नीलोफ़र सूनी आँखों से दुकान में पड़े सामान को देखती रही। उसने टंगे हुए चिप्स के पैकेट उतारे और धूल झाड़कर उन्हें फिर लटका दिया। पानबहार, तुलसी जर्दा, शिखर, रजनीगन्धा। सबको उतारा, फिर सबको टांग दिया। असद जीजा की दूसरी शादी है आज। चाचा की लड़की उसकी पहली थी, जो चल बसी। जब उसका जनाजा उठा, तो नीलोफर बहुत रोई थी। बचपन में साथ खेले-कूदे थे। ऐसे कोई चला जाए तो लगता है अपने दिन भी खत्म होने को हैं। क्या मिला ज़िंदगी से, यह सोच भी कलेजे में छुरी की तरह खुभ जाता है।
जनाजा उठने पर दुख तो हुआ, पर कहीं दिल के अंधेरे में एक उम्मीद भी चमककर दो पल के लिए रौशनी कर गई थी। क्या पता ? ..क्या पता?..क्या पता असद जीजा फिर शादी करना चाहे तो? होगा पचपन का लेकिन काठी मजबूत है। नीलोफर से पूरे दस साल बड़ा है। इधर कई बार नीलोफर को लगा है कि उसे भी अपने हरजाई पति की तरह दूसरी शादी कर लेनी थी। कब तक इस तीन फुट बाई सात फुट की दुकान में आलथी-पाल्थी मारकर ये फुटकर सामान और चाय-बिस्कुट बेचती रहेगी? अब तो घुटने जवाब देने लगे हैं। कोई ग्राहक अगर कोल्ड ड्रिंक माँग लेता है तो उठकर दुकान के छोर पर रखे फ्रिज से निकालने में घुटने में टीस मारने लगती है। चार तल्ले पर छत के कमरे में चढ़ने में जान निकल जाती है। छत का कमरा तकलीफ़ों की ठाँव है। जाड़े में ठंडा और गर्मी में गर्म।
कई दिन तक सोचते-सोचते उसने अपनी पाँच नंबर बहन दीबा को कह दिया, “असद जीजा सुनते हैं फिर शादी करेगा।” दीबा बड़ी तेज़ है। दुनिया घूमती है। औरतों को एक्सरसाइज करवाती है। फिट-फाट रहती है। सुनते ही बोली, “हाँ, मैंने भी सुना है।” साफ़ ही था कि वह जानती थी कि नीलोफर झूठ बोल रही है। लेकिन उसने यह नहीं पूछा कि किससे सुना? न ही नीलोफर ने पूछा कि दीबा, तुमने कहाँ सुन लिया? दीबा यह तुरन्त भाँप गई थी कि नीलोफर के मन में फिर ब्याह रचाने की ख्वाहिश जागी है। इससे अच्छा और क्या हो सकता है? बरसों से दीबा उसे देखकर सोचती रही है, क्यों इसके साथ ऐसा हुआ? एक अंडाशय के साथ भी औरतों के बच्चे होते हैं। इंदौर में अपेंडिक्स के इमरजेंसी ऑपरेशन के दौरान डॉक्टर ने उसका अंडाशय निकाल दिया था। वह अपनी समझ में एक ज़िंदगी बचा रहा था। उसे क्या मालूम था कि वह एक ज़िंदगी तबाह कर रहा है।
