बुक कवर और लेखक अक्षय बहिबाला
भाँग से शुरू होकर गाँजे तक, और फिर नशे की दुनिया के दुश्चक्र में दस सालों के सफ़र के दौरान इन दोनों के बीच की आवाजाही के साथ ही अक्षय बहिबाला ने उस दुनिया को बहुत क़रीब से देखा-जाना है। नशे की चमकीली-सपनीली दुनिया के अँधेरों और छटपटाहटों को, हिंसा और अवसाद को भी उन्होंने देखा-महसूस किया है, और फिर जतन करके इससे किनारा किया है। इस बीच उन्हें नशे के मारे हुए कितने ही किरदार मिले, पुलिस वाले, नशे की खेती करने वाले और नशे के कारोबारी भी, कुछ भले मानस और कुछ मवाली भी। इस लत के चलते उन्होंने कितना कुछ पाया और खोया भी।
इसी खोये-पाये का लेखाजोखा करते हुए एक दशक की अपनी यादों के हवाले से उन्होंने जो दिलचस्प आख्यान रचा, पिछले साल वह ‘भाँग जर्नीज़ः स्टोरीज़, मिस्ट्रीज़, ट्रिप्स एण्ड ट्रेवेल्स’ नाम की अंग्रेज़ी किताब की शक्ल में सामने आया। इसका हिंदी अनुवाद ‘रसभांगः क़िस्से, इतिहास, मौज और सफ़र’ शीर्षक से इस साल आया है। हैरतअंगेज़ तफ़्सील, स्मृतियों, सफ़रनामों, नशा के तंत्र और तस्करी, तथ्यों और आंकड़ों वाला यह दिलकश आख्यान भाँग-गाँजा-अफ़ीम के नशे का उत्सव मालूम देता है, पर दरअसल यह ऐसी चेतावनी भी है, जो नशे की पुड़िया पर लिखी हुई नहीं मिलती। वह तो पुराने अख़बार के टुकड़े में लिपटा हुआ आता है।
फ़ैज़ ख़लीलाबादी का एक शेर है – भंग खाते हैं न गाँजा न चरस पीते हैं/ हम वो भंवरे हैं जो एहसास का रस पीते हैं। पर इसके उलट, अक्षय इन सारे रसों के बारे में अपने तजुर्बों का बयान करते हैं। ये बयान सामाजिक और सांस्कृतिक परंपराओं और उनके इतिहास से होकर भी गुज़रते हैं। और जैसा कि जेरी पिंटो कहते भी हैं कि यह ओडिशा में भाँग का निजी इतिहास है और सांस्कृतिक भी। उड़ीसा के बड़े हिस्से में भाँग लोक-जीवन का हिस्सा रही है, जो औषधि में व्यवहार से शुरू होकर नशे की ऐसी ज़रूरत तक पहुँच गई कि इसकी सरकारी बिक्री का बंदोबस्त करना पड़ा।
कुछ पुराने ग्रंथों के हवाले से लेखक ने आयुर्वेदिक चिकित्सा और इलाज की यूनानी तिब्बी प्रणाली में भाँग और अफ़ीम के दवा के तौर पर इस्तेमाल करने का ज़िक्र किया है। कई वैद्यों के हवाले से इसके सद्गुणों का बखान और उनकी सम्मतियों का उल्लेख भी किया हैं। हिप्पियों और बैकपैकर्स के आने का सिलसिला बढ़ते जाने के साथ ही पुरी के बीच रोड पर भाँग की सरकारी दुकान में गाँजे की घुसपैठ से नशे का स्वरूप और गहराता गया। यही वह ठिकाना है, जहाँ से इस किताब के क़िस्सों की शुरुआत होती है।
बनारस या इलाहाबाद के किसी अखाड़े या तीर्थ पुरोहित के डेरे में या फिर आगरा की बगीचियों में शाम के वक्त भाँग छानने और मस्त रहने की रवायत से वाकिफ़ लोगों के लिए उड़ीसा के ये क़िस्से नई दुनिया खोलते हैं, जिसमें अंग्रेज़ हैं, फ़्रेंच, इटैलियन, जापानी, रूसी, स्विस, अस्ट्रियाई और इज़रायली हैं, मर्द हैं, औरतें हैं और सब के सब अपनी अलग क़िस्म की ख़ूबियों के साथ हैं। इसे पढ़ते समय इलाहाबाद के 2001 वाले कुम्भ में झूसी के बदरा सोनौटी गाँवों के क़रीब लगे हिप्पियों के कैंप की याद आ गई।
