पुस्तक समीक्षा: अनुमतिपत्रों की प्रतिरोध-प्रस्तावना

सुपरिचित आलोचक वैभव सिंह ने विगत कुछ वर्षों में कथा-साहित्य की दुनिया में भी अपनी सार्थक उपस्थिति दर्ज कराई है। इनका पहला उपन्यास ‘अनुमतिपत्र’ इसी वर्ष वाणी प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है। यह उपन्यास स्वतंत्रा प्राप्ति के बाद भारतीय समाज में आये बहुस्तरीय बदलावों को जिस गंभीरता से देखता-परखता है, उसका सम्यक मूल्यांकन कर रहे हैं- वरिष्ठ कथाकार भालचन्द्र जोशी।

Anumati Patra

पुस्तक का कवर पेज और इसके लेखक

किसी भी रचना को खासकर उपन्यास को पढ़ते हुए यह विचार स्वाभाविक रूप से आता है कि उपन्यास में विचारधारा की जगह कितनी गहरी और विस्तारित होनी चाहिए। क्या रचना की केंद्रीयता विचारधारा है? इस तरह के विचारों का कारण बहुत संभव है कि लेखक संगठनों से मेरी  निकटता और सम्बद्धता रही है। लेकिन ऐसा भी नहीं है कि किसी लेखक की लेखक संगठनों से संबद्धता खत्म हो जाए लेकिन विचारों से भी इसका नाता टूट जाए। विचारों से गंभीर निकटता और  अध्ययन और विश्लेषण की लत  लेखक के भीतर एक किस्म की ईमानदार प्रतिबद्धता के लिए जगह बना देती है। 

इस उपन्यास को पढ़ते हुए यह बात तो स्पष्ट हो जाती है कि लेखक आजादी के बाद के भारतीय समाज में आ रही गहरी उथल-पुथल और बदलाव को गंभीर चिंता के साथ देख और समझ रहा है। एक बहुत ही घिसा-पिटा  जुमला है लेकिन मैं फिर भी इस्तेमाल करना चाहूँगा कि यह समय बहुत गहरे संकट का है। भारतीय समाज ही नहीं पूरा वैश्विक समाज इस समय बड़े संकटग्रस्त बदलाव से गुजर रहा है,  जिसमें किसी एक स्तर पर और किसी एक जगह पर बदलाव नहीं हो रहा है बल्कि कई-कई कारक तत्व एक साथ मारक ढँग से सक्रिय और सफल हैं। इस उपन्यास की केंद्रीय उत्तेजना और चिंता यही संकट है। पूरे विश्व में  विशेषकर भारतीय समाज में भूमंडलीकरण के इस उत्तर समय में पूँजी के दखल से जितने अमानवीय बदलाव हो रहे हैं, उन सब की कथा-मौजूदगी इस उपन्यास में है। सत्ता की औद्योगिक नीति या  पूँजी रुझान से देश,समाज, संस्कृति,पर्यावरण और इससे आगे जाकर कहें पृथ्वी और मनुष्यता के संकट के  संदर्भ इस उपन्यास में शामिल हैं। इतने सारे संदर्भों को कथा-सूत्र में लेकर उपन्यास की यात्रा पूरी करना सामान्य बात नहीं है। इतने बड़े सन्दर्भों के कथा-विस्तार  को लेकर वैभव सिंह के सामने कितनी बड़ी चुनौतियाँ रही हैं यह उपन्यास इसके भी साक्ष्य जुटाता है। 

जब भी कोई कहानी या उपन्यास विचारधारा की केंद्रीयता में लिखा जाता है तो सबसे जरूरी हो जाता है रचना के चरित्रों को उस विचारधारा के अतिक्रमण से बचाना। इस उपन्यास  में वैभव सिंह का कथा कौशल इसीलिए बहुत महत्वपूर्ण है,वे विचार को केंद्र में रखते हैं और उपन्यास में कई ऐसे संदर्भ आते हैं; ऐसी कई घटनाएँ हैं जब वे वाम संगठनों और वाम - राजनीतिक दलों पर भी सन्देह खड़ा करते हैं। ऐसे संदेह कोरी असहमति या पूर्वगृह के नहीं हैं बल्कि वह समय संदर्भों की तार्किकता में विश्लेषण के साथ आते हैं। 