असल में तो शायद इसका मैकेनिक पति बहाना खोज रहा था इसे छोड़ने का। बच्चे न हुए तो उसने छोड़ दिया। न आज तक तलाक़ हुआ न इसे कुछ मिला। इस्लाम में मेहर का नियम है, पर कोई माने तब ना! दीबा ने तो नीलोफर की शादी रोकने की कोशिश की थी क्योंकि मैकेनिक न रोज़ा रखता न नमाज़ पढ़ता। कुछ भी कहो, दीन के पाबंद लोगों के धोखेबाज होने का डर कम होता है। पर नीलोफर अड़ी सो अड़ी। ऊपर से दीबा को यह भी कह डाला, “तुमने ख़ुद तो एक बंगाली हिंदू से शादी की और मुझे सीख दे रही हो? वह बोस से मोहम्मद दानियाल बन भी गया तो क्या, था तो हिन्दू ही न!” दरअसल नीलोफर प्रेम में धोखा खाई हुई थी। जिससे प्रेम किया था, उसके परिवार ने एक अमीर लड़की से उसकी शादी करवा दी। लड़की को पोलियो था और वह लंगड़ाकर चलती थी।
नीलोफ़र का ससुराल दूर था। मैकेनिक मयूरभंज की सड़क पर दो चक्के की गाड़ी रिपेयरिंग करता था। वहीं एक किराए की दुकान में अपने जन्तर-पांती रखता था। उसी में नीलोफर ने जगह बना ली। दोनों उसी में सोने लगे। दिन भर वह लोहा पीटने की आवाज़ों में रहती। जाने क्या हुआ कि उसे सुनाई कम देने लगा। वह बहुत ज़ोर-ज़ोर से बात करने लगी। बात करती तो लगता जैसे किसी से लड़ रही हो। मैकेनिक ने शायद उसकी आवाज़ से तंग आकर नीलोफर को एसटीडी बूथ खुलवा दिया। अब वह मयूरभंज रोड और डायमंड हार्बर रोड की क्रासिंग के पास फुटपाथ पर मज़े से कुर्सी पर बैठी दिन-रात पैसे गिनती। देर रात तक घर आकर दस बजे खाना चढ़ाती। अस्पतालों के इलाक़े में एसटीडी बूथ उन दिनों खूब चलता। मरीज़ों के रिश्तेदार लाइन लगाये रहते। नीलोफर का रंग धूप में तपकर कलासा हो चला। “लगता है रात को ग्रीज़ से कोयला हुए पति का रंग नीलोफर पर भी चढ़ रहा है,” बोस के मज़ाक पर दीबा को गुस्सा आता। “तुम्हें क्या तकलीफ़ है? वह तो सुखी है ना!” तभी नीलोफर को टाइफाइड हुआ। तीन महीने बुखार न उतरा। वह बेहद कमज़ोर हो गई। अम्मी के पास आकर रहने लगी। मैकेनिक ने मौक़ा देखकर एक लड़की को बूथ में नौकरी पर रख लिया। आज वही उसके तीन लड़कों की माँ है।
सुख क्या है? कितने दिन रहता है? नीलोफर के जीवन में शायद बूथ पर बैठकर पैसे गिनने के दिन जीवन के सबसे सुहाने दिन थे। वह तमाम दुनिया-जहान की बातें सुनती। कहती, “जो बंदा पैसे खर्च करके एसटीडी कॉल करता है, वह अपनी बात पूरा दम लगाकर कहता है। आवाज़ दूसरी तरफ़ पहुँचनी चाहिए कि नहीं?” सबकी बातें सुनने के लिए नीलोफर ने बूथ के दरवाज़े पर लकड़ी का एक टुकड़ा ऐसे लगा लिया था कि दरवाज़ा पूरी तरह बंद नहीं होता था। इश्क़ में पड़े लड़के-लड़कियों के किस्से वह चटखारे लेकर तेज आवाज़ में सुनाती। वैसे वह नाम किसी का नहीं बताती थी, “मैं भला किसी की बदनामी क्यों करूं? मेरा तो बिज़नेस उनसे ही चलता है।” अब जाकर उसे इश्क़ की हकीकत समझ में आ गई थी। इश्क़ के मारे किसी लड़के या लड़की का कोई किस्सा सुनाकर अपना ज्ञान बघारती, “एक जुनून है जो आदमी या औरत पर ऐसे तारी होता है कि वह अपनी दुनिया को आग लगाने पर तुल जाता है। वह अंधा ही नहीं, गधा भी बन जाता है। एक का जुनून उतर जाता है तो दूसरा बिना पानी की मछली की तरह तड़पता है। बस, कहानी इतनी ही होती है इश्क़ की।”
