सिनेमा की आंख से दिखाई देने वाली दुनिया आभासी भी हो सकती है, हक़ीकी भी; इसी मायाजाल को बुनने का खेल है सिनेमा। सिनेमा आपको समय की यात्रा पर ले जा सकता है, सिनेमा आपको अपने आसपास की दुनिया नई रोशनी में दिखा सकता है, सिनेमा आपके लिए इतिहास में झांकने वाली खिड़कियां खोल सकता है इसीलिए यह जरूरी है कि सिनेमा के लेंस से हम अपने धरोहरों को मुड़कर देखें और उससे जुड़ीं बारीकियों को भी नजदीक से जानें।
हमारी भारतीय वास्तुकला के धरोहरों में किले और महल भी शामिल हैं, खंडहर भी; मंदिर मस्जिदें भी हैं और सराय भी; पुराने बंगले भी हैं और पुराने गली मोहल्ले भी। हर गली के दूसरे मोड़ पर इतिहास की निशानियों के तौर पर खड़े यह वास्तुकला धरोहर जब रुपहले पर्दे पर उतरते हैं, तब न सिर्फ किरदारों की पृष्ठभूमि बनते हैं बल्कि कहानियों के कालखंड का गवाह भी बनते हैं। इन धरोहरों के सिनेमाई अंगीकरण के चलते दर्शक अलग- अलग संस्कृतियों और परिवर्तनों से भी वाकिफ हो पाते हैं। फिल्मों में दिखाई देने के बाद इन धरोहरों की लोकप्रियता में उछाल भी आता है और सैलानियों के रेले उन्हीं जगहों पर तस्वीरें उतारते मिलने लगते हैं, जहां फिल्म के नायक नायिका की तस्वीरें होती हैं।
'परदेस' (1997) फिल्म के गीत से फतेहपुर सीकरी के साहन यूं मशहूर हुए कि अब यहां के गाइड सैलानियों के यह खास तौर पर बताते हैं कि फिल्म की शूट के समय फलां कोने की उस दीवार के आगे शाहरुख खान का दृश्य फिल्माया गया था। 'हैदर' (2014) फिल्म में मार्तंड सूर्य मंदिर के भग्नावशेष दिखाई जाने के बाद भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा संरक्षित इस ऐतिहासिक साइट पर सैलानियों ने ज्यादा संख्या में जाना शुरू किया।
रानी की वाव जैसे धरोहरों को 'ओके जानू' (2017) जैसी फिल्म की मार्फत और ख्याति मिली। 'डेथ इन द गंज' (2016) फिल्म में झारखंड के जिस एंग्लो इंडियन कस्बे मैक्लुस्कीगंज की पृष्ठभूमि दर्शाई गई है, उसके इतिहास और सामाजिकी के बारे में नई चेतना फिल्म की मार्फत ही आई। पंजाब के जालंधर के पास स्थित नूर महल की हवेली को शायद दुनिया भुलाए बैठी थी जब तक 'हाइवे' (2014) फिल्म के कुछ दृश्यों में इसकी झलक नहीं मिली थी।
इसी तरह पंजाब की दोराहा सराय भी जर्जर हालत में गुमनाम पड़ी थी जबतक यहां 'रंग दे बसंती' (2006) फिल्म के दृश्य नहीं फिल्माए गए थे, जिसके बाद यहां फ़ोटो खिंचवाने वाले पर्यटकों का तांता लग गया और इस सराय को सरकारी देखरेख भी मिली। फिल्म 'हम दिल दे चुके सनम' (1999) में भुज की जिन छतरियों और कच्छ के जिस विजय विलास महल की पृष्ठभूमि इस्तेमाल की गई है, इन जगहों को चाहे बाद में भूकंप ने लील लिया लेकिन इन धरोहरों को सिनेमा ने हमारी स्मृति में अमर कर दिया।
