इटली, वेनिस में, तेरहवीँ शताब्दी में पैदा हुए मार्कोपोलो एक व्यापारी, खोजकर्ता और राजदूत थे। रेशम मार्ग की खोज करने वाले शुरुआती यूरोपियनों में मार्कोपोलो भी थे। वह अक्सर अपने शहंशाह कुबला ख़ान से उन स्थानों का ज़िक्र करते रहते थे, जहाँ-जहाँ वह घूमे। एक दिन कुबला ख़ान ने कहा- 'तुमने इतने शहरों के बारे में बताया, पर कभी भी अपने शहर वेनिस के बारे में नहीं बताया। क्यों?' मार्कोपोलो हँस दिया। उसने कहा कि वह जब भी किसी शहर का वर्णन करता है तो दरअसल वह अपने शहर वेनिस के बारे में ही बताता है। हाल ही में वरिष्ठ साहित्यकार मधु कांकरिया की नयी किताब- 'मेरी ढाका डायरी' पढ़ी। मुझे बारबार यही लगा कि मधु जी भी शायद बांग्लादेश यात्रा में भारत को ही खोज रही हैं। या बांग्लादेश में कुछ भी देखा हुआ उन्हें भारत की ओर ही ले जा रहा है। दिलचस्प बात है कि उन्हें हर बार भारत मिला भी। कभी स्मृतियों के रूप में, कभी सद्इच्छाओं के रूप में, कभी हालात के रूप में, कभी किरदारों के रूप में, कभी कविताओं के रूप में, कभी आन्दोलनों की शक्ल में, कभी हिंसा और साम्प्रदायिकता की शक्ल में, कभी अन्धविश्वासों और कट्टरता के रूप में, कभी आपसी भाईचारे के रूप में, कभी युवाओं के सपनों में और कभी महत्वाकांक्षाओं के आकार में। 

'मेरी ढाका डायरी' पढ़ने से पहले मैं बांग्लादेश को सिर्फ दो ही वज़हों से जानता था, पहला बांग्लादेश की क्रिकेट टीम और दूसरा वहाँ के राष्ट्रीय कवि नज़रुल इस्लाम के लिए। हाँ अख़बारों में बांग्लादेश के बारे में कभी-कभी कुछ पढ़ने को मिल जाता, लेकिन अपने पड़ोसी देश में बारे में मेरी जानकारी बहुत सीमित थी। सबसे पहले मेरे ज़ेहन में यह सवाल उठा कि मधु कांकरिया क्या किसी प्रोजेक्ट के चलते बांग्लादेश पहुँची या संयोगों ने उन्हें ढाका डायरी लिखने के लिए प्रेरित किया? क्योंकि जब आप किसी ‘एसाइनमेंट’ के तहत यात्रा करते हैं तो बर्बस ऐसी यात्राएँ आपकी सीमाएँ सुनिश्चित कर देती हैं और आप अपने ‘एजेंडे’ के अनुरूप ही यात्रा करते हैं- उन्हीं जगहों की यात्रा करते हैं, जो आपके ‘एजेंडे’ को पूरा करें, उन्हीं लोगों से मिलते हैं, जो आपके ‘एजेंडे’ को नकारात्मक न बनाएँ। ढाका डायरी में यह अच्छी बात रही कि मधु कांकरिया के बेटे आदित्य, किसी कारपोरेट के उच्च अधिकारी के रूप में ढाका में रहे। यह मधु कांकरिया के लिए ढाका को जानने-समझने, वहाँ की जमीनी सच्चाइयों को पहचान पाने का एक उचित अवसर बन गया।

 इस डायरी की एक अच्छी बात मुझे यह लगी कि मधु जी ने बहुत तरतीब और योजनाबद्ध तरीके से ढाका को-वहाँ के समाज को, नहीं देखा, बल्कि जो जहाँ-जैसा मिला उसे अपने तरीके से देखा। जहाँ मन किया वहाँ गईं, जिससे मिलने का मन हुआ उससे मिली-बिना इस बात की परवाह किए कि इससे उनका नुक्सान भी हो सकता है। तो मधुजी की इस डायरी को बहुत व्यवस्थित न माना जाए। बहुत व्यवस्थित होना अक्सर यथार्थ पर पर्दे डाल देता है! मधु जी अगर वहाँ के उच्चवर्गीय और अत्यंत सुरक्षित इलाके गुलशन में ही भव्यता के बीच दिन ग़ुजारती तो शायद एक बहुत बड़ी हाशिये की दुनिया को देखने और जानने से वंचित रह जातीं। ग़ौरतलब है कि गुलशन वहां का अत्यंत उच्चवर्गीय और सुरक्षित इलाका है।