नीलोफर की बड़ी-बड़ी बातें सुन सबको हैरत होती। इतनी बातें बनाना वह पहले तो नहीं जानती थी। पढ़ने में भी कोई तेज नहीं थी। पढ़ाई से जी चुराने के लिए अम्मी की मार सबसे ज़्यादा उसी ने खाई थी। नीलोफर के पास दूसरी कहानियाँ सामने के फुटपाथ के किसी अस्पताल में दाखिल बीमारों के घरवालों की होतीं। परिवार के लोग अपने बीमार अज़ीज़ को बचाने के लिए अपने को नीलाम करने पर उतर जाते हैं। ‘बेच दो। बेच दो ज़मीन। किसी तरह रुपए जुगाड़ कर भेजो। न बिके तो ऊँचे सूद पर लो। तुम्हारी माँ को बचाने के लिए मैं सब कुछ बेच दूँगा। हाँ हाँ। तुम मुझे मत सिखाओ । मरना-जीना ऊपरवाले के हाथ में है। मैं नहीं जानता क्या?” नीलोफर सुने हुए पूरे के पूरे डायलॉग आवाज़ के उतार-चढ़ाव की एक्टिंग के साथ सुनाती। सभी जानते हैं कि इधर के सारे बड़े-बड़े अस्पतालों—कोठारी हॉस्पिटल, बी एम बिरला हॉस्पिटल, कलकत्ता हॉस्पिटल में इलाज बहुत महंगा है। “आदमियत का इम्तिहान लेते हैं ये अस्पताल,” नीलोफर आँखें घुमाकर बड़ी-बड़ी बातें बनाती, “पैसे बचायें कि आदमी? यही जंग है।”
बूथ छूटा, मैकेनिक छूटा। मैकेनिक अपनी दुकान उठकर चंपत हो गया। उसकी किराए की जगह को नीलोफर ने छोड़ा नहीं था। जो सामान वह छोड़ गया था, उसे कबाड़ी को बेच डाला। उस जगह को खाली करने के उसे साढ़े तीन लाख मिले। बस्ती की जगह को खरीदकर कोई प्रोमोटर मकान बनानेवाला था। नीलोफर बिनब्याही निज्जत के लिए अब्बा द्वारा खरीदी हुई दुकान में सुबह-शाम बैठने लगी और छत पर दूसरी बहन फरजाना के बगल में भाड़े के कमरे में चली आई। उसको वापस सब कुछ सुनने लगा और वह धीमी आवाज़ में बात करने लगी। पर अब वह मुंह सील कर रहती। उसके पास कहने को अब कोई कहानियाँ नहीं थीं। उसके अंदर क्या कुछ चलता था, कोई नहीं जान सकता था। यों वह दुखी नहीं दिखती थी। बस चुप रहती। सुबह चार बजे उठकर पाँच बजे दुकान खोल लेती।
इसी क्रम में साल दर साल दसियों बरस बीतते गए। एसटीडी बूथ का ज़माना गया। मोबाइल का ज़माना आया और बरसों से बंद पड़े ठहरे हुए पानी में लहरें जगा गया। जैसे-जैसे मोबाइल चलाना सस्ता होता गया, वैसे-वैसे नीलोफर का फ़िल्म और सीरियल देखने का वक़्त बढ़ता गया। उसके चेहरे का सूनापन कम हुआ। उसके पास अब फिर कहानियाँ थीं, जो उसके बंधे-बँधाए मामूली जीवन में रंग-बिरंगी दुनियाँ को ले आती थीं। किसी के पूछने पर, कि क्या देखती रहती हो पूरे वक़्त, फ़िल्म या सीरियल की कहानी भी पूरी तफ़सील से आँखों को घुमा-घुमाकर बता देती। कभी अंदर ही अंदर चलती किसी बात पर मुस्करा लेती। अब वह बिनब्याही बहन निज्जत और विधवा बहन मुसर्रत और उसके बच्चों का ख्याल रखने लगी। उन पर अपने पैसे भी खर्च करती।
