सिद्धार्थ; सुपर डॉन बना दो या ट्रैजिक देवदास। थिएटर करते-करते सभी कलाकार मँज चुके थे। जैसे ही उनके रंगमंडल का नया नाटक घोषित होता, लोग अपनी सीट अग्रिम आरक्षित करवा लेते। फिल्मों की धूम के बावजूद एक पढ़ा लिखा वर्ग ऐसा था जो थिएटर जाना बेहतर समझता।
रीता और राजहंस का तालमेल आदर्श था लेकिन दोनों में हमनवाई न थी। राजहंस का सोचने का तरीका एकदम अलग था। रीता शुरू से बिंदास थी।
राजहंस बीस साल से थिएटर की दुनिया में था। दस बरस पहले उसने रंगमंडल की ही युवा कलाकार प्रथा से शादी कर ली थी। शुरू में सब चाव में प्रथा को राजहंसिनी कहने लगे थे, लेकिन प्रथा की दिलचस्पी नाटकों में घटते-घटते शून्यं पर चली गयी। आम लड़कियों की तरह उसका मन भी घरेलू माहौल में रम गया। कभी-कभी वह नाटक देखने आ जाती।
जिस वक्त रीता का करियर शिखर पर था, उसे एक शाम लगा, स्टेज की चकाचोंध से हटकर घर का सन्नाटा कितना जानलेवा होता जा रहा है। मूर्ख मगर आज्ञाकारी सेवकों के बीच वह बेतुका जीवन जी रही है। उसने अपनी मित्र-सूची टटोली। इनमें ज्यादातर खुशामदी लोग थे, जिन्हें रंग कला की कोई विकसित समझ नहीं थी। रीता ने सुन भी रखा था कि अगर मित्र को शत्रु बनाना हो तो उससे शादी कर डालो।
उसने मित्र-सूची परे कर दी। प्रशंसकों पर नज़र डाली। उनमें ज़्यादा तादाद विवाहितों की थी। सपरिवार नाटक देखने वाले। हां, कुछ सिंगल सीट वाले दर्शक भी थे। आठ दस ऐसे थे जो हरदम अकेले ही हॉल में आते। उन पर गौर किया तो रीता ने पाया उनमें एक तो उसका दर्ज़ी ही था हालांकि वह अपने को डिज़ाइनर मानता था। शंकर मार्केट में उसके बुटीक का नाम था मुमताज़ बुटीक। हर नए नाटक के लिए रीता उसी से अपनी ड्रेस या ब्लाउज सिलवाती। वह इतना हुनरमंद था कि एक नज़र रीता को देख कर माप का अंदाज़ा लगा लेता। आसिफ नाटक देखने आता कि उसे पता चले उसका डिज़ाइन किया हुआ कपड़ा मैम के ऊपर कैसा फब रहा है। वह टिकट खरीद कर हॉल के बीचोंबीच की सीट पर बैठता।
कई बार नाटक अत्याधुनिक या बौद्धिक होता। उसके सिर के ऊपर से निकल जाता। वह रीता मैम की ड्रेस देख मुतमईन हो जाता कि उसका काम बढ़िया हुआ है। वह धीरे से हॉल से बाहर निकल आता।
आसिफ की अभी शादी नहीं हुई थी। अम्मी और खाला उसके लिए कोई चाँद का टुकड़ा ढूंढ रही थीं।
कभी-कभी उसके ज़ेहन में आता कि रीता मैम भी अभी बिन बियाही हैं। मजबूरी में वह इस खयाल को पीछे धकेल देता। वह ज़्यादा पढ़ा-लिखा नही था। होश संभालते ही उसे सुई धागे और कैंची, मशीन के मदरसे में नाम लिखवाना पड़ा।
रीता मैम के तो कई-कई आशिक होंगे। उसे महसूस हुआ और उस तरफ सोचना ही छोड़ दिया।
