हालही में ईरान युद्ध जैसी परिस्थितियों के चलते सुर्खियों में आया है। दुनिया जैसे कबड्डी का मैदान बन गई है और सबने अपने अपने सियासी पाले चुन लिए हैं। शक्ति सन्तुलन के इस खेल में भारत चाहे कोई भी धड़ा चुने लेकिन इतिहास को मुड़कर देखने पर ईरान के साथ भारत के सभ्यताई सम्बन्ध स्पष्ट दिखाई देते हैं। आज भी व्यापारिक संबंध होने के साथ साथ ईरान और भारत को एक सदियों पुरानी सांस्कृतिक गर्भनाल भी बांधे हुए है। 

पुरातन प्रमाण 

सिंधु घाटी सभ्यता के समय से ईरान के साथ भारत के व्यापारिक और सांस्कृतिक संबंध रहे क्योंकि सिंधु घाटी सभ्यता के स्थलों पर फारसी (ईरानी) मुहरें और अन्य कलाकृतियाँ पाई गई हैं, जो व्यापार और सांस्कृतिक संपर्क का प्रमाण हैं। प्राचीन फारस में साइरस महान द्वारा स्थापित अकेमेनिड साम्राज्य ने गांधार, पंजाब और सिंध जैसे क्षेत्रों पर विजय प्राप्त करते हुए उत्तर-पश्चिमी भारतीय उपमहाद्वीप में अपना प्रभाव बढ़ाया। अरामी (एक अकेमेनिड प्रशासनिक भाषा) से ली गई खरोष्ठी लिपि का उत्तर-पश्चिम भारत में प्रचलन भी भारत और ईरान के संबंधों की तस्दीक करता है। 

पारसियों का पलायन 

पारसी एक ज़ोरोस्ट्रियन समुदाय है जो 7वीं शताब्दी में फारस पर अरब विजय के दौरान धार्मिक उत्पीड़न से बचने के लिए फारस (आधुनिक ईरान) से भारत में आकर बस गए थे। वे मुख्य रूप से गुजरात में बसे और अपनी विशिष्ट संस्कृति, भाषा (गुजराती) और भारतीय समाज में योगदान के लिए जाने जाते हैं। 17वीं सदी की शुरुआत में सूरत और अन्य जगहों पर ब्रिटिश व्यापारिक चौकियों की स्थापना के साथ, पारसियों की परिस्थितियाँ मौलिक रूप से बदल गईं, क्योंकि वे कुछ मायनों में हिंदुओं या मुसलमानों की तुलना में यूरोपीय प्रभाव के प्रति अधिक ग्रहणशील थे और उनमें वाणिज्य के प्रति रुचि विकसित हुई। 

1668 में बॉम्बे ईस्ट इंडिया कंपनी के नियंत्रण में आ गया, इसलिए गुजरात से पारसी वहाँ जाकर बसने लगे। 18वीं सदी में बम्बई शहर का विस्तार मुख्य रूप से उनके उद्यम के कारण हुआ। 19वीं सदी तक वे बम्बई का एक प्रभावशाली समुदाय बन चुके थे, और लगभग 1850 के बाद से उन्हें भारी उद्योगों, विशेष रूप से रेलवे और जहाज निर्माण से जुड़े उद्योगों में काफी सफलता मिली जैसे टाटा, गोदरेज समूह आदि। पारसियों की ईरान के साथ जुड़ी जड़ें और भारत में फैला इनका विशाल प्रभाव पारसियों की जुड़वा पहचान को एक सूत्र में बांधता है। 

चारबाग़ का फ़ारसी मूल

ईरान में विकसित हुआ चारबाग (जिसे चहार बाग भी कहा जाता है) एक फ़ारसी शैली का उद्यान लेआउट है, जिसकी विशेषता एक वर्गाकार या आयताकार बाग है जिसे पैदल चलने के रास्तों या पानी के चैनलों द्वारा चार छोटे उद्यानों में विभाजित किया जाता है। इस बाग को अक्सर स्वर्ग से जोड़ा जाता है और इस चारबाग़ के ख्याल को मुगल वास्तुकला में अपनाया गया, खासकर भारत में। लाहौर में जहांगीर के मकबरे पर चारबाग, हुमायूं के मकबरे का चारबाग, इस्फ़हान ईरान में चाहरबाग-ए अब्बासी (या चारबाग एवेन्यू), और भारत में ताजमहल का बगीचा इस शैली के सबसे प्रसिद्ध उदाहरण हैं। ताजमहल के चारबाग में, चार भागों में से प्रत्येक में सोलह फूलों की क्यारियाँ हैं। 