असद जीजा का शादी करने का मन है, यह बात नीलोफर के मुंह से सुन दीबा मन-ही-मन हँसी। इच्छा तो हुई कि पूछे, क्या उसने मस्जिद के लाउडस्पीकर से किया गया ऐसा ऐलान सुना है? ऊपर से गंभीर दिखते हुए उसने कहा, “मेरी पूछो तो तुम्हें भी अपने और उसके रिश्ते के बारे में सोचना चाहिए। अब्बा-अम्मी तो अब हैं नहीं, जो तुम्हें समझायें। तुम कहो तो मैं उनका मन टटोलूँ कि उन्हें तुम जँचती हो क्या! आख़िर उनके बड़े-बड़े दो लड़के हैं। जीजा दोबारा निकाह करेंगे तो बहुत सोच-समझकर ही करेंगे। पर पहले तुम अपना मन पक्का करो, तो मैं उधर देखूँ।” नीलोफर के चेहरे पर मुस्कान की हल्की सी रेखा दौड़ गई। “ठीक है,” वह बोली “उनके मन में क्या है, पता करो।” दीबा ने कहा, “मैं उन्हें कहूँगी कि मेरे ही मन में यह खयाल आया है। अगर उन्हें जँचता होगा तो ही कहूँगी कि मैं तुम्हारा मन टटोलूँगी।” नीलोफर की मुस्कान बढ़ गई, “दीबा, अम्मी ठीक कहती थी कि हम सबमें तुम सबसे होशियार हो। लेकिन तुम जनाब असद को एक बात साफ़ बता देना कि मुझे खाना बनाना नहीं आता। बस किसी तरह पेट भरने लायक़ रोटी-खिचड़ी-सब्जी बना लेती हूँ। तुम्हारी तरह चिकन बिरयानी, आलू-सोयाबीन, फिरनी, दही-बड़ा, प्रॉन कटलेट मुझसे न बनेगा।” कहते-सुनते दोनों के मुंह में पानी भर आया। दोनों ने उसे गटक लिया और बचपन की तरह एक साथ एक-दूसरे पर हँस पड़ीं।
दीबा ने नीलोफर की दुकान से निकलते ही बेटे रेहान को फ़ोन किया और उससे पूछकर बर्गर-पेस्ट्री ख़रीद लिये। रेहान ने खाते हुए पूछा, “आज किस ख़ुशी में पैसे उड़ाए जा रहे हैं?” दीबा ने कहा, “नीलोफर की असद जीजा से बात चल रही है। देखें क्या होता है? खाने-पीने की बात चल पड़ी तो मुँह में पानी आ गया था।” रेहान ने हँसकर कहा, “तुम भी अब्बू की तरह किसी का निकाह करवाकर एक हज का सबाब लेने की फिराक में हो क्या? वैसे मुझे नहीं लगता कि नीलोफर आंटी दोबारा शादी करेगी।” दीबा को बुरा लगा कि रेहान बिल्ली की तरह पहले ही रास्ता काट रहा है।
