पिछले वर्ष वनमाली कथा का ‘युवा पीढ़ी विशेषांक’ को पढ़ने का मौका मिला। इस अंक में पढ़ी गई बहुत-सी कहानियों में से एक कहानी मेरे ज़ेहन में अटक गई। कहानी का शीर्षक था-शहर-बदर। इसे लिखा था-आयशा आरफ़ीन ने। आयशा की इससे पहले मैंने कोई कहानी नहीं पढ़ी थी। मैं इस कहानी के विषय में सोचता रहा और सोचता ही रहा। मैं इस कहानी से मुक्त नहीं हो पा रहा था। यह ‘हैंग’ कर रही थी। इसके बाद भी मैंने आयशा की एक दो कहानियाँ और पढ़ीं।
मुझे लगता रहा कि आयशा के पास कहानी लिखने का शऊर है, बेशक वह कहानी में कोई बहुत बड़ी बात ना भी कह रही हों, बावज़ूद इसके लिए उनकी कहानियों में कुछ ऐसा होता है, जो आपको अपने ही भीतर घट या बन रही एक दुनिया की तरफ़ ले जाता है। संयोग से इसी वर्ष विश्व पुस्तक मेले में पता चला कि आयशा आरफ़ीन का पहला कहानी संग्रह आ रहा है। मैं संग्रह ले आया।
संग्रह का नाम था ‘मिर्र’(जिसका अर्थ है दुनिया की सबसे अच्छी खुशबू)। मैं संग्रह की कहानियाँ पढ़ता रहा और अपने लगभग सभी मित्रों से इन कहानियों पर बात करने की कोशिश करता रहा। इस कोशिश में यह भी शामिल था कि इन कहानियों को पढ़ा जाना चाहिए। यह बात सिर्फ़ मैं ही जानता था कि संवाद के इस प्रयास में यह भी अंतर्निहित था कि मैं अपने आप से ही यह सवाल पूछ रहा था कि यह कहानियाँ मुझे क्यों पसन्द आ रही हैं। यह भी दिलचस्प संयोग है कि मैंने इस संग्रह की कुछ कहानियों को कई-कई बार पढ़ा। हर बार मुझे लगा कि कहानियों को ‘उस तरह’ नहीं ‘अलग तरह से’ समझा जाना चाहिए। यानी हर बार पढ़ने के बाद कहानी के नये अर्थ खुल रहे थे।
कहानियाँ पढ़कर मुझे लगा कि मेरे भीतर की बर्फ़ कुछ पिघल रही है। मुझे यह भी अहसास हुआ कि उनकी कहानियाँ कुछ भी साफ़ तौर पर नहीं कहतीं। कहानियों में बहुत कुछ ‘छलावे’(भ्रम) की तरह चलता है। बावजूद इसके कहानी का इंटेंस परिवेश मुझे अपनी ओर खींचता रहा।
यह बात भी साफ़ हुई कि ये कहानियाँ किसी ऐजेंडे को लेकर नहीं लिखी गई हैं। फिर भी इतना तय लगा कि ये कहानियाँ मनुष्य की, उसके चेतन-अवचेतन, स्मृतियों, किस्सों और ख़्वाबों से निकली कहानियाँ हैं। इन कहानियों में सन्देह, अस्पष्टता और ‘छलावा’ है। मुझे अचानक इस्राइल के लेखक ऐमोस ओज़ की याद आई। उन्होंने कहा था कि जिस पुल का नक्शा बन चुका है, और जिसे नक्शे के अनुसार सफलतापूर्वक खड़ा किया जा चुका है, उसपर कहानी या कुछ भी लिखना बेमानी है।
आयशा की कहानियाँ नक्शे के अनुसार पुल बनाने की कहानियाँ नहीं हैं। ये यथार्थ के चित्रण की ‘ठोस’ कहानियाँ भी नहीं हैं। बल्कि ये तेजी से बदल रहे यथार्थ का पीछा करने की कहानियाँ हैं और पीछा भी ‘रियल वर्ल्ड’ में नहीं किया जा रहा बल्कि कई कहानियों में पीछा ‘ख़्वाबों’ में किया जा रहा प्रतीत होता है-अवचेतन में, फंतासी में, बिम्बों के सहारे। इन कहानियों के बिम्ब, प्रतीक, सांकेतिकता कुछ भी कृत्रिम नहीं है।
