कृष्णा सोबती हिंदी के औपन्यासिक जगत में पंजाबी जीवन चित्रों पर केंद्रित यथार्थवाद का विकास करने वाली लेखिका के रूप में जानी जाती है। उन्होंने लेखन तो विभाजन के बाद आरंभ किया लेकिन विभाजन से पहले के पंजाबी गांव-कस्बों के रंगबिरंगे, धूल-धूसरित और स्याह-सफेद जीवन को बहुत संजीदगी से व्यक्त करने का प्रयास किया है। छोटे-बड़े सभी को मिलाकर कुल 12 उपन्यास लिखने वाली कृष्णा सोबती ने पहला उपन्यास ‘चन्ना’ विभाजन के कुछ ही समय बाद लिखा था। बहुत खूबसूरत दिनों और आराम से भरी जिंदगी के बीच उसे लिखा गया। उन्हीं के शब्दों में- ‘हालात भी कुछ ज्यादा ही अच्छे थे। अपनी बड़ी दीदी राज दीदी के यहां शाहजहांपुर आर्म्स आर्मी क्लोडिंग फैक्टरी इस्टेट के बंगले में। सुबह देर से उठती। शाम टेनिस खेलती और फिर क्लब में तम्बोला। फिर राम ताजातरीन होकर चन्ना की सोहबत में।’ उन दिनों नागरी प्रचारिणी सभा देश के कई शहरों में हिंदी पत्रिकाओं की बिक्री के लिए दुकान खोला करती थी। कृष्णा सोबती ने सभा द्वारा प्रोत्साहित किए जाने पर ही हिंदी पत्रिकाएं खरीदीं और उन्हें पढ़ना आरंभ किया था। पर स्वतंत्रता के बाद हिंदी का जिस तेजी से विकास व प्रसार हो रहा था, उसी तेजी से हिंदी का सर्वस्वीकृत, मानक रूप भी गढ़ा जा रहा था। हिंदी के पाठक को तैयार करने के लिए सभी जगह एक जैसे व्याकरण व शब्द-गठन वाली हिंदी को तैयार किया जा रहा था। हिंदी की इस नई प्रवृत्ति से संभवतः कृष्णा सोबती आरंभ में परिचित न थीं और उन्होंने आजादी के बाद की नई हिंदी के खिलाफ अपने गुस्से का इज़हार भी कर दिया। अपने उपन्यास ‘चन्ना’ को छपने के लिए उन्होंने भगवतीचरण वर्मा की सलाह पर भारती भंडार, इलाहाबाद को भेजा था। पर वहां उस उपन्यास के पंजाबी शब्दों पर हिंदी के संपादकों तथा प्रूफरीडरों की तलवारें चल पड़ीं। वहां एक संपादक थे लल्लूलाल जी। उन्हें लगा कि अहिंदी भाषी लेखिका की हिंदी को थोड़ा सुधारना जरूरी है। उन्होंने ‘चन्ना’ के बहुत सारे शब्दों को लेखिका से बिना पूछे बदल दिया और जब टाइप किए हुए पन्ने कृष्णा सोबती के पास पहुंचे तो वे सन्न रह गईं। उन्होंने लिखा है- ‘छपे हुए कुछ फार्म मुझे मिले तो मेरे लिए एक चुनौती लेकर आए जिसका हल आज भी मुझसे नहीं निकल सका। श्री लल्लू लाल जी ने शाहजी को तो शाहजी रहने दिया पर शाहनी को शाहपत्नी में बदल दिया। काका को लल्लू, मसीत को मस्जिद, पैड़ियों को सीढ़ियां और इस तरह के देशज शब्दों में कुछ और भी बदलाव किए गए।’ अंततः यह उपन्यास उन्होंने छपाने से इनकार कर दिया और प्रेस को कागज और छपाई की कीमत भी चुका दी। लेकिन असल मुद्दा शायद अहिंदी भाषी लेखिका की हिंदी में सुधार करने से अधिक बहुत सारे खेतिहर, लोकजीवन या बोलियों से शब्दों को हिंदी से बाहर रखने का भी था। इस बात को कृष्णा जी भी समझ रही थीं कि उनकी हिंदी केवल पंजाबी भाषा के अतिशय प्रयोग के कारण नहीं बल्कि खेतिहर जीवन के शब्दों के इस्तेमाल के कारण ही नापसंद की जा रही है। इसीलिए मैला आंचल (1954) के प्रकाशन के महत्त्व पर कृष्णा सोबती ने लिखा- ‘हम कृतज्ञ हैं रेणुजी के जिन्होंने देश के खेतिहर संवाद को मैला आंचल में प्रस्तुत किया और बोलियों की संक्षिप्तता को साहित्यिक स्वरूप दिया।’ ये सारी चीजें समझना इसलिए भी जरूरी है क्योंकि कृष्णा सोबती के बाद के उपन्यासों में प्रायः हिंदी के ठेठ जातीय शब्दों के प्रयोग के साथ ही पंजाब व दिल्ली के बहुत सारे पंजाबी शब्दों का कहीं तो किफायत से और कहीं बेपरवाही में बहुत फिजूलखर्ची से इस्तेमाल होता रहा। कई बार पाठक को लगता है कि वे खेतिहर समाज की ‘मोटी-गाढ़ी भाषा’ को बिना ठीक से तराशे या मांजे हुए गद्य में ढालती चली जा रही हैं। बाद में छपे ‘चन्ना’ की भूमिका में उन्होंने लिखा- ‘चन्ना के संदर्भ में सारे वाद विवाद की बात सोचते हुए मैं आज भी विश्वास करती हूं कि भाषा की जड़ों को हरियाने वाला रसायन जो उसे जिंदा रखता है, उसे संपन्न करता है, वह लोक का स्रोत है।’

कृष्णा सोबती की भाषा संबंधी दुविधाओं, प्रयोगों तथा मौलिक कोशिशों के अलावा उनका वैचारिक जगत भी विशेष रूप से लोगों को ध्यान आकृष्ट करता रहा है। वह विचारशीलता जो ‘पैटरनाइज’ या नियंत्रित किए जाने के दबावों तथा प्रलोभनों से विद्रोह के कारण अलग से पहचानी जाती है। उनका उपन्यास ‘ज़िंदगीनामा’ आवेगमय भाषिक प्रयोगों, जीवंत दृष्टि तथा लोकजीवन के प्रति अपार वैचारिक उदारता से भरा हुआ है। यह जिंदगी की असंपादित कथाओं का दिलचस्प गुलदस्तां है जिसमें विविध प्रकार के चरित्रों को आवाजाही करने की भरपूर आजादी मिली हुई है। कुछ साल पहले प्रकाशित ‘सोबती-वैद संवाद’ नामक पुस्तक में उन्होंने बताया था कि यह उपन्यास उन्होंने नैनीताल में ऑफ सीजन में रियायती दरों पर लिए गए होटलों में बैठकर पूरा किया था। उपन्यास में खेतों, हवेलियों, चौपालों और दरियाओं में भटकती जिंदगियों की बिखरी हुई लेकिन प्रामाणिक कथा है और उन्हीं की भाषा में लिखी गई है। अगर लीडर प्रेस के लल्लू लाल जी जैसे ही किसी संपादक के हाथ में यह उपन्यास पड़ता तो वे फिर से इसकी भाषा को सुधारने बैठ जाते लेकिन तब तक कृष्णा जी हिंदी की महत्त्वपूर्ण लेखिका के रूप में अपनी पहचान स्थापित कर चुकी थीं। ज़िंदगीनामा उपन्यास विगत सदी के अविभाजित पंजाब की कथा है और लेखिका की मंशा केवल उपन्यास लिखने की नहीं बल्कि उपन्यास के रूप में पंजाब के लोकसमाज का इतिहास लिखने की भी रही है। उपन्यास के समर्पण वाले पृष्ठ में वह लिखती हैं- इतिहास जो/ नहीं है और इतिहास/ जो है.. वह नहीं/ जो हुकूमतों की/ तख्तगाहों में/ प्रमाणो और सबूतों के साथ/ ऐतिहासिक खातों में दर्ज कर/ सुरक्षित कर दिया जाता है, बल्कि वह/ जो लोकमानस की/ भागीरथी के साथ-साथ/ बहता है/ पनपता और फैलता है/ और जनसामान्य के/ सांस्कृतिक पुख्तापन में/ जिंदा रहता है!