सोचा था कि असद जीजा से मिलने जाएगी तो चार लोगों के लिए एक डिब्बा चिकन बिरयानी ले जाएगी। बिरयानी बनेगी तो ज़ाहिर है कि बोस कहेगा कि बगल में भाईजान के परिवार के लिए भी भेजना। बासमती चावल सौ रुपया किलो है। साढ़े सात सौ ग्राम चावल, पचास ग्राम ‘झरना’ घी स्वाद के लिए, तेल, चिकन, बिरयानी का मसाला— कुल मिलाकर पाँच सौ रुपये से कम ख़र्च नहीं बैठेगा। उसके हाथ की बिरयानी सबको बहुत पसंद है। पर मोर नाचे तो नाचे कैसे, अपने पैरों को देखकर रो पड़ता है।
दीबा असद जीजा से मिलने गई तो बिरयानी की जगह आलू-पालक के चॉप बनाकर ले गई। कहा, “आज रेहान की फ़रमाइश पर बनाये थे। सोचा कि आपसे मिलने आयी हूँ तो बच्चों के लिए ले चलूँ।” जीजा नीलोफर से ब्याह करने के प्रस्ताव को सुनकर चकित रह गया। बिना बच्चेवाली, उससे दस साल कम उम्र की औरत उसे मिल जाएगी, उसने सोचा न था, “दीबा आपा, आप नीलोफर से पूछ लीजिए। इस उम्र में शादी करूँगा तो लोग बहुत बात बनायेंगे। आप तो जानती हैं, मैं सरकारी बस चलाता हूँ। मुझे कुछ होने से मेरी बीवी को ही पेंशन मिलेगी, मेरे बच्चों को नहीं। मेरी पेंशन से एक बेसहारा औरत का गुजारा हो जाएगा। उसमें से कुछ मेरे बच्चों को देगी तो वे भी उसे देखेंगे। यही सोचकर ब्याह करना चाहता हूँ।” दीबा ने अचरज से उसे देखा। कहीं से बीमार तो नहीं लगता। इसे कैंसर हुआ है क्या, “अल्लाह खैर करे। आप सौ बरस जियें। तबीयत तो दुरुस्त है ना?”
बंदा हट्टा-कट्टा है। रात को अकेला नहीं सो सकता। इसलिए बीवी चाहिए। किसी बेसहारा औरत को सहारा देने की बात बना रहा है। दीबा इसे अच्छे से जानती है। सोचता होगा कि इसकी मरी हुई बीवी ने इसका राज़ छुपाकर रखा होगा। “मेरा तो रोज़ रात को रेप होता है दीबा,” इसकी बीवी ने छोटे भाई राजू की शादी के वक़्त एक रात संग में सोते हुए बताया था, “मेरा मन हो न हो, तुम्हारा जीजा मुझे छोड़ता नहीं। कितने हमल गिराये मैंने, मेरा शरीर बर्बाद हो गया है। बच्चेदानी बाहर निकल आती है, पर यह छोड़ता नहीं।” याद करके दीबा का दिल दहल गया। कहीं नीलोफर को वह कोई मुसीबत में तो नहीं डाल रही?
अगले ही दिन सुबह-सुबह दीबा का फ़ोन बजा। असद था। “दीबा आपा, आप नीलोफर से कहिए कि मेरा दोस्त, उसकी बीवी और मैं परसों वहां आयेंगे। देखिए, मिलने के बाद कोई किंतु-परंतु न करे। बेमतलब मेरी बदनामी हो जाएगी।” दीबा ने कुछ घबराहट के बावजूद अल्लाह की मर्ज़ी समझ बात तय कर दी। असद आया और नीलोफर से मिलकर चला गया।
“दीबा, मैं शादी कर लूंगी तो मुसर्रत और उसके बच्चों को कौन देखेगा? तुम बोलो दीबा, मैं उनके साथ ऐसा कैसे कर सकती हूँ? उनको तो मेरा ही सहारा है। जब से असद से मिली हूँ, तबसे पूरी रात सो नहीं पाई हूँ। यही सोच-सोच कर मेरी जान सूखती है कि मेरे जाने के बाद इनलोगों को कौन देखेगा?”