फिल्म 'देव डी' (2009) ने पहाड़गंज की जिस अंडरबेली को पर्दे पर दिखाया, शायद उसे आम लोग कभी खुद से नहीं खोज पाते। फिल्म 'धोबी घाट' (2010) मुंबई के मोहल्ले, सड़कें और धरोहर जिस तफसील से दिखाती है, उसे ढूंढने के लिए इस तेज रफ्तार शहर में किसी का रुकना मुमकिन नहीं होता। मध्य प्रदेश के चंदेरी की अनगढ़ सुंदरता जिस तरह फिल्म 'स्त्री' (2018) में दिखाई गई है, उससे सैलानियों का इस कस्बे के प्रति आकर्षण बढ़ा ही है। 'इशकज़ादे' (2012) फिल्म में बड़े इमामबाड़े में फिल्माए गए गीत की मार्फत नवाबी वास्तुकला शैली के प्रति दर्शकों की सजगता बढ़ी है।
'पीकू' (2015) फिल्म में चंपाकुंज हाउस और 'गुलाबो सिताबो' (2020) फिल्म में दिखाए गए फातिमा महल के माध्यम से पुरानी इमारतों को सहेजने का बड़ा सुंदर संदेश इन फिल्मों ने दर्शक को दिया है। फिल्म 'माया मेमसाब' (1993) के एक संवाद में दीपा साही कहती भी हैं, ''खंडहरों की यह खासियत होती है कि उन्हें संभालना नहीं पड़ता।'' इस फिल्म में भी शिमला कसौली की औपनिवेशी वास्तुकला का सुंदर चित्रांकन मिलता है, जिसे देखकर सैलानी हिमाचल के पहाड़ों की तरफ खिंचे चले आते हैं।
खंडहरों में फिल्माई गई फिल्मों में मृणाल सेन की फिल्में 'खंडहर' (1984) और 'अन्तरीन' (1993) भी शामिल हैं, जिसकी कहानियों और किरदारों के साथ इन इमारतों की भी कहानियां बड़ी तसल्ली से सिनेमा द्वारा कही गई हैं।
'खंडहर' का दृश्य
फिल्म 'अशोका' (2001) में मध्य प्रदेश और उड़ीसा के अनछुए धरोहरों को पर्दे पर उतरा गया जिसके बाद यहां नए सिरे से पर्यटकों का तांता लगना शुरू हुआ। चांदनी चौक के मोहल्लों और मोहसिन हाउस जैसी हवेलियों को भी दिल्ली 6 (2009) और 'द स्काई इज़ पिंक' (2019) जैसी फिल्मों ने लाइमलाइट में लाकर खड़ा कर दिया। 'फ़ना' (2006) फिल्म ने जहां कुतुब परिसर को नई ताजगी के साथ पर्दे पर उतारा वहीं अग्रसेन की बावली को 'पीके' (2014) फिल्म ने ख्याति दिलाई।
फिल्म 'आंधी' (1975) के एक गीत में संजीव कुमार श्रीनगर के परी महल में घूमते हुए नायिका से कहते हैं, ''ये जो फूलों की बेलें नजर आती हैं ना, ये दरअसल अरबी में आयतें लिखी हुई हैं। इन्हें दिन के वक़्त देखना, बिल्कुल साफ़ नज़र आती हैं।'' और ऐसे ही इस फिल्मी संवाद से यह जगह ऐसी मशहूर हुई कि आज भी सैलानी दिल को याद कर इस धरोहर की दीवारें बड़े ध्यान से तकते रहते हैं।
बिसरे हुए धरोहर सिनेमा की ऑक्सीजन पाकर फिर से जीवंत हो उठते हैं। कृत्रिम सेट बनाने में लगने वाली ऊर्जा और धन को बचाकर जब सिनेमा इन असल धरोहरों में कदम रखता है, तो रुपहले पर्दे पर कहानी अधिक विश्वसनीय और प्रभावशाली बन जाती है। आज हम सिनेमा के बायोस्कोप से शहरों और धरोहरों का इतिहास तलाश रहे हैं। धरोहरों की दीवारों पर छूटी सिनेमा की छाप को याद कर रहे हैं। वास्तुकला (धरोहरों) और सिनेमा जैसी दो कलाओं की इस की जुगलबंदी ने समय के साथ यह सिद्ध किया है कि सिनेमा धरोहरों को अमर बनाता है और उसे एक नया जीवन देता है, जबकि धरोहर फिल्मों को एक समृद्ध और अर्थपूर्ण पृष्ठभूमि प्रदान करते हैं, जिससे कला और इतिहास का एक अटूट गठजोड़ बनता है।