यानी, जनसामान्य का औपन्यासिक इतिहास लिखने का महत्त्वाकांक्षी उद्देश्य इस उपन्यास के केंद्र में है और खास प्रकार का ‘सबाल्टर्न नजरिया’ भी प्रकट होता है।

 ऐतिहासिक खातों के बाहर जाकर जनजीवन के इतिहास का लेखन करना उपन्यासकारों के एक वर्ग का प्रमुख सरोकार रहा है। हिंदी के कई बड़े उपन्यास जैसे गोदान, झूठा-सच, आधा गांव, काला जल या फिर मैला आंचल लेखक की इसी पवित्र जिद से लिखे गए कि वे इतिहास के ग्रंथों, किताबों, दस्तावेजों के बाहर जाकर जिंदगी को देखेंगे और उसे दर्ज करने का प्रयास करेंगे। इस अर्थ में उपन्यासों ने इतिहास को किताबी बनने से बचाते हुए उसकी शक्ति तथा प्रासंगिकता को सुरक्षित रखा है। ज़िंदगीनामा में जिंदगी की रंगबिरंगी दास्तानों के बीच उपनिवेशवाद की गहरी काली छायाएं भी मौजूद हैं। प्रथम महायुद्ध का जिक्र है जिसमें अंग्रेजी शासन के अधिकारी गांव-गांव घूमकर लोगों से अपने बच्चों को फौज में शामिल कराने की अपील कर रहे हैं। पंजाब में साफा-पगड़ी को लेकर काफी संवेदनशीलता रही है और पहले महायुद्ध में लोगों को फौज में भरती कराने के ऐलान में भी सरकारी नुमाइंदे सांप्रदायिक चाल चलने लग जाते हैं। ऐलान इस बात को हो जाता है कि जो डोगरा या सिक्ख फौज में जाएगा उसे सवा सात गज की पगड़ी तथा पठान या पंजाबी मुसलमान को साढ़े पांच गज का साफा पहनने का मौका मिलेगा। इसी ऐलान से पंजाब के मुस्लिमों में खलबली मच जाती है और तनाव पैदा होने लगता है। महायुद्ध में बड़े पैमाने पर पंजाब के गांवों से नौजवानों की सेना में भर्ती हुई थी और उनमें लाखों लोग मारे गए। पर युद्ध की विकरालता को समझे बगैर गांवों में पंजाबी नौकरशाही भ्रम फैलाती घूमती है कि गांवों में जिन लोगों को भरपेट खाना नहीं मिल रहा है, उन्हें सेना में भर्ती होने पर पूरी खाद-खुराक तथा चुपड़ी रोटी मिलेगी। कुछ मार्मिक प्रसंग उभरते हैं जैसे कोई बूढ़ी औरत रिरियाकर पूछती फिर रही है कि उसका फौज में भर्ती बेटा जहाज पर चढ़ा कि नहीं! तो कोई स्त्री पूछती है कि उसके लड़के की ठीक से खाना-पीना मिलेगा या नहीं! कोई पुलिस या फौज में जरा सा भी सवाल पूछ ले तो तुरंत उस इंकलाबियों से सांठगांठ करने का आरोप लगा दिया जाता है। खास तौर पंजाब की फौज में हिंदुस्तानियों को पदन्नति न मिलने पर फौज में सवाल-जवाब करने या वर्दी फेंककर घर चले आने के प्रसंगों की उपस्थिति है। गांधी का भी शाहजी की हवेली में एकत्र लोगों के बीच जिक्र होता है। ऐसे गुजराती वकील के रूप में जो बैठ जाए पथल्ला मार के कि सरकार करती रहे जुल्म-ज्यादतियां, आपा ने ही अन्न-पानी मुंह नहीं लगाना। आजादी के आंदोलन की कुछ अन्य घटनाओं का भी वर्णन हैं, खासकर गदर आंदोलनकारियों से जुड़े कोमागाटा मारू जहाज आंदोलन का। 