यह कैलाश वानखेड़े का पहला उपन्यास है। और इस उपन्यास के हित में एक बात अच्छी यह रही कि इसे दलित साहित्य के नाम से अभिहित नहीं किया गया है। किसी भी रचना के साथ इस तरह के विशेषण जोड़ दिए जाने से उस रचना के साथ बहुत से पूर्वगृह जुड़ जाते हैं; और पाठकीय दृष्टि प्रभावित होती है। इस उपन्यास के साथ ऐसे विशेषण की अनुपस्थिति से उपन्यास के दलित जीवन के संदर्भों को मनुष्यता के संदर्भों से जुड़ने में सुविधा हासिल हुई है।
दलित साहित्य में दुख और पीड़ा के विराट अनुभवों को इतिहास दृष्टि की अवहेलना के स्वीकार में अधिकांश लेखकों ने प्रतिरोध की आक्रामकता में भावबोध को प्रतिबंधित कर महज प्रतिशोध में रिड्यूस किया। लेकिन यह भली बात रही कि जो बात मराठी दलित साहित्य में जल्दी समझ ली गई; हिंदी में अब देर से सही लेकिन दाखिल हो रही है। दलित साहित्य की एक पहचान स्पष्ट हो रही है। आरंभिक उलझनें संशय और भटकाव से हिंदी दलित साहित्य अब बाहर आ रहा है। यह उपन्यास इसी बात के साक्ष्य जुटाता है।
उपन्यास के कथानक में बहुत ज्यादा फैलाव नहीं है। एक कहानी में दूसरी या तीसरी कहानी की शुरुआत कर देने के कैलाश वानखेड़े के लेखकीय मोह की कमजोरी कहानी से चलकर उपन्यास में आकर मददगार ही प्रमाणित हुई है। और जिस तरह से कैलाश अपनी वर्गीय चेतना से उपजी प्रतिरोध की आक्रामकता को प्रतिशोध के दृश्यों की अपेक्षा जरूरी संयम के साथ कथा-विस्तार में ले जाते हैं; उससे एक पूरे वर्ग के दुख और तकलीफों के अजान दृश्य सामने आए हैं। और अच्छी बात यह भी रही कि उपन्यास में उन्होंने अपनी असहज करने वाली टेलीग्राफिक भाषा पर काफी हद तक नियंत्रण रखा है। इससे दृश्यों के अर्थ खुलकर सामने आए हैं और कथा और लेखक की मंशा को भी मदद मिली है।
यहाँ पिता और पुत्र की कहानी भी है। एक घुमंतू गवैया भी है। आधी-अधूरी वैचारिकी के साथ वाम आंदोलन से जुड़ा एक उत्साहीयुवक भी है। एक बीमार भाई है और इन सब के साथ जीवन संघर्ष में थक रहा वह वर्ग है, जिसके लिए लेखक व्याकुल है। कईं तरह की कथाएँ इसमें निरंतर चलती रहती हैं। और इन सब जीवन प्रसंगों का यथार्थ अंकन और आंतरिक मनःस्थितियाँ और वस्तुस्थितियाँ का किंचित व्यंग्य के साथ यथार्थ नाट्य है।
कई परतों में छिपी-उलझी और जटिल होती हुई दुनिया का ऐसा यथार्थ भी है, जहाँ व्यवहारिक बुद्धि हतप्रभ हो जाती है और व्यक्ति विकल्पहीन स्थिति में खड़ा रह जाता है। यह स्थिति व्यक्ति के लिए और पूरे वर्ग के लिए कठिन होती है। लेखक की कठिन परीक्षा भी यहीं से शुरू होती है।