यही वज़ह है कि इन कहानियों में गहरी संलग्नता (पैशनेट इन्वाल्वमेंट) होने के साथ-साथ, सघनता और बेहद इंटेंस परिवेश भी है। और यह सब उधार का नहीं है, जीवन से अर्जित है। बावज़ूद इसके ये कहानियाँ सीधी और सपाट नहीं चलतीं। ऐसा लगता है कि आयशा अपने अवचेतन को चेतन में ‘कन्वर्ट’ करके कहानियाँ लिखती हैं। एक दो कहानियों में अवचेतन और चेतन के बीच द्वंद्व भी दिखाई देता है।
ये खुशहाली की कहानियाँ नहीं हैं बल्कि इन कहानियों में उदासियाँ हैं, दुख है, प्रेम की आकांक्षा है, आपसी बनते-बिगड़ते रिश्तों के धागे हैं और प्रेम को एकदम अलग दृष्टि से देखने का नज़रिया है। और हाँ, लेखक के पास जीवन दर्शन भी है। कई कहानियाँ एक दुःस्वप्न की तरह लगती है। अनेक कहानियों में आयशा ने उन सपनों का प्रयोग किया है, जो बेचैन करते हैं, कहानी के किरदारों को भी और पाठकों को भी।
‘वो एक जलते हुए मकान के सामने खड़ा है। मुझे उसकी पीठ दिखाई दे रही है। उसे सामने से देखने का ख़्याल मुझे बेचैन करता है। मैं आगे बढ़कर उसे सामने से देखता हूँ। ‘वो’...वो ‘मैं’ था!’ शहर-बदर कहानी की शुरुआत यहीं से होती है। यहाँ नैरेटर ‘मैं’ और ‘वो’ दोनों एक साथ है। शुरू में ही पता चल जाता है, नायक ख़ुद से ख़ुद तक जा रहा है। कहानी बिम्बों के सहारे चलती है। लेकिन कहानी का सिरा आयशा थामे रहती हैं।
पता चलता है कि नायक की माँ की मृत्यु हो गई है। वह अपने शहर जा रहा है। नायक के भीतर बैठे प्रतीक और दृश्य भी उसके साथ ‘मूव’ करते रहते हैं। उसे एक इमारत दिखाई देती है, जो उसे जेल या पागलखाने की-सी जैसी लगती है। ख़ुदकुशी करते परिन्दे दिखाई देते हैं। बदलता शहर दिखाई देता है। लेकिन अपना घर दिखाई नहीं देता। एक लड़का दिखाई देता है, जो मखमली कीड़े इकट्ठे कर रहा है, ताकि अपने बाबा का फ़ालिज का इलाज कर सके। नायक अपने अतीत तक पहुँचता है।
नायक की स्मृतियाँ ही उसे अहसास दिलाती हैं कि इस शहर में अब वह एक ‘अजनबी’ हो गया है। नायक को अपनी बहन की याद आती है, जिसे त्रासद स्थिति में (माता-पिता की वजह से)मरना पड़ा था। उसे मार्था भी याद आती है। घरवालों के विरोध के बावज़ूद नायक मार्था को भगा ले जाता है। माँ ने भी इसे स्वीकार नहीं किया। नायक को शहर छोड़ना पड़ा। माँ ने अन्तिम वक्त भी उसे देखने या उससे मिलने की इच्छा ज़ाहिर नहीं की। इसी के साथ वह शहर-बदर हो गया-निर्वासित हो गया। अब वह इस शहर में दोबारा आया है ताकि माँ के अन्तिम दर्शन कर ले। चिता पर लेटी औरत उसे युवा लगती है। वह सोचता है माँ को तो अब तक बूढ़ा हो जाना चाहिए था...यानी उसके भीतर का समय वहीं ठहरा हुआ है... वह जुनूनी हालत में एक जलती हुई लकड़ी उठाकर पास के गोदाम में फेंक देता है।