1914 में 376 भारतीय इसी जहाज से कनाडा गए थे रोजगार की खोज में पर उनके जहाज को वापस कर दिया गया। जब यह 6 महीने बाद वापस पहुंचा तो प्रथन विश्वयुद्ध में उलझी सरकार ने गदर पार्टी की गतिविधियों के डर से यात्रियों पर गोली चला दी जिसमें 18 लोग मारे गए थे। इस घटना ने भारत में गदर आंदोलन की चिंगारी को और भड़का दिया था। इसी घटना पर शाहजी अपने थानेदार दोस्त संसारचन्द से बात करते हैं तो थानेदार कहता है- ‘इन गदरियों को सीधा करना जरूरी थी। आपको मालूम नहीं, इन कनाडा वाले गदरियों ने बड़े पैमाने पर सरकार के खिलाफ साजिश की कि हुकूमत का तख्ता पलट देंगे। एक दिन मुकर्रर कर लिया कि सूबा पंजाब की हुकूमत का तख्ता पलट देंगे।’ बाद में वही थानेदार बताता है कि अंग्रेज सरकार को केवल बगावत से डर लगता है, किसी अन्य तरह के सैकड़ों-लाखों लोगों से नहीं। इस प्रकार यह उपन्यास औपनिवेशिक सत्ता के अत्याचारों से अलग-थलग या तटस्थ नहीं है बल्कि उसकी सचाइयों का ब्यौरा भी प्रस्तुत करता है। उपनिवेशवाद के बारे में आम जनों के सकारात्मक व नकारात्मक विचार भी कथानक में उभरे हैं।

उपन्यास की घटनाएं साफ संकेत देती हैं कि उपन्यास में वर्णित कथानक तथा जीवन-स्थितियां पहले महायुद्ध के आसपास के समय में स्थित है। यानी, बीसवीं सदी का दूसरा दशक जब बंगाल में क्रांतिकारी गतिविधियों का तेजी से विकास हो रहा था, गांधी अभी दक्षिण अफ्रीका में थे तथा पंजाब में गदर आंदोलन से अंग्रेज सरकार बुरी तरह से डरी हुई थी। लाहौर में हर तरफ गदरियों के इश्तेहार लगे दिखते हैं। शाहजी की हवेली पाकिस्तान के गुजरात जिले में है और अपने जिले के बारे में जानने वाले लोग यह जानकर चौंक पड़ते हैं कि कहीं और भी गुजरात है। जब गांधी का जिक्र आता है तो मीरांबक्शजी को हैरानी होती है कि इस जेहलम वाले गुजरात में कोई गांधी नामक जाति तो होती नहीं। इस पर शाहजी उन्हें बताते हैं- ‘नहीं मीरांबक्शजी, यह बन्दा अपने गुजरात का नहीं। एक दूसरा भी बंबई वाला गुजरात है।’ उपन्यास के एक हिस्से में पंजाब में आर्य समाज आंदोलन के बढ़ते प्रभाव तथा सनातनियों के साथ उसके तनाव को दिखाकर रचनाकार ने राजनीतिक के साथ-साथ समाज सुधार आंदोलनों का भी उड़ता-उड़ता सा जायज़ा लिया है। राजनीतिक-सामाजिक घटनाओं के ब्यौरे कथानक के रेखीय विकासक्रम के रूप में नहीं बल्कि विभिन्न उपकथाओं के संकलन के रूप में सामने आते हैं।

उपन्यास में शाहजी और उनकी पत्नी शाहनी चरित्र हैं जो गांव के बड़े जमींदार व साहूकार हैं। उनकी हवेली हमेशा लगातार आने-जाने वालों से भरी रहती है। कथा के आरंभिक हिस्से में में शाहजी बेऔलाद हैं और शाहनी भी इसी से दुःखी रहती है। शाहजी एक दिन उससे कहते हैं कि उन्हें देवी ने दर्शन देकर पूछा है कि वंश कौन चलाएगा। फिर वह दूसरी शादी का प्रस्ताव रखते हैं तो शाहनी औलाद को गोद लेने की बात कहती है। बाद में शाहनी के संतान होती है पर शाहजी मन ही मन संतान की देखरेख करने वाली सुंदर लड़की राबयां के प्रति आसक्त हो जाते हैं। राबयां और शाहजी के प्रेमप्रसंग में बहुत सांकेतिकता तथा कोमलता बरती गई है। पुराने समाजों में प्रेम को ‘लाउड’ या प्रदर्शनकारी हुए बिना भी भरपूर गहराई से महसूस किया जा सकता था और शाहजी व राबयां का प्रसंग इसी सत्य को उजागर करता है। कोई लेखक अपनी रचनाओं में प्रेम से जुड़े दृश्यों को किस सूक्ष्मता के साथ पाठकों के सामने रखता है, वह उसकी सबसे बड़ी परीक्षा होती है। प्रेम का वर्णन किसी रचना को महान बना सकता है, तो उसे डुबो भी सकता है।