फ़ारसी भाषा की प्रशासनिक मौजूदगी 

फ़ारसी भाषा कई शताब्दियों तक भारत में न्यायालयों और राजस्व विभाग की भाषा थी, जिसका मुख्य कारण विभिन्न तुर्क और मुगल शासकों का प्रभाव था, जिन्होंने इसे अपनी आधिकारिक भाषा के रूप में अपनाया। भारत में फ़ारसी भाषा का एक समय में इतना व्यापक प्रभाव था कि हर शिक्षित व्यक्ति के लिए फ़ारसी सीखना अनिवार्य माना जाता था। 

हालाँकि 1837 तक फ़ारसी भाषा ईस्ट इंडिया कंपनी की भाषा नहीं रही, लेकिन कानूनी दस्तावेज़ों, भूमि अभिलेखों, आधिकारिक पत्राचार और राजस्व और कराधान दस्तावेज़ों में फ़ारसी शब्दावली का उपयोग अभी भी प्रशासन के सभी क्षेत्रों में बना हुआ है। 

शिया मुसलमान और ईरान की ज़ियारत 

लखनऊ, बाराबंकी और जौनपुर जैसे शहर लंबे समय से भारतीय शिया (मुस्लिम) संस्कृति के गढ़ रहे हैं, जो अपने भव्य मुहर्रम जुलूसों, इमामबाड़ों और धार्मिक संस्थानों के लिए जाने जाते हैं। ईरान में कई प्रसिद्ध शिया मुस्लिम धार्मिक स्थल हैं, जैसे मशहद में इमाम रजा दरगाह, शिराज में शाह चेराग दरगाह, क़ोम में फातिमा मासूमी दरगाह और क़ोम के निकट जामकरन मस्जिद। हर साल, हज़ारों भारतीय शिया इन प्रतिष्ठित शिया तीर्थस्थलों की तीर्थयात्रा के लिए ईरान जाते रहे हैं।

नाथपंथ से ईरान का जुड़ाव 

11वीं शताब्दी के बाद से नाथ जोगियों ने अपने गढ़ पेशावर से निकलकर मध्य एशिया और ईरान की तरफ बढ़ना शुरू किया, जिस दौरान वे क़लंदरों और सूफियों के सम्पर्क में आए। फारस और दक्षिण एशिया के मुसलमानों ने इन नाथ जोगियों के साथ बातचीत की और उनके पंथ का अध्ययन किया, विशेष रूप से उनके रसायन विज्ञान (अल्केमी) और औषधीय ज्ञान का, जैसा कि फारसी ग्रंथों में दर्ज पाया जाता है। दक्षिण एशिया में आज भी कई जोगियों की धूणी पर शैव प्रभाव के त्रिशूल के साथ 'पांजतन पाक' का शिया प्रतीक भी मिल जाता है।

टैगोर और हाफ़िज़ की आध्यात्मिक यात्रा

सन 1932 का मई महीना था, जब ईरान के शासक, रज़ा शाह पहलवी ने रबींद्रनाथ टैगोर को ईरान आने का न्यौता दिया। टैगोर पहुंचे और अपना जन्मदिन भी टैगोर ने ईरानी श्रोताओं को अपनी कविताएं सुनाते हुए मनाया। टैगोर के पिता, ईरानी सूफ़ी शायर 'हाफ़िज़' की ग़ज़लों के मुरीद हुए करते थे, इसीलिए टैगोर भी ईरान के शिराज़ में स्थित 'हाफ़िज़' के मक़बरे में पहुंचे। 