यह कहानी उन स्थितियों का शिद्दत से वर्णन करती है, जो व्यक्ति को अपने ही घर में, अपने शहर में अजनबी बना देती हैं और शहर- बदर कर देती हैं। कहानी में प्रेम है, परिवार द्वारा उसका अस्वीकार है, बेटे का बाप की फ़ालिज़ के ईलाज़ के लिए प्रयास है, बेटे का घर छोड़ना, फिर माँ की मृत्यु पर दोबारा अपने शहर आना है। नायक अपने वज़ूद की लड़ाई अंत तक लड़ता है।
आयशा की कहानियों की रेंज बहुत विस्तृत है। उनकी कहानियों में निर्वासन शहर से ही नहीं ख़ुद से भी नज़र आता है। लेकिन सबसे दिलचस्प बात यह लगी कि उनकी कहानियों की शुरुआत एकदम अलग ढंग से होती है। ‘एक घोड़े की मौत’ कहानी में नायिका ट्रेन से धनबाद तक का सफ़र कर रही है। हालांकि ट्रेन के सफ़र से उसकी तबीयत ख़राब होने लगती है। वास्तव में ट्रेन बाहर ही नहीं नायिका के भीतर भी चल रही है। ट्रेन का यह सफ़र दरअसल नायिका के भीतर तक का ही सफ़र है। मुझे यह कहानी पढ़ते हुए बर्बस काफ़्का की एक कहानी-काल्डा की रेल- याद आई। इस कहानी में अकेलापन और उदासी है। यह ट्रेन कभी अपनी मंजिल तक नहीं पहुँचती। लेकिन आयशा की यह कहानी बहुत से पड़ावों से होती हुई मंजिल तक भी पहुँचती है। ट्रेन से किसी व्यक्ति के कटने के बाद ट्रेन रुक जाती है।
दरअसल ट्रेन नायिका के भीतर रुकी हुई है। उसे खिड़की से बाहर एक बूढ़ा व्यक्ति-रामो सेठ दिखाई देता है। रामो सेठ की कहानी की परतें खुलती चली जाती हैं। वह रईस आदमी था। उसका अपनी मुलाज़िमा से इश्क हो गया। वह घर से बेदखल कर दिया गया। अचानक वह गायब हो गया। फिर एक दिन बच्चों के लकड़ी के खिलौने बेचता दिखाई दिया। एक छोटी-सी लड़की उससे एक घोड़ा खरीदना चाहती थी। लेकिन उसकी कीमत (70 रुपया) ज़्यादा थी। लड़की ने वह घोड़ा उठा लिया। कुछ दिन बाद रामो सेठ भूख से मर गया। बच्ची ने कई दिन तक कुछ नहीं खाया। उसे बराबर लगता रहा कि अगर उसने 70 रुपए का लकड़ी का घोड़ा न चुराया होता तो रामो सेठ कुछ दिन और जीवित रह सकता था। उसका यह ‘गिल्ट’ उसे निरंतर परेशान करता रहा।
इसी ‘गिल्ट’ के साथ वह ट्रेन में भी सफ़र कर रही थी। लिहाज़ा बोकारो स्टेशन से थोड़े ही फ़ासले पर दो शव एक-दूसरे से थोड़ी दूरी पर बरामद हुए-पहला शव एक घोड़े का था और दूसरा एक औरत का, जिसके बैग में एक खिलौनेवाला घोड़ा पाया गया। आयशा की कहानी में ट्रेन का सफ़र यहीं समाप्त होता है। ट्रेन का यह सफ़र नायिका के गिल्ट तक जाता है। हालांकि काफ़्का की कहानी में ट्रेन कहीं नहीं पहुँचती। इसमें काफ़्का के जीवन की असफलता और असमर्थताओं का चित्रण है। लेकिन आयशा आरफ़ीन को इस गिल्ट से मुक्त होना था और उनका अन्तिम स्टेशन यही हो सकता था। यह एक यादगार और क्लासिक होने के करीब कहानी है।
आयशा की कहानियों में प्रेम भी एकदम सपाट तरीके से नहीं आता। कहीं यह सहज रूप से आता है लेकिन ड्रामाई अंदाज़ में जुदा हो जाता है (इलहाम) तो कहीं पति की हत्या करने वाले प्रेमी के रूप में (सोलमेट्स), जो पुराने जालों के बीच टंगा रहता है, हवा में डोलता सिर्फ़ एक टूटे रिश्ते के धागे-सा। ‘फ़रयाल’ (जिसका अर्थ है ख़ूबसूरत गर्दन वाली) में यही प्रेम एक खुशबू की तरह आता है, जिसे प्रेमी समय रहते नहीं पहचान पाते। कमोबेश इसी मिज़ाज की कहानी है, ‘मुश्क’।