शाहजी के पुरखे इस गांव में इकहत्तर सौ रुपये लेकर आए थे और उन्हीं के मुताबिक ‘जो छुआ सोना बन गया।’ उनकी रैयत में अराई, बलोच, गुज्जर, जट्ट, कुरेशी, मुगल, पठान, राजपूत सैयद, लबाणै आते हैं और इनमें अधिकांश मुस्लिम रैयत ही है। शाहजी का ऐसा रौब है कि कत्ल, डाका, सूदखोरी सभी में उनकी गवाही ही अंतिम मान ली जाती है। गांव में यह कथन प्रचलित है- ‘जो जट्ट कहे सो झूठ, जो शाह कहे सो सच्च।’ इन्हीं शाहजी की आदत है कि वह मन ही मन अपने असामियों की गिनती करते रहते हैं और फिर गहरी तृप्ति से आंखें मूंद लेते हैं और फिर दान महिमा वाले किसी गीत को गुनगुनाते हैं। उनकी इस मुद्रा को देखकर उनका सरल दिल भाई यानी छोटे शाह सोचते हैं- दौलत माया में इतनी आसक्ति! उपन्यास में ऐसे प्रसंग भी आते हैं जिनसे पता चलता है कि गांव के गरीब मुस्लिम लड़के साहूकारी से परेशान होकर भाग जाते हैं और लाहौर जैसे स्टेशनों पर कुलीगीरी जैसा अपमानजनक कार्य तक करने लग जाता है। कई लोग तो शाहजी के मुंह पर कहते हैं- ‘इस वक्त तो जमीनों की सच्ची-झूठी मालकी शाहों के पास है। कोई बंधे, कोई रहन, कोई गहने।’ शाहजी इसे अनपढ़ों के समाज में दिमाग के काम से जोड़कर देखते हैं और उन्हें कोई अफसोस नहीं होता। उन्हें नेकदिल भी दिखाया गया है जो जमीनों की मालकी वापस भी कर देते हैं। पर यही शाहजी पुलिस के दरोगा के साथ बैठकर इन्कलाबियों व गदरियों के खिलाफ चर्चाएं भी करते हैं। अपने गांव को तीन पीढ़ी का फौजी टब्बर बताकर किसी तरह से पुलिस की निगाह से दूर रखना चाहते हैं। उनका चरित्र ‘गोदान’ के रायसाहब की याद दिलाता है जो अच्छे दिल के हैं और साथ ही रियाया पर हुक्म करना भी जानते हैं। इस प्रकार उपन्यास केवल लोकसंस्कृति की विशेषताओं का नहीं बल्कि यथार्थवादी कला से लोकजीवन में व्याप्त बहुत सारे छल-छद्म, स्वार्थ और रणनीतिक चालों का शानदार आईना है। तत्कालीन पंजाब में व्याप्त साहूकारी व्यवस्था ने कितनों के घर उजाड़े, कितने अपराध करवाए और कैसे अदालतों की व्यवस्था में सेंध लगाई इसकी संजीदगी से वर्णन किया गया है। गवाहों को केवल दूध-जलेबी का लालच देकर तोड़ लिया जाता है। आधी आबादी हर वक्त मुकदमों और कचहरी में उलझी रहती है। जो एक बार जमीन गिरवी रखता है, वह फिर या तो उसे गंवा देता है या अदालतों में फंसकर रह जाता है। शाहजी भी हमेशा यही हिसाब लगाते रहते हैं कि किसकी जमीन अब उनके कब्जे में आने वाली है और किस तरह मुकदमें के जंजाल में फंसाकर वे जमीन हड़प सकते हैं। उपन्यास 20वीं सदी के आरंभ में गांव-गांव में व्याप्त जमीन-जायदाद के झगड़ों के यथार्थ को भी प्रकट करता है। इसमें किसी गांव का विचारधारात्मक मूल्यांकन करने के स्थान पर उसे पूर्ण वस्तुनिष्ठता के साथ कल्पित किया गया है और पाठकों को खास दिक्-काल में ले जाता है। उपन्यास के समूचे कथाशिल्प में अत्यधिक सामाजिकता जरूर है। इसीलिए लगता है कि लेखक कहीं ठहरकर किसी चरित्र के मन की भीतरी तहों में उतरने का प्रयास नहीं कर रहा। यह भी खटकता है कि वह किसी की व्यक्तिगत पीड़ाओं को भी ठीक से कथानक में व्यक्त करने के स्थान पर तेजी से आगे बढ़ता जाता है और इस कारण चरित्रों की पीड़ा, परेशानी या बेचैनी जैसी चीजें प्रभावशाली ढंग से व्यक्त होने से पहले ही दूसरे ब्यौरों, संवादों तथा उपकथाओं की भीड़ में घुम हो जाती हैं। रचनाकार के पास ठहरकर किसी एक चरित्र को पूरी सहानुभूति देने का धैर्य नहीं है। रंगबिरंगी कतरनों का ढेर लग गया है। लोगों के नाम या उनकी बातें तो दिखती है, पर उनका समूचा हाड़-मांस की व्यक्तित्व नहीं नजर आता। पाठक द्वारा किसी एक प्रसंग से रसानुभूति लेने से पहले ही उस प्रसंग को बदल दिया जाता है। जिस प्रकार कोई चित्रकार कैनवास पर ‘ओवरक्राउडेड’ दृश्य बना देता है जिसमें किसी चीज की कोई स्पष्ट रेखा नहीं उभरती है, उसी प्रकार उपन्यास में भी भारी भीड़ के बीच बहुत संवेदनशील प्रसंग भी खोए हुए से लगते हैं। जैसे कि तत्कालीन साहूकारी व्यवस्था को विस्तार से, गहरी बेबाकी तथा स्पष्टता से उजागर करना चाहिए। पर रचनाकार बहुत कम शब्दों में उसका विवरणनुमा चित्र प्रस्तुत कर आगे बढ़ जाता है। यह तो पता चलता है कि शाहजी साहूकारी व्यवस्था के अंग हैं, पर खुद साहूकारी व्यवस्था की सचाइयों को व्यक्त करने का जो अवसर रचनाकार को कथानक के भीतर मिला, उसने उस अवसर का ठीक से उपयोग नहीं किया है। शाहजी को न तो नायक बनाया जा सका, न खलनायक। कथानक में इस तरह का ढीलापन या बिखराव पूरे उपन्यास में नजर आता है। प्रसंग को एक सीध में, नपे-तुले शब्दों में बताने के स्थान पर लेखिका भटकने लग जाती है। प्रसंग होता है कि शाहनी की संतान होने का पर अचानक से कई चरित्रों को बैठक में आया दिखाकर पूरी कथा को ही अलग दिशा दे दी जाती है। इस प्रकार प्रसंग होता है कोर्ट-कचहरी के मुकदमों पर उसी में बहुत सारे चरित्रों को असंबद्ध किस्म की पुरानी-नई बातों में मशगूल दिखा दिया जाता है। उपन्यास में नैरेटर पूरी तरह से लापता दिखता है। वह अपना दृष्टिकोण रखने या पाठक को कथ्य समझने में सहायता करने के लिए तो कभी आता ही नहीं है। वह कथा-सूत्र को जोड़ने के लिए किसी भूमिका में नजर नहीं आता है।

उपन्यास का सांस्कृतिक पक्ष आकर्षक कलाकृति की तरह है जिसमें पंजाब की संस्कृति का विशद चित्रण किया गया है। ऐसा ग्राम-समाज है जिसमें लोग बुल्ले शाह, बाबा फरीद और शाह लतीफ को हर मौके पर गाते हैं। बैसाखी के ढोल गूंजते हैं तो पीपल, कीकर और नीम के पत्ते भी चमकने लगते हैं। सुबह लोग मस्जिद की अजान और मुर्गे की बांग एक साथ सुनते हैं। इसी खेतिहर समाज में लोगों को किसी को कोसना या गाली देना होता है तो उसकी फसल को कीड़े लग जाने या खेती सूखी पड़ी रह जाने की बद्दुआएं भी देते हैं। खूब लड़ते-झगड़ते