नियमित नाटक देखने वालों में एक और नाम था आलम खान। वह शुरू से आखीर तक नाटक में बैठता। जब रीता के डायलॉग्स होते वह ज़ोर-ज़ोर से ताली बजाता और खुश होता। शो खत्म होने पर वह बाअदब ग्रीनरूम के दरवाजे पर खड़ा हो जाता। रीता को लगता यह उसका वफादार दर्शक है। वह उससे पूछना न भूलती, "कैसा रहा आज का शो।"
"बेमिसाल", वह कहता और अपने कुरते की जेब से निकाल कर काजू, पिस्ते, चिलगोजे के ढेर रीता के दुपट्टे.पर लगा देता।
रीता चकरा जाती- "ओह आप इतने महगे तोहफे यों न ज़ाया करें। मैं कितना खा सकती हूँ।"
आलम अपने एक टेढ़े दांत की मासूम हँसी से कहता- "सबको खिलाइए। बादशाहों के दरबार में कमी किस बात की है।"
रीता ने उस पर ज़्यादा तवज्जो दी। आलम इतवारों को घर आने लगा।मे वों के कूजे रीता के आगे खाली करता और हाथ जोड़ कर कहता- "खिदमत क़ुबूल हो हुज़ूर।"
राजहंस ने दो-चार बार रीता को टोका- "अनजान लोगों से फासला रखा करो।"
इसका असर उलटा हुआ।
निर्देशक सोलंकी ने भी समझाय- "मेवों के चक्कर में कहीं करियर न चौपट कर लेना।"
रीता को लगा ये सब तो शादीशुदा हैं। ये चाहते हैं रीता थिएटर के लिए कुर्बान होती रहे।
आखिरकार वही हुआ जिसका अंदेशा था। मेवे के नौजवान व्यापारी आलम खान ने रीता के साथ निकाह पढ़वा लिया। रीता का नाम सुरैया हो गया।
स्टेज पर वह अभी भी रीता चौधरी थी।
दर्शकों की दिलचस्पियाँ तेज़ी से बदल रही थीं। अब वे पारम्परिक नाटकों की जगह प्रयोगात्मक नाटकों की मांग करने लगे। नाटककारों ने मांग के मुताबिक ऐसे नाटक लिखने शुरू किए जिनमें स्त्री किरदार घर की बंदिशों को ललकार कर कामकाज की दुनिया में अपना वजूद तलाशती है।
निकाह के बाद आलम अपने व्यापार में मसरूफ हो गया। नाटक देखने में थोड़ा व्यवधान आने लगा। एक दिन अपने दोस्त रहमत के इसरार पर आलम थिएटर में आया। हीरोइन के शौहर के रूप में उसकी और दोस्त की हैसियत से रहमत की काफी खातिरदारी हुई। तीसरी घंटी की घोषणा पर नाटक शुरू हुआ।
नाटक के बीच रीता को स्कर्ट ब्लाउज पहने, दफ्तर में डेस्कटॉप पर काम में मशगूल दिखना था। इसी दृश्य में नायक राजहंस के नाराजी के संवाद थे- "जितना तुम कमा कर नहीं लातीं, उतना नुकसान घर में हो जाता है। आज़ादी के अलावा तुमने क्या कमाया बोलो।"
आलम ने पहली बार उस दिन रीता की बजाय राजहंस की सराहना में ताली बजायी। आलम और रहमत दोनो नायक से सहमत थे।
आलम के तन-बदन में आग लग रही थी कि उसकी नई ब्याहता कैसे उल जलूल रोल में मशगूल है।
राजहंस की पत्नी प्रथा और बेटी पारमिता भी नाक भौं सिकोड़ कर अपनी नापसंदगी ज़ाहिर कर रही थीं।
हॉल में बैठा नए मिजाज़ का नौजवान तबका नाटक के विषय से संतुष्ट था। कुल मिलाकर शो कामयाब गया।
उस रात घर आकर आलम ने रीता को समझाने की कोशिश की- "ये नई स्क्रिप्ट और पोशाकें तुम्हारे खिलाफ जा रही हैं। तुम डायरेक्टर से कह दो कि ऐसे रोले नही करोगी।"