जिस रोज़ उन लोगों से मिलने गया, वहाँ किसी का जन्मदिन मनाया जा रहा था। भाँग का बड़ा-सा केक काटा गया और उसके साथ अनन्नास के टुकड़े भी बाँटे गए। एक पेड़ की छाँव में बैठे अंग्रेज़ जोड़े ने गंगा की पवित्रता और उसे गंदा करने के हिंदुस्तानियों के ऐब पर लंबा लेक्चर पिलाया और फिर लड़की ने अपनी तैयार की हुई सिगरेट पीने के लिए मेरी तरफ़ बढ़ाई। मेरे मना करने पर झुंझला कर कहा था, ‘यू आर नॉट माय काइंड, यार।’ 89 का कुम्भ भी याद आया, जब संजय के साथ जाकर लोकनाथ के मुनक्के का स्वाद लिया था और घर लौटने पर हम दोनों चार लोगों का खाना खा गए थे। बनारस में गोदौलिया की लस्सी में ख़ामोशी से मिली भाँग पीकर जौनपुर लौटते समय अपनी बाइक की रफ़्तार और बाक़ी के लोगों से आगे निकलने की हैरान कर देने वाली बेचैनी भी याद आई। याद आया कि डॉ. वीरेन डंगवाल के साथ बरेली कॉलेज के बाहर ठेले पर जलजीरा पीने के बाद डॉ. डी.एन.सिंह से दवाई लेने के बाद ही दफ़्तर जा सका था, फिर भी रात को बिस्तर पर ख़ुद को उड़ता हुआ महसूस करता रहा। उस जलजीरे में भाँग मिली है, इसकी ख़बर मुझे बाद में हुई थी।
पर रसभाँग के किरदार भाँग या गाँजा गफ़लत में नहीं पीते, वे उसके नशे का मज़ा लेने के लिए, इहलोक में बने रहकर पारलौकिक आनंद की अनुभूति के लिए पी रहे होते हैं। विलायती तंबाकू में मिलाकर गाँजा फूँकते हैं और पैसे न हों तो बीड़ी में भर के, ध्यान लगाने के लिए भाँग पीते हैं और वज़न घटाने के लिए गाँजा, अध्यात्म में रम गए तो प्रसाद और पैसे बाँट रहे होते, नहीं तो उधार माँगकर पुड़िया जुटाने वाले भी थे। और इनमें कोई वर्ग-भेद भी नहीं, पुरी के बीच रोड की उस दुकान पर सभी आते थे- पर्यटक, दलाल, उचक्के, घुमक्कड़, सैलानी और अध्येता भी।
इन गँजेड़ियों-भँगेड़ियों की ज़िंदगी में वह सब कुछ है, जो किसी औसत इंसान को मयस्सर है- प्यार है, पैसा-कौड़ी है, काम के मौक़े हैं मगर उनके लिए जो सबसे अहम है, वह पुड़िया है, हमख़्याल दोस्तों की सोहबत है, उच्छृंखलता है, मस्ती है। उनकी बेढब ज़िंदगी के बारे में पढ़ते हुए आपको उनसे हमदर्दी हो सकती है, आप उन पर तरस खा सकते हैं, या नफ़रत कर सकते हैं। मगर वे लोग हरगिज़ नफ़रत नहीं कर सकते, जिनकी ज़रूरतें पूरी करने का बहाना यही लोग हैं। बिचौलियों और तस्करों की बात जाने देते हैं, मगर जंगलों में रहने वाले ग़रीब आदिवासी भी तो हैं! कन्धमाल में गाँजे की खेती नष्ट करने गई टीम के आगे एक औरत ने गिड़गिड़ाकर कहा था- 'मेरे दो बच्चे हैं, सर। मैं उन्हें बेहतर जीवन देने के लिए गाँजे की खेती कर रही हूँ। कृपया इस वर्ष के लिए कुछ छोड़ दें; मैं अगले साल फिर ऐसा नहीं करूँगी।'
माओवादियों के दबदबे वाले मलकानगिरी, कोरापुट, रायगढ़ और गजपति इलाक़ों में गाँजे की व्यावसायिक खेती और उसे नष्ट करने के सरकारी अभियानों की दास्तान भी दम साधकर पढ़ने वाली हैं। आबकारी दल पर गाँव वालों के कहर का नमूना सरकारी अमले के आगे असहाय औरतों के श्राप में झलकता है – ‘तुम्हारी पत्नियाँ विधवा हो जाएं! तुम्हारे बच्चे इन मशीनों द्वारा काटे गए मेरे गाँजे के पौधों की तरह मर जाएं।’ दुर्गम इलाक़ों में जाकर काम करने के लिए बजट और संसाधनों की कमी अफ़सरों की बेचारगी और माफिया की जीत का सबब बन जाती है।