इसमें कोई संदेह नहीं कि कैलाश अपने वर्ग की संस्कृति, परंपरा और जीवन संघर्षों से न सिर्फ भली-भाँति परिचित हैं बल्कि इन संघर्षों और जीवन -बोध ने उनकी इस वर्ग से घनिष्ठता स्थापित की है। लेकिन इस घनिष्ठता को एक भावुक रोष से बचाकर उनकी वर्ग चेतना का साथ देने में इतिहास-बोध सबसे ज्यादा मददगार साबित होगा, क्योंकि इतिहास की गुहाओं में ही वह दृष्टि कहीं दबी-छुपी है; जिससे एक बड़े वर्ग के दुख, तकलीफों और संघर्ष को न्यायोचित जगह पर खड़ा कर सकती है।
इस नयी बनती हुई दुनिया में सिर्फ धर्म, जाति और वर्ग भेद का ही दबाव नहीं है बल्कि बाजार ने पूँजी का दबाव भी बनाया है और उपन्यास में इस बात के साक्ष्य हैं। "लोग सामान खरीदने नहीं आते। लोग हाट में अपने रिश्तेदारों, दोस्तों से मिलने-बतियाने आते हैं। प्रशांत ने एक बार कहा था कि बाजार में इंसान अपने आप से मिलने आता है, लेकिन बाजार उसे मिलने नहीं देता है खुद से। ये जो व्यापारी हैं ना, वो उसे उलझाने के लिए ही सारा ताम झाम रचते हैं, उसके भीतर की तलाश को भटकाकर उसकी भूख को बढ़ाते हैं, समझते हैं कि उसके लिए क्या अच्छा होगा, उसे क्या चाहिए?" ( पृष्ठ - 55 )
दरअसल बाजार व्यक्ति के लिए क्या अच्छा होगा या है, यह तो समझता है लेकिन उससे आगे उसका खुद का हित किसमें है, यह ज्यादा अच्छी तरह से समझता है। बाजार ने इच्छा को जरूरत में बदल दिया है। बाजार का मायावी रूप पूँजी ने कुछ ऐसा रचा है कि वह हर घड़ी, हर पल बदलता रहता है। कोई उसके एक रूप को समझे तब तक वह दूसरा रूप धर लेता है। बाजार के षड़यंत्र के संकेत तो यहां हैं, लेकिन उसकी मायावी प्रकृति की समझ के स्पष्टीकरण भी इसी ग्रामीण अबोध भाषा में होते तो और बेहतर होता।
फिर भी इन पात्रों के रचाव में एक बात विशेष है कि इनके पास संस्थानिक शिक्षा नहीं है, लेकिन व्यवहारिक ज्ञान है और समझ का अहंकार नहीं है। परिस्थितियों से उपजी हताशा है, लेकिन सच और नैतिकता का स्वाभिमान भी है। यही इनकी पूँजी है। यही इनकी शक्ति है। एक दूसरे का भरोसा खो देने का डर इन्हें मजबूत बनाता है, इसलिए ये अपनी उम्र की यात्रा में पीड़ा का साथ होने से ज्यादा परिपक्व होते हैं। व्यक्ति के पास व्यवहारिक ज्ञान कितना भी बड़ा हो लेकिन यदि उसके पास उस ज्ञान को माँजने और निथारने की सुविधा, सहयोग और अवसर नहीं हैं तो यहीं से भटकाव के सारे रास्ते खुलते हैं।
वामपंथी युवक यशवंत धनोरा के मजदूर दिवस पर निकाली गई एक आधी-अधूरी और संक्षिप्त से भीड़ के साथ की रैली में बच्चा और पिता दोनों असमंजस में घिर जाते हैं। "मेरा भी मन था कि मैं जिंदाबाद बोलूँ , मुझे लगा था कि मैं भी उन बच्चों के साथ चलते हुए 'एक हो जाओ ' बोलता रहूँ, लेकिन मेरे कदम आगे नहीं बढ़े। मेरी जुबान खामोश है। पिता कुछ देर तक यशवंत धनोरा के साथ चलते हुए नारे लगाते रहे। फिर कुछ देर बाद पिता के पीछे-पीछे मैं चुपचाप चलता रहा। गली से सड़क पर आकर पिता संजय की बारात में शामिल होने के लिए साइकिल पर सवार हुए।" (पृष्ठ - 61 ) बच्चे का चुप रह जाना एक विचारधारा की अधूरी संप्रेषणीयता को भी प्रकट करता है।