आयशा आरफ़ीन की कहानियों में प्रेम के अनेक रूप दिखाई देते हैं-कभी हत्या के बाद भी प्रेम की खुशबू महसूस होती है और कभी स्थितियाँ एक सम्भ्रम पर ख़त्म होती हैं। ‘वायपर’ कहानी श्रीनिवास की हत्या से शुरू होती है। हत्या कमीश्नर सहब और उनकी पत्नी बन्दगी के घर पर हुई है। परतें खुलती हैं। पता चलता है, श्रीनिवास बन्दगी का पुराना प्रेमी है। वह यूनिवर्सिटी में पढ़ाता था। मीरा बन्दगी की इकलौती बेटी है और उसके मन में भी श्रीनिवास के प्रति आकर्षण है। तिलिस्मी अन्दाज़ में हत्यारे की खोज होती है। बन्दगी और मीरा-दोनों को श्रीनिवास के मरने का दुख है। सन्देह बन्दगी पर भी जाता है। लेकिन कमीश्नर साहब बन्दगी को क़त्ल के इल्ज़ाम से बचा लेते हैं। आख़िरी बार बन्दगी और मीरा बरामदे में लगे झूले पर दिखाई देती हैं। लोगों का कहना है कि मीरा विलायत पढ़ने माँ को साथ लेकर गई है। कमीश्नर साहब समेत ज़्यादातर लोगों का मानना है कि वो दोनों ‘मिरा’ के दरख़्त (गुग्गल वृक्ष) में तब्दील हो चुकी हैं। उनकी मीठी-कड़वी यादें गोंद बनकर इस दरख़्त से निकलती हैं। इस गोंद से दुनिया की सबसे असरदार सुहानी मुश्क बनती है, जिसका नाम मिर्र है। ये मुश्क फैलकर दुनिया के सारे सहराओं तक पहुँच चुकी है। आयशा अपनी कहानियों में किसी वर्जना, नैतिकता या आदर्श का पालन नहीं करती, ये कहानियाँ अपने मानक ख़ुद तय करती हैं और करेंगी।
मृत्यु और ‘न्यूरो प्रोब्लम’ आयशा की कई कहानियों में निरंतर आवाजाही करती है। ‘स्कूएर वन’ में नायिका अपना ईलाज एक डॉक्टर से करवा रही है। पता चलता है कि नायिका को बचपन से चीखें सुनाई पड़ती हैं। चीखें उसके कान के पास आकर ये पूछती हैं कि बताओ किसी को ये कैसे मालूम होता है कि उसकी माँ उससे मोहब्बत करती है या नहीं? ये ख़्वाब नायिका को निरंतर दिखाई पड़ता है। नायिका को यह भी बाद में पता चलता है कि उसका ईलाज कर रहा डॉक्टर अल्ताफ़ पंडित किसी हादसे की वज़ह से मर चुका है। उसके बारे में यह प्रचलित था कि ऐसा कोई केस नहीं है जो उससे ठीक न हो पाया हो। लेकिन वह मरने से पहले सिर्फ़ इतना कहता है कि यह अकेला केस(नायिका वाला) था जो वापस ‘स्कूएर वन’ (जहाँ से चला था वहीं) पर पहुँच गया है।
कहानी दो चीज़ों की ओर इशारा करती है, पहली माँ के प्रति प्रेम को लेकर संशय की ओर दूसरा अल्ताफ़ पंडित के साथ संभावित प्रेम की ओर। यह पाठक को सोचना होगा कि कहानी वास्तव में क्या कहती है और मेरा यह मानना कि कहानी कुछ कहे यह भी क्या ज़रूरी है? इसी मिजाज़ की कहानी है ‘ताज़ियत’। इसमें लगभग साठ वर्षीय एक साहब अपनी गाड़ी से रोज़ चौराहे से गुज़रते हैं। लालबत्ती पर बारह-तेरह साल की एक लड़की फूल बेचती हुई हमेशा गाड़ी के पास आती