यूँ तो अँग्रेज़ों को भारतीय पूँजी का लुटेरा ही कहा जाता है लेकिन अँग्रेज़ों की भारत को दी गई सौगातों में से एक है रेलवे। दुर्गम से दुर्गम रास्तों पर पहाड़ों के सीने चीरकर बिछाई पटरियों पर धड़कन सी दौड़ती रेल का श्रेय हमें अँग्रेज़ी अफसरों को देना ही चाहिए। साथ ही इन पहाड़ों के रास्ते बताने वाले स्थानीय निवासियों और हाड-तोड़ मज़दूरी कर रेल नेटवर्क बिछाने वाले भारतीय भी शाबाशी के उतने ही हकदार रहे हैं। ऐसा ही एक धरोहरनुमा रेलवे मार्ग रहा है 'कालका शिमला रेल मार्ग', जिसे यूनेस्को ने विश्व धरोहर की सूची में भी शामिल किया है। 

स्थापत्य और अभियांत्रिकी का अद्भुत नमूना

तकरीबन 96 किलोमीटर लम्बा कालका शिमला रेल मार्ग, जिसे टॉय ट्रेन के नाम से भी जाना जाता है, एक ऐतिहासिक रेलवे मार्ग है जो 1903 में बनकर तैयार हुआ और ब्रिटिश भारत की ग्रीष्मकालीन राजधानी शिमला को बाकी भारतीय रेल नेटवर्क से जोड़ने के लिए बनाया गया था। इस रेलमार्ग पर 103 सुरंगें, 869 छोटे-बड़े पुल और 919 घुमावदार मोड़ हैं। कालका-शिमला रेलवे एक नैरो-गेज रेलवे है जिसकी चौड़ाई 2 फीट 6 इंच (762 मिमी) है। इस संकरे ट्रैक पर छुक छुक दौड़ती टॉय ट्रेन कालका से शिमला तक का सफर तकरीबन साढ़े चार घँटे में पूरा करती है। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने भी 1921 में इस मार्ग से यात्रा की थी।

कालका-शिमला रेलवे लाइन पर बने पुल, विशेषकर मेहराबी गैलरी पुल, प्राचीन रोमन जलसेतुओं की स्थापत्य शैली से प्रेरित हैं, जिनमें गहरी खाइयों के ऊपर से ट्रैक को ले जाने के लिए स्तरित मेहराबें बनी हैं।

सुरंगों में गूँजती इतिहास की हूक

कालका शिमला रेल मार्ग पर बसा बड़ोग स्टेशन, कालका से 41 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है, और यहीं वह सुरंग है जिसका नाम ब्रिटिश इंजीनियर कर्नल बड़ोग के नाम पर रखा गया है। 20वीं सदी में निर्मित यह 1143 मीटर लंबी बड़ोग सुरंग "भूतिया जगह" के रूप में जानी जाती है और यह दुनिया की सबसे सीधी सुरंग है, जिसे पार करने में ट्रेन को लगभग ढाई मिनट लगते हैं।

इस सुरंग के निर्माण का कार्य ब्रिटिश अभ्यंता कर्नल बड़ोग को सौंपा गया था। उन्होंने पहले पहाड़ का निरीक्षण किया और दोनों छोरों पर निशान लगाए और मजदूरों को दोनों छोरों से खुदाई करने का आदेश दिया। उनकी योजना थी कि दोनों सुरंगें खुदाई करते-करते बीच में मिल जाएंगी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। कर्नल बड़ोग की इस गलती से ब्रिटिश सरकार नाराज हुई और उन पर पैसे की बर्बादी के लिए 1 रुपये का जुर्माना लगाया गया। इस घटना से कर्नल बड़ोग इतने परेशान हुए कि उन्होंने एक दिन अपने कुत्ते के साथ सुरंग के पास ही खुद को गोली मार ली।

कर्नल बड़ोग की मृत्यु के बाद सन 1900 में एक और ब्रिटिश अभियंता एचएस हर्लिंगटन ने सुरंग का काम फिर से शुरू किया और 1903 में इसे पूरा किया। एक प्रचलित कहानी के अनुसार, एचएस हर्लिंगटन भी इस सुरंग का काम पूरा नहीं कर पा रहे थे। अंततः, चायल के एक स्थानीय, बाबा भलकू ने इस काम को पूरा करने में अँग्रेजों की मदद की। शिमला गैजेट के अनुसार, बाबा भलकू ने इस लाइन पर कई अन्य सुरंगों के निर्माण में भी ब्रिटिश सरकार की मदद की। 

