चंडीगढ़ शहर का खाका खींचने वाले वास्तुशिल्पी ली कार्बूज़िए को जितना श्रेय इस नए नवेले शहर की आधुनिकतावादी इमारतों के लिए दिया जाता है, उतना ही योगदान उनकी टीम में शामिल उनके चचेरे भाई पियर जॉनरे का भी रहा है इस नए शहर के लिए मेज़ कुर्सी आदि असबाब डिज़ाइन करने का। कार्बूज़िए ने चंडीगढ़ को ईंट और कंक्रीट का शरीर दिया तो जॉनरे ने शीशम और सागवान के फर्नीचर से सजाकर इस इमारती शरीर में प्राण भरे। यूं तो ज़्यादा बात चंडीगढ़ शहर की सड़कों और इमारतों की होती आई है लेकिन पिछले कुछ सालों में जॉनरे द्वारा डिज़ाइन की गई चंडीगढ़ कुर्सी (चंडीगढ़ चेयर) ने भी सुर्खियां बटोरी हैं अपने कबाड़ से धरोहर तक के लम्बे सफर के चलते।
सृजन और सजावट के बीच की सोच
चंडीगढ़ की खास डिज़ाइनर कुर्सी 'जॉनरे चेयर', जिसे 'चंडीगढ़ चेयर' भी कहते हैं, का नाम पियर जॉनरे के नाम पर रखा गया है, जो जाने-माने स्विस-फ्रेंच आर्किटेक्ट ली कार्बूज़िए के चचेरे भाई थे। इन कुर्सियों को सबसे पहले 1950 के दशक में भारत के पंजाब में स्थित शहर चंडीगढ़ के लिए बनाया गया। इस चंडीगढ़ चेयर और शहरी इमारतों के लिए बाकि आधुनिक फर्नीचर डिज़ाइन करने वाली टीम में पियर जॉनरे समेत और कई आर्किटेक्ट थे, जिनमें यूलि चौधरी भी शामिल थीं, जो उनकी टीम में एकमात्र भारतीय महिला वास्तुशिल्पी थीं।
यह कुर्सी 'जॉनरे चेयर', जिसे 'चंडीगढ़ चेयर' भी कहते हैं, एक साधारण लेकिन मजबूत कुर्सी रही है। यह टीक की लकड़ी के मजबूत फ्रेम से बनाई गई।और इसमें बुनी हुई बेंत की सीट और पीठ का आसन था। इसकी टाँगें (पैर) कंपास से प्रेरित थीं—जो कि एक आर्किटेक्ट का सबसे खास औजार होता है।
इस कुर्सी का डिज़ाइन दिखाता है कि साधारण दिखने वाली चीज़ें भी कितनी उपयोगी और कलात्मक हो सकती हैं। इस 'चंडीगढ़ चेयर' की बनावट में सजावटीपन के साथ उपयोगिता भी थी, जो एक अनूठी जुगलबंदी थी। फर्नीचर को लेकर एक एक महीन जानकारी पर ज़ोर देना और इसके डिज़ाइन को लेकर टीम का आपस में चर्चा करना इससे पहले आज़ाद भारत में नहीं हुआ था। इसकी बनावट कार्बूज़िए और उनकी टीम द्वारा अपनाए गए आधुनिकतावादी सिद्धांतों को दर्शाती है।
कंगारू चेयर, ऑफिस किंग चेयर, ऑफिस फ्लोटिंग बैक चेयर, ईज़ी चेयर प्रसिद्ध 'चंडीगढ़ चेयर' के ही अलग अलग रूप हैं, जो चंडीगढ़ शहर की सरकारी और निजी इमारतों में उपयोगिता के आधार पर रखी गईं।
मूल्यों और सिद्धांतों के मंथन से उपजी कृति
ली कार्बूज़िए की टीम में शामिल रहे वास्तुशिल्पी एम. एन. शर्मा ने बताया, "तब वहाँ (चंडीगढ़) कोई फर्नीचर की दुकान नहीं थी, न ही कालीन की दुकानें थीं, इसलिए चंडीगढ़ के लिए वास्तुशिल्पियों ने फर्नीचर खुद डिज़ाइन किया।" ये खास 'चंडीगढ़ चेयर' यानि कुर्सियाँ चंडीगढ़ के आसपास की वर्कशॉप में स्थानीय कच्चे माल से बनाई गईं और फिर शहर भर की इमारतों में सजाई गईं, जिससे कि आत्मनिर्भरता बढ़े और महंगा सामान आयात करने का आर्थिक बोझ भी कम रहे।