डायरी के शुरू में ही उन्होंने बांग्लादेश मुक्ति संग्राम की पूरी कहानी दर्ज़ की है। दुनिया के इतिहास में बांग्लादेश, पहला ऐसा देश है, जो धर्म के नाम पर बने देश से भाषा और संस्कृति के सवाल पर बना। यह भी कि 1971 में तीन लाख लोग पूर्वी पाकिस्तान में मारे गए, इस जेनॉसाइज की कीमत पर बना था, बांग्लादेश। यह भी तय हुआ था कि यह देश धर्मनिरेक्ष राष्ट्र बनेगा। लेकिन  'इन्तिज़ार था जिसका, ये वो सहर तो नहीं!' मधु जी को बांग्लादेश के लिए विमान में बैठने के बाद ही यह अहसास हो गया था कि वे मुस्लिम देश में जा रही हैं, कि बांग्लादेश दुनिया का चौथा ऐसा देश है, जिसकी सबसे बड़ी जनसंख्या मुस्लिम है। 

पता चला कि 1980 में कट्टरवादियों के दबाव में इस्लाम को स्टेट रिलीजन घोषित कर दिया गया। मधु जी को बांग्लादेश में महमूद नाम का ड्राइवर मिला। यह महमूद ही था जिसने मधु जी को बांग्लादेश के विभिन्न रूप दिखाए। महमूद ने ही उन्हें ‘होली बेकरी’(एक महंगा रेस्तराँ) काण्ड के बारे में बताया। इस रेस्तराँ में विदेशी और समृद्ध लोग आते हैं। 2016 में हुये इस काण्ड में जिहादी अटैक में 24 लोगों को बंधक बनाकर बेरहमी से नुकीले हथियारों से कुचल दिया गया था। हत्यारों ने बंगाली मुस्लमानों को छोड़ दिया और ग़ैर मुस्लिमों से कलमा पढ़वाया गया। ना पढ़ पाने के कारण उन्हें मार दिया गया। ठीक इसी समय मधुजी के ज़ेहन में पहलगाम हमले में मारे गए 26 पर्यटक घूम गए, जिन्हें लगभग इसी शैली में मारा गया था? महमूद भाई से मधु जी को बांग्लादेश की और भी बहुत सी तस्वीरें देखने मिलीं।

 महमूद भाई ने ही उन्हें बताया कि बांग्लादेश में सूफ़ियाना, बल्कि आधुनिक इस्लाम है और यहाँ इस्लाम को 100 प्रतिशत मानकर चलना मुसलमानों के लिए संभव नहीं है। बावज़ूद इसके महमूद ने अपने चार वर्षीय भतीजे को पाँचों कलमा रटवाए, क्योंकि आम धारणा है कि जिसे कलमा नहीं आता वह मुस्लिम नहीं हो सकता। इसी तरह की विसंगतियाँ भारत में भी देखने को मिलती हैं।

मधु जी ने वहाँ रहते हुए अतिविशिष्ट लोगों से लेकर छोटे छोटे काम करने वालों तक से आत्मीय संबंध बनाए। अपने घर पर उनकी यूनिसेफ के तीन अधिकारियों से मुलाकात हुई- एक भारतीय, एक बांग्लादेशी और एक पाकिस्तानी। इनमें से एक अब्दुल मनान को बांग्लादेश का गोर्की कहा जाता है और वह यूनिसेफ की तरफ़ से बांग्लादेश में एजुकेशन स्पेशलिस्ट की हैसियत से तैनात था। उसी से पता चला कि बांग्लादेश में कामकाजी महिलाओं का प्रतिशत भारत से करीब-करीब दोगुना है। यह भी पता चला कि यहाँ की ग्रामीण महिलाएं शहरी महिलाओं के तुलना में कहीं ज्यादा उन्मुक्त हैं। इसका एक कारण है शहरी महिलाओं में बुर्के का चलन बढ़ना। दूसरी अधिकारी थी- शबाना। उसने एक दिलचस्प बात बताई कि अल्पसंख्यकों पर हमले आपके यहाँ (भारत में) भी होते हैं और यहाँ बांग्लादेश में भी। फिर भी दोनों में एक अन्तर है। बांग्लादेश में ऐसे हमलों की निंदा की जाती है, सत्ता द्वारा खुलेआम पीठ नहीं ठोकी जाती, जैसा आपके यहाँ अपराधियों और बलात्कारियों को जयमाला पहनाई जाती है। मधु जी को भारतीय होने पर थोड़ी-सी शर्मिंदगी हुई होगी! इसी मौके पर अब्दुल मनान ने कहा-'चाहे भारत हो या बांग्लादेश, सभी दंगों के फैलाव के पीछे राज्यों का हाथ होता है।'