हैं तो दिल खुश होने पर खूब सारी आसीसें भी लुटाते हैं। नट-नटनियों के तमाशे चलते रहते हैं। उपन्यास ने विशिष्ट सांस्कृतिक-सामाजिक दुनिया गढ़ी है और शाहजी की हवेली में जमा लोगों की बातचीत, वार्ता, संवाद व किस्सों से अपनी कहानी को तैयार करने का काम किया है। यहां मंजियां, तकिए और चारपाई हैं जिनमें इलाके के लोग बैठते हैं और घंटों तक दुनिया-जहान के किस्से सुनते तथा सुनाते हैं। इनमें शाहजी के अलावा गंडा सिंह, गुरुदित्त सिंह, मौलवी इल्मदीन, चौधरी फतेह अली, मौलादाद जी, काशीशाह और कर्मइलाही जी शामिल हैं। लगता है जैसे यह बैठक अनंत काल से सजी हुई है और सभी के पास सुनाने के लिए असीमित किस्से और साझा करने के लिए ढेरों अनुभव हैं। कोई बैठक में आता है तो सबसे पहले पता लगाता है कि कोई किस्सा चल रहा या नहीं। फिर वह जल्द ही अपना किस्सा खोलकर बैठ जाता है। सभी इस बात पर एकमत हैं कि मजलिस में बैठने से अक्ल बढ़ती है। बहुत सारे किस्से दोहराए जाते हैं, या उन्हें अधूरा छोड़कर लोग कोई और बात शुरू कर देते हैं। पर किस्सों के नशे में डूबा समाज इन चीजों को बड़े धैर्य के साथ सहता है और ज्यादा बुरा नहीं मानता है। ज्यादातर के पास फौज, बादशाहों, मुगलों, जाटों, अंग्रेजी हुकूमत या फिर पठानों के किस्से हैं जिसमें मिठाइयां, घोड़े, हाथी, हथियार या लाहौर की रंगीनी के किस्से भी लोग मजे-मजे लेकर सुनाते हैं। यह गप्प, किस्सों, कल्पनाओं, सुनी-सुनाई बातों, शेखी, चटख प्रपंचों, बेबाक लंतरानियों से भरा हुआ परिवेश है जिसमें सभी का समाज के साथ ही नहीं बल्कि समय के साथ भी बहुत आरामदेह व सहज संबंध है। किसी को उठकर कहीं जाने की जल्दी नहीं है। यहां किस्से न सुना पाना या उनमें रस न ले पाना एक प्रकार से समाज से बहिष्कृत हो जाने या दूसरों के आगे पराजित हो जाने का कारण बन सकता है। किस्सों में डूबे इस समाज को किस्से का अंग बना लेना भी लेखकीय कौशल है, जो इस उपन्यास में नजर आता है। कृष्णा सोबती ने जब इसे लिखा था, तब भी शायद भारतीय समाज इसी प्रकार का था और किसी को पता न था कि अगले बीस-तीस साल में किस्सों और बैठकों से इंसान को दूर कर दिया जाएगा। उपन्यास के केंद्र में स्वाधीनता संग्राम की अधिक घटनाएं नहीं हैं। लेकिन उपन्यास का अंत भारत को स्वाधीनता मिलने के आशावाद से होता है जो पाठकों को चौंका देता है। शाहजी की बैठक में जमा लोगों को लग रहा है कि जंग, इंकलाब और गदर आंदोलन की सम्मिलित ताकत से अंग्रेजों के पैर उखड़ जाएंगे। इस प्रकार जो उपन्यास राजनीतिक घटनाओं के विवरण के बावजूद अपनी पूरी बनावट में राजनीतिक नहीं हैं, वह राजनीतिक स्वप्न के साथ समाप्त होता है। ऐसा लगता है कि लेखिका इस दुविधा की शिकार हो गई कि उपन्यास को मुकम्मल विचार पर टिका अंत प्रदान किया जाए या उसे उपन्यास में वर्णित दूसरी सैकड़ों सामान्य घटनाओं के बीच कहीं खत्म कर दिया जाए। इसी दुविधा व भ्रम का परिणाम है कि लेखिका ने उपन्यास पर मजबूरन आदर्शवादी अंत थोप दिया ताकि पाठक को यह न