आज जब ज़ोर-शोर से प्रेमचंद की परंपरा की बात हो रही। उनकी परंपरा का असली वाहक कौन है, जब यह बहस जेरे-मुद्दआ है, ठीक उसी समय में शिवरानी देवी लिखित संस्मरणात्मक पुस्तक ‘प्रेमचंद घर में’ को सामने रखते हुये मैं उनके स्त्री विमर्श को अपनी बातचीत की परिधि के केंद्र में रखना चाहूंगी। दरअसल किसानों और दलितों के बाद स्त्री ही है, जो उनकी रचना की द्वितीयक धुरी कही जा सकती है। प्रेमचंद का स्त्री विमर्श उस भारतीय समाज का स्त्री विमर्श है, जो नवजागरण के शुरुआती लहरों से आप्लावित हो रहा था। उस समय के समाज में सदियों से पराश्रित स्त्री के लिए शिक्षा की, आत्मवलंबन की, स्वाबलंबन की बात करना ही अपने आप में सबसे बड़ी क्रांतिधर्मिता थी। प्रेमचंद लिखते हैं- ‘बड़ा आश्चर्य होता है कि जिस कोख ने पुरुषों को जनम दिया उस नारी को पुरुषों ने कैसे अबला बना दिया? जो जन्म के लिए भी स्त्री के कोख के मोहताज है, उन्होने उस स्त्री को सर्वथा महत्वहीन बना दिया।‘ सचमुच यह उस वक्त के ही नहीं आज के समाज की स्त्रियों की भी सबसे बड़ी त्रासदी है।
प्रेमचंद एक समतामूलक समाज चाहते थे। उन्होने हिन्दी आधुनिक कथा साहित्य की नींव के बहाने उसी समतामूलक समाज की भी नींव रखी। प्रेमचंद भारत की आत्मा के खोजी थे। जाति, धर्म, लिंग, भाषा के भेदों को पार करके वह भारत के घर-घर में पहुँच सकें तो सिर्फ इसीलिए ...
आम जन-जीवन से जुड़े हुये मुद्दे, पिछड़े हुये लोगों की पक्षधरता, बेजुबानों की आवाज़ बनना और गुलामी से लड़ते हुये एक एक समरस समाज के स्थापना की संकल्पना। प्रेमचंद ने पहली बार श्रम करनेवाली जनता अर्थात किसानों-मजदूरों को हिन्दी साहित्य में प्रतिष्ठित किया। जो दलित साहित्य और स्त्री विमर्श आज के साहित्य की मुख्य धाराएँ हैं, उन्हें एक सदी से भी पूर्व उन्होने अपने साहित्य में जगह दी। उनके सम्पूर्ण साहित्य में उस समय के दलित और स्त्री जीवन का यथार्थ चित्रण मिलता है।
इस दृष्टि से देखें तो उनके स्त्री पात्रों की मुखरता और निर्णय लेने की क्षमता सचमुच प्रभावित करने वाली है। ये स्त्रियाँ महानायक भले ही न हो, पर सामाजिक जीवन में अपनी स्वतंत्र पहचान बनाने और बनाए रखने को सजग और आतुर स्त्रियाँ थी। धनिया, झुनिया, अंगेजो पर चाकू चलनेवाली कर्मभूमि की बलात्कार पीड़िता, सिलिया, सोफिया, सुभागी ,सुधा, मालती तक न जाने कितने चरित्र इस बात की गवाही देते हैं। गोदान की मालती एक पढ़ी-लिखी महिला है। जो अपने निर्णय लेने के लिए स्वतंत्र है। वह अपने जीवन में हर चुनाव साधिकार करती है। चाहे वह मेहता के साथ रहने का निर्णय हो या उसे त्यागने का। प्रेमचंद के सेवासदन की सुमन अपने परतंत्र जीवन से बेहतर उस वेश्या के जीवन को मानती है, जो अपने जीवन के तमाम निर्णय स्वयं ले सकती है। यही नहीं उनकी रची हुयी अशिक्षित और गरीब स्त्रियाँ भी यहाँ कम सूझ-बूझ और सोचवाली नहीं हैं।
सिलिया, झुनिया, धनिया जैसे चरित्र इस बात की प्रत्यक्ष गवाही हैं। ठाकर का कुंआ, पूस की रात, बूढ़ी काकी, बड़े घर की बेटी, दूध का दाम जैसी उनकी कुछ बेहद प्रसिद्ध कहानियाँ भी इसी श्रेणी की कहानियाँ हैं। इन कहानियाँ में नायिकाए भले हीं हमेशा विजयी न हो, पर वे संघर्ष करने से कदापि नहीं डरती। उनके मन का ऊहापोह किसी सार्थक हृदय-परिवर्तन पर जाकर ही समाप्त होता है। उनकी तमाम नायिकाएँ अपने लिए, अपनों के लिए, मूल्यों के लिए, समाज के लिए और कभी-कभी देश के लिए भी संघर्ष करती दिखती हैं।
बावजूद इसके यह कहा जा सकता है कि अगर आज की दृष्टि से उनकी कहानियों को देखें तो उनके स्त्री पात्रों को भी सिर्फ सहानुभूति का साहित्य ही कहा जा सकता है। जहां सदिच्छा है, संकल्प है, सद्भावना भी... और उस समय के वातावरण और समाज को देखते हुये यह भी कोई छोटी याकि कम बात नहीं। पर वह एकात्म दृष्टि नहीं, जो स्त्री मन के भीतर उतर सके, उसके पोर-पोर रेशे-रेशे को खोलकर दिखा सके। उसे उसकी सम्पूर्णता में अंकित कर सके। प्रेमचंद की नारी का आदर्श है- त्याग, सेवा और पवित्रता का केंद्र होना। उसकी मूर्ति होना। उससे तनिक भी कम होती स्त्री उन्हें नहीं चाहिए थी। प्रेम, स्वतन्त्रता, निजता आदि का कोई खास मूल्य यहाँ स्त्री संदर्भों में नहीं, उनका ज़ोर स्त्री के लिए परिवार को जोड़ कर रखनेवाली और अपने बच्चों को अच्छी परवरिश, शिक्षा और ममत्व देनेवाली के सिवा और कुछ होने में भी नहीं, इसका उदाहरण उनके उपन्यास और कहानियों के ये अंश भी देते हैं -
"नारी मात्र माता है और इसके उपरांत वो जो कुछ भी है वह सब मातृत्व का उपक्रम मात्र है। मातृत्व विश्व की सबसे बड़ी साधना है, सबसे बड़ी तपस्या, सबसे बड़ा त्याग और सबसे महान विजय है..."