रीता ने कच्ची गोलियां नहीं खेली थीं। वह पंद्रह साल से थिएटर की दुनिया के उतार-चढ़ाव देख रही थी। उसने कंधे उचका कर कहा- "में तुम्हारे कामों में दखल नही देती। तुम भी वही करो। हम आशिक हैं। आशिक ही बने रहें।"
बाद के हफ्तों में भी कई बार आलम ने रीता को टोका। कभी उसका कोई दोस्त कमेंट कर देता- "कल के नाटक में तुम्हारी हीरोइन ग़ज़ब ढा रही थी आलम।"
आलम के तन-बदन में आग लग जाती।
वह घर में रीता पर दबाव डालता की वह थिएटर की दुनिया छोड़ दे। वह कहता- "इससे अच्छा है कि तुम नेक परवीन की तरह इमामबाड़े की देखभाल में अपना वक्त बिताओ।"
रीता हंसते-हंसते लोट पोट हो जाती- "ओह आलम! कल को तुम कहोगे मैं बावर्चीखाने में जा कर सालन पकाऊं।"
"इसमे क्या बुराई है। यह हँसी मज़ाक की बात नही है।" आलम मुंह बना लेता।
बदलना इतना आसान नही होता।
ऐसी ही एक शाम जब रीता अपनी फाइनल रिहर्सल के लिए बाहर गयी हुई थी, यकायक शोर मचा कि आलम खान ने खुदकुशी कर ली।
यह जानलेवा खबर थी।
रीता नंगे पैर घर भागी।
वहां कोहराम मचा था।
सबसे संगीन बात यह थी कि आलम ने रीता से निकाह के गुलाबी दुपट्टे का फंदा अपनी गरदन में कसा हुआ था।
कृत्रिम सांस, डॉक्टर का आना, तलवों की मालिश, कुछ भी आलम के बेजान शरीर में हरकत न डाल सका।
शहर में ज़लज़ला आ गया। अख़बारों में, टी वी में, रेडियो पर हर जगह रीता के शौहर की खुदकुशी पहली खबर बनी। रीता सकते में आ गई। आलम के घरवालों ने उसे इतना कोसा कि वह घबराकर अपने पुराने घर में वापस आ गई।
रीता ने अपने आप को घर की चारदीवारी में बन्द कर लिया। लेकिन ऐसे कब तक चलता।
आलम का चालीसवां बीतने के साथ ही, नाटकों के निर्देशक रीता के घर के चक्कर लगाने लगे।
कला की दुनिया कभी लंबा अवकाश नही झेलती।
कला के सौदागरों ने कहा- "मैम आपकी दुनिया आपको पुकार रही है। वापस अपनी दुनिया में लौटिए। कब तक सोगवार रहेंगी। आपके बिना हमारे दर्शक दिन-ब-दिन कम होते जा रहे हैं। आपके दिल की हालत देख कर ही हमने नए ड्रामे लिखवाए हैं।"
काफी अनिच्छा से रीता राजी हुई।
रीता को उजड़ी, बियांबां शक्ल लेकर पब्लिक में आना कुबूल नही था। उसका सारा जीवन रूप, रंग और सिंगार में बीता था। बेमन से ही सही, उसने हल्का सा मेक अप किया और सोलंकी की वैन में थिएटर पहुंची।
नए नाटक की थीम उसके मनोनुकूल थी। यहां दिखाया गया था कि नवविवाहित जोड़े में से शौहर की मौत सड़क दुर्घटना में हो गयी थी। काफी दिन हौल और हादसे के बीच गुज़र कर नायिका एक दिन घर के बाहर खड़ी होती है तो उसे पेड़ों की हरियाली, चिड़ियों की चह-चह अच्छी लगती है। नेपथ्य से बीच मंच पर आकर नायक राजहंस उसकी ओर दोस्ती का हाथ बढ़ाता है। पीछे से सूत्रधार की आवाज़ आती है- "कुछ सपनों के मर जाने से जीवन नही मरा करता है।" यहां नाटक का पटाक्षेप होता है।