लगे कि लेखिका के पास वर्णन करने के लिए अनुभवों का तो खजाना है, पर कोई सच्चा, उदात्त आदर्श नहीं है। औसत परिस्थितियों में व्यक्ति-इच्छाशक्ति से रहि,त औसत व्यक्तियों की भीड़ जमा कर लेने से वह स्वयं भी ऊब गई और इसीलिए अंत में उसने नाटकीय राष्ट्रवादी मोड़ पर ले जाकर उपन्यास से मुक्ति पा ली। जाहिर है कि उपन्यास के इस नाटकीय अंत ने उपन्यास को बड़ा धरातल प्रदान नहीं किया है। ज्यादा अच्छा होता कि वह शाहजी के राबयां से प्रेमप्रसंग या ऐसे ही दूसरे किसी प्रसंग पर उपन्यास को खत्म करती।

जिंदगीनामा में सिलसिलेवार ढंग से घटनाओं के विकास को ढूंढने का प्रयास भी पाठक को परेशानी में डाल सकता है। वह आतंकित होकर या खीजकर उपन्यास को उठाकर एक तरफ भी रख सकता है और लेखिका पर यथार्थ का अतिमहत्त्वाकांक्षी चित्रण करने का आरोप लगाकर चलता बन सकता है। ऐसा चित्रण जिसमें सारे चित्र आपस में गड्ड-मड्ड होकर रह गए हैं। पर असल में यह गप्प-किस्सों के स्वतंत्र टुकड़ों को जोड़कर बना उपन्यास है, जिसमें नायक या नायिका का भी क्षीण सा आभास है, पर वे वस्तुतः नायक-नायिका हैं नहीं। पूरा परिवेश खासतौर पर शाहजी की हवेली का परिवेश ही उपन्यास का केंद्र बिंदु है और उसे के भीतर से वार्ता शैली में बहुत सारे उपकथाएं जन्म लेती रहती हैं। इसमें आंचलिकता का केवल एक अंश है, ठीक से आंचलिकता इसलिए नहीं उभरी है क्योंकि पंजाब के व्यापक जनजीवन की सीधी अभिव्यक्ति होने के स्थान पर यह अधिकांश अवसरों पर शाहों की हवेली तक अधिक सीमित है। अधिकांश किरदार अंततः उस हवेली का हिस्सा हैं और बाकी जनजीवन उनकी वार्ताओं से चित्रित होता है, न कि स्वतंत्र ढंग से।

इस उपन्यास को रेखीय कथानक तथा केंद्रीय नायक-नायिका वाले उपन्यासों की तरह से नहीं पढ़ा जा सकता है। बीसवीं सदी के हिंदी उपन्यासों में नायकत्व वैसे भी काफी दुर्लभ चीज रही है और हिंदी में उपन्यासों का विकास तब हो रहा था जब खुद पश्चिम के उपन्यासों ने नायक चरित्र को त्याग दिया था। तब तक पश्चिम में उपन्यास ने संघर्षरत तथा सामाजिक परिस्थितियों द्वारा परास्त कर दिए जाने वाले नायकों की धारणा को समाप्त कर दिया था। इसके पीछे बुर्जआ वर्ग की बदलती भूमिका थी। ‘उपन्यास और लोकजीवन’ जैसी सशक्त आलोचना कृति के रचयिता राल्फ फाक्स का मानना था कि 19वीं सदी के अंत तक आते-आते धीरे-धीरे बुर्जुआ वर्ग भी अशक्त होने लगा। उसमें वह क्षमता ही न रही कि वह दुनिया को बदलने की इच्छा रखने वाले ऐतिहासिक मानव को स्वीकार कर सके। वह इस बात से डरता था कि कहीं नायक को मान्यता देने से बुर्जुआ जगत को रद्द करने वाली या समाज को बदलने वाली क्रियाशील ताकतों को हौसला न मिलने लग जाए। इसीलिए चिराग लेकर ढूंढने पर भी महान नायक कहीं नहीं दिखता था।

कुल मिलाकर इस उपन्यास को धैर्य के साथ पढ़ने पर उस सामाजिक-सांस्कृतिक परिवेश से गुजरने जैसा अनुभव होता है जो लगता है कि बहुत सहज-सामान्य रूप से कहीं आसपास है, पर वास्तव में वह दिनोदिन दुर्लभ होता जा रहा है।