आजादी के बाद खुशी की खुमारी उतरते ही भारतीय गाँवों में जिस तरह के अंतरविरोध पैदा हुए और राजनीति या सत्ता ने समाज में संकटग्रस्त तनाव पैदा किये, इनके कारण बहुत स्पष्ट और विस्तार के साथ इस उपन्यास में मौजूद हैं। भारतीय ग्रामीण समाज में फैली वैयक्तिक स्वार्थ की टकराहट, अंतरविरोध, राजनीतिक अवसरवादिता, झूठ, लोभ - लालच और आजादी के समय के आदर्श को पीछे धकेलकर सत्ता के हासिल की अंतहीन और क्रूर महत्वाकांक्षाओं की यथार्थ कथा भी है।  यह कथा जिस यथार्थ - दृष्टि और लेखकीय संयम के साथ उपन्यास में जतन करती है, वह भारतीय ग्रामीण जीवन और शहरी समाज के पूरे वृत्तांत को विश्वसनीय बनाती है।

इस उपन्यास में एक दिलचस्प बात और है कि  पात्रों में इसका नायक देवदत्त इसकी धूरी नहीं है। वैसे तो यह उपन्यास बहुत सारे पात्रों के जीवन का वृत्तांत है लेकिन प्रकट में यह देवदत्त की कहानी लगती है लेकिन जैसे-जैसे उपन्यास आगे बढ़ते जाता है ;  यह उपन्यास अरुणा और अरुणा के बहाने स्त्री केंद्रित संदर्भ भी समेट लेता है। 

देवदत्त काफी हद तक अन्यमनस्क और असमंजस से घिरा चरित्र है। चीजों और स्थितियों को ठहरकर और धैर्य से देखने की प्रतिभा होने के उपरांत एक जरूरी संयम उसके पास नहीं है। और देवदत्त के चरित्र का यह उलझाव कोई  कथा -असावधानी नहीं बल्कि उपन्यास में कुशलता से गढ़ा गया है। देवदत्त के चरित्र के समांतर अरुणा का चरित्र अधिक गंभीर और परिपक्व लगता है। अरुणा ज्यादा पढ़ी-लिखी नहीं है लेकिन उसके विचारों में ठहराव है और निर्णयों को लेकर किसी प्रकार का द्वंद्व नहीं है। उसके पक्ष में एक बात अच्छी जाती है कि चाहे निर्णय गलत हो लेकिन निर्णय लेने का संतोष उसके पास है। 

उपन्यास के स्त्री पात्रों में अंजलि खुद को दुनियादार समझती है और कैरियर को लेकर बहुत सजग भी रहती है। उसके पास नैतिकता और अनैतिकता का कोई द्वंद्व नहीं है। वह अपने निर्णयों को व्यावहारिक होकर और सफलता - असफलता से जोड़कर देखती है। "तरल आत्मीय संबंधों की उष्मा देवदत्त और अंजलि को जोड़ती थी ऐसा संबंध जिसमें चाहत के अलावा सब कुछ था। पसंद, शरारत, खुलापन, आत्मीयता सब कुछ।" (पृष्ठ-47) यह इक्कीसवीं सदी की युवा पीढ़ी की बनती सोच है। जो ईश्वर को मानती है लेकिन जीवन में राम के आदर्श की अपेक्षा उसे कृष्ण का आचरण पसंद है। "काश कि मैंने कृष्ण को न जाना होता। अब मैं तो ऐसे ही पुरुष की तलाश कर रही हूँ, केवल कला में नहीं जीवन में भी।" (पृष्ठ-वही ) इसी कारण वह देवदत्त की भावुकता को टोकती भी थी- "एक के प्रति समर्पित करने से जीवन एकोन्मुखी हो जाता है।" (पृष्ठ - 97 ) 