है। साहब शीशा नीचे करके लड़की को रोज़ देखते हैं, लेकिन फूल नहीं खरीदते। गाड़ी का ड्राइवर युवा है। वह बारह-तेरह साल की अपनी एक प्रेमिका को छोड़कर यहाँ आ गया और साहब की ड्राइवरी करने लगा। साहब की बीवी लगभग बीस साल पहले उनसे अलग हो गई थीं। एक साल पहले ही उनका इंतकाल हो गया है। लड़की रोज़ उनसे पूछती है कि साहब फूल ले लो। शायद साहब के भीतर यह बोझ है कि वह अपनी पत्नी के इंतकाल के अवसर पर नहीं जा पाए। दुख प्रकट नहीं कर पाए और ड्राइवर के मन पर भी शायद अपनी प्रेमिका को छोड़कर आने का बोझ है।
एक दिन साहब पाते हैं कि फूल बेचने वाली वह लड़की कहीं नहीं है। वह ड्राइवर से पूछते हैं तो वह भी कहता है कि कभी कोई लड़की उनकी गाड़ी के पास फूल बेचने नहीं आई। एक दिन साहब ख़ुद मोटर चलाने की सीट पर बैठे तो उन्हें पिछली सीट पर अपनी पत्नी का स्कार्फ़ मिलता है जिसपर फूलों की कढ़ाई थी। उस स्कार्फ को उठाकर उन्होंने उसमें से पत्नी की मुश्क महसूस करने की कोशिश की। मगर इतने अरसे बाद शायद वह मुश्क हल्की पड़ चुकी थी। किन्हीं भी वज़हों से जीवन में छूट गए रिश्तों की खुशबू मृत्यु के बाद तक महसूस होती रहती है-कहानी शायद यही कहती है।
मुश्किल है लेकिन अगर इस संग्रह की दो बेहतरीन कहानियाँ चुनने के लिए कहा जाए तो ये कहानियाँ होंगी-आर एक्स 100 और ख़ला का तिलिस्म। पहले बात ‘ख़ला का तिलिस्म’ की। कहानी दिल्ली में कोरोना 19 से शुरू होती है। लगा शायद यह कोरोना पर होगी। लेकिन आयशा दरअसल जिस तरह का परिवेश अपनी कहानी के लिए खोज रही थी, वह कोरोना काल में ही मिलना संभव था। नायिका (मैं) एक खाली मकान में पहुँच जाती है। नायिका के लिए इस मकान की खोज वास्तव में उसके ऑल्टरईगो (भीतर रहने वाले दूसरे स्व) ने ही की है। नायिका और उनके भीतर के स्व की मुठभेड़ है यह कहानी। जिसमें नायिका के जीवन की बहुत-सी परतें खुलती हैं।
ऑल्टरईगो नायिका पर आरोप लगता है कि वह लड़कों से दूरी बनाकर रखती है, अपने महबूब को भी उसने किसी शोध के लिए इस्तेमाल किया। जबकि उससे मिलने जाने के लिए तुमने एक सस्ता-सा परफ्यूम चुना था। ऑल्टर ईगो यहाँ तक कहता है कि तुम्हारा बस चलता तो तुम अपने ही दूसरे हिस्से से शादी कर लेती। नायिका यह भी कहती है कि फेमिनिज़्म मेरे लिए आउटडेटेड हो गया। मर्द कब तक औरतों को अपने फ़ायदे के लिए देवी बनाते रहेंगे। और भी बहुत से मुद्दों पर नायिका और उसके स्व के बीच बहस और बातचीत होती है।
आयशा कहानी का अंत कहाँ करती हैं, यह पढ़ेंगे तो कहानी के बहुत से अर्थ खुलेंगे और शायद फेमिनिज़्म के अर्थ भी बेहतर समझ आएंगे। यह एक मनोवैज्ञानिक और दार्शनिक कहानी है।