"सेवा ही वह सीमेंट है जो दंपत्ति को जीवनपर्यंत प्रेम और साहचर्य से जोड़े रखता है। जिस पर बड़े-बड़े आघातों का कोई असर नहीं होता। और नारी ही सेवा का पर्याय है।"
"स्त्री हद दर्जे की दुराचारिणी होती है, अपने सतीत्व से ज्यादा उसे संसार की किसी वस्तु पर गर्व नहीं होता। और न ही किसी चीज को वो इतना मूल्यवान समझती है।"
तभी तो वह शिवरानी देवी द्वारा यह जान लेने पर कि उनकी पहली पत्नी अभी जीवित हैं और यह सब कहे जाने पर -‘एक की मिट्टी पलीद कर दी। जिसकी कुरेदन मुझे हमेशा होती है...आप दावे के साथ कह सकते हैं कि आपका चरित्र अच्छा था?.... हालांकि मैं बेगुनाह हूँ पर उसका प्रयाश्चित मुझे भी करना पड़ेगा... मेरे पिता को मालूम होता यह सब तो आपके साथ मेरी शादी बिलकुल न करते... मैं भी बदसूरत होती तो आप मुझे भी छोड़ देते... अगर मेरा बस होता तो मैं हर जगह ढिढोरा पिटवा देती कि कोई भी तुम्हारे साथ शादी न करे।
‘कहते हैं- "वह बदसूरत तो थी ही, उसके साथ जबान की भी मीठी न थी। यह इंसान को किसी से और दूर कर देता है।" यही नहीं वे कहते हैं कि पुरुषों को लज्जालु स्त्री पसंद आती है’ और वे विदा होते ही मेरा हाथ पकड़कर मेरे साथ चल दी थी। ‘उनके आपसी वार्तालाप का यह अंश जहां स्त्री के प्रति उनके संकीर्ण दृष्टिकोण को बतलाता है, वही दोनों स्त्रियों के आधुनिक और निर्मल मन को भी...
यहाँ यह सब रेखांकित करने का एकमात्र आशय प्रेमचंद के भीतर के द्वंदों, विरोधाभासों और उनके मानसिक ऊहापोहों को रेखांकित करना है। कोई रूढ़िवादी न सिलिया का चित्रण कर सकता है, न झुनिया का और न मालती जैसी प्रगतिशील स्त्री का। उनके यहाँ तो माँ, पत्नी, प्रेमिका, शिक्षिका या वेश्या; स्त्री के जितने भी रूप आते हैं, सब एक समग्र आकार लेते हैं। एक सम्पूर्ण चरित्र बनकर सामने आते हैं। उच्च आदर्शीय और सर्व-गुण सम्पन्न स्त्रियाँ है ये, दया, ममता, मोह, मातृत्व और अपने परिवार को लेकर साहस से भरी हुयी।
हाड़ मांस की जीती-जागती औरतों का अभाव मुझे उनकी रचनाओं में लगा, या फिर वे हैं तो तिरस्कृत और बहिष्कृत। यहाँ आकार वे अपने समकालीन और परम मित्र जयशंकर प्रसाद के उक्त पंक्तियों को ही स्त्री चरित्र गढ़न का आधार बनाते दिखते हैं- नारी तुम केवल श्रद्धा हो,विश्वास रजत नग पग तल में/ पीयूष- स्त्रोत सी बहा करो, जीवन के सुंदर समतल में।‘
और जैसा की ‘प्रेमचंद घर में ’ से मालूम होता है, शिवरानी का चरित्र भी साक्षात इन्हीं सारे गुणों-दुर्गुणों और विचलनों का आगार है। वे विवाह के शुरुआती दिनों में अक्सर अपने मायके रहती हैं, उन्हें न ससुराल का वातावरण पसंद है, न दब्बू, शांतचित्त शर्मीला सा पति। पति की विमाता तो कत्तई नहीं, जिनके कारण उनकी पहली पत्नी जोकि उनकी ही रिश्तेदार थीं को घर से निकाल दिया गया और पति जिनके किसी बात की अवज्ञा नहीं करते। पर प्रेमचंद के समझाने पर वे अपनी गृहस्थी की डोर अपने हाथ में लेती हैं।
मोटे तौर पर देखें तो इस पूरी पुस्तक में शिवरानी देवी का हृदय अपने पति के लिये एक प्रकार के आदर-भाव से भरा हुआ है, जो उस समय के परिवेश और समाज को देखते हुये सहज है और संभाव्य भी। वे प्रेमचंद से प्रेम करती हैं... और बहस भी। उनका अनुकरण करती हैं और उनका अनुकरण करना उन्हें पसंद भी नहीं।
इस पुस्तक की भूमिका में वे कहती हैं- स्वामी, तुम्हारी ही चीज़ तुम्हारे चरणों में चढ़ाती हूँ। इस तुच्छ सेवा को अपनाना। तुम्हारी दासी या रानी शिवरानी।‘ प्रेमचंद शिवरानी देवी को रानी कहकर संबोधित करते थे, जोकि उनके प्यार का नाम होने के साथ-साथ उनके नाम का संक्षिप्तीकरण था। शिवरानी देवी की यह किताब भी दासी-रानी और इससे भी कहीं ऊपर मानवी होने के द्वैत के बीच फंसी दिखती है। इस पूरे किताब में वह जद्दोजहद साफ है, जो उनके जीवित, जीवंत होने के साथ-साथ उनकी विचार-प्रक्रिया को भी चिन्हित करता है।