देवदत्त इस बात को समझता था लेकिन स्वीकार नहीं करना चाहता था। उसे लगता था कि "वह जीवन में अति भावुकता का शिकार  होकर भी अपने स्वत्व को पाता है। भले ही इस कारण कहीं स्थिर होकर नहीं रह पाता।" (पृष्ठ-वही ) लेकिन अंजलि की व्यवहारिकता बहुत आगे जाकर 'रिमेंबर दैट लव इस अ कॉन्शियस चॉइस' को जीवन का आप्त वाक्य बना चुकी थी। "वह प्रेम को क्षणिक मानती है। प्रेम उसके लिए सागर तरंग है, ओस है, क्षणिक मेघ है। मन में उत्पन्न रसकामना भर है जो जानती है कि जीवन किसी भावुकता से नहीं चलता बल्कि सच्चाई का सामना करने से जिया जा सकता है। वह भावुकता के प्रति निर्मम नहीं है लेकिन आवश्यकता अनुसार उसके प्रति तटस्थ हो जाती है। " (पृष्ठ-वही ) अरुणा का चरित्र  इससे भिन्न तैयार किया गया है। उसके साथ बलात्कार होता है। भूख, गरीबी और अभाव की यातनाएँ हैं लेकिन वह टूटती नहीं है। स्त्री की पीड़ा को लेकर उसकी अपनी धारणाएँ हैं। "उसके भीतर पीड़ा भोगकर जन्म देने की क्षमता है और इसलिए वह पीड़ा को भीतर दबाना जानती है, भले ही अंत में वही पीड़ा उसकी मृत्यु का कारण क्यों न बन जाए। पीड़ा हमारी श्वसन क्रिया का अंग है, जीवन का आधार है" (पृष्ठ - 144 ) दुख और यातनाएँ उसे अधिक साहसी बनाती हैं। 

सबसे बड़ी बात की वह सामूहिक प्रतिरोध के नेतृत्व की भूमिका में आ जाती है। गरीबी, पीड़ा,दुख और बलात्कार जैसी बर्बरता उसके साहस को एक बड़े पूँजीपति द्वारा पूरे गाँव के जीवन को नष्ट करने के अनाचार और अन्याय के प्रतिरोध की भूमिका की ओर ले जाते हैं।  "उन्हें मिट्टी की देह नहीं मेरा संकल्प रौंदना था। जो लोग इस धरती को रौंद रहे हैं, वे धरती को बचाने वालों को भी रौंद डालना चाहते हैं। मौत, अभाव और बलात्कार के भय को पैदा कर कुछ लोग मनमानी करना चाहते हैं।" (पृष्ठ -145 ) इस तरह अरुणा, आरती, अंजलि, शेरोन, ये सारे स्त्री पात्र जीवन की विभिन्न स्थितियों और वैचारिकी को प्रकट करते हैं।

स्त्री में साहस चमत्कार की तरह पैदा नहीं होता है। गहरी पीड़ा और आत्म मंथन के बाद जो साहस और संघर्ष का निश्चय पैदा होता है वह ज्यादा असरदार होता है और उसमें सामूहिकता का भाव भी अधिक होता है। इसलिए अरुणा का चरित्र धैर्य और चरित्र निर्माण की सावधानी से तैयार किया गया है। अरुणा का क्रोध और संघर्ष की दृढ़ता आकस्मिक  नहीं है जो एक निजी अपमान और असुरक्षा -बोध से पैदा होता है। अपमान, बलात्कार की पीड़ा, असुरक्षा  के भय और वेदना से अरुणा के भीतर संघर्ष के लिए जो विचार निर्मिति है,  वह एक लेखकीय धैर्य और सुनियोजित कथा - निरंतरता का परिणाम है।

दरअसल किसी भी उपन्यास में बड़े आशयों और उनके गंभीर अन्वेषण तक पहुँचने के लिए पात्रों का चरित्र निर्माण और घटनाओं के साथ उनकी संगति एक कठिन रचना प्रक्रिया का हिस्सा होती है। यह उपन्यास इस कठिनाई के पार जाकर घटनाओं के संभावित परिणाम और  पात्रों की आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति के लिए एक निरपेक्ष दृष्टि से सम्प्रेषणीय आख्यान - प्रविधि की खोज भी करता है। किसी भी उपन्यास का एक  ध्येय  जीवंत और संवेदनशील पात्रों की निर्मिति भी होता है। 

वैभव सिंह इस निर्मिति के संवेदन - श्रम में यथार्थ के प्रति उस निरपेक्ष दृष्टि की अदेखी नहीं करते हैं जो एक लेखक गहरे आत्म संघर्ष के बाद हासिल करता है। यही कारण है कि उपन्यास में प्रकृति, पर्यावरण और मानवीयता के संघर्ष में जुटे वे सारे महत्वपूर्ण पात्र एकरेखीय चरित्र निर्माण के शिकार नहीं हैं। पात्र निर्मिति में जितनी तठस्थता की सावधानी है उतनी ही केंद्रीय पात्रों की निर्बलता, अंतर्द्वंद्व और उनकी मनःस्थिति की अस्थिरता भी जरूरी स्पेस में नजर आती है। पात्रों की या चरित्र की रचना में यह यथार्थ - दृष्टि उपन्यास की विश्वसनीयता बढ़ाने में कारगर रही है। 