औपनिवेशिक स्मृतिगार रहे रेलवे स्टेशन

कालका कस्बे का रेलवे स्टेशन रहा हो या हिमाचल प्रदेश की राजधानी शिमला का रेलवे स्टेशन, या फिर इसी रेल के रास्ते में आने वाले बड़ोग, तारा देवी, कैथलीघाट रेलवे स्टेशन; हर मुसाफिर को इन स्टेशनों पर एक वाक़फ़ियत महसूस होती है क्योंकि गॉथिक वास्तुकला के साथ-साथ महराबें, लाल ईंट वाली दीवारें और वेटिंग रूम में लगे जाली के दरवाजों जैसे अंश आज तक गुज़रे हुए ज़माने की यादगार की तरह मौजूद मिलते हैं। 

मस्ती में सीटी बजाता हुआ इंजन जब आकर प्लेटफार्म पर रुकता है तो स्टेशन के अंदर और बाहर एक रौनक सी आ जाती है। सुनसान सुबहों को स्टेशन पर गूँजती इंजन की सीटी और अनाउंसमेंट की तेज़ आवाज़ नींद में ऊँघते इन पहाड़ी गली-कस्बों तक को जगा आती है, वहीं पार्सल और डाक के दस्ते गाड़ी में चढ़ाने को मुस्तैद मज़दूर अपनी ऊर्जा से रेलवे स्टेशन को जीवंत बना देते हैं।

स्टेशन के पास ही बसाए हुए हैं लाल ईंट वाले डीबियानुमा रेलवे-क्वार्टर, जिनके धूप वाले आँगनों में सूखते कपड़े और कच्ची मिट्टी में लगे सदाबहार फूल, रेलवे के मैकेनिकल माहौल की एकरसता को तोड़ते हैं। रेलवे कॉलोनियों के पास ही अंग्रेज़ो ने बनाने शुरू किये थे गिरिजाघर और जिमखाना क्लब जिनमें आज भी रेलवे के आला अफसरों की शामें चाय-कॉफ़ी पीते हुए बीतती हैं। 

शाम ढलते हुए दूर किसी सुनसान फाटक पर रेल की राह देखते हुए लालटेन की लौ को कम-ज़्यादा करता है गेटमैन तो कहीं ट्रैक पर गिट्टी ठीक से बिछा कर हरा रूमाल दिखाते हुए रेल को आगे बढ़ने का सिग्नल देते हैं ख़लासी। पहिये वाले बैग आने से अब सवारियाँ अपना सामान खुद ढोने लगी हैं तो कुली को काम कम है, इसीलिए ये स्टेशन पर धूप सेंक कर ही दिन गुज़ार लेते हैं। 

प्लेटफार्म पर चाय बेचने वाला लड़का हर गुजरती ट्रेन के मुसाफिरों को देखकर हिलाता है हाथ और लगाता है आवाज़ें, वहीं चुस्त यूनिफार्म में प्लेटफार्म पर सीट-चार्ट से सवारियों का मिलान करता हुआ दिख जाता है टिकट चेकर या टी.टी. ई। टिन की छतों वाले रेलवे वर्कशॉप से निकलने वाले वर्कर-यूनियन के कामगार लिख जाते हैं कम्पाउंड वॉल पर हड़ताली नारे, जो नैरो-गेज पर सरकती अपनी ज़िंदगी को ब्रॉड-गेज पर धकेलने के लिए होती है एक इंकलाबी कोशिश। 

सफ़र जारी है

अपने अतीत और वर्तमान के साथ सामंजस्य बिठाती 'कालका-शिमला रेलवे' आज भी उतना ही नई लगती है, जितनी पुरानी है। इस संकरे पहाड़ी ढर्रे पर दौड़ती कालका-शिमला रेलवे के सामने महँगाई, निजीकरण, हादसों और खस्ताहाली जैसी रुकावटें तो आती-जाती रही हैं मगर अनथक चलते रहना ही रेलवे का सार है। विश्व धरोहर में शुमार कालका-शिमला रेलवे दुर्गम चढ़ाईयों पर चढ़ते उतरते हाँफती ज़रूर है मगर सैलानियों की ऊर्जा से आज भी मुसलसल सफ़र जारी रखे हुए है। 

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