“ठीक है, लेकिन यह बात तुम्हें पहले सोचनी चाहिए थी। तब मैं असद को पहले ही मना कर देती,” दीबा ने शिकायत करते हुए कहा, पर उसके दिल ने राहत महसूस की। जाने यह असद को झेल पाती या नहीं। तभी नीलोफर बोली, “जानती हो दीबा, मैं जब एसटीडी बूथ पर बैठती थी न, मुझे दुनिया की बहुत सी बातों का पता चल जाता था। तुम सोच भी नहीं सकोगी, ऐसी-ऐसी बातें मुझे सुनने मिलती थीं।”
दीबा को तुरंत असद की मरी हुई बीवी की बतलाई हुई बात याद आई। क्या नीलोफर भी जानती थी वह बात? जान भी सकती है। आख़िर ऐसी बातें एक मुँह से सौ मुँह तक फैलती जाती हैं। सब सोचते हैं कि सिर्फ़ कहने और सुननेवाले, दो जन को ही मालूम है। पर वह बात सबको मालूम होती है। दीबा बिना कुछ पूछे नीलोफर की तरफ़ देखती रही। “दीबा, उन दिनों एक गुजराती औरत बूथ पर रोज़ आकर इंटरनेशनल कॉल कर फ़ोन पर खूब रोती। उसका पति कहीं विदेश गया हुआ था और उसकी लड़की सामने के फुटपाथ वाले कलकत्ता हॉस्पिटल में भर्ती थी। दो दिन पहले उसने एक पंजाबी से लव करके शादी कर ली थी। उसके माँ-बाप इस शादी के ख़िलाफ़ थे, इसलिए उसने भागकर शादी की थी। उसका बाप विदेश में किसी ज़रूरी काम में ऐसे फँसा था कि चार दिन से पहले लौट नहीं सकता था।” दीबा को झुंझलाहट होने लगी थी, “तो? शादी के बाद एक्सीडेंट हो गया था क्या?” नीलोफर का चेहरा अजीब-सा हो गया जैसे वह रोनेवाली हो, “नहीं नहीं। उसके पति ने शराब पीकर सुहागरात को सारी रात उसके साथ इस तरह रेप किया कि उसके ख़ून के नाले बह गए। अस्पताल में भर्ती करके डॉक्टर ने उसके भीतर न जाने कितने टाँके लगाए, तब जाकर ख़ून रुका। माँ बेचारी इतना रोती थी कि क्या कहूँ। मैंने एकाध बार स्टूल पर बाहर बैठाकर उसे चाय भी पिलाई। कहती, मेरी बेटी कितनी सुंदर कितनी कोमल है, तुम्हें क्या बताऊँ। कैसे इस राक्षस के पल्ले पड़ गई।”
दीबा सिहर गई। उसके रोयें खड़े हो गए थे। शादीशुदा औरतों को ऐसे नरक से गुज़रना पड़ता है तो वेश्याओं की क्या हालत होती होगी। शायद नीलोफर उसे बताना चाह रही थी कि उसने असद को क्यों मना किया। वह ऐसी किसी दुर्गति की कल्पना से ख़ौफ़ खा गई थी। मुसर्रत और उसके बच्चों को सँभालने की बात तो एक बहाना थी। पर जिस दिन असद की दूसरी शादी थी, उस दिन नीलोफर को उसने बहुत उदास देखा। वह बार-बार चिप्स के पैकेट की धूल झाड़ती और उन्हें वापस टांग देती। फिर से दुल्हन बनने की कल्पना ने उसे अपने बेरंग जीवन से बाहर निकल आने का सपना दिया था। लेकिन अपने शरीर को बिना इच्छा के हर रात रौंदे जाने की दूसरी कल्पना ने उसे वहीं लौटा दिया था, जहाँ चिप्स, बिस्कुट और दुकान के अंतिम सिरे पर रखे काँच के फ्रिज से झांकते हुए कोल्ड ड्रिंक्स ही उसके साथी थे। “इधर तुमने कौन सी फ़िल्म या सीरियल देखा?” दीबा ने उसका मन बहलाने के लिए पूछा। नीलोफर के चेहरे की रंगत तुरंत बदल गई।