संयोग ही था कि सदियों पूर्व, बंगाल के शासक ने भी सूफी शायर हाफ़िज़ को अपने यहां आने का न्यौता दिया था पर सेहत के चलते आने में असमर्थ हाफ़िज़ ने एक ग़ज़ल भेजकर माफी मांग ली थी, जिसमें लिखा था, 'हिंदुस्तान के सब तोते (शायर) अभिभूत हो जाएंगे इस मिश्री की डली-सी फ़ारसी ग़ज़ल को चखकर, जो मैं बंगाल भेज रहा हूं..।' 

सदियों बाद जब बंगाल का मकबूल कवि टैगोर ईरान आया तो मानो हाफ़िज़ की अधूरी यात्रा की कड़ी फिर कविता से जुड़ गई। टैगोर लिखते हैं, "हाफ़िज़ के मकबरे पर बैठे हुए लगा जैसे उनकी आंखों से निकलता नूर कई सदियों का सफर तय करके मेरे दिल में उतर रहा है। जैसे हम दोनों ही मयखाने में बैठे हम-प्याला हैं जो आत्मज्ञान का रस पी रहे हैं!" असल यात्री वही, जो मीलों बाहर भी घूमे और खुद के अन्दर भी गहरे उतरे।

शाह हमदान ने कश्मीर में बसाया ईरान 

'पीर वेर' या 'सूफ़ी संतों की धरती' के नाम से भी मशहूर रहा है कश्मीर। हालही में कश्मीर में शाह-ए-हमदान का सालाना उर्स मनाया गया, वही शाह-ए-हमदान, जिनकी याद में झेलम किनारे बनाई गई खानकाह-ए-मौला श्रीनगर के डाउनटाउन की पहचान है। शाह-ए-हमदान यानी 'मीर सैय्यद अली हमदानी' एक सूफी पीर और शायर हुए, जो ईरान से 15वीं शताब्दी में कश्मीर आए 700 सय्यदों (missionaries) के साथ और कश्मीर में सूफीवाद (के माध्यम से इस्लाम) की बुनियाद रखी। इनके प्रभाव में तकरीबन 37000 लोगों ने इस्लाम अपनाया, जिसका ज़िक्र 'रेशीनामा' में मिलता है और इन्होंने एकेश्वरवाद पर ज़ोर दिया! 

सिर्फ़ धार्मिक ही नहीं, बल्कि शाह-ए-हमदान ने कश्मीर को सिखाए ऐसे फ़न, जिनसे आज कश्मीर दुनिया भर में मकबूल है, जैसे पशमीना साज़ी, सोज़नकारी, पेपर मशी, कालीन बुनना, सामोवर बनाना वगैरह। शॉल बुनने की कला भी उन्हीं की देन है कश्मीरी बुनकरों को। कहा जाता है कि कश्मीरी पहनावे पर पहले जो स्थानीय प्रभाव था, उसे भी बदलने और उसकी जगह चोगानुमा ईरानी कमीज़ पहनने का सिलसिला भी इन्हीं की सरपरस्ती में शुरू किया गया। 

अल्लामा इकबाल ने भी माना कि शाह हमदान की सिखाई अद्भुत कला और शिल्प ने कश्मीर को 'छोटे ईरान' में बदल दिया और लोगों की सोच में क्रांति ला दी।

शाह ए हमदान को समर्पित खानकाह-ए-मौला अपनेआप में बेजोड़ वास्तुकला का नमूना है जो लकड़ी से बना है और नक्काशी से ज्यूल बॉक्स की तरह सजाया गया है। सूफियों ने कैसे धार्मिकता के अलावा कला और संस्कृति पर भी गहरी छाप छोड़ी, इसका प्रमाण शाह-ए-हमदान से भी देखने को मिलता है। 

बदलते दृश्य 

भारत और ईरान केवल भौगोलिक पड़ोसी नहीं, बल्कि गहरे सभ्यतागत रिश्ते सांझा करते हैं, जिन्होंने एक-दूसरे की संस्कृतियों और पहचान को गहराई से आकार दिया है। यह एक ऐसा रिश्ता है जो सहस्राब्दियों से चला आ रहा है और आज भी दोनों देशों के संबंधों का आधार है। भूराजनैतिक पेचीदगी के चलते दोनों मुल्कों के आपसी संबंध परोक्ष और प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित होते रहे हैं लेकिन इन दोनों देशों की मज़बूत सांस्कृतिक नींव ने परस्पर संबंध थामे रखे हैं।