बांग्लादेश को जानने समझने का मधु जी का अपना ही तरीका रहा। उन्होंने कॉलेज की छात्राओं से मुलाकात की। उनमें से किसी ने भी बुर्का तो दूर, हिज़ाब तक नहीं डाला था। पूछने पर जवाब मिला, कुरान में कहीं भी बुर्क़ा या नकाब का ज़िक्र है ही नहीं, हिज़ाब का ज़िक्र है, वह भी हदीस में। वह नूरपाड़ा मदरसे में गई। यह पुरानी सी एक इमारत में था, जिसकी दीवार पर लिखा था-यतीमखाना। सभी बच्चों ने जालीदार टोपी पहन रखी थी। सभी कुर्ते पायजामें में थे। मदरसे में ही मस्जिद भी थी लेकिन उन्हें मस्जिद में नहीं जाने दिया गया। मधु जी ने यह पाया कि भारत हो, पाकिस्तान हो या बांग्लादेश स्त्री की स्थिति हर जगह यकसां हैं। बांग्लादेश में स्त्रियों को मस्जिद में जाने की इजाज़त नहीं है, यहाँ औरतों के लिए अलग से ऐसी मस्जिदें बनाई गई हैं, जहाँ सिर्फ औरतें ही जा सकती हैं यानी यहाँ मस्जिदें भी जनाना-मर्दाना खानों में बंटी हुई हैं। भारत में ‌भी बहुत से मन्दिरों में औरतों का प्रवेश वर्जित है। वह बिल्कुल सही लिखती हैं कि हर धर्म का ताजिया स्त्री देह के ईर्द-गिर्द ही क्यों लिखा गया है? उन्होंने भारत और हिन्दू धर्म से जुड़े सवालों पर विश्वविद्यालय की छात्राओं से मुठभेड़ की, उन्हें देखा और उनकी बदौलत स्त्री की स्थिति का मूल्यांकन करने की कोशिश की। 

एक तरफ़ मधु कांकरिया ने भारतीय उच्चवर्ग के खोखलेपन को करीब से देखा तो दूसरी तरफ़ ग़रीबी में जीवन जी रही बांग्लादेश की स्त्रियों के जीवन को भी नज़दीक से देखा। अपने यहाँ काम करने वाली फातिमा से उन्हें पता चला कि उसका पति बहुत पहले काम करने उसे छोड़कर विदेश चला गया और वापस लौटकर नहीं आया। वहीं उसने दूसरी शादी कर ली। ढाका में उनकी घरेलू सहायक रुक्साना है, बेबी है और भी बहुत सी औरतों की कथाएँ उपकथाएँ हैं।

 यूनिसेफ में कार्यरत अधिकारी फौजिया की कथा भी है जो सुन्दर है, लेकिन सुखद जीवन की तलाश में वो दो-दो प्रेमियों से धोखा खा चुकी है। निजी तक़लीफों के साथ-साथ यह डायरी कोरोना काल की सामूहिक तक़लीफों को भी बाकायद दर्ज़ करती है। यह देखकर आश्चर्य होता है कि दोनों मुल्कों की तक़लीफें एक जैसी थी। भारत की तरह ही बांग्लादेश में लोग अस्पतालों में बेड और आक्सीजन की लिए तरस रहे थे और मर रहे थे। जीवनदायी दवाई रेमडेसिविर इंजेक्शन का यहाँ भी लोग इंतज़ार करते रहे और भारत में भी भारी ब्लैक में यह इंजेक्शन नहीं मिल रहा था। मरना लोगों की नियति बन गई थी। 

दरअसल ‘मेरी डायरी’ सिर्फ बांग्लादेश के ही सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक जीवन की परतें नहीं उधेड़ती बल्कि इसके बरक्स वे यह भी देखती है कि भारत इनके मुकाबले कहाँ खड़ा है? दोनों ही देशों में गरीबी, भुखमरी, ज़हालत, पिछड़ापन, कट्टरता, मधु कांकरिया को दिखाई दी। उन्होंने यह भी देखा कि भारत-बांग्लादेश के बीच हुई जलसंधि के खिलाफ एक छात्र अबरार की फेसबुक पोस्ट से बांग्लादेश छात्र लीग के सदस्य इतने ख़फ़ा हुए कि उसे इतना मारा कि उसकी मौत हो गई। यह खेल भारत में व्यापक स्तर पर चल रहा है। डेल स्टेन से लेकर रोहित वेमुला तक न जाने कितने लोगों को देशद्रोह कहकर मार दिया गया, मारने की स्थितियाँ पैदा की गईं या जेलों में ठूंस दिया गया। 

 यह किताब यह भी याद दिलाती है कि हिन्दुत्व किस तरह दूसरे देशों के अल्पसंख्यकों को प्रतिकूल ढंग से प्रभावित करता है। ज़ाहिर है जो एक मुल्क में बुरा है, वह दूसरे मुल्क में भी अच्छा नहीं हो सकता। 

‘मेरी ढाका डायरी’ पढ़ने के बाद, मार्कोपोलो की बात याद आई कि आप कहीं भी घूम लीजिए बार-बार लगेगा अपने ही देश में घूम रहे हैं। मधु कांकरिया को भी ऐसा ही लगता है, ढाका में बार-बार उन्हें भारत के दर्शन हुए। यहाँ उन्हें कट्टरता मिली तो उदारता भी मिली, खुलापन दिखाई दिया तो पिछड़ापन भी, उत्सवधर्मिता भी यहाँ भारत जैसी ही है। यह किताब पढ़ना बांग्लादेश के समाज को, जीवन के यथार्थ को टुकड़ों में देखना है।

किताबः मेरी ढाका डायरी
लेखकः मधु कांकरिया
प्रकाशकः राजकमल पेपरबैक्स
मूल्यः 299
पृष्ठः 240