-‘आज मैं उन बातों को सोचती हूँ तो बराबर यही मालूम होता है कि मैं कितनी नीच और कितनी कायर हूँ। जो मैं कुछ नहीं कर पाती। जो कहीं एक दिन के लिये भी अलग होना न चाहता हो उसके चले जाने पर भी उसी रफ्तार और उसी ढंग से मैं आज भी जीती चली जा रही हूँ...
‘मैं उस महान आदमी को जरा भी न पहचान सकी। महान आत्माओं को पहचानने के लिये अपने में ज़ोर चाहिए, ताक़त चाहिए। मैं पहचानती ही कैसे? मैं तो अपने पागलपन में मस्त थी। मैं तो उन्हें अपनी चीज समझती रही ... अब बाक़ी क्या रहा? अँधियारी रात और उसी रात में भटकना! और अपने भाग्य को कोसना।‘
लेकिन इस संताप से अलग वे इस किताब को लिखने के लिए तत्पर होती हैं कि उनके पास जो प्रेमचंद कि स्मृतियाँ हैं वे किसी और के पास सहज नहीं हो सकती। और ये स्मृतियाँ हमेशा उनके साथ होंगी। वे लिखती हैं कि - 'मेरे स्वामी ने कहा था कि स्थाई चीज़ स्मृति ही होती है और कुछ नहीं होता।‘ और यही स्मृतियाँ इस किताब को लिख जाने का वायस हैं। सारा राय इस पुस्तक के नवीनतम संस्करण की भूमिका में इसीलिए लिखती हैं- "प्रेमचंद घर में" जैसा कोई लिखेगा, या लिख पायेगा मुझे अब यह संभव नहीं लगता। क्योंकि उनके साथ उनके जीवन और व्यक्ति बारे में जानकारी भी चली गयी है। उनको जानने वाले कितने लोग अब जीवित और उनपर काम करने वाले शोधकर्ताओं को भी शायद उनके जीवन से सम्बंधित सामग्री खोज निकालने में निराशा ही हाथ आयेगी।‘
हमें शिवरानी देवी को जानने का मौका भी 'प्रेमचंद घर में' से ही मिलता है, जो कि पति के इर्द-गिर्द घटे उनके जीवन पर एक प्रासंगिक प्रकाश डालता हैं। ‘मैंने कहा’ और’ वो कहते हैं’ और ‘आप और मैं’ कि शैली में लिखी गयी 'प्रेमचंद घर में' ऊपर तौर पर भले ही घरेलू संस्मरणों पर आधारित पुस्तक लग सकती है, लेकिन मूल में यह एक ऐसी प्रामाणिक खिड़की है जिससे झांककर हम प्रेमचंद को भीतर-बाहर को बखूबी जान सकते हैं। यहां उनका साहित्यिक व्यक्तित्व तो अपनी पूरी सोच के साथ बड़ी सहजता में आता ही है, उनकी मानवीय छवि भी पूरे आवेग से सामने आती है। इस पुस्तक में शिवरानी देवी कितनी ही घटनाओं के जिक्र से प्रेमचंद के उदात्त व्यक्तित्व को उजागर करती हैं, जिसमें (चाची)विमाता के आगे उनका कभी मुंह न खोलना। उनके हाथ में अपनी पूरी कमाई देना। उनके मायके वालों और अपने सौतेले भाई कि पढ़ाई की ज़िम्मेदारी के साथ-साथ उनके आदेशानुसार बिना मर्जी के भी पहला विवाह कर लेना। और फिर उन्हीं की शिकायतों और घरेलू कलह से ऊबकर उन्हें त्याग भी देना।
लोगों की मदद के लिए अपनी अंतिम पूंजी तक दे देना, यही नहीं उधार लेकर याकि दिलाकर उनकी मदद करना, उधार के पैसे कभी वापस न मांगना। पत्नी की नाराजगी के डर से उनसे यह सब छुपाकर भी करना। कुएं के आसपास घर कि महरी के फिसल जाने पर उस (सामुदायिक) कुएं के लिए अपने खर्च से मुंडेर बनवाना जैसे न जाने कितने प्रसंग आते जाते रहते हैं इस किताब में।
लेकिन एक घटना कि चर्चा यहाँ बेहद जरूरी है और वह भी शिवरानी देवी के ही शब्दों में - ''प्रेस' खुल गया था, और आप स्वयं वहाँ काम करते थे; जाड़े के दिन थे। मुझे उनके सूती पुराने कपड़े भद्दे जँचे और गरम कपड़े बनाने के लिये अनुरोधपूर्वक दो रुपये दिये, परन्तु उन्होंने दोनों बार वे रुपये मज़दूरों को दे दिये। घर पर जब मैंने पूछा- कहाँ हैं?" तब आप हँसकर बोले- "कैसे कपड़े? वे रुपये तो मैंने मज़दूरों को दे दिये; शायद उन लोगों ने कपड़ा खरीद लिया होगा।" इस पर मैं नाराज़ हो गयी। तब वे अपने सहज स्वर में बोले - "रानी, जो दिन भर तुम्हासे प्रेस में मेहनत करे वह भूखों मरे और मैं गरम सूट पहनूँ, यह तो शोभा नहीं देता।" इन बातों को लिखने का उनका लहजा जितना सरल है, उतना ही सहज। यहाँ दैनिक संवाद से उभरी स्थाई महत्व की बातें भी इसीलिए इतनी आसानी से कदम-कदम उतरती चली गई हैं। वे यहाँ ब्योरेवार प्रेमचंद के इर्द गिर्द का जीवन, समाज और अपने जीवन का अभूतपूर्व विवरण देती हैं।