जॉनरे के अपने डिज़ाइन में भी ली कार्बूज़िए के 'मॉड्यूलर मैन' के आयामों का इस्तेमाल किया गया था, जो कि एक औसत फ्रांसीसी व्यक्ति की ऊंचाई (शुरुआत में 1.75 मीटर और बाद में 1.83 मीटर तक बढ़ाई गई) पर आधारित अनुपात था, जिसपर चंडीगढ़ में बनाए गए उनके सभी डिज़ाइन आधारित थे। लेकिन जॉनरे की टीम की सदस्य वास्तुशिल्पी यूली चौधरी ने इन अनुपातों पर सावधानीपूर्वक पुनर्विचार किया और छोटे, संभावित रूप से महिला कद के लिए अधिक उपयुक्त फर्नीचर बनाने के लिए नया पैमाना निकाला। इसी के चलते 'चंडीगढ़ चेयर' (कुर्सियाँ) अपनी सरल पतली बनावट, एर्गोनोमिक डिज़ाइन और मज़बूत रूप ले पाईं।
पियर जॉनरे यूँ भी कार्यालयों में लोकतांत्रिक व्यवस्था के समर्थक थे, इसलिए उन्होंने सचिवालय में सभी नौकरशाहों, शीर्ष स्तर के सचिव से लेकर अधीक्षक तक और क्लर्क से लेकर चपरासी तक सब को एक ही डिज़ाइन की कुर्सी देने का निर्णय लिया। कार्यालयों की इन कुर्सियों के रूप-स्वरूप में कोई भिन्नता या अंतर न होने के कारण अफसरशाही में व्याप्त छोट-बड़ाई के दुर्भाव भी कम करने की नीयत जगी।
चंडीगढ़ चेयर से जुड़ा एक आख्यान यह भी कहता है कि ऐसा कोई निर्णायक प्रमाण नहीं है कि चण्डीगढ़ फ़र्नीचर के डिज़ाइन का एकमुश्त श्रेय केवल पीयर जॉनरे को ही दिया जाए। कई विश्लेषकों और योजनाकारों का कहना है कि चंडीगढ़ चेयर समेत फर्नीचर के लिए अन्य वास्तुकारों, स्थानीय डिजाइनरों और मॉडल निर्माताओं के सामूहिक रचनात्मक श्रम की स्वीकारोक्ति आज तक नहीं की गई है।
कबाड़ से कला बनने की यात्रा
50 और 60 के दशक में चण्डीगढ़ की हर इमारत में दिखने वाली ये 'चंडीगढ़ चेयर' कुर्सियां 80 और 90 के दशक के आखिर में स्थानीय घरों, दफ़्तरों और अन्य शैक्षणिक संस्थानों की शोभा बढ़ाने के बजाय कबाड़ के ढेरों में मिलने लगीं। इसका मुख्य कारण अनदेखी और समय के साथ होने वाली घिसावट (wear and tear) थी, जिससे कुर्सियाँ ज़्यादा इस्तेमाल के लायक नहीं रहीं। जैसे-जैसे लोगों ने ज़्यादा समकालीन डिज़ाइनों की ओर रुख किया, शहर भर में बिखरी जॉनरे की कुर्सियाँ कबाड़ के ढेर में बदलती गईं; कहीं हाई कोर्ट की छत पर तो कहीं प्रशासनिक इमारतों की बालकनियों में जर्जर औंधे मुंह पड़ी ये कुर्सियां लावारिस होकर रह गईं।
90 के दशक में जब अंतरराष्ट्रीय डिजायनरों और आर्ट संरक्षकों की पारखी नज़र ने इन धरोहरनुमा कुर्सियों को ढूंढा तो चण्डीगढ़ के ही अधिकारियों ने इन जर्जर कुर्सियों समेत इस्तेमाल में आने वाली जॉनरे कुर्सियों को भी कबाड़ घोषित करवा दिया और अनुपयोगी घोषित इन फ़र्नीचर से भरे कंटेनरों को यूरोपीय खरीददारों को औने पौने दामों में बेच दिया। 21वीं सदी तक आते आते कई कुर्सियाँ स्थानीय नीलामी में भी कुछ रुपयों के लिए कबाड़ के रूप में बेची गईं।