यहाँ आंदोलन छोड़कर रिश्तेदार की शादी में जाने जाना, दायित्व बोध की ओर पीठ फेरना नहीं है बल्कि एक तरह से यह वामपंथी आंदोलन की भी असफलता है, जो उन्हें आंदोलन की जरूरत और अहमियत का पाठ ठीक से समझा नहीं पाए और पिता के लिए शादी में जाने की दुनियादारी प्राथमिकता में आ गई। किसी भी संगठन या आंदोलन की सफलता इस बात में भी निहित है कि वह अपने उद्देश्य , जनहित के निहितार्थ सामान्य जन तक कितनी आसानी से संप्रेषित कर सकते हैं और कितनी आसानी से उन्हें समझा सकते हैं। इस तरह की एकाध पंक्ति यहाँ आ जाती तो यह प्रसंग और बड़े अर्थ को समेट लेता। लेकिन यह भी जरूरी नहीं कि हर बात पाठक को स्पष्ट रूप से समझाई जाए!
दरअसल कोई भी उपन्यास यथार्थ की प्रतिकृति की अपेक्षा यथार्थ के पीछे छिपे कारक तत्वों और परिणाम की संभावना के कथात्मक विश्लेषण में अपनी सफलता हासिल करता है। इस उपन्यास में कैलाश वानखेड़े को इस बात की सफलता जरूर मिली है कि उन्होंने व्यक्ति को नायक बनाने की अपेक्षा वर्ग को नायक बनाने की कोशिश की है। इसलिए उस वर्ग विशेष के दुख, तकलीफ और संघर्ष के मार्मिक प्रसंग बन पाए।
हालाँकि उपन्यास में एक गीला नॉस्टैल्जिया और एकरेखीय आस्था-दृष्टि ने विचार को अपदस्थ करके वर्ग के अंतर्विरोधों को प्रकट करने में संकोच पैदा किया। और वर्ग की समस्याओं वहाँ के संबंधों, सामाजिक और सांस्कृतिक परिवेश के समग्र रूपों के रचनात्मक प्रकटन में एक द्वंद्वात्मक स्थिति पैदा हो गई। लेकिन यही आस्था समर्पण के निकट जाने से वर्ग विशेष के उपेक्षित जीवन की सीमा, विवशता, संघर्ष और विशेषतः उसकी संश्लिष्टता के करीब पहुँच पाई।
सवर्ण दबंगों द्वारा दलित युवक की बारात रोके जाने का प्रसंग जिस तरह रोष, हताशा और दुख के दृश्य खड़े करता है, वह आजादी के लगभग पचहत्तर बरस से ज्यादा के समय पर प्रश्न भी खड़े करता है। "वे परंपरा के वाहक हैं। वे बस अपनी घृणा को गुस्से से भरकर लाठी और तलवार से परंपरा का संरक्षण कर रहे हैं। लड़ रहे हैं। प्रथा को बचा रहे हैं। किसलिए?" (पृष्ठ - 64 ) यह प्रश्न सिर्फ सवर्ण दबंगों के लिए नहीं है। यह प्रश्न पूरी व्यवस्था के लिए है जो आजादी के पचहत्तर वर्ष बाद भी ऐसी हिंस्त्र मानसिकता को बदल नहीं पाई है। सभी वर्ग के लिए एक न्याय पूर्ण व्यवस्था नहीं बन पाई है।