1944 में आए पुस्तक के पहले संस्करण के प्रस्तावना में वे कहती है कि "मैंने तो सभी बातें, बगैर अपनी तरफ से कुछ भी मिलाये, ज्यों-की-त्यों कह दी हैं"... "ये बातें मेरी आँखों के सामने हुई हैं। ये बातें उनकी (प्रेमचंद की) हैं। वे पाठकों के थे। इसलिये मैं इन्हें पाठको को भेंट कर रही हूँ। मैं खुद भी अपनी नहीं हूँ"। वे यहाँ खुद को प्रेमचंद के साहित्यिक सामाजिक कायों और उनके विचारों को पेश करने का वाहक भर कहती हैं, वे यहाँ अपने आप में लेखक या कलाकार नहीं मानती। जबकि उन्होंने प्रेमचंद पर संस्मरण लिखकर उनको, उनके जीवन को विस्मृति में डूब जाने से बचाये रखा है। उनका यह आखिरी वाक्य न सिर्फ उनकी अपने आप से दूरी, उनकी निष्पक्ष लेखकीय तटस्थता को तो बताता ही है बल्कि कहीं-न-कहीं उन्हें साहित्य और समाज का इतिहासकार भी बना देता है और साहित्य-समाज को उनका ऋणी भी...
इस संस्मरण में वह अपने जगत-ख्यात पति के जन्म की तारीख तो देती हैं, मगर वह अपनी जन्म-तिथि के बारे में चुप हैं। ऊपर के वक्तव्यों के आलोक में और बतौर पत्नी उनसे यही अपेक्षा की जा सकती है, कि वे अपने पति के बारे में लिखे गए किताब में अपने बारे में लिखना पसंद नहीं करेंगी। परंतु जन्मतिथि के सिवा इस किताब के आलोक में उनके जीवन कि मुख्य घटनाओं और महत्त्वपूर्ण तिथियों का भी अंदाजा लग जाता है याकि लगाया जा सकता है। बावजूद इन सावधानियों और संकोच के वह किसी भी मायने में, तर्क या विचारों में, अपने पति से दबी हुई या कमतर नहीं मालूम देतीं। बल्कि पूरी किताब में हमें उनका एक अक्खड़ 'प्रेमचंद के शब्दों में कहें तो एक ‘योद्धा स्त्री" का स्वर स्पष्ट सुनायी देता है। बल्कि इस दृष्टि से देखेँ तो 'प्रेमचंद : घर में' एक आत्मसंस्मरनात्मक पुस्तक भी कही जा सकती जिसे पढ़ते हुये कोई भी ये अनुमान लगा सकता है कि वे कितनी सशक्त और स्वतंत्र महिला थीं। यहाँ उनकी जो छवि उभर कर सामने आती है, वह एक सशक्त, सक्षम और सूझ-बूझ वाली राजनीतिक महिला की, जिनपर प्रेमचंद निर्भर हैं, जिनकी देखरेख की वजह से वे रोज़मर्रा की झंझटों से मुक्ति पाकर सहज लेखन का काम कर पाते हैं। यही नहीं वे सार्वजनिक जीवन में भी इतनी सजग थीं कि वे कई बार जेल भी गईं। प्रेमचंद बीमार रहते थे तो शिवरानी देवी स्वतंत्रता-संग्राम में खुद हिस्सा लेती थीं। जिसके आलोक में 'प्रेमचंद : घर में' को एक नारीवादी दस्तावेज़ कहें तो यह गलत नहीं।
प्रेमचंद, और उनके साथ शिवरानी देवी का जीवन अधिक महत्त्वपूर्ण इसलिये वे बीसवीं शताब्दी में रहे सामाजिक सुधारों के अभिन्न अंग थे। समय की मांग के अनुरूप शिवरानी जो सक्रिय आंदोलनकारी बन गईं तो यह सब भी प्रेमचंद का अप्रत्यक्ष प्रभाव ही था। सोचिए तो यह प्रेमचंद का एक बहुत बड़ा निर्णय था, उस समय के समाज को देखते हुये कि वे अपने दूसरे विवाह के लिए बाल-विधवा शिवरानी देवी को चुनते हैं और गृहस्थी के तमाम जिम्मेदारियों के बीच और बावजूद उन्हें लिखने-पढ़ने का भी वातावरण मिलता रहता है याकि देते हैं।
दरअसल जब भी प्रेमचंद घर पर होते और उन्हें लिखना होता, वे उन्हें कोई किताब पढ़ने के लिए पकड़ा देते कि इससे शिवरानी देवी का मन भी लगा रहे और उन्हें लिखने के क्रम में कोई बाधा न हो। कई बार वे भी उनसे कुछ पढ़कर सुनाने का आग्रह करती। वो सुनाते भी। वे जब भी दौरे पे जाते शिवरानी जी उनसे एक किताब मांग लेती इस बीच पढ़कर समाप्त करने को। प्रेमचंद तो चाहते थे वे दौरे पर भी उनके साथ ही चले पर शिवरानी देवी को यूं जगह-जगह रोज-ब-रोज वह भी बिना किसी खास मकसद याकि काम केभटकना पसंद नहीं था। उन्हें अब किताबों का साथ रुचने लगा था।
