नेटफ्लिक्स की सीरीज़ 'अडॉलसॅन्स' जिस तरह अपरिचय के उस संसार को सामने लाती है जो हममें और हमारे बच्चों में मौजूद रहता है, वह बहुत निर्मम ढंग से विचलित करने वाला अनुभव है।

यह चार एपिसोड की सीमित सीरीज़ है। एक घर के तेरह वर्षीय बालक की गिरफ्तारी से शुरू होती है। उस पर किसी लड़की की हत्या का अविश्वसनीय आरोप है। यदि बच्चा सिक्युरिटी सेंटर में कैद है तो परिवार इस अनपेक्षित और अकल्पनीय त्रासदी में। 

सीरीज़ में दृश्य एक ही शॉट में लिए गए हैं। जाहिर है वे लम्बे-लम्बे हैं। कुछ तो बहुत ही लम्बे। लेकिन अप्रत्याशित की गिरफ़्त में आ चुके दर्शक को, जो अन्यथा तेज कट्स वाले सम्पादन की रफ़्तार का अभ्यस्त है, यह अखरता नहीं : और यह इसके लेखन और निर्देशन की बड़ी सफलता है। घटनाओं की गति नहीं, गहराई असर छोड़ती है। 

डॉक्यूमेंट्री जैसे मन्थर शिल्प में घटनाओं की आकस्मिकता और नाटकीयता पर नियंत्रण रहता है और 'प्रोसिजर' की विलम्बित लय में पात्रों के साथ दर्शक भी स्थितियों के साथ अपने सम पर आ जाते हैं। लेखक और निर्देशक का कहना है यह सीरीज किसी खास वास्तविक घटना पर आधारित नहीं है। ओह, रियली?

फिल्म वहां ले जाती है, जहां हम जाना नहीं चाहते

'अडॉलसॅन्स' उस इलाके में प्रवेश करती है, जहाँ हम जानबूझकर जाना नहीं चाहते। वे अनुभव, वे अन्तरक्रियाएँ, वह परिवेश, वह देखा-सुना-जाना जो हमारे अवचेतन का हिस्सा बन गया: जो हमारी निर्मिति के काम आया, उसे रेशा रेशा खोलना, उसका चिकित्सकीय परीक्षण करना : नहीं, ये हम नहीं करेंगे। हम नहीं कर पाएंगे।

लेकिन यह सीरीज़ ऐसा करने की दिशा में बढ़ती है। क्या कोई परफेक्ट पैरेंटिंग हो सकती है? क्या आप अपने बच्चों को जैसा चाहें गढ़ सकते हैं? क्या नये गैजेट्स और एप्स की दुनियाओं में बनते उनके भूमिगत संसार की हमें कोई ख़बर है? क्या हमसे अपने अनुभवों की कोई शेअरिंग वे कर पाते हैं? संबंधों में कितने संवाद बचे हैं और कितनी बातों को हम 'टेकन फ़ॉर ग्रांटेड' लेकर चल रहे हैं कि वे होंगी जबकि वैसा कुछ नहीं है। क्या हम उनकी भाषा समझते हैं? उनकी कूट भाषा, संकेत भाषा, इमोजी का संसार? 

और क्या यह बिल्कुल नये समाज का सच है ? क्या पहले ऐसा नहीं था? मुझे सालों पहले, कम्प्यूटर, मोबाइल, इंटरनेट और सोशल मीडिया के बहुत बहुत पहले इन्दौर के ही एक प्रतिष्ठित स्कूल में हुए हादसे की याद है। बहुत अच्छे, सम्भ्रान्त परिवार के लड़के ने एक अन्य लड़के की स्कूल में ही हत्या कर दी थी। अब यह एक विस्मृत हादसा है। जिसकी जान जानी थी, चली गई। न्याय की चादर में इतने छिद्र हैं कि उनमें से अनेक लोग बेदाग़ ज़मीन पर कूद जाते हैं। उस पर क़ातिल और मक़तूल की बाली उमर। आइरनी यह कि हत्या करने वाले लड़के के पिता ख्यात समाजशास्त्री थे। 