दरअसल यह उपन्यास एक सवाल की शक्ल में है कि दलित वर्ग के संवेदनशील तंतुओं को काटकर कैसे गुलामी की शक्ल में ढाल दिया जाता है। उपन्यास में इस तरह के प्रसंगों का यथार्थपूर्ण और संपूर्ण अंकन है। यथार्थ दृश्यों की वर्णनात्मकता में जो संवेदन-उपस्थिति है; उसने उपन्यास को सतही और भावोच्छल वर्ग सहानुभूति से भी बचाने की कोशिश की है।
नीच और अधर्मी की संज्ञाओं से शापित उत्पीड़ित वर्ग के करुण संघर्ष की कहानी है यह, जिसमें यथार्थ के संश्लिष्ट चित्रात्मक प्रस्तुति ने उसमें निहित अर्थ को स्पष्ट भी किया है। दुख, पीड़ा और संघर्ष के जो यथार्थ हैं, उसको गहरी हार्दिक संवेदनशीलता से उपन्यास में संभव करने के श्रम का प्रयास है।
आज का समय ऐसा है कि विचार को संदिग्ध बनाया जा रहा है। दरअसल विचारधाराएँ कुछ हद तक देशकाल और समय पर भी निर्भर करती हैं। यह सारा कुछ समय और बदलाव की परिस्थितियों और उसे संचालित कर रही व्यवस्था की शक्तियों पर भी निर्भर करता है। इन सबके लिए जो विश्लेषण और ज्ञान संपन्नता होती है, वह विचारधाराओं के सांगठनिक क्रियान्वयन में सार्थक होती है। "इसमें कोई शक नहीं है कि वह पूँजीवादी व्यवस्था हमारी दुश्मन है। उससे लड़ने की जरूरत है लेकिन इससे पहले जाति व्यवस्था, वर्ण व्यवस्था के खिलाफ लड़ना पड़ेगा। इसे खत्म करना है। पहले सामाजिक, फिर आर्थिक सवाल। ऐसे चलना पड़ेगा।" (पृष्ठ - 144 )
इसमें कोई संदेह नहीं कि भारत में जाति व्यवस्था और वर्ण व्यवस्था की जड़ें बहुत गहरी फैली हुई हैं और जिसने आदिवासी और दलित समाज का बेहद क्रूरता से शोषण किया है। लेकिन इसे भी अदेखा नहीं किया जा सकता है कि इस जातिवाद या वर्ण व्यवस्था की आंतरिक संरचना में पूँजीवाद की सहयोग व्यवस्था है।
उपन्यास में उक्त वक्तव्य दरअसल दुख, शोषण और संघर्ष की इच्छा की मार्मिक उत्तेजना में भाषा की उस बदहवासी के हवाले हो गया है जो पूँजीवाद को सेकेंडरी कर रही है। इस बात की अदेखी नहीं की जा सकती है कि जातिवाद और वर्ण व्यवस्था को बढ़ावा देने या उसके पोषण में पूँजी की बड़ी भूमिका है। लेकिन यह महत्वपूर्ण सवाल उपन्यास में सही जगह और बदलते समय की जरूरत में आया है कि- 'वह क्या हिचक है कि जातिवाले मसले पर आंदोलन पर तुम चुप हो जाते हो या कन्नी काट लेते हो? वह कौन सी बात है जो तुम्हें रोकती है? तब चुप रहने या उपेक्षित करने के लिए तुम्हें कौन मजबूर करता है? जाति मुक्ति की बात पर बहस तुम बढ़-चढ़कर कर लेते हो, कहना चाहिए बात करने में सबसे आगे तुम रहते हो लेकिन प्रतिरोध के वक्त, आंदोलन के समय किसी अन्याय या घटना के वक्त तुम, तुम नहीं रहते हो ।' (पृष्ठ - 145) यह सवाल उपन्यास में बहुत सामान्य ढँग से आया है।