पढ़ने-सुनने के इसी क्रम में धीरे-धीरे शिवरानी का मन भी कहानी लिखने का होने लगा। शुरुआत में वे बस कहानियाँ लिखती और फाड़कर फेंक देती रहीं। बाद में ज़िंदगी जब ज्यादा उलझने लगी तब वे मन में आए प्लॉट को प्रेमचंद से बांटती कि आप इस विषय पर कहानी लिखें। और कहानी लिखी भी जाती।
इसी क्रम में जब उनकी पहली कहानी छपकर आई तो वह भी प्रेमचंद के बिलकुल अंजाने में। उनकी यह पहली कहानी 'साहस', 'चांद' पत्रिका में प्रकाशित हुई जिसके संपादक आर. सहगल थे। जब प्रेमचंद ने वह पत्रिका देखी तो ऊपर आकर उनसे बोले-‘अच्छा, अब आप एक कहानी-लेखिका बन गयीं? ... ऑफिसवाले पढ़-पढ़कर खूब हँसते रहे। कइयों ने तो मुझ पर भी सन्देह किया।‘ तब से वे जो कुछ भी लिखती, उन्हें दिखा देती कि कहानी कहीं उनके किसी कहानी के विषय याकि शैली के अनुकरण पर तो नहीं जा रही? क्योंकि उन्हें लोकापवाद का डर था। वे डरती थी की कोई यह न कह दे कि उनकी कहानी प्रेमचंद ने लिखी है।
लेकिन बावजूद इस तमाम डर और उनकी कोशिशों के उनकी कहानियों को समकालीनों और आलोचकों के द्वारा 'शिवरानी देवी’ के नाम से प्रेमचंद के द्वारा लिखी गयी कहानियाँ' ही मानी जाती रही। हालांकि इन्हें गौर से अगर कोई भी सुधि पाठक पढे तो साफ तौर से समझ सकता है, यह एक स्त्री की लिखी हुयी कहानियाँ हैं। प्रेमचंद की लिखी हुयी कहानियाँ नहीं। शिवरानी देवी की कहानियों का विषय, विषय का चुनाव, ट्रीटमेंट, सब प्रेमचंद की कहानियों से बिलकुल अलहदा है। ये कहानियाँ स्त्री मन के उद्गारों, और बेचैनियों के तन्तु से बनी और बुनी हुयी कहानियाँ हैं। शिवरानी देवी की ये कहानियाँ एक नारी के हृदय से निकली और नारियों के मन की अंतर्व्यथा को बयान करती हुयी कहानियाँ हैं। यहाँ सामाजिक रूप से सही गलत कहे जाने की परवाह किए बगैर नारी के हक की बात है। यहाँ उपदेश का बोझ और व्यर्थ का बड़प्पन नहीं बल्कि जुझारूपन, संकल्पशक्ति और सकारात्मक ऊर्जा ज्यादा है।
उस वक्त भी शिवरानी देवी की एक कहानी 'कुर्बानी' की तो खूब चर्चा और प्रशंसा हुई। ये और इन जैसी उनकी तमाम कहानी की नायिकाएँ इतनी मजबूत और दृढ़ हैं कि वे आज की नायिकाओं सी लगती हैं। शिवरानी देवी के कहानियों के स्त्री चरित्र उस वक्त से कहीं ज्यादा भविष्य के चरित्र हैं। प्रसंगवश कुछ उदाहरण -
--‘मैंने जीवन में कभी डरना नहीं सीखा, अपने से मैं किसी को छेडूंगी नहीं, मगर जो मुझे छेड़ेगा उससे डरकर कहीं भागूंगी भी नहीं ।‘ (करनी का फल)
-बच्चे अपनी ख़्वाहिश अपने हाथ पैरों से पूरी करेंगे... अगर ये न वैसे बने तो मैं समझ लूँगी, ये मेरे बच्चे है ई नहीं।‘ (यशोदा कृष्ण)
एक विधवा की सयानी बेटी राम-प्यारी जब माँ के द्वारा पायी-पायी जोड़कर दहेज देकर की जानेवाली शादी से इंकार करती है-मुझे इन महाशय से विवाह करना मंजूर नहीं...’ तो
फिर वहाँ लेखिका याकि सूत्रधार का कथन सराहना योग्य है-
-‘सारे शहर में रामप्यारी कि प्रशंसा हो रही। वाह कैसी दिलेर लड़की है । ऐसी ही देवियों से जाती का मुख उज्जवल होता है। भोली भेड़-बकरियाँ जो अपना उद्धार स्वयं नहीं कर सकती, उनसे क्या आशा की जा सकती है।‘ (वधू परीक्षा)
यह हो सकता है ये कहानियाँ शिल्प और गढ़न में, विषय के व्यापकता में प्रेमचंद के कहानियों जितनी पकी और सुगढ़ कहानियाँ न हो। पर ये सुगढ़ता और शिल्प आदि कई बार आते आते आते हैं ...प्रेमचंद भी 'दुनिया का अनमोल रत्न' लिखते वक्त वही प्रेमचंद कहाँ थे जो बाद में होते हैं?