“अरे आसिफ़ शेख ने इस बार ‘भाभीजी घर पर हैं’ में कितना हँसाया, जानती हो,” नीलोफर उत्साह के साथ बताने लगी, “वह विभूतिनारायण मिश्रा का रोल कर रहा है ना! नल्ला कहते हैं सब उसे। बेरोजगार है बेचारा। अपने पड़ोसी तिवारी की बीवी अंगूरी को रिझाने के लिए वह प्लम्बर का काम करने उसके यहाँ पहुँच जाता है। उसके बाथरूम में नहाने की जगह से पानी निकल नहीं रहा है। वह बेवक़ूफ़ नाला साफ़ करने के बजाय सारे नल खोल देता है और उसे कुछ वापस लगाना आता नहीं है। ‘सही पकड़े हैं’ अंगूरी कहती है तो हँस-हँसकर मेरा पेट दुखने लगा।” दीबा नीलोफ़र का मुँह देखती रही। आसिफ़ शेख उर्फ़ मिश्रा शायद उसका पसंदीदा एक्टर है। असली जीवन जैसा है, उससे एक बेहतर जीवन टीवी में चलता है। अपने को भूल जाओ। किसी की बेवक़ूफ़ियों पर हँस लो। क्या बुरा सौदा है? यह अलग बात है कि दीबा का ऐसी कहानियों में मन नहीं लगता। घर में पानी-बिजली न आए या नाला जाम हो जाए, तो असली जीवन में बची-खुशी हँसी भी गायब हो जाती है।
रेहान का फ़ोन बजा, “मम्मी कहाँ हो?” दीबा ने नीलोफर को देखते हुए हँसकर कहा, “बाज़ार से इन 800 रुपया किलो की भेकटी मछली ख़रीद रही हूँ।” फ़ोन रखते ही नीलोफर ने चकित होकर उससे पूछा, “तुमने रेहान से झूठ क्यों बोला?” दीबा ने कहा, “ऐसे ही। मज़ाक में।” नीलोफर के चेहरे पर एक फीकी मुस्कान आई, “जानती हो, सब सीरियल में औरतें किसी न किसी को ऐसे ही झूठ बोलती रहती हैं!”
“नहीं मैं झूठ नहीं बोल रही थी। अभी मैं सचमुच भेकटी मछली खरीदूँगी,” दीबा को सीरियल की औरतों से उसका मेल कराना बुरा लगा, “असल में रेहान के बाएं घुटने के कोने में दर्द है।उसका यूरिक एसिड ज़्यादा है। कहता है, टमाटर और भिंडी नहीं खाऊँगा और बीफ़ तो बिल्कुल नहीं। उसकी बात सुन बोस बिगड़ गया, ‘हम बीफ़ कब खाते हैं?’ जानती हो नीलोफर, हम ईद पर भी बीफ नहीं बनाते। रेहान के स्कूल के दोस्त आते हैं न ईद मुबारक करने!”
नीलोफर अनमनी सी हो उठी। जैसे सोच रही हो कि कुछ बोले या न बोले। फिर बूथ के दिनों की तरह ज्ञान बघारते हुए कहा, “बोस भाई बीफ़ के नाम से एक हिंदू की तरह बिदक जाते होंगे ना। आख़िर इंसान ख़ुद को कितना बदल सकता है?” दीबा चुप रही। इस बात को आगे बढ़ाने का कोई मतलब नहीं। उसने बात बदलकर कहा, “आज मछली के साथ गुजराती स्टाइल में बैंगन का भर्ता बनाऊँगी। इंदौर में सीखा था। वैसे आजकल तो यूट्यूब चलाकर कुछ भी सीख लो और बना लो।”
