पहाड़ों का भूगोल कुछ यूँ है कि एक तरफ बर्फ़ और बारिश की झड़ी लगी रहती है तो दूसरे सिरे पर सूखा पड़ रहा होता है। निरंतर विरोधाभासों का अचल उदाहरण होते हैं पहाड़ और हिमाचल प्रदेश भी इसी तरह मुख्यधारा की आँधी के सामने अपनी वैकल्पिक परम्परा को सदियों से संजोकर रखे हुए है।
हिंदी साहित्य के कद्दावर आलोचक नामवर सिंह ने साहित्य की जिस 'दूसरी परंपरा की खोज' का ज़िक्र किया था, वही क्रांतिकारी परंपरा, जो मुख्यधारा से अलग राह पर चलती है, हिमाचल प्रदेश की पहचान है। इतिहास और मिथकों से लेकर लोकसंस्कृति तक, हिमाचल प्रदेश ने अपना रुख अपनी स्थानीय समझ और हालात के अनुसार बनाया है और अपने विरोधाभासी आयाम को गर्व से अपनाया भी है।
इतिहास और मिथकों में दूसरी परम्परा की अगुआई
हिमाचल प्रदेश के सिर का ताज है किन्नौर और किन्नौर शब्द का उद्भव 'किन्नर' से हुआ। महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने अपनी किन्नौर यात्रा पर 'किन्नर देस में' नाम की एक विस्तृत किताब भी लिखी, जिसमें इस भूमि को देवलोक बताया गया है। हिंदू पौराणिक कथाओं में 'किन्नर' शब्द का तात्पर्य उन दिव्य प्राणियों से है जिन्हें आंशिक रूप से मानव और आंशिक रूप से पशु के रूप में दर्शाया जाता है। हालांकि यह गज़ब है कि जब इक्कीसवीं सदी में प्रगतिशील जन किन्नरों के समान अधिकारों के लिए आवाज़ उठा रहे हैं, वहाँ सुदूर हिमाचल में पौराणिक किन्नरों के देश को सामाजिक मान्यता भी मिली और इतिहास में माकूल जगह भी दी गयी।
हिमाचल में एक तरफ जहाँ पांडवों द्वारा बनवाये गए मसरूर के मन्दिर मिलते हैं वहीं कौरवों का प्रभाव भी यहाँ मौजूद है। कहा जाता है कि हिमाचल में बसने वाली खस जनजाति ने महाभारत युद्ध के समय कौरवों की तरफ से जंग में हिस्सा लिया था। एक मिथक यह भी है यह भी है कि राजा सुशर्मन, जो कि कटोच वंश के संस्थापक थे, उन्होंने भी कौरवों के पक्ष से जंग लड़ी। सही गलत के चश्मों को उतार जब हम हिमाचल का ऐतिहासिक पक्ष देखते हैं तो इस भूभाग के नैतिक विद्रोह के आगे नतमस्तक होते हैं।
पौराणिक संदर्भ और टटोलें तो हम पाएंगे कि हिमाचल प्रदेश की पार्वती घाटी में बसे गाँव मलाणा को दुनिया का सबसे पुराना गणतंत्र भी कहा जाता है। यहाँ के मूलनिवासी खुद को राजा सिकंदर के यूनानी सैनिकों का वंशज मानते हैं, जिन्होंने त्रिगर्त राज्य के राजा पुरु के खिलाफ जंग लड़ी थी। मलाणा के वासियों की भाषा को अलौकिक माना जाता है जिसे वे अपने अलावा किसी को नहीं सिखाते। मलाणा की दूसरी परंपरा कुछ यूँ है कि मलाणा गांव में मुग़ल बादशाह अकबर को पूजा जाता है। गांव में अकबर के नाम का मंदिर भी बना हुआ है, जिसमें उनकी सोने की मूर्ति भी रखी हुई है। गांव में साल में एक बार अकबर की पूजा होती है, जिसे बाहरी लोगों को देखने की इजाज़त नहीं होती है।
हिमाचल प्रदेश के मंदिरों का स्थापत्य ओड़िसा और बंगाल के मंदिरों से मेल खाता है और इसकी वजह है हिमाचल का बंगाल के साथ जुड़ा अनसुना संबंध। कई बंगाली राजा हिमाचल आकर बसे, जिनके वंशज आज भी आपको सेन, पाल और बर्मन उपनाम लगाते मिल जाएंगे। इन बंगाली मूल के राजाओं ने कालिपूजा के लिए हिमाचल में कई मंदिरों की स्थापना भी की, जहाँ आज भी बंगाल की तरह ही लुचि पूरी और दम आलू का भोग चढ़ता है।
लीक से परे लोकपर्व
कांगड़ा ज़िले में स्थित मशहूर शिव मन्दिर बैजनाथ अपनी अनोखी वास्तुकला के लिए तो जाना ही जाता है लेकिन बैजनाथ गाँव में यह मान्यता भी है कि शिवभक्त रहे रावण का पुतला दहन करने से भगवान शिव कुपित हो सकते हैं इसीलिए इस गाँव में दशहरा नहीं मनाया जाता। मुख्यधारा से अलग चली यह परंपरा हिमाचल वासी आज तक बड़ी श्रद्धा से मानते हैं।