यह प्रेमचंद की संगत का ही असर था बगैर किसी साहित्यिक पृष्ठभूमि और रुचि के वे साहित्य की ओर अग्रसर हुईं। लेकिन उसी किताब ‘प्रेमचंद घर में’ के आलोक में हम उस अधूरे सच का पूरा सच भी जान पाते हैं, कि प्रेमचंद अपने इस विवाह के क्रम में उनसे एक झूठ कहते हैं-‘ उनकी पहली पत्नी का निधन हो चुका है।‘ बाद में जब शिवरानी जी को यह सच्चाई पता चलती है तो वे प्रेमचंद से नाराज होती हैं कि उन्होने उनसे झूठ क्यों कहा? तो प्रेमचंद कहते हैं -‘जिसको इंसान समझे जीवित है, वही जीवित है, जिसे समझे मर गया, वो मर गया।‘
जब शिवरानी देवी उन्हें घर लिवा लाने को कहती हैं तो प्रेमचंद साफ-साफ इंकार कर देते हैं। फिर शिवरानी देवी उन्हें खुद पत्र लिखती हैं कि वो आ जाएं, उन्हें छोटी बहन जानकार स्वीकार करें और अपनी गृहस्थी की स्वामिनी बनकर रहें। हालांकि ऐसा संभव नहीं हो पाता। प्रेमचंद की पहली पत्नी यह कहकर आने से इंकार कर देती हैं कि ‘वे तभी वापस आएंगी, जब वे (प्रेमचंद) उन्हें खुद आकर लिवा ले जाएँगे।‘ उनका यह हठ उनकी जिद से भी कहीं ज्यादा उनके आत्म-सम्मान का ध्योतक है और पर इस पूरे प्रकरण में शिवरानी देवी का अपनी सौत के लिए ‘दुख और उनके हक की बात करना’ सम्पूर्ण स्त्री जाति के प्रति उनका रवैये को स्पष्ट रूप से सामने लानेवाला। वे इस पूरे प्रकरण को अपनी एक कहानी ‘भ्रमर-वृत्ति’ में कहानी का प्लाट बनाकर एक अद्भुत साहसी कहानी रच डालती हैं।
--'आज रामनाथ अपनी पंद्रह साल की ब्याही हुयी स्त्री से मुंह मोड़कर दूसरा ब्याह करने की तैयारी कर रहे हैं ...
प्रेमचंद से किए गए शिवरानी देवी के सवाल- ‘ मैं बदसूरत होती तो आप मुझे भी छोड़ देते... ' आप दावे के साथ कह सकते हैं कि आपका अपना चरित्र अच्छा था? ...से आगे बढ़कर इस कहानी की नायिका( प्रथम स्त्री) केवल इतना भर कहकर ही चुप नहीं हो जाती। वो पति के बारात में उनके सजी धजी गाड़ी के आगे खड़ी हो जाती है कि अगर शादी ही करनी है आपको तो मेरी लाश से गुजर कर जाओ। मुझे कुचलकर जाओ।‘ आगे वो कहती है –‘तुम नवेली बहू के साथ ज़िंदगी की बाहर नहीं उड़ा सकते। अगर मैं रो-रोकर ज़िंदगी के दिन पूरे कर रही हूँ तो तुम्हें भी यों ही जलते रहना पड़ेगा।‘… ‘अगर मेरा वश चलता तो मैं ढिंढोरा पिटवाती कि आपसे कोई शादी न करे।
तमाम प्रेम और समानता का व्यवहार, शिवरानी देवी के साथ बराबरी से गृहस्थी के जिम्मेदारियों में हाथ बंटाने, बच्चों कि देखभाल करने, बीमार पत्नी और बच्चों की सेवा करने की वृत्ति के बावजूद प्रेमचंद पुरातन से चले आ रहे स्त्री को हीन और कमतर समझे जाने की वृत्ति परे नहीं थे और यह ग्रंथि उन पर हावी नहीं होती थी, ऐसा भी नहीं था। इसका उदाहरण भी इस पुस्तक में एक जगह मिलता है। शिवरानी देवी लिखती हैं-‘एक बार गोरखपुर में डॉ. एनी बेसेंट की लिखी हुई एक किताब आप लाये। मैंने वह किताब पढ़ने के लिए माँगी। आप बोले- “तुम्हारी समझ में नहीं आयेगी। मैं बोली- "क्यों नहीं आयेगी? मुझे दीजिये तो सही।" उसे मैं छः महीने तक पढ़ती रही। रामायण की तरह उसका पाठ करती रही। उसके एक-एक शब्द को मुझे ध्यान मैं चढ़ा लेना था। क्योंकि उन्होंने कहा था कि-‘ यह तुम्हारी समझ में नहीं आयेगी।