लोगों को एक सकारात्मक संदेश मिलता है। उनके मन में नायिका के प्रति हमदर्दी की लहर उठती है।
बेचारी लड़की! उसका क्या कुसूर अगर शौहर मारा गया। जो ज़िंदा बच गए, उनका कौन हवाल।
रीता इस नाटक में अभिनय करते हुए बहुत भावुक हो गयी।
लेकिन राजहंस की पत्नी प्रथा का आक्रोश उफ़न कर सामने आया। उसने नसीहत दी- "आप ज़िंदगी की कितनी बचकानी तस्वीर पेश करती हैं। पब्लिक का क्या है, वह तो सरलीकरण से खुश होती है। आप थिएटर से जुड़े शिक्षित लोग हैं। आपको ऐसे झटपट फैसले नहीं करने चाहिये।"
प्रथा को विशेष तौर पर अपने पति राजहंस का इस नाटक में अभिनय करना अखर गया। वह उम्र में रीता से बड़ी नही थी किंतु क्रोध, असहमति आक्रोश और अवसाद ने उसके चेहरे पर असंतोष के गहरे अक्स डाल दिये थे। उसे लगा राजहंस एक निहायत खतरनाक पेशे में है। घरवापसी की राह में कार चलाते हुए उसने कहा- "राज थिएटर में उलजलूल रोल करने से अच्छा होता तुम किसी दफ्तर में टाइपिस्ट बन जाते।"
अभी-अभी इतनी भाव प्रवण भूमिका करने के बाद राजहंस ऊंची उड़ान में था। हॉल की तालियां उसके दिल-दिमाग में अभी थमी नहीं थीं। उसने खीझ कर कहा- "जितना हमारे घर का पेट्रोल और दूध का खर्चा है, वह भी टाइपिस्ट की तनख्वाह से नही निकलेगा। कुछ जानती हो, तुमने तो मुंह उठा कर काम करना बंद कर दिया। मैं भी निठल्ला हो जाऊं। बैठा तो हूँ तुम्हारे पास। सोता तो हूँ तुम्हारी बगल में। और क्या चाहती हो? पुलिस और पत्नी में कुछ फर्क होता है, समझीं।"
उस वक्त तो प्रथा चुप हो गयी लेकिन उसने अपना पहरा बढ़ दिया।
साहित्य और कला से पलायन करने वाले आगे चल कर काफी कठदिमाग हो जाते हैं।
रीता में ज़्यादा लचक थी। वह आघात के बाद वापस कला जगत में आ गयी। वह सब तरह के रोल करने लगी। दर्शकों के लिए उसकी जाती ज़िंदगी से ज़्यादा स्टेज की ज़िंदगी अहम थी।
एक शाम रोज़ की तरह रीता ने तैयार होते हुए अपने को निहारा। उसे अपना आप बड़ा श्रीहीन लगा। कुछ कम है चेहरे में। उसने श्रृंगार मेज़ पर रखी, अफशां की शीशी उठायी और मांग में थोड़ी अफशां भर ली। फिर उसने लिपस्टिक से मांग पर एक छोटा सा तिकोन बनाया। उसका चेहरा चमक उठा। उसे अपने पर प्यार उमड़ आया। यही तो है उसका असली चेहरा!
थिएटर के साथियों ने उसका खुले दिल से स्वागत किया। पूछा- "मैम कोई नई शुरुआत है क्या आज?"
"नहीं, मैं ऐसे ही रहती थी। यह मेरे मेक अप का हिस्सा है। चुटकी भर सिन्दूर का कमाल है यह। मैं तो फिर से नई हो गयी।"
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