जब कभी अपने विषय में सोचता हूं कि मैं एक लेखक क्यों और कैसे बना, इसका एकमात्र जवाब यही पाता हूं कि मेरे अंदर अभिव्यक्ति की एक ऐसी बेचैनी थी... ऐसी तड़प थी कुछ कहने की... कि कहे बिना रह पाना मुमकिन नहीं था। यह कहना भी क्या था...? सिर्फ मिथ्याचार या समाज में बढ़ते पाखंड, सामाजिक, आर्थिक असमानताएं और इसी तरह की बढ़ती तमाम जातिगत, धार्मिक विरूपताओं के प्रति अपना मुंह खोलना था बस ! न भाषा, व्याकरण का पर्याप्त ज्ञान ना कोई विशेष योग्यता या विद्वता... फिर भी एक जिद कि लिखना तो है ही।

जब लिखने लगा और थोड़ी सफलता भी मिलने लगी, लगा कि कहीं न कहीं एक आदर्श रूप में वह एक मुकम्मल स्वप्न ही है, टुकड़े-टुकड़ों में जिसकी अभिव्यक्ति मेरी रचनाओं में होने लगी है। प्रेमचंद को तो विद्यार्थी जीवन में ही घोंट रखा था। उनका यह एक वाक्य हमेशा दिमाग में रहता की रचना ऐसी हो जो हममें गति, संघर्ष और बेचैनी पैदा करे, सुलाए नहीं। 

इसके अलावा सुंदरता की जो एक कसौटी बदलने की बात प्रेमचंद करते हैं, वह भी दिमाग में इसलिए घर कर गई क्योंकि मेरा अपना जीवन भी उसी स्रोत से विकसित हुआ था। उन्हीं लोगों के बीच मैं भी पला-बढ़ा था जिन्हें इस देश का आम-जन कहा जाता है और आज के तमाम पूंजीवादी चमक दमक के पीछे उनके जीवन का सबसे अहम स्वप्न एकमात्र यही है कि किसी तरह दाल-रोटी चलती रहे और बच्चे कहीं बेहतर जगह सेट हो जाएँ। यह स्वप्न खाते-पीते मध्यमवर्गीय घरों से लेकर निम्नवर्गीयों तक में समान भाव से मौजूद है। 

जिस तरह से हमारे बच्चों के लिए आज बड़े कॉर्पोरेट स्कूलों से लेकर गली-कूंचों में कुकुरमुत्तों की तरह उग आये अंग्रेजी माध्यम के स्कूल मौजूद हैं, इन तमाम स्कूलों में अपनी सुविधा अथवा पेट काटकर भी पढ़ा रहे बच्चों के अभिभावक तथा उन बच्चों के मन में, जो वहां पढ़ रहे हैं, पल रहे स्वप्न क्या एक समान नहीं हैं?

समाजवादी सपनों को तार-तार करता पूंजीवाद

पूंजीवाद की आक्रामकता ने उन तमाम समाजवादी सपनों को तार-तार कर दिया है, जो हमने अपने विद्यार्थी जीवन में देखे-सुने थे और जिसे एक आदर्श की तरह माला में गूंथ हमने अपने भीतर कहीं धारण कर लिया था। आजादी के बाद के पहले दशक के अंदर जन्म लेने वाली हमारी जैसी पीढ़ी सातवें दशक में जब किशोर वय को तिलांजलि देती जवान हो रही थी, तब कि वह दुनिया आज के मुकाबले अब कोई और ही लगती है। यहां तक की उन दिनों रचा जा रहा साहित्य भी आज अपनी प्रासांगिकता लगभग खो चुका है। हमारी पीढ़ी ने इतने सारे बदलाव इतनी तेजी से घटित होते देखा और महसूस किया है कि वह औचक या भौचक होकर ठिठकी खड़ी नहीं रह गई, यह इस पीढ़ी की जिंदादिली का सबूत है।यह हमारे स्वप्न के जिंदा रहने के भी सबूत हैं।

जहां तक व्यक्तिगत रूप से मेरा प्रश्न है, मैं एक ऐसे परिवार से आता हूं जो उत्तर प्रदेश से विस्थापित होकर बिहार में बसा था, और जिसके पास सबसे बड़ी समस्या आजीविका की थी। पिता पोस्ट ऑफिस में क्लर्क लगे। आजादी के समय और कुछ बाद तक मामूली रूप से पढ़े-लिखों को भी रोजगार पाने को ज्यादा संघर्ष नहीं करना पड़ा। उस समय गांव से निकले जो लोग शहरों में आकर बसे, उनमें से अधिकांश आज काफी तरक्की कर भरी संपत्ति के मालिक भी बने। जबकि भूमिहीन होने और घर के आर्थिक दबाव से पिसते पिता किसी तरह जीवन यापन करते रहे। हमारा पूरा जीवन सस्ते भाड़े वाले मकानों के मोहल्लों में बीता। हम पांच भाइयों की पढ़ाई के प्रति पिता की दिलचस्पी बहुत अधिक नहीं रही। 

उस पीढ़ी के साधारण लोगों के अंदर भी कुछ सामंती बुराइयाँ थीं जो इस साधारणता को गींजकर ही अपना पोषण करती थी। इस आड़े वक्त में मां की शिक्षा काम आई। स्त्री शिक्षा का यह महत्व उसी समय से एक स्वप्न की तरह मेरे दिलो-दिमाग में अंकित हो चुका था। मां अपने जमाने में डीएवी इंटर कॉलेज कानपुर की छात्रा रह चुकी थी। वह खाना बनाते हुए हमें बगल में बिठाए रखतीं और हम घर के फर्श को स्लेट बना उसी पर चॉक से लिखते-मिटाते अपना घरेलू ट्यूशन लेते रहते। पढ़ने को सरकारी विद्यालय था, जहां उस जमाने में इतने कम वेतन में इतने समर्पित शिक्षक मिले कि आज के समय में उन्हें याद कर आंखें बार-बार भीग जाती हैं।

अखिर ऐसे जीवन मूल्य इस राष्ट्र में कहां से आए और कैसे तिरोहित होते गए? आये तो किस बिना पर आये, तिरोहित हुए तो क्यों और कैसे हुए? यह एक ऐसा सवाल था जो हमेशा हमारे मन में पलता रहा, जिसका उत्तर आज ढूंढने पर बहुत आसानी से मिल जाता है। हमारे स्वप्न भी जीवनपर्यंत इस सादगी के रहे। सादगी से भरा जीवन और अपने काम के प्रति निष्ठा और गंभीरता। राष्ट्र के प्रति भक्ति का तब यही मूल मंत्र था। जो जहां है वहीं से समर्पित भाव से राष्ट्र के लिए काम कर रहा है। यह भावना थी लोगों में। इससे बड़ी देशभक्ति की भावना किसी आजाद देश में और कुछ हो भी नहीं सकती।

नकलीपन और आडंबर

आज जब चारों ओर नकलीपन और आडंबर का बोलबाला है, समाज में सादगी की जगह प्रदर्शनप्रियता ने ले ली है और भ्रष्टाचार द्वारा अकूत धन अर्जित करने के बाद भी जब लोग हाथी के दांत की तरह दिखावे को देशभक्ति और गौरवपूर्ण संस्कृति के संरक्षण और भाईचारे की बात करते हैं, मेरे भीतर का स्वप्न एक ऐसे दर्पण की तरह दरक या टूट जाता है, जिसपर समकालीन समाज और सत्ता ने निशाना ताक कर पत्थर दे मारा हो।आज भी यदि लिख रहा हूं तो जमाने के हिसाब से कम अपने अनुभव और भोगे यथार्थ के बिना पर कहीं ज्यादा रचनारत हूं।

महात्मा गांधी ने अपनी प्रार्थना सभा के आखिरी दिनों में एक शाम कहा था- 'मैं एक-एक शब्द ईश्वर के डर से मुंह से निकालता हूं।'

आज ईश्वर का डर कहां दिखता है? ईश्वर का यह डर सत्य के प्रति, समाज के प्रति हमारी जिम्मेदारी तय करता है। आज के समाज के नेताओं के बिगड़े बोल इस समाज और देश के प्रति उनकी गैर जिम्मेदाराना और उनकी स्वार्थ सिद्धि वाली राजनीति की भेंट चढ़ती जा रही है। धार्मिक आडम्बरों के अवसर पर गली-गली में तलवार भांजते उन्मादी युवाओं की भीड़ चाहे वह हिंदू हो या मुसलमान या किसी और धर्म के, उनमें खौफ-ए- खुदा या ईश्वर का भय कहीं नहीं दिखता। 

धर्म, संस्कृति, संगीत, कला या साहित्य, हर किसी को एक सड़क छाप उन्माद में बदल डालना इस पूंजीवाद की एक ऐसी अपसांस्कृतिक घटना है, जिसका काट ढूंढने के लिए कला और साहित्य की दुनिया को लगातार परिश्रम करते हुए अनथक रूप से अपनी बात जनता तक ले जानी होगी। इसके कई मान्य स्वरूप आज भी, इस समय में भी मुझे दिख रहे हैं और ऐसे लोगों के साथ ही मेरे स्वप्न की सहभागिता है। यद्यपि की आज के समाज में हम जैसे लेखक बहुत तेजी से अवांछित होते जा रहे हैं। साथ ही एक सच यह भी है कि मैं आज भी इसी समाज एक लेखक हूं। बेशक एक लेखक के रूप में खुद के वजूद का मूल्यांकन जब करता हूं, इतनी निरर्थकता का बोध होता है कि बार-बार गालिब के इस शेर का ख्याल आ जाता है---

'हुआ है शह का मुशाहिब फिरे है इतराता
वरना इस शहर में गालिब की आबरू क्या है।'

एक लेखक के रूप में सही मायने में आज अपनी आबरू की फिक्र के साथ अपने स्वप्न की भी परवाह है। जान रहा हूं आमजन की स्थिति। वहां खाने कमाने के संघर्ष के साथ-साथ लालसाओं की इतनी लंबी सूची है कि वह सुबह से देर रात तक उसके पास अवकाश कहां...? यदि है भी इसे भरने को मोबाइल के इतने सारे ऐप हैं कि...साहित्य का कोई मान्य स्वरूप उसकी आंखों के सामने आ आने से लगभग बाहर ही रह जाता है। 

एक स्वप्न आज भी जिंदा...

फिर भी यह एक स्वप्न आज भी जिंदा है इस लेखक का कि एक ऐसी सुबह आएगी जब देश के हर नागरिक के पास उसके जीने-खाने के संघर्ष कमतर होंगे और इतनी फुर्सत होगी कि अपने समय के तमाम शोर- ओ-गुल वाले हलचलों से खुद को समेट शांति और सुकून की तलाश में वह साहित्य की ओर आ सकेगा। जब तक ऐसी आदर्श स्थिति नहीं आती है, मेरा लेखन ऐसी किसी स्थिति के निरापद रूप से आ पाने तक संघर्ष करता रहेगा। मैं इस एक बदलाव के लिए उस परिवर्तनकामी चेतना के साथ लिखता रहूंगा जब तक मेरे उस सपने की तामीर ना हो जाए जहां हर बच्चे को उसका खिलखिलाता बचपन मिले, हर युवा को शिक्षा और रोजगार तथा प्रत्येक वृद्ध को सम्मानजनक पेंशन। 
जब तक यह आर्थिक स्वतंत्रता पूरी गारंटी और एक मान्य अवकाश के साथ नसीब नहीं होती पूरे भारतीय समाज को, इस लेखक का स्वप्न उसकी काया का पीछा करती उसे उकसाती और लुलकारती रहेगी। एक लेखक के रूप में इतना आशावान तो हूं ही कि न सही मेरी जिंदगी तक, मेरे मरने के बाद भी तो कभी यह स्वप्न पूरा होगा।

मरने के बाद भी एक लेखक का स्वप्न नहीं मरता। वही उसका दर्शन है जो उसकी रचनाओं की व्याख्या से बार-बार सर उठा बाहर आ लोगों को झकझोरता रहेगा। एक लेखक का वास्तविक जीवन उसके मरने के बाद ही शुरू होता है।

हम न मरब मरिहैं संसारा, हमका मिला जियावनहारा..।