अरुणा के  पुजारी पिता के चरित्र निर्माण में इस सावधानी और कथा - कुशलता ने ऐसे पात्रों की परंपरागत चरित्र - निर्मिति के जोखिम को सफलता तक पहुँचाया है। पुजारी की आस्तिकता को सुरक्षित रखते हुए नई परिस्थितियों में आस्था की बदलती भंगिमा को दृष्टि संपन्न बनाया है। "यहाँ भगवान हमें नहीं बचाता, हम ही भगवान की रक्षा करते-करते संसार की धूप, शीत और आंधियों में गल जाते हैं। हम ईश्वर के भक्त हैं पर हमने ईश्वर को भक्त की भक्ति की अनंत काल तक परीक्षा लेने का अधिकार दे दिया है।" ( पृष्ठ - 29 )

लेकिन उपन्यास के इस प्रसंग में वह यथार्थ-दृष्टि  थोड़ी सजग है।  यथार्थ और भाषा के अंतरसंबंधों में विट्गेंस्टाइन के  कथन  'भाषा ही यथार्थ को रचती है।'  का सहारा प्रायः लिया जाता है।  लेकिन यहाँ यथार्थ की स्थूलता में न जाकर विचार और मनःस्थिति के अंतरसंबंध के लिए एक विशिष्ट सर्जनात्मक प्रयास में कथात्मक यथार्थ का बोध प्रकट किया गया है। यह निर्णयात्मक नहीं, विचार का परिधि विस्तार है। इस प्रसंग में ही नहीं, इस उपन्यास के अनेक प्रसंगों में यथार्थ - दृष्टि का ऐसा ही विस्तार है ; जो कथा सहायक की भूमिका में संप्रेषण - सुविधा भी है। इसी में रचना के आंतरिक प्रयोजन की सुरक्षा भी निश्चित हो जाती है। "वह एक ऐसे गेरुआ वस्त्रधारी सन्यासी की जीवनी थी जिस पर वह मुग्ध नहीं था। वह तो यह जानना चाहता था कि उनके विचारों में ऐसा क्या है जो मुग्ध करता है। या मुग्ध भी नहीं करता, केवल एक छवि उत्पन्न करता है जिसके प्रति आकृष्ट होना एक कर्तव्य का रूप ग्रहण कर लेता है। उसमें अनायास ही महान व्यक्तित्वों पर मुग्ध हो जाने की राष्ट्रीय आदत को लेकर हमेशा जिज्ञासा रही है।" ( पृष्ठ - 44 ) यहाँ जानने की इच्छा किसी बेचैन जिज्ञासा का परिणाम नहीं है। यह जान चुके व्यक्ति की व्यंजना - अभिव्यक्ति है। यह संशय नहीं है। यह मध्य वर्ग की नासमझी की हताशा है।

उपन्यास  राजनीतिक दृष्टि से रहित नहीं है। इसमें वैचारिक  रुझान या विचारधारा की पक्षधरता है। उपन्यास में अनेक जगह वाम - विचार की ध्वनि है। उपन्यास के चरित्रों में जो वैचारिक अकुलाहट या असमंजस है यह उसी विचार - विभ्रम की अकुलाहट है जो  भारतीय वाम दलों में वैचारिकी निर्णयों के व्यवहारिक नतीजों में नजर आने लगी है। वहीं से धुंधलका फैलने लगा है। 