संग्रह की सबसे महत्वपूर्ण कहानी है ‘आर एक्स हंड्रेड।’ कहानी नायिका के वर्तमान जीवन से शुरू होती है। नायिका के पास आर एक्स हंड्रेड बाइक है। एंटीक पीस की तरह। पति है, बच्चे हैं। पास ही रहने वाला 120 साल का एक बूढ़ा है। आयशा शायद कहानी को अतीत में ले जाना चाहती हैं। एक दिन समुद्र के किनारे टहलते-टहलते नायिका को एक विशाल छाया ओढ़ लेती है। बहुत से दरवाज़ों से गुज़रकर वह दूसरी दुनिया में पहुँच जाती है। वहाँ एक बेहद वृद्ध औरत मिलती है। पता नहीं यह नायिका का अतीत है या भविष्य।
काल आयशा की कहानियों में उनके निर्देश पर चलता है। इस खंडहरनुमा मकान का इकलौता मर्द तिजारत के लिए अक्सर दूर देश जाता रहता है। ऐसे ही किसी एक दिन हवेली में कुछ डाकू आकर रहने लगते हैं। वे घर के सदस्यों को तंग नहीं करते, अपना खाना ख़ुद बनाते हैं। यहीं एक दिन तेरह साल की लड़की की नज़रें एक डाकू से टकरा जाती हैं। डाकू की उम्र छब्बीस साल है। डाकू चले जाते हैं लेकिन तेरह साल की वह लड़की पूरी जीवन इस उम्मीद से काट रही है कि एक दिन डाकू आएगा। नायिका को किताब से यह भी पता चलता है कि वह तेरह साल की लड़की अब यह वृद्ध महिला हो चुकी है। वह न इस सुरंगनुमा मकान से बाहर निकलना चाहती है और न निकल सकती है। किसी तरह नायिका अपने उस ख़्वाब से बाहर आती है और अपने घऱ की तरफ़ रवाना हो जाती है।
इस कहानी को पढ़कर इसाबेल एलिंदे की कहानी दो शब्द याद आती है। लेकिन इसाबेल की कहानी प्रेम कहानी है, जिसमें नायिका(बेलिसा) स्पेनिश भाषा में कर्नल मुलातो (जो अपनी जिंदगी गृहयुद्ध लड़ते हुए गुज़ार रहा था) से केवल दो शब्द बोलती है-Te Amo, जिसका अर्थ है आई लव यू। इसके बाद कर्नल के साथियों ने महसूस किया कि कर्नल की खूंखार आँखें एक अभूतपूर्व कोमलता से भर गई हैं। कहानी में केवल संकेतों से ही यह समझना होगा कि प्रेम कितना वायवीय हो सकता है।
इस कहानी की शुरुआत से पहले ही आयशा आरफ़ीन ने दोस्तोव्स्की के उपन्यास द ब्रदर्स कर्मजोव का एक उद्धरण कोट किया है- "क्योंकि सब कुछ एक सागर की तरह है, सब बहता है और जुड़ता है, इसे एक जगह से छुओ और यह दुनिया के दूसरे छोर पर गूंजता है। ‘आर एक्स 100’ भी यही संकेत देती है। लगता है कि वह अपने अतीत की यात्रा कर रही हैं तो कहीं भविष्य की यात्रा करती दिखाई देती हैं।
‘मिर्र’ संग्रह को पढ़ना अपने ही भीतर के अनेक कालखण्डों की यात्रा करना है। आयशा के पास बेहद परिपक्व भाषा है। वह भाषाई वैभव या परिवेश की चिन्ता नहीं करतीं और न ही वे कहानी के ‘कहानीपन’ को बनाए रखने का कोई प्रयास करती हैं। बाहर की दुनिया में उनके पास ढेरों अनुभव होंगे और उनका अवचेतन बेहद शार्प होगा। वे अपने अनुभवों से अवचेतन में इन कहानियों को लिखती है। साथ यह भी लगता है कि वह विश्व साहित्य में भी गहरी रुचि रखती हैं। इसलिए उनकी कहानियों में परिपक्वता दिखाई देती है। मेरा विश्वास है कि आने वाले कुछ वर्षों में (यदि वह इसी तरह लिखती रहीं) उनकी कहानियों के लिए हिन्दी साहित्य में खास जगह महफ़ूज़ होगी।
किताबः मिर्र,
लेखकः आयशा आरफ़ीन,
प्रकाशकः लोकभारती प्रकाशन,
मूल्यः 299, पृष्ठः 152