'मुझे जो कहना है वो कहने के लिए अलग से एक लम्बी पोस्ट लगेगी (लिखूँगी), फिलहाल ये कि आवाज़ उठाई गई थी, तभी आप तक पहुँची है।' (कल्पित प्रकरण पर शिवांगी गोयल)
मुझे अच्छा लगा कि शिवांगी ने सामने आकर अपना पक्ष रखा। इसके लिए उन्होंने किसी और की मदद नहीं ली, उसे माध्यम नहीं बनाया। अगर यह कुछ और पहले हुआ होता, तो इन अर्थों में बेहतर होता कि इस बहाने अपनी छवि चमकाने वाले, आपदा में अवसर ढूँढ़ने वाले तथा ऐसी किसी घटना-दुर्घटना के बहाने निजी राग-द्वेष से संचालित होने वाले कुछेक लोगों को ‘खेलने’ का अवसर थोड़ा कम मिलता। जिन लोगों की छवि ऐसे ही मामलों में कभी खुद धूसरित हुई थी या जिन पर प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष खुद ऐसे इल्जाम लगते रहे हैं, उनको इस तत्परता से सक्रिय देखने के दृश्य भी शायद कुछ कम मिले होते। ऐसा कहते हुए मैं शिवांगी से कोई शिकायत नहीं कर रही, बल्कि पिछले एक सप्ताह से सोशल मीडिया में जारी चर्चाओं-चिंताओं की कुछ दुरभिसंधियों की तरफ इशारा करना चाहती हूँ।
स्त्री होने के नाते मैं शिवांगी के ट्रॉमा को समझ सकती हूं...उनके असमंजसों को भी...खुद को संभालने-सहेजने की कोशिश करते हुये उनका सामने आना भी। शिवांगी अगर सामने आना नहीं भी चुनतीं तो मुझे उनसे कोई शिकायत नहीं थी। मैं उनके उस निर्णय में भी उनके साथ होती। कारण कि यह उनका खुद का चुनाव याकि निर्णय होता। हां, लेकिन तब मैं उनके समर्थन में शायद कोई पोस्ट भी नहीं लिखती। तमाम लोगों के उकसावे और अपने लेखकीय व लैंगिक दायित्व को जानने के बावजूद, उनके नाम या तस्वीर का इस्तेमाल भी नहीं करती। ऐसा करना उनके उस निर्णय और उनकी निजता दोनों का अपमान होता।
मित्रों के सवाल पर मैंने कहा भी कि मैं तबतक कुछ नहीं कहूंगी, जबतक वे खुद सामने नहीं आतीं। खुद ही इस मुद्दे पर बात नहीं करतीं। मैं लैंगिक हितों की लड़ाइयां लड़ने की पक्षधर हूं, पर तभी, जब सामनेवाला भी अपनी आवाज़ उठाये। अपनी लड़ाई खुद लड़ने की पहल करे। कम से कम इसके लिए अपनी सहमति दे। ऐसा नहीं कि वह तमाम तरह के डर और भय की छाया में अपनी पहचान छुपाये बैठा हो, और हम एक बेनाम-बे-चेहरा लड़ाई लड़ रहे हों।
मैंने शिवांगी की पोस्ट को साझा करते हुए भी यही लिखा- 'मैं तुम्हारे साथ हूं और हमेशा हूं...मैं चुप थी क्योंकि मुझे इंतज़ार था। मुझे तुम्हारी बात सुननी थी, और इससे, उससे, किसी अन्य से नहीं; उनसे भी नहीं, जिन्हें अगुआ, सूत्रधार और जगत्माता-जगत्पिता बनने का शौक है। जिनके निजी आग्रह, पूर्वाग्रह याकि दुराग्रह हैं; उनसे भी नहीं...
तुमसे सुनना चाहती थी यह। कि अपने हिस्से की लड़ाई हमें सबसे पहले खुद ही लड़नी होती है। कम-अज-कम उसकी शुरूआत तो खुद ही करनी होती है। वह भी अपनी पहचान के साथ...'
मुझे इस बात का संतोष है कि शिवांगी ने अपने प्रति हुए अन्याय का मुखर विरोध किया और साहस के साथ अपनी लड़ाई की शुरुआत स्वयं की।
यह वह देश है, जहां बलात्कार पीड़ित दिवंगता का भी नाम सार्वजनिक नहीं किया जाता। 'उसकी आगामी जिंदगी प्रभावित होगी' का सर्वव्यापी और सर्वसामयिक तर्क भी यहाँ नहीं समझ आ रहा। जो जीवित ही नहीं...यूं भी वह तो पीड़ित भर है, उत्पीड़न करने वाली नहीं। फिर इसका मतलब क्या यही नहीं निकलता कि स्त्रियां जीवित हों या मृत, उनकी पहचान उनका शरीर ही है? मेरा मानना है कि सबसे पहले तो मुखालफत इसी बात की होनी चाहिए। आखिर क्यों छिपाई जाये किसी पीड़िता की पहचान, उसका नाम या चेहरा? पहचाने जाने का भय तो अपराधियों को होना चाहिए। शिवांगी का अपने हक में इस तरह सामने आना इसलिए भी एक हिम्मती और सराहनीय कदम है।
आगे शिवांगी जो भी राह चुनें, जो भी निर्णय लें मैं उनके साथ हूं...मैं उनके पिछले निर्णय से भी असहमत नहीं थी। यह जानते हुए कि कृष्ण कल्पित के कृत्य को देखने और उससे गुजरने के बावजूद जो सज़ा उन्होंने उनके लिए चुनी- उनके समक्ष माफीनामा लिखने या फिर रेसीडेंसी छोड़कर जाने का, वो न्यूनतम से भी कम है। कृष्ण कल्पित ने माफीनामा न लिखकर, वहाँ से चुपचाप चला जाना उचित समझा, यह उनका दंभ था, उनकी बददिमागी भी। वर्ना वे भी जानते होंगे कि इस अपराध की कितनी बड़ी और कैसी सज़ा हो सकती है। माफी मांग लेना तो उसके मुकाबले बहुत आसान था।
किसी को इससे भी न्यूनतम में क्या छोड़ा जा सकता है? शिवांगी का निर्णय अहिंसात्मक था, बावजूद कल्पित की गलतियों के। कुछ लोगों ने इसके लिए भी उन्हें प्रश्नांकित किया, जबकि यह होना नहीं चाहिए था। कोई व्यक्ति अपने साथ हुई घटना-दुर्घटना पर किस तरह से प्रतिक्रिया जाहिर करे, यह उसका व्यक्तिगत चुनाव या निर्णय हो सकता है। दूसरों को इस बात का हक नहीं होना चाहिए कि वह उसके निर्णय को प्रभावित या प्रश्नांकित करे। ऐसा करना भी पीड़िता पर अनावश्यक दबाव बनाना ही कहा जाएगा। पर एक डर यह भी है कि कृष्ण कल्पित इससे ज्यादा शेर न हो जायें और भविष्य में फिर कुछ इससे भी निकृष्ट न कर गुजरें।
इन्हीं कृष्ण कल्पित ने पूर्व में गगन गिल, अनामिका और बाबुषा कोहली पर मिसोजिनिस्ट कमेंट किये। अनामिका जी इस मंच पर होकर भी न होने जैसी थीं और रहीं, गगन गिल जी थीं ही नहीं, मुझे ठीक याद है तो, बाबुषा उस समय डियेक्टिवेट हो चुकी थीं। हम लड़ते रहे थे उनके हिस्से की लड़ाई। गगन जी ने किसी के माध्यम से एक प्रतिक्रिया दी, अनामिका जी चुप रहीं और बाबुषा ने वापस आकर उन्हें क्षमा कर देना उचित जाना। इससे पता चलता है कि वह कितने बड़े दिल की है। हां, इस बीच कृष्ण कल्पित का एक माफीनामा जरूर पोस्ट हुआ था फेसबुक पर। हम सब भी चुप्पी साध गये थे कि हमारे पास भी कोई वजह नहीं बची थी उस हारी हुई लड़ाई को लड़ते जाने की। यह सब कुछ इतना ब्योरेवार और इतने स्पष्ट रूप से इसीलिए याद है कि तब लगभग शुरुआती पोस्ट मैंने ही लिखा था।
हो सकता है उस वक्त अगर कल्पित को कोर्ट तक ले जाया गया होता, तो आज यह स्थिति नहीं आई होती। वे इस तरह सीना चौड़ा किये अपने तथाकथित बड़े लेखक होने और पहुंच का गुमान नहीं कर पाते, अपनी पोती की उम्र की किसी लड़की के आगे।
कई मामले हैं इस तरह के। 'छिनाल प्रकरण' में हम सब लड़ते रहे मैत्रेयी पुष्पा के साथ और कालांतर में बिना किसी सार्थक निष्कर्ष के, विभूति नारायण राय के साथ उनके सम्बन्ध सहज और सामान्य हो गये, उन्होंने उनके साथ मंच भी साझा किया। हद तो तब हो गई जब उन्हीं विभूति जी से एक पत्रिका के स्त्री विशेषांक का लोकार्पण कराया गया। अजय तिवारी का प्रसंग, उनका बहिष्कार और फिर उनके आलोचक की पुनः प्रतिष्ठा के भी हम सब गवाह रहे हैं।