इस उपन्यास में रोशनी से धुंधलके तक की वाम यात्रा के जिक्र में यह चिंता वाजिब लगती है कि, "कम्युनिस्ट पार्टी के पास बौद्धिकता की पुरानी शानदार पूँजी है जिससे बहुत कुछ सीखा जा सकता है। इतनी अंतर्दृष्टि, इतनी खुली बहसें। इसने खूँखार तानाशाह पैदा किये तो बहुत उन्नत सोच के ईमानदार विचारक और क्रांतिकारी भी। पर अब इस जमाने में पुरानी वैचारिक पूँजी चलती नहीं। पहले के किसी समय में पार्टी में प्रखर बौद्धिक मिल जाते थे लेकिन अब ऐसे लोग वहाँ बचे हैं जो कमजोर होते दल को अपने स्वार्थ से और कमजोर करते हैं। किसी नई सोच ही नहीं बल्कि क्रांति बदलाव के भाव के प्रति भी सनक से भरा जड़ रवैया रखते हैं। पहले उनमें सामूहिकता मिलती थी पर अब खुद वे सामूहिक ढँग से जीने व सोचने की शैली को गंभीरता से नहीं लेते हैं। उन्हें मध्यवर्ग के बीच रहकर जनता के दुख -तकलीफ के बारे में अपने आँसू दिखाने में ही आनंद आता है।...पार्टी से बाहर की दुनिया में केवल व्यक्तिवाद है तो क्या पार्टी के भीतर व्यक्तिवाद नहीं है! पार्टी नेताओं के वैचारिक ढुलमुलपन तथा व्यक्तिवाद ने क्रांति व बदलाव के कितने ही अवसरों को गँवा दिया।" (पृष्ठ - 79) यह बात बहुत कड़वी है और असहज करती है लेकिन यह सिर्फ उम्मीद से भरे व्यक्ति की कोरी हताशा नहीं है। 

यह भारतीय वाम दलों का वह सच है जो मार्क्सवाद को भारतीय संदर्भ में देखने - समझने की जरूरत की अदेखी कर रहे हैं। यह वाम की भर्त्सना नहीं है। दरअसल दुख भी उसी से हासिल होता है जिससे बहुत ज्यादा उम्मीदें होती हैं। यह दुख भी कुछ ऐसा ही है, भीतर के नैतिक दबाव से पैदा हुआ। यही वजह है कि उपन्यास में किसी क्रांति की नाटकीयता की दृश्यात्मकता नहीं है। क्रांति की ऐसी सफलता उपन्यास की नाटकीयता की सफलता तो हो सकती थी लेकिन यथार्थ और सूचिंतित वैचारिक सफलता वहाँ नदारद रहती। इसी उम्मीद में लेखक की यह अपेक्षा भी कायम रहती है कि, - "जिनके पास संघर्ष है, उनके पास तर्क नहीं। जिनके पास तर्क हैं, उनके पास संघर्ष करने की शक्ति नहीं। संघर्ष और तर्क जब आपस में मिलेंगे तभी कुछ बदलेगा।" (पृष्ठ -124) लेकिन लेखक की जो यथार्थ के प्रति एक तठस्थ दृष्टि है, वह किसी भी विचार - दृष्टि के कथ्य पर अतिक्रमण को रोकने में मददगार रहती है। इसीलिए गाँव के मुंशीलाल को यह कहने में आसानी हो जाती है कि, - "फैक्ट्री पर किसी दिन गेट पर इकट्ठा हो जाओ। पर ध्यान रहे कि अहिंसक प्रदर्शन हो। गांधी मार्ग कभी भटकाता नहीं है।" ( पृष्ठ -193 )

दुनिया में संभवतः गांधी एकमात्र ऐसे बड़े विचारक हुए हैं जिन्हें बहुत जल्दी इस बात का आभास हो गया था कि धर्म के पाखंड को परास्त करने के लिए ईश्वर के खिलाफ होना जरूरी नहीं है। कम-से-कम भारतीय संदर्भ में तो बिल्कुल नहीं। और इसी संदर्भ में वैभव सिंह उपन्यास में ईश्वर को कहीं-कहीं पात्र की तरह उपस्थित करते हैं। हनुमान का प्रकट होना धार्मिक चमत्कार की अपेक्षा समय की विडंबना में व्यक्ति की विवशता और धर्म के पाखंड के प्रतिपक्ष का एक बड़ा रूपक रचता है। 