सिरमौर ज़िले के शिलाई और कुल्लू ज़िले के अणि क्षेत्रों में तो दीवाली नहीं, बल्कि 'बूढ़ी दीवाली' मनाई जाती है, जो कि दीवाली के ठीक एक माह बाद आती है। यहाँ के लोगों की मान्यता है कि राजा राम के वनवास से अयोध्या लौटने की खबर इन सुदूर इलाकों में एक महीने देर से पहुँची थी, जिस वजह से दीवाली देर से मनाई गई, और उसी परंपरा को यहाँ के वासी आज भी कायम रखे हुए हैं।
मनाली के जंगलों में हिडिंबा देवी का एक मन्दिर भी है, जहाँ आज भी हज़ारों की संख्या में श्रद्धालु आते हैं। पुराणों के अनुसार हिडिंबा राक्षस कुल से थी और पांडवों के अज्ञातवास के दौरान भीम ने हिडिंबा से विवाह भी किया था। सबसे अनोखी बात है कि जिसे दुनिया राक्षसी के रूप में जानती है, उसे कुल्लू घाटी में देवी की तरह पूजा जाता है जो यहाँ की विद्रोही वैकल्पिक परम्परा की ओर इशारा करता है।
विद्रोही विवाह परम्पराएँ
हिमाचल प्रदेश के कुछ विशिष्ट क्षेत्रों में, विशेषकर सिरमौर और किन्नौर जैसे इलाकों में, बहुपति विवाह की प्रथा ऐतिहासिक रूप से प्रचलित रही है। किन्नौर जिले में "द्रौपदी प्रथा" काफी चर्चित है, जहां एक महिला घर के सभी भाइयों से विवाह करती है। यह प्रथा सीमित कृषि भूमि और संसाधनों को विभाजित होने से बचाने के लिए अपनाई गई थी। लेकिन धीरे धीरे आधुनिक होते मुख्यधारा के समाज से यह बात अछूती रही है कि हिमाचल के दूरवर्ती इलाकों में वैकल्पिक विवाह प्रथाएं पहले से चली आ रही हैं।
हिमाचल प्रदेश की विवाह परंपरा में 'रीत विवाह' भी मिलते हैं जहाँ महिला पति को रीत के रूप में हर्जाना देकर किसी दूसरे व्यक्ति से विवाह कर सकती है। यहाँ 'बट्टा सट्टा' परंपरा भी मौजूद है जिसमें पति की बहन का विवाह पत्नी के भाई से किया जाता है ताकि परिवारों में सामंजस्य बना रहे। हिमाचल प्रदेश में "परैना विवाह" नामक एक गैर-पारंपरिक और गैर ब्राहमणवादी विवाह किया जाता है। इस विवाह में "सप्तपदी" जैसी पारंपरिक धार्मिक रस्में नहीं होती हैं।
विवाह संस्कारों की दृष्टि से हिमाचल प्रदेश ने अपने समय से आगे रहकर पाखंड और सामाजिक रूढ़ियों के विरुद्ध रिवायतें विकसित की हैं जिन्हें आज तक माना जा रहा है।
मुख्यधारा आख्यानों से अलग पहाड़ी पहचान
मुख्यधारा के अकादमिक आख्यानों से इतर हिमाचल के निवासियों की नस्ली और सामुदायिक पहचान काफी पेचीदा रही है। यहाँ बसे किन्नौरा जनसमूह में आपको नेगी राजपूत मिलेंगे जो बौद्ध हैं और संवैधानिक दृष्टि से जनजाति (ST) में गिने जाते हैं। यहाँ मौजूद घुमंतू जाति गद्दी है, जिनमें आपको राजपूत, ब्राह्मण और सीपी उपसमूह देखने को मिलेंगे। यहाँ हाटी समुदाय के ब्राह्मण आपको जनजाति (ST) और कई ब्राह्मण आपको पिछड़ी जाति (OBC) में शामिल मिलेंगे।
किंवदंतियों के अनुसार, प्राचीन काल में हिमाचल के कुछ राजपूतों में कन्या भ्रूण हत्या की प्रथा थी। लेकिन इनमें से कुछ राजपूतों ने नवजात बेटी को मारने की परंपरा का उल्लंघन किया था; इसलिए, उन्हें 'कन्या हित करने' या 'कुनीति' यानी सामाजिक रिवायत के खिलाफ जाने वाला मान दंडस्वरूप उनका उपनयन संस्कार बंद कर दिया गया। यही क्षत्रिय समूह आगे चलकर कनैत कहलाने लगा, जो हिमाचल प्रदेश का एक प्रमुख जनसमूह है।
इसी तरह सामाजिक पहचान के दृष्टिगत भी हिमाचल प्रदेश ने लीक से हटकर ही रास्ता चुना है और आज तक इसपर गतिमान है।
बागी विचार, मुख्यधारा से टकराव
पहाड़ का अस्तित्व अपने आप में ही एक विद्रोह है धरती की समतलता के विरुद्ध। जल, जंगल और ज़मीन से जुड़े पहाड़ के लोगों की रोज़मर्रा की ज़िन्दगी एक बगावत है मुश्किल मौसम, दुर्गम भूगोल और जर्जर रास्तों के खिलाफ। इसलिए लड़ना और जीवित रहना एक स्थाई भाव है पहाड़ की ज़िन्दगी का। जो भूभाग खुद विद्रोह की नुमाइंदगी करता हो, वहां बसने वालों का मुख्यधारा से विद्रोह भी प्राकृतिक है, इसीलिए ज़रूरी है की दर्ज किया जाये हिमाचल प्रदेश की दूसरी परंपरा को, जिसने इस बांके मुल्क को एक अलग पहचान दी है।