‘ मैं उस किताब को ख़तम कर चुकी तो उनके हाथ में उसे देते हुए बोली- "अच्छा, आप इसके बारे में पूछिये। कुछ भी पूछिए। मैं इसे पूरा पढ़ गयी।" हँसते हुए वे बोले"आपको बहुत काम रहते भी तो हैं। फिर बेकार आदमी जिस किसी काम को लेता है, उसे में जी-जान लगा देता है। ‘
प्रेम, बराबरी, और सम्मान से भी बढ़कर शिवरानी जी का दांपत्य त्याग और गरिमा की उस ऊंचाई को जा पहुंचता है, जब मृत्यु के करीब आकर प्रेमचंद यह नहीं चाहते शिवरानी एक पल को भी उनकी आँखों से ओझल हो। वे उन्हीं दिनों में कुछ उन बातों का जिक्र करते हैं, जिन्हें उनसे उन्होने अबतक छुपाया था। कुछ छोटी-छोटी घटनाओं के जिक्र के बाद वे कहे हैं - "अच्छा एक और चोरी सुनो। मैंने अपनी पहली स्त्री के जीवन-काल में ही एक और स्त्री रख छोड़ी थी। तुम्हारे आने पर भी उनसे मेरा सम्बन्ध था।"
शिवरानी कहती हैं-‘ यह मुझे ज्ञात था।‘’यह सुनकर वे मेरी ओर देखने लगें। उस देखने के भाव से ऐसा मालूम होता था जैसे वे मेरे मुँह को पढ़ लेना चाहते हो।‘
कुछ देर के बाद बोले- "तुम मुझसे बड़ी हो।"
‘उनके उस कथन का रहस्य मेरी समझ में बिल्कुल नहीं आया।‘
मैं बोली- "आज आपको हो क्या गया है? मैं बड़ी हो सकती हूँ?"
तब आप हँसते हुए बोले- "तुम हृदय से सचमुच मुझसे बड़ी हो। इतने दिन मेरे साथ रहते हुए भी तुमने भूलकर कभी इस बात का ज़िक्र तक नहीं किया।"
तमाम बड़प्पन, आदर्श और जीवटता की मिसाल शिवरानी देवी को अपनी कहानियों का श्रेय तक नहीं मिला। ‘दुखद यह है उन्हें’ प्रेमचंद घर में’ के द्वारा ही जाना और पहचाना जाता है। उनकी पत्नी बतौर। उनकी स्वतंत्र कहानियों के लेखक के रूप में उस तरह नहीं...यहाँ आकर
लेखिका और शिवरानी देवी की पौत्री ‘सारा राय’ का यह कहना उचित जान पड़ता है- "शिवरानी देवी तिहरे विलोपन का शिकार रहीं हैं। एक तो वे स्त्री थीं, दूसरे स्त्री कथाकार, और तीसरे की वह पत्नी थीं। इनको मद्देनजर रखते हुए उनका यह विलोपन कतई स्वाभाविक और अपेक्षित लगने लगता है। "
हालांकि शिवरानी की कहानियों का जब अनुवाद होता, तो प्रेमचंद बड़े खुश भी होते थे। कभी-कभी तो ऐसा भी होता कि पति-पत्नी, दोनों से कहानियां प्रकाशनार्थ मांगी जातीं। शिवरानी देवी जब रात-रात भर जागकर कहानी के प्लॉट के बारे में विचार करती तो प्रेमचंद दुखी होते-‘ तुमने अपने लिए यह क्या बला मोल ली? आराम से रहती थी, अब फिजूल की एक झंझट खरीद ली।’ वे तमाम साधारण पतियों की तरह कहते हैं – ‘तुम बाज नहीं आओगी?’ क्यों अपना खून जला रही हो...?...
पुरुष खुद मजदूर बन सकता है पर अपने घर की स्त्री को मजदूरनी बनाना पसंद नहीं करता...’
