Photograph: (इंस्टाग्राम)
‘कह लूवान किट जयस्यो /पावस घर पड़ियाह /हिये नवोरा नार नना /बालम बीछदीयाह।’ (कहो लू, तुम कहां जाओगी? जब धरती पर पावस ऋतु आ जाएगी तो मैं उस नवविवाहिता के ह्रदय में जा बसूंगी जिसका बालम बिछड़ गया हो।) विरह के रंग में रंगा राजस्थान का यह लोकगीत उस विराट भंडार का हिस्सा है जो देवेंद्र सत्यार्थी ने जगह-जगह भटकते हुए जुटाया। विराट विविधता से भरे भारतीय उपमहाद्वीप के इन गीतों को इकट्ठा करने की कवायद सागर को अंजुरी में समेटने की कोशिश जैसी थी। लेकिन लगभग असंभव से लगते इस कार्य को उन्होंने क्या खूब अंजाम दिया यह इससे समझा जा सकता है कि इस लोकयात्री ने 50 भाषाओं के लगभग तीन हजार गीतों का ऐसा खजाना तैयार कर दिया जो हिंदी साहित्य की अमूल्य निधि है।
यायावरी और लोकगीतों की खोज
28 मई 1908 को पंजाब के संगरूर में जन्मे देवेंद्र सत्यार्थी एक ऐसे यायावर थे जिसकी जेब भले ही खाली हो झोलियां लोकगीतों से अंटी होतीं। लोकगीतों की खोज, उनके अनुवाद और उन्हें लिपिबद्ध करके सुरक्षित करने को उन्होंने हमेशा अपने घर-संसार से अधिक महत्व दिया। उन्हें सिर्फ चार भाषाएं ही आती थीं- अंग्रेजी ,हिंदी, उर्दू और गुरुमुखी यानी पंजाबी। लेकिन भाषा की जानकारी का न होना या कम होना सत्यार्थी के इस अभायान में कभी बाधक नहीं हुआ। वे जहां जाते वहां किसी एक नौजवान को पकड़ते, उससे उन गीतों का अनुवाद जानते और उसे लिपिबद्ध कर देते।
देवेंद्र सत्यार्थी ने जो लोकगीत इकट्ठा किए उनमें प्रेम, विरह, देशप्रेम, भाईचारा, गुलामी की फांस, साहूकारों-जमींदारों का शोषण और अंग्रेजी सरकार के विरोध के रंग भी भरे पड़े हैं और दूसरी तरफ अकाल, बाढ़ और सूखे के वर्णन भी। वे यह देखकर चकित भी होते थे कि तमाम भोगौलिक दूरियों औरअसमानताओं के बावजूद लोगों की सोच कैसे बहुत हद तक एक जैसी ही थी। दरअसल आंसू और मुस्कान के अर्थ तो सभी जगह और सभी भाषा में एक जैसे ही होते हैं। इसलिए लोकगीत भी मिलते-जुलते हुए ही थे। एक पंजाबी लोकगीत में कहा गया है कि देवता भी पुलिस से डरते हैं। सांप्रदायिक सद्भाव का एक गीत सत्यार्थी को कश्मीर से मिला जिसमें कहा गया है, बाबा आदम के दो पुत्र हुए जिनमें से एक कब्र में जा सोया और एक ने श्मशान की राह ली। यह आम आदमी के समान मनोभाव थे जो अलग-अलग भाषाओं में लिखे जाकर भी एक ही थे।
19 साल की उम्र से ही देवेंद्र सत्यार्थी ने लोकगीतों की खोज में भटकना शुरू कर दिया था। इस क्रम में उन्होंने देश ही नहीं भूटान, नेपाल और पाकिस्तान की सड़कों की भी धूल फांकी। उनके पैरों में छाले होते रहे, उनसे खून बहता रहा, बीमारियां जान को लगती रहीं, पर उन्हें कभी भी इसका गम न रहा। धुर जाड़ों की रात में वे कभी फुटपाथों पर गीत-कहानियां सुनते रातें बिता देते तो कभी किसी पेड़ के नीचे ही किसी की दी चादर बिछाकर सो रहते। इस अनूठी यात्रा में किसान, माली, शिल्पकार, बढ़ई और चर्मकार तक यानी तमाम तरह के लोग उनके सहचर और पथ प्रदर्शक हुए।