'नयी धारा राइटर्स रेसीडेंसी' वाले प्रकरण में जिस तरह से बौद्धिक समाज ने कृष्ण कल्पित की आलोचना और निंदा की, वह एक लेखक के लिए किसी दुर्दम्य सज़ा से कम नहीं, अगर व्यक्ति में थोड़ी भी शर्म और आत्मा बची हो।
पर यह भी सच है कि विरोध और चुप्पी साधने का यह मुआमला भी बड़ा सेलेक्टिव रहा है लेखक जगत में। किसका विरोध करना है, किसका नहीं, यह व्यक्तिगत राग-मोह, लाभ-लोभ से संचालित लगभग एक क्षुद्र और शातिर राजनैतिक निर्णय हो चुका है। कई बड़े-मंझोले और कल्पित की शिष्य-परम्परा के लेखक भी जिस तरह अब भी चुप हैं, या उनके नाम को पूरी तरह विस्मृत कर कुछ छायावादी और निर्गुण किस्म के प्रवृत्तिमूलक तीर चला रहे हैं, उसके निहितार्थों को भी समझा जाना चाहिए।
उद्भ्रांत जैसे कुछ लेखकों ने जहाँ इसे प्रोपेगेंडा ही बता दिया और येन केन प्रकारेण विक्टिम ब्लेमिंग पर उतर आए। वहीं उदयप्रकाश जी इस प्रकरण में जाति के कोण का संधान करने लगे। और वर्षों से ब्लॉक कर चुकने के बावजूद कल्पित के लिए उनके मन में अथाह चिंता जाग पड़ी। वे एक ‘अच्छे कवि और लेखक’ को इस तरह ट्रॉल किये जाने को लेकर दुखी होने लगे। गलत भाषा और व्यवहार के लिए ब्लॉक किये जाने के बावजूद दोनों हम-कलमों के मन में कल्पित के लिए चिंता के बादलों का यूं उमड़ने-घुमड़ने लगना ‘हमपेशा’ के बचाव में खड़ा होना नहीं तो और क्या है? कल्पित जैसों के बचाव में खड़ा होने को उनके अपराध में शामिल होना क्यों नहीं माना जाना चाहिए?
यहाँ 'गुनगुन थानवी' प्रकरण को भी याद किया जाना चाहिए। उस वक्त जब लगभग सारी स्त्रियां एकजुट थीं, कई वामपंथी लेखक नागार्जुन की ढाल बन गये थे। यहाँ तक कहा गया कि गुनगुन बस ख्याति के लिए... लेखक के व्यक्तित्व और कृतित्व को अलग करके देखने-सुनने का तर्क दिया जाने लगा। देश और दुनिया के कई अन्य प्रसंग दलील और ओट की तरह पेश किए जाने लगे।
कृतित्व और व्यक्ति को अलग करके देखने की दलील चाहे जितनी व्यवहारिक हो, मुझ जैसों के गले तो बिलकुल नहीं उतरती। मनुष्य होते हुए भी लेखक आम लोगों से अलग होता है। पाठकों-प्रशंसकों के मन में उसकी एक आदर्श छवि बसी होती है। इसलिए उन्हें अपनी छवि सहेजकर रखने की सबसे ज्यादा जरूरत होती है और होनी भी चाहिए।
पिछले दो-एक दिनों से सोशल मीडिया में नागार्जुन की जयंती विषयक पर्चे-पोस्टर फिर से दिख रहे हैँ। यह देखना भी कम दिलचस्प नहीं है कि संगठन और पार्टी के अनुशासन वृत्त में बंधे कुछ भले लोगों को नागार्जुन न निगलते बन रहे हैं न उगलते हीं। पर मुझ जैसे कइयों ने निजी तौर पर नागार्जुन के लेखन का बहिष्कार कर रखा है। बात-बेबात अब उनकी पंक्तियां याद नहीं आतीं। उनकी पंक्तियों के बीच दरारें दिखती हैं। उनके शब्दों के पीछे छुपी संवेदना झूठी और नकली लगती है। अब कल्पना में आता है उनका वह वीभत्स चेहरा जो सात वर्ष की छोटी-सी बच्ची के साथ...
इस प्रकरण के पूर्व मैंने सत्याग्रह में काम करते हुये उन पर एक लेख लिखा था। बाद में वहां मना किया कि इसका इस्तेमाल कभी दुबारे न किया जाये। उस शृंखला के अन्य लेखों को मैं बार बार अपनी फ़ेसबुक वाल पर लगाती हूँ, लेकिन उस लेख को कभी फिर अपनी वाल पर नहीं लगाया। मेरे लिए नागार्जुन की वह मूर्ति खंडित हो चुकी है, जिसको सामने रखकर मैंने वह लेख लिखा था। मैं जानती हूँ, मैं अकेली ऐसी नहीं हूँ। कल्पित प्रकरण में उबलते, कड़कते बौद्धिक समूह को इन सभी प्रसंगों पर विचार करना चाहिए, अन्यथा यह प्रतिरोध मौसमी भर होकर रह जाएगा। फ़ेसबुक क्रांति की ऐसे ही नियति होती रही है। चाहती हूँ, इस बार ऐसा नहीं हो।
अपराधी को सज़ा सिर्फ जेल की सलाखों के पीछे भेजकर ही नहीं, चित्त से उतारकर भी दी जा सकती है। ‘कल्पितों’ के लिए भी यह सज़ा नाकाफी नहीं है, न होनी चाहिए।