"मैं बोली- "अब हटने से तो और भी काम न चलेगा। तब तो लोग यही कहेंगे कि चोरी पकड़ी गयी तो शान्त हुए। खुद तो नाम पैदा कर ही रहे थे, अपनी बीवी का भी नाम चाहते थे।" तो आप बोले- “तुम इसमें सुख क्या पाती हो? रात-दिन बैठे-बैठे अपना खून जलाती हो।"
मैं बोली- "यह खून जलाना ही हुआ तो आप क्यों जलाते हैं? अपने खून को आपके खून से मैं महँगा नहीं समझती। जैसे आप कहते हैं कि नशा है, शायद वैसे ही मुझे भी नशा हो आया हो।"
आप बोले- "नाहक़ अपनी जान परेशानी में मैं डाल रही।‘
मैं बोली-“उनके डर के मारे मैं लिखना छोड़ दूँ? जब लोगों को मालूम जायेगा तो खुद झूठा दोष लगाने पर पछतायेंगे’।
‘हर गलत के विरुद्ध में खड़ी होने वाली नायिकाएँ दरअसल शिवरानी देवी का प्रतिरूप और उनका ही स्वप्न हो सकती थी और थी भी। चाहे सौतन के हक के लिए लड़ने की बात हो, या फिर सौतेली माँ के डर से सगी बहन से मुंह मोड लेने कि शिकायत और जीवनपर्यंत उसका हाल-चाल न लेना। चाहे मकान मालिक से गलत मांगे गए पैसों का विरोध करना हो या ट्रेन में बीमार प्रेमचंद के लिए जगह बचाने की लड़ाई, ये और ऐसी तमाम घटनाएँ ये इसी बात का प्रमाण थी कि शिवरानी जीवटवाली और बेहद जुझारू स्त्री थी। बिलकुल अपनी गढ़ी नायिकाओं की तरह। फिर भी शिवरानी देवी की कहानियों को प्रेमचंद की कहानियाँ माना जाना नहीं रुक रहा था तो नहीं रुक रहा था।
प्रेमचंद ने कई बार सफाई और कई बार बचाव में भी ये कहा -‘मेरे जैसा शांतिप्रिय स्वभाव वाला आदमी इस प्रकार के अक्खड़पन से भरे जोरदार स्त्री-जाति-संबंधी प्लाटों की कल्पना भी नहीं कर सकता। ये कहानियाँ शिवरानी देवी की ही कहानियां हैं।‘ तथापि उन्होने इसके सिवाय कुछ और इस लोकोपवाद से बचने याकि उनके भीतर के कहानीकार को बचाए रखने के लिए नहीं किया। बल्किइसके उलट उन्हें ही समझाते रहे। शिवरानी देवी ने भी फिर कहानियाँ नहीं लिखीं। शायद वे हार चुकी थी अपनी कहानियों को अपना साबित करने के इस युद्ध में। हाँ प्रेमचंद के बाद इस संस्मरण को लिखना उन्होने जरूरी समझा। और यह एक प्रयास उनका अभूतपूर्व प्रयास रहा। अब कौन कहता कि यह भी प्रेमचंद ने ही लिखा है?
लिखना या न लिखना शिवरानी देवी का निजी चयन था, उनका अपना चुनाव। इसमें भला प्रेमचन्द क्या करते याकि कर सकते थे? सवाल यह भी बनता है।
लेकिन करना बस इतना भर था कि वे उन्हें और-और कहानियाँ लिखने को प्रोत्साहित करते, उन्हें घर के कामों में ही फंसे रहने से मुक्ति देते। कहते ’लिखना और निरंतर लिखते रहना ही इस लोकोपवाद और आलोचना का जबाब है। तुम लिखो और खूब लिखो, लिखती रहो...
पर काश.....
कथा सम्राट आप एक जिम्मेदार पारिवारिक, अच्छे पिता और बेहतरीन पति तो हुये पर इन अर्थों में बेहतर समकालीन याकि बेहतर लेखक न हो सके कि आप शिवरानी देवी के भीतर के कथाकार को पनपने और फलने-फूलने के लिए वह खाद पानी और वातावरण मुहैया करवा पाते, जो वे आपके लिए, आपके लेखन के लिए करती रहीं। वे परिवार, बच्चों के देख-रेख, उनकी हारी-बीमारी और अंत में आपकी बीमारी में ही उलझी अपना जीवन व्यतीत करती रहीं। जहां उन्हें हर घड़ी आपकी निगाहों के सामने होना था। ...आपने उन्हें आलोचना और लोकोपवाद से नहीं हारना, अपनी तरह उसके आगे तनकर डटे रहना नहीं सिखाया...
आपके महान व्यक्तित्व की परछाईं में दबे होने ने... आपके पारिवारिक जिम्मेदारियों ने, आपके चुने हुये आदर्श ने, और परिवार और संतानों के लिए ज़िम्मेदारी को प्राथमिकता देने ने एक बहुत सबल और सशक्त कथाकार को असमय खत्म हो जाने दिया... '
एक अजीब सी त्रासदी यह भी है हमारे समाज की कि हम रुढिभंजकों और उनकी बनाई नयी परंपरा और धारा को भी रूढ बना देते हैं, उनका अनुकरण कर-करके। और यह बिलकुल भी बिसरा देते हैं कि वह विशिष्ट याकि अनुकरणीय इसलिए भी हो सके कि उन्होने चलती आयी किसी रूढ परंपरा का अनुसरण नहीं किया। हमेशा अपने मन की सुनी .... दरअसल बंधे-बँधाये खाने में रखकर या फिर प्रेमचंद को सभी इंसानी और लेखकीय कमियों और दोषों से मुक्त मानकर जब तक हम उन्हें परम ब्रम्ह याकि लेखक की तरह पूजते रहेंगे, हम प्रेमचंद की परंपरा का और लेखक प्रेमचंद का ही विनाश ही करते रहेंगे।
प्रेमचंद महान लेखक होने के साथ एक इंसान भी थे, हर मनुष्य कि तरह इंसानी कमियों और खूबियों का संगम। हाँ वे किसी सामान्य इंसान की तरह अपनी कमियों से लड़ते थे, हारते और जीतते थे। उनका यही गुण उनके लेखन को और बतौर मनुष्य उन्हें महान बनाता है।