इस सवाल को उपन्यास में और विस्तारित जगह मिलती तो वामपंथी विचारधारा के एशियाई देशों में खासकर भारत में सांगठनिक क्रियान्वयन की सफलता - असफलता के महत्वपूर्ण हिस्से सामने आ सकते थे। लेकिन फिर भी सवाल की तासीर और महत्व कम नहीं हो जाता।
दरअसल यह उपन्यास दलित विमर्श की देशज प्रकृति की पड़ताल भी है। दलित विमर्श को केंद्र में रखकर यह उपन्यास इस सीमा से बाहर जाकर सवर्ण वर्ग, व्यवस्था और वाम आंदोलनों की असफलता, भटकाव और विकृतियों के साथ चिंता को केंद्र में रखने की कोशिश करता है। जातिवाद, स्वार्थ की राजनीति और दलितों के प्रति व्यवस्था की आपराधिक उदासीनता, यह सब अंतर्वस्तु के एक सुखद फैलाव में कैलाश वानखेड़े के बतौर उपन्यासकार संभावनाएँ बढ़ाता है।
सरोकारों को जिस रचनात्मक इच्छा शक्ति और चिंता के साथ प्रकट किया है, यह लेखक की दृष्टि और दायित्व को भी बताता है। दलितों के शोषण की मुक्ति प्रसंग के लिए वे बहुत श्रम से एक प्रतिपक्ष रचते हैं, जो अपने सीमित वृत्तांत में भी संभावना की दस्तक देता है। मुख्य बात तो यह है कि कैलाश दलित समाज के यथार्थ को प्रभावी और संप्रेषणीय बनाने वाले उपकरण जुटाने लगे हैं। उनके पास इस यथार्थ के प्रकटन की इच्छा शक्ति बड़ी है।
"अगर सभी घरों के चूल्हे से निकला हुआ धुआँ आसमान में जाएगा तो लोगों को भी समझ में आएगा। यह धुआँ लोगों को दिखाना पड़ेगा।" ( पृष्ठ - 214 ) यही वह इच्छा शक्ति है जो वे धुएँ और आग के रूपक में पैदा करते हैं। जाति और वर्ग भेद के अँधेरे की पहचान लेखक के पास स्पष्ट है। वे दमन, गरीबी और शोषण के संदर्भ में शहर और गाँव के अँधेरे की विभाजक रेखा खींचते हैं। "हमारी बस्ती के अँधेरे जैसा नहीं है यह अँधेरा, यह अँधेरा अब उजाला लग रहा है। हमारी गली में अँधेरा इस तरह नहीं आता। सूरज भी आते हुए नहीं दिखता है तब आसमान बहुत छोटा सा लगता था।" ( पृष्ठ -83 )
उपन्यास का युवा होता नायक भूख और गरीबी के साथ दमन और शोषण की पीड़ा के बीच उम्मीद की यात्रा खत्म नहीं करता है। यही नायक की ताकत है और उपन्यास की भी।
दरअसल कैलाश जाति और वर्ग विहीन समाज व्यवस्था की प्रतिष्ठा के स्वप्न को विस्तार देते हैं। सवर्णों द्वारा घोड़ी पर बैठे दलित युवक की बारात रोकने की घटना के संघात की जो प्रतिक्रिया है, वह उपन्यास और लेखक के केंद्रीय आशय और विचारों का विस्तारित रूप है। 'रात बढ़ती जा रही है। लोग बेचैन होते जा रहे हैं। दूर-दूर से आए हुए लोग अब वापसी की बात सोच रहे हैं। वे ये भी जानते हैं कि यहाँ से अभी खाली हाथ लौट गए तो अपनी पूरी ज़िन्दगी में और अगली पीढ़ियों के हाथ कुछ नहीं लगना है।' ( पृष्ठ - 75 )
उपन्यास - उजला अँधेरा - कैलाश वानखेड़े
प्रकाशक - राजकमल प्रकाशन , दिल्ली
वर्ष - 2025
मूल्य - 299/-