चण्डीगढ़ चेयर को देश में तब तक सही पहचान नहीं मिली जब तक उन्हें अंतर्राष्ट्रीय गैलरियों और नीलामी घरों में करोड़ों में बेचा खरीदा नहीं गया। एंटीक डीलर और आर्ट गैलरी वाले न केवल चंडीगढ़ की इन लावारिस कुर्सियों पर नज़र बनाए हुए थे, बल्कि अंतर्राष्ट्रीय ग्राहकों के लिए उन्हें नया रूप देकर फिर से मार्केट में उतारने का मंसूबा भी बना चुके थे।
भारत से पहले भी गायब किए गए अन्य धरोहरों की तरह, इस चण्डीगढ़ चेयर को भी अंतरराष्ट्रीय पटल पर 'मूल्यवान' करार दिया गया और 'बाहरी' लोगों द्वारा 'बचाए' जाने की आवश्यकता इस बिनाह पर उचित ठहराई गई कि इनके स्थानीय मालिकों - यानी भारतीयों को इस विरासती फर्नीचर की कीमत की बहुत कम समझ थी, और इसलिए इनकी देखभाल करने के लिए यूरोपीय पक्ष द्वारा 'मदालखत अवश्यक' थी। भारत से अंग्रेजों द्वारा चुराए गए धरोहरों की ही तरह, इनकी बिक्री से मिले भारी मुनाफे का फायदा भी फर्नीचर के 'बचाने वालों' को मिला, न कि उन लोगों को जिनसे ये 'चण्डीगढ़ चेयर' मूल रूप से संबंधित थीं।
चूंकि भारत के निर्यात कानून केवल 100 साल से अधिक पुरानी वस्तुओं को ही पुरातन वस्तुओं (एंटीक) के रूप में मान्यता देते हैं, इसीलिए शहर का जॉनरे कृत फर्नीचर - जो 50 साल से भी कम समय पहले बनाया गया था- उसके हस्तांतरण पर कोई चिंता नहीं जताई गई।
चण्डीगढ़ प्रशासन आखिरकार 2011 में जागा और जॉनरे के फर्नीचर के निर्यात पर प्रतिबंध लगाने के लिए कानून लाया। अब, शहर की समृद्ध विरासत को संरक्षित करने के लिए, चण्डीगढ़ प्रशासन और फ्रांसीसी सरकार ने विदेशों में बेची गई विरासत की वस्तुओं का पता लगाने और उन्हें वापस लाने के उद्देश्य से एक संयुक्त कार्यसमूह बनाने का फैसला किया गया है।
गृह मंत्रालय द्वारा 2011 में चंडीगढ़ से इन वस्तुओं के निर्यात पर प्रतिबंध लगाए जाने के बावजूद, विदेशी नीलामी घर अभी भी चंडीगढ के विरासती फर्नीचर को नीलाम कर रहे हैं और भारी मुनाफा कमा रहे हैं। समय के साथ चण्डीगढ़ के इस विरासती फर्नीचर का रूप बदल गया है। एक समय में केवल ज़रूरत के लिए बनी कुर्सियों से बढ़कर अब ये 'चण्डीगढ़ चेयर' बेहद प्रतिष्ठित संग्रहणीय वस्तुएँ बन गई हैं। आजकल, ये बहुमूल्य कुर्सियां मशहूर हस्तियों के घरों की शोभा बढ़ा रही हैं, जिनमें कर्टनी कार्देशियन और सोनम कपूर का लंदन स्थित घर भी शामिल है।
इस चण्डीगढ़ चेयर नाम की कुर्सी के उतार-चढ़ाव भरे सफर ने हमारी व्यवस्थाओं का धरोहरों के प्रति उदासीन रुख भी बेपर्दा किया, साथ ही हमारी विरासत की असल कीमत का भी हमें एहसास करवाया है। जिसे धरोहर को मिट्टी समझकर हमने कभी फरोला नहीं, उसे सोने के मोल बिकते देख हम सिर्फ़ हाथ मल मलाल करते रह गए।
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