बहुत से पहलू हैं। बहुत से सवाल। हममें से कितने ही पैरेंट्स से बेशुमार शिकायतें रखते हैं। कितनी ही नाकामियों और न मिले या चूक गये अवसरों के लिए माता पिता को कोसते रहते हैं। कितने ही माता पिता अपनी सन्तानों को किसी अव्यक्त लेकिन मारक निराशा से देखते रहते हैं। अपेक्षाएं, जिम्मेदारियां, शिकायतें, प्रेम- घृणा : इस रिश्ते में बहुत सा अबोला खदबदाता रहता है। 

एकाधिक संतान हो तो उन सबसे पैरेंट्स के रिश्ते अलग अलग होते हैं। हर सन्तान से अभिभावकों का सम्बन्ध जैसे कुरोसावा की फ़िल्म राशोमोन की कहानी है। उसे देखने का सब का अपना अपना कोण है। अपना नज़रिया। साझा लेकिन जुदा जुदा रिश्ता। प्रेम सबसे होता है, सब में होता है ; लेकिन रंगतें अलग अलग होती हैं। एक ही सन्तान हो तो भी संवाद की कोई गारंटी नहीं है। सबके अपने एकांत हैं और उसमें एक फ़र्जी वर्चुअल गिरफ़्तारी।

सभी असुविधाजनक सवाल उठाती है 'अडॉलसॅन्स' 

'अडॉलसॅन्स'  शिद्दत से ये तमाम असुविधाजनक सवाल उठाती है। अपनी अपनी जगह सब ठीक हैं। कोई ग़लत नहीं लगता है। लेकिन कुछ है जो जीवन में न जाने किस सेंध में से रिस रहा है और चीज़ों को उलट पुलट किए दे रहा है। वह यूँ भूमिगत है लेकिन किसी दिन अचानक हमारे सामने प्रगट होकर विकट हो जाता है।

सीरीज दिखाती है कि घर के बाहर जिस स्कूली परिवेश में बच्चा विकसित होता है, उस पर भी आँख मूंद कर भरोसा नहीं किया जा सकता। बच्चों में एक दूसरे के प्रति मानसिक हिंसा और अकल्पनीय क्रूरता भी हो सकती है। एक ढीले ढाले अनुशासनहीन वातावरण में इस क्रूरता को ज़रूरी खादपानी मिलता है। जिस समय आत्मबोध अपने सबसे प्राथमिक और नाज़ुक दौर में होता है यह बुलीइंग अनेक ज़ेहनी ज़ख्म देती है जो अक्सर लाइलाज होते हैं।

हर बच्चा एक अलग बच्चा है और वह अपनी रुचि और प्रकृति के मुताबिक विकसित होता है। जेमी का पिता बचपन में अपने पिता की सख़्ती और ज़्यादतियों का शिकार हुआ था। उसने मन ही मन अपनी सन्तान के साथ ऐसा कभी न करने का संकल्प लिया था; लेकिन हर पीढी में समझ के समीकरण बदल जाते हैं। जेमी बॉक्सिंग और बास्केटबॉल के लिए नहीं, ड्रॉइंग के लिए बना है, यह समझने में उसके पिता को समय लगता है। 

इस न समझ पाने की बहुत सी वजहें हैं : समय नहीं है, व्यस्तता बहुत है, सब कुछ सामान्य, सब कुछ ठीक चल रहा है। इस बीच आपके लगाये पौधे की जड़ें कब गमले का तला फोड़ कर ज़मीन में बढ़ने लगीं हैं ; आपको कुछ नहीं पता। आपको उनके एकान्त के बारे में, उनके वास्तविक या आभासी दोस्तों के बारे में, उनकी आपसी नयी भाषा और उसके मुहावरों के बारे में, उनके स्कूल के माहौल के बारे में, अपने अकेलेपन में आभासी संसार में उनकी उत्सुक, जिज्ञासु और बेचैन भटकन के बारे में, उनके मानसिक घावों के बारे में, उनकी वेध्यता के बारे में कुछ नहीं पता। सतह पर चलते हुए 'सब ठीक' से आपका काम भी ठीक तरह से चल रहा है। 

और तभी, रोज़ की तरह होती हुई एक