यहां भाँग की तरह ही अफ़ीम के औषधीय गुणों का भी बखान है। उसके मुरीदों, अफ़ीम कार्ड, कार्डधारकों का कोटा और कोटेदारों के दिलचस्प क़िस्से हैं। अफ़ीम कार्ड रखने वाला एक सुनार है, जिसे आबकारी महकमे से हर महीने 15 ग्राम अफ़ीम मिलती है और जिसकी हसरत है कि उसका कोटा बढ़ाकर 20 ग्राम कर दिया जाए। उसके पिता का कोटा 25 ग्राम था, और उन्होंने 102 साल की उम्र पाई थी। एक लड़की है, जो हैजे का शिकार होकर तीन महीने तक अस्पताल में पड़ी रही मगर जिसे शिफ़ा अफ़ीम चाट कर ही मिली, और फिर वह उम्र भर के लिए अफ़ीम की लती बनकर रह जाती है। दैनिक मज़दूरी पर काम करने वाले कटक के एक अफ़ीम कटर की दास्तान है, जिसने कभी अफ़ीम नहीं खाई, मगर अपना काम करते हुए ही उसका नशा महसूस करता है। और जो, पैसा देकर अफ़ीम माँगने के लिए आने वाले लोगों को अफ़ीम के बजाय दवाई लेने की सलाह देता है।
हरिहर पांडा के संस्मरणों की किताब के हवाले से ‘नाज़िरख़ाना में भाँग’ की एक रोचक परंपरा का क़िस्सा है, जिसमें नायब नाज़िर हर शाम दफ़्तर बंद होने से पहले चाँदी के बक्से में भाँग की डली लेकर कलेक्ट्रेट के सभी अफ़सरों को पेश करता था। यह भाँग घोंटने के लिए एक चपरासी को बाक़ायदा मुक़र्रर किया जाता था। भँगेड़ियों को यीशु की तरह अहिंसा का पैरोकार और भाँग को शराब के मुक़ाबले बेहतर ठहराने वाले एक ब्राह्मण दुकानदार की गाथा है, जिसे बच्चों को भाँग बेचने से इनकार था, कि भाँग की छोटी-सी खुराक भी बच्चे को मौत के दरवाज़े तक पहुँचा सकती थी। ‘भाँग भला जो थोड़ा खाए; मर्द भला जो रोज़ कमाए।'
पाँच खंडों में बँटी इस किताब की सबसे बड़ी ताक़त इसकी क़िस्सागोई और मंज़रकशी है, बेबाकी और ब्योरे हैं, ख़ासतौर पर रवायतों के ब्योरे, लोक और कलेक्ट्रेट में भाँग की उपस्थिति के क़िस्से हैं, लड्डू और शर्बत बनाने की पाक-विधियाँ हैं, चंडू और चंडूख़ाने हैं, गाँजे की खेती पर अपनी जीविका चलाने वाले आदिवासी और उनकी खेती उजाड़ने वाले आबकारी अफ़सर हैं, उड़ीसा के गाँव-देहात में जुटने वाले त्रिनाथ मेले और मेले में गाँजे की महत्ता है। भाँग या गाँजे पर सरकारी प्रतिबंध की आलोचना के स्वर हैं, तर्क यह है कि देश में हेरोइन और कोकीन की लत पर क़ाबू पाने के लिए गाँजे, अफ़ीम और दूसरे ऑर्गेनिक नशे की वैध आपूर्ति की जानी चाहिए।
बोलांगीर से यह ख़बर भी ऐसे ही अभियान का हिस्सा लगती है कि मंडी में धान की ख़रीद नहीं होने से नाराज़ किसानों ने धान की जगह गाँजा उगाने की इजाज़त माँगी है।हिंदी में यह अपनी तरह की अनूठी किताब है, जो किसी रहस्य-कथा की तरह का रोमांच पैदा करती है।
पुस्तकः रसभाँग: क़िस्से, इतिहास, मौज और सफ़र
लेखकः अक्षय बहिबाला
अनुवादः व्यालोक पाठक
विषयः यात्रा-डायरी | समाज
प्रकाशकः राजकमल प्रकाशन
मूल्यः 299 रुपये