नीलोफर भी बेकार के सीरियल देखते रहने के बजाय मोबाइल से खाना बनाना सीख सकती थी। अक्ल की तो कोई कमी नहीं उसमें। मयूरभंज के दुर्गा मंदिर के बगल में बड़ा मॉल बन रहा है। उसके ठीक बाहर अपनी दुकान में बैठी नीलोफर इंडक्शन पर दो केतली चाय बनाकर बड़ी थर्मस में रख लेती है। “शाम पाँच बजे की शिफ़्ट ख़त्म होने पर मॉल वाले मज़दूर एक साथ झुंड बनाकर चाय पीने आएंगे न! पहले से बनी हुई चाय होगी तो ही सबको दे सकूँगी,” कमाई बढ़ने से खुश दिखती हुई कहती है। जाने क्यों घबड़ा गई ज़िंदगी को बदलने में। ऐसा भी क्या कर लेता पचपन साल का असद उसके साथ? अब मोबाइल पर फ़िल्मों और सीरियल में हीरो -हीरोइनों को कहानियों की नक़ली ज़िंदगी जीते हुए देखकर अपनी ज़िंदगी काटेगी। देखती रहेगी, ‘ये रिश्ता क्या कहलाता है’। देखती रहेगी ‘कुंडली भाग्य’। देखती रहेगी सीरियल की औरतों को ‘ऐसे ही’ किसी न किसी को झूठ बोलते हुए।
लेखक का परिचय-
नाम: अलका सरावगी
जन्म: 1960 कलकत्ता।
हिंदी में कलकत्ता विश्वविद्यालय से पीएच डी रघुवीर सहाय पर।
पहली कहानी ’आपकी हँसी’ छपी 1991 के वर्तमान साहित्य के महाविशेषांक में।
दो कहानी संग्रह: कहानी की तलाश में (1996), दूसरी कहानी (2000)। अंग्रेज़ी (पेंगुइन), बांग्ला में अनूदित।
उपन्यास:
1.पहले उपन्यास ‘कलिकथा वाया बाइपास’(1998) पर साहित्य अकादमी पुरस्कार (2001)। अनेक भारतीय भाषाओं उर्दू, मराठी, कोंकणी, गुजराती, मलयालम, उड़िया, बांग्ला, अंग्रेज़ी आदि भाषाओं के अलावा इटालियन, फ़्रेंच, जर्मन , स्पैनिश भाषाओं में अनूदित।
2. शेष कादंबरी(2001)। केके बिरला फ़ाउंडेशन का बिहारी सम्मान। बांग्ला, अंग्रेज़ी के अलावा इटालियन में अनूदित.
3. कोई बात नहीं (2004)
4. एक ब्रेक के बाद (2008)- इटालियन, कन्नड़ और मलयालम में अनूदित।
5. जानकीदास तेजपाल मैन्शन(2014)। अंतरराष्ट्रीय इंदु शर्मा कथा पुरस्कार।
6. एक सच्ची झूठी गाथा(2018)
7. कुलभूषण का नाम दर्ज कीजिए(2020, वाणी प्रकाशन) कलिंगा लिटफ़ेस्ट का ‘बुक ऑफ़ द ईयर अवार्ड’(2021), वैली ऑफ़ वर्ड्ज़, देहरादून का अवार्ड (2021). बांग्ला में अनूदित। फ़्रेंच और अंग्रेज़ी में अनुवाद कार्य जारी। जर्मन में प्रकाशित (2024)
8. गांधी और सरलादेवी: बारह अध्याय( 2023 , वाणी प्रकाशन)। (प्रेमचंद स्मृति कथा सम्मान 2024)अंग्रेज़ी, पंजाबी, मराठी, कन्नड़, बांग्ला, मलयालम में अनुवाद जारी।
—तेरह हलफ़नामे: विभिन्न भारतीय भाषाओं की लेखिकाओं द्वारा रचित कहानियों का अनुवाद (2022, वाणी प्रकाशन)
वेनिस विश्वविद्यालय में एक कोर्स का अध्यापन। भारत एवं विश्व के अनेक विश्वविद्यालयों में ‘कलिकथा वाया बाइपास’ कोर्स में शामिल। फ़्रान्स, जर्मनी, इटली, ब्रिटेन, नॉर्वे, मॉरिशस में अनेक बार पुस्तक मेलों और साहित्यिक सेमिनार में भारत का प्रतिनिधित्व। इटली की सरकार द्वारा ‘ऑर्डर ऑफ़ द स्टार ऑफ़ इटली- कैवेलियर’ का सम्मान। दयावती देवी मोदी स्त्री-शक्ति सम्मान (2022)। फ़क़ीरमोहन सेनापति सम्मान (2023)।