सांस्कृतिक संदर्भ में सामाजिकता की सहज गति के भीतर एक धार्मिक व्यक्ति की आस्था में कितना महीन और महत्वपूर्ण बदलाव हो सकता है ; पुजारी का चरित्र इसका  उदाहरण है। पुजारी तमाम धार्मिक आस्था के उपरांत एक जीवंत सामाजिक दायित्व - बोध से भरा व्यक्ति लगता है। धार्मिक आस्था भी बड़े संघर्षों के लिए साहस या उम्मीद का काम करती है। हनुमानजी जब पुजारी को गले लगाते हैं तो वह हतप्रभ रह जाता है। "पुजारी की विगलित, करूण दशा देख हनुमानजी भी परेशान हो गए। वे उठे और अपने हाथ की जाप माला एक और रख पुजारी को गले लगा लिया। दोनों ही रो पड़े।.....अपने ही पाप, कमजोरी, दुविधा और दुर्बलता से ग्रस्त मनुष्य को धरा का सबसे शक्तिशाली देवता शांति प्रदान करने के स्थान पर उसी से गले मिलकर रो रहा था।.... यह नया समर था जिसमें विष्ठा, खून, बाल और हड्डियाँ बरस रही थीं, पत्थर भी फेंके जा रहे थे और धूल बरसाकर ऐसा अँधेरा कर दिया गया था कि अपना ही पसरा हुआ हाथ नहीं सूझता था। अब ईश्वर भी मनुष्य के रुदन में शामिल था।" (पृष्ठ- 249 ) यहाँ फैक्ट्री के मालिक संतोष भाई,छल कपट से भरे राजनीतिज्ञ, गाँव और शहर में फैले सत्ता के दलाल, गुंडे, मवाली, धार्मिक उपद्रवी, तमाम तरह की अराजकता के प्रतिरोध में खड़े लोगों के दुख-तकलीफ के करुण दृश्य में ईश्वर की लाचारी का दृश्य प्रभावकारी है। यह एक छोटा सा दृश्य बड़े अर्थो तक जाता है।

इस पूरी कथा में भारतीय  ग्रामीण जीवन की संपूर्ण विविधता चाहे न हो लेकिन गाँव में आ रहे तेजी से बदलाव और मानवीय संबंधों की संश्लिष्टता को प्रकट करने के लिए इसमें स्पेस है।  कोई पात्र बहुत छोटा है लेकिन उसकी उपस्थिति उपन्यास में कुछ इस तरह से निर्मित है कि वह अन्य पात्रों के क्रिया -कलापों और घटनाओं के संदर्भ में जरूरी हो जाता है। गाँव की हर घटनाओं में उसकी उपस्थिति प्रत्यक्ष और परोक्ष जुड़ी है। ये पात्र अपने आप में संपूर्ण नायक नहीं हैं। ये अपनी विशेषताओं और कमजोरी के साथ हैं। इन पात्रों में संवेदना के स्तर पर जुड़ाव है तो निजी लाभ, ललक या इच्छाओं के दबाव भी हैं। मानवीय जीवन की यह स्वाभाविकता पात्रों और कथा की विश्वसनीयता बढ़ाती है। गाँव के भीतर पात्रों का यह जुड़ाव और एक किस्म की पृथकता कोई सामाजिक अराजकता नहीं पैदा करती बल्कि मानवीय रिश्तों और प्रवृत्ति के लिए परख-दृष्टि की गंभीर  अभिव्यक्ति  की सामर्थ्य को सहजता से उद्घाटित करती है।

महत्वपूर्ण बात यह भी है कि गंभीर अभिव्यक्ति के सामर्थ्य से लैस इस परख-दृष्टि के भीतर एक किस्म की तरल संवेदना भी है। हालाँकि यह तरल संवेदना उस अलक्षित औपन्यासिक चेतावनी की अदेखी भी करती है जिसमें लेखक की वैचारिकी का नरेशन-विस्तार कथात्मकता के विखंडन की इच्छाओं में शामिल नहीं होना है। लेकिन यह अदेखी या विचार-मोह की निबंधात्मकता बहुत अधिक विस्तार में नहीं  है। इसीलिए कथा-स्थापत्य और कथा-संवेदना का संतुलन बना रहा जिससे भाव ऊर्जा का ताप बना रहा है। यह उपन्यास भारतीय ग्रामीण समाज और नागर जीवन के संदर्भ में अधिकाधिक संश्लिष्ट होने वाली परिस्थितियों, जीवन-प्रक्रियाओं, दुर्बलताओं और  नैतिक दबावों की स्थितियों में सामाजिक, राजनीतिक अवरोध के उपरांत प्रतिरोध की मनुष्य की इच्छाओं और आकांक्षाओं की सहज और गंभीर अभिव्यक्ति है।

पुस्तक परिचय 

अनुमति पत्र (उपन्यास); लेखक - वैभव सिंह 
प्रकाशक - वाणी प्रकाशन; प्रकाशन वर्ष – 2025; मूल्य - रुपए 399/-

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