बचपन से लोकगीतों से प्यार
यह सिलसिला कोई नया भी न था। बचपन में जब उनके पिता घर बुलाकर मोची को उनके जूतों का काम दिलवाते या फिर जिल्दसाज को किताबें ठीक करने को देते तो वे चुपके से उनके साथ उनके घर चल देते। मकसद होता उनका काम सीखना और गीत सुनना। बचपन से उन्हें मौसियां और भाभियां प्यारी रहीं क्योंकि उनके पास लोक गीतों के खजाने थे। स्कूली शिक्षा उन्हें खास रास नहीं आई। लोकगीतों की पुकार उन्हें अनजान रास्तों की तरफ खींचती रहती। सो एक दिन वे सब छोड़कर दिल की इस पुकार के पीछे दीवानावार होकर चल पड़े। बदले में कई बार उन्हें उपेक्षा मिली। घर-बार छोड़कर गीतों के पीछे भटकना आम दुनियावी लोगों की समझ में आने वाली बात थी भी नहीं। हालांकि तब के तमाम बड़े नाम इस काम के लिए सत्यार्थी के प्रशंसक रहे।
पत्नी का साथ और सहयोग
इस सारी प्रक्रिया में जो दुःख सहता रहा और फिर भी साथ चलता रहा, वह उनका परिवार था। अपनी शादी के तुरंत बाद भी देवेंद्र सत्यार्थी दो साल के लिए कहीं चले गए थे। वे कहीं किसी काम से निकले और घर आये ही नहीं। बेचारी पत्नी परेशान। वे लौटे तो धीरे-धीरे लोकमाता शान्ति सत्यार्थी उन्हें कुछ-कुछ बूझने लगीं। अगली बार जैसे ही वे जाने को तैयार दिखे, उन्होंने भी साथ चलने की जिद ठान ली। किस्सा है कि देवेंद्र सत्यार्थी ने पहले तो ना-नुकर किया लेकिन, पत्नी ने कहा, ‘जहां आप वहां मैं। आप राजा तो मैं रानी, आप भिखारी तो मैं भिखारन।’ सत्यार्थी ने हंसकर कहा, ‘यह राजा-रानी वाली बात तो कुछ जंचती नहीं। हां दूसरी वाली चल जाएगी।’
प्रकाशन विभाग की पत्रिका 'आजकल' का संपादन
तो पति-पत्नी की यायावरी का यह सिलसिला बरसों तक चला। यह चलता रहता अगर इन दोनों की बड़ी बेटी कविता का जन्म न हुआ होता। कविता के जन्म के बाद पत्नी ने घर गृहस्थी की बागडोर संभल ली। कुछ दिनों तक सत्यार्थी भी प्रकाशन विभाग की पत्रिका 'आजकल' के संपादक की कुर्सी पर जमे रहे। 'बापू विशेषांक' और 'लोकरंग विशेषांक' जैसे अभूतपूर्व अंक निकालकर उन्होंने इस पत्रिका को एक आदर्श ऊंचाई दी।
पर उनका रमता जोगी सा मन कब तक एक ठौर बंधता? बसी-बसाई गृहस्थी और नौकरी को छोड़कर जल्द ही वे फिर अपनी घुम्मकड़ी में मग्न हो गए। पत्नी ने दिन-रात सिलाई करके बेटियों को पढाया-लिखाया और उनकी शादियां की। पत्नी की चिठ्ठियां, जिनके साथ कभी- कभी बच्चों की चिठ्ठियां भी होती थीं, उन्हें वापस घर तक खींच लाती थीं। कई बार तो बच्चों के होने की खबर भी उन्हें घर तक वापस लेकर आई। उनकी बड़ी बेटी कविता जब हुई तो सत्यार्थी बर्मा में थे और जब उनकी मौत हुई तब भी वे घर पर नहीं थे। गीतों के लिए विदेह बने फिरते सत्यार्थी जी को किसी अन्य बात का दुःख रहा हो न रहा हो, इस बात का क्षोभ आजीवन रहा।
जब जवाहर लाल नेहरू को उन्हें चिट्ठी लिखकर बुलाना पड़ा
वे अच्छे पति और पिता नहीं थे, यह वे जानते थे। एक बार वे पाकिस्तान किसी मुशायरे में गए तो फिर बहुत दिन न लौटे। यहां पत्नी परेशान, पिता की याद में बच्चियां उदास। पत्नी ने तब हारकर प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू से संपर्क किया। उन्होंने एक पत्र लिखा, दूतावास को सूचित किया और नेहरू जी का यही पत्र सत्यार्थी को वापस हिंदुस्तान लेकर आया।
शांति सत्यार्थी कहती थीं कि पति को लगे इस घुमक्कड़ी- रोग का पता उन्हें शादी के बाद ही चला था। कई बार वे यह भी भूल जाते थे कि पत्नी भी उनके साथ यात्रा पर हैं। उन्हें धर्मशाला में ही छोडकर वे आगे बढ़ जाते। पर पत्नी ने कभी इसके लिए शिकायत नहीं की। सत्यार्थी को भी यह बखूबी पता था कि उनकी और उनके परिवार की जीवनधुरी पत्नी ही हैं। अपने प्रेयसी शीर्षक वाली एक कविता में उन्होंने कहा है – ‘मेरी प्रेयसी हीर नहीं है / न ही मैं रांझा / मैं पथिक पैर में चक्कर / मेरी प्रेयसी पथ की अभ्यस्त / चल पड़ती है उधर / जिधर मैं हो लेता हूं / न हंसकर, रोकर / नयनों में प्रिय नयन पिरोकर।" सत्यार्थी सब जानते बूझते भी अगर अपनी गृहस्थी से विमुख और गीतों की खोज में तल्लीन रहे तो बस इसी कारण कि वे जानते थे कि शांति उसे संभाल लेंगी।
दुनिया के दुःख-सुख से जुड़ने के क्रम में पहले निजी सुखों-दुखों को पीछे छोड़ना पड़ता है। स्व से कहीं बहुत ऊपर उठना पड़ता है। परिवार उनके इसी निज और स्व का ही तो हिस्सा था। इसलिए इस कठिन राह पर चलते हुए देवेंद्र सत्यार्थी ने कभी अपने निजी दुःख-सुख और परिवार को तरजीह नहीं दी।
पंडित मदन मोहन मालवीय उनका पैर धोना चाहते थे
उनसे जुड़े हुए कई किस्से हैं. एक बार जब भटकने के अपने इसी क्रम में सत्यार्थी बनारस पहुंचे तो मदन मोहन मालवीय ने उन्हें घर बुला लिया. पर वे सत्यार्थी जी की स्थिति देखकर बेहद दुखी हुए। थका क्लांत शरीर, बिवाई वाले बदरंग थके और घायल पैर। उन्होंने तुरंत उनकी मरहम पट्टी अपने हाथों से करनी चाही। सत्यार्थी को यह मंजूर न हुआ। उनके बहुत जिद के बाद कहीं जाकर वे उनके बेटे से पट्टी करवाने को तैयार हुए।
महात्मा गांधी ने उनके लिए अपना कमरा खुलवाया
महात्मा गांधी उन्हें लगातार कहते रहते थे कि वे उनके साथ वर्धा आकर रहें। सत्यार्थी न मानते। एक बार आमना-सामना होने पर भी उन्होंने यही पेशकश की। सत्यार्थी ने कहा.-‘लेकिन मैं तो मुंबई जा रहा हूं। ’ गांधी जी ने तुरंत पूछा –‘वहां कहां रुकोगे?’ उन्होंने कहा, ‘जहां अभी तक रुकता आया हूं।’ बताते हैं कि गांधी जी ने तत्काल हिदायत दी कि मुंबई में कन्हैयालाल मुंशी के घर में उनके लिए जो कमरा रखा हुआ है वह सत्यार्थी को सौंप दिया जाए और उनसे एक बार भी यह न पूछा जाये कि वे कब तक रहेंगे या कब जायेंगे। रवीन्द्रनाथ टैगोर, हजारी प्रसाद द्विवेदी, अज्ञेय, रेनू और बच्चन सहित तमाम हस्तियां उनके लेखन, समर्पण और उनकी इस निष्ठा के लिए उन्हें बहुत मान देते थे।
सत्यार्थी चाहते तो किसी भी विश्वविद्यालय से सहयोग लेकर अपना काम सुचारू रूप से कर सकते थे। पर इसकी उनको कभी चाह नहीं हुई। उनका कहना था कि रस और आनंद उनके जीवन की पहली शर्त है और नाक में नकेल पड़ जाए, यह उन्हें कभी पसंद नहीं रहा।
जब इंदिरा गांधी ने उनके समकक्ष बैठने से इंकार कर दिया
उनसे जुड़ा एक और दिलचस्प किस्सा है। यह आजादी के पूर्व की बात है। एक बार सत्यार्थी जवाहरलाल नेहरू से मिलने उनके घर गए थे। इंदिरा गांधी खुद उनके लिए चाय बना कर लाईं। नेहरु ने उन्हें कहा कि वे भी बैठें और बातचीत में शरीक हों। इंदिरा ने यह कहते हुए बैठने से साफ़ मना कर दिया कि 'वे अपने गुरु के समकक्ष कैसे बैठ सकती हैं?'
बात यह थी कि इंदिरा की शिक्षा शान्तिनिकेतन में हुई थी और सत्यार्थी का उनके घर के बाद जो दूसरा पता ठिकाना था वह शान्तिनिकेतन ही था, एक बार हजारी प्रसाद द्विवेदी कुछ अस्वस्थ थे। उन्होंने सत्यार्थी से अपनी कक्षा लेने को कहा। वे बोले, ‘भला मैं आपकी जगह कैसे पढ़ा सकता हूं? मुझमें इतनी योग्यता नहीं।'
जवाब आया, ‘तुम्हें पढ़ाने को कौन कह रहा है? तुम जो इतने दिन और इतनी जगहें घूमते रहे हो, जाओ अपने इन अनुभवों को छात्रों से बांटो। इंदिरा भी उस दिन उन्हीं छात्रों में कहीं शामिल थीं जिनकी सत्यार्थी ने उस दिन कक्षा ली थी।
हजारी प्रसाद द्विवेदी को यूं भी सत्यार्थी से बहुत स्नेह था। लोकगीतों के प्रति उनकी बेचैनी के लिए वे उनकी बहुत इज्जत करते थे। द्विवेदी ने सत्यार्थी जी की प्रशंसा में लोकगीत शैली में ही एक लंबी कविता लिखी थी। जिसका मजमून यह था कि जैसे 'सूर्य और चन्द्रमा आकाश में अकेले होते हैं , वैसे ही सत्यार्थी भी अपने एकाकी पथ में अलग और अकेले हैं।
देवेंद्र सत्यार्थी की 50 से भी ज्यादा किताबें प्रकाशित हुईं. हालांकि कहानी, कविता, लेख, उपन्यास,आत्मकथा सहित सभी विधाओं में लिखने वाले इस लेखक पर उसका लोकगीत प्रेम हमेशा हावी रहा। 1977 में भारत सरकार ने देवेंद्र सत्यार्थी को पद्मश्री से सम्मानित किया। 12 फरवरी 2003 को 94 वर्ष की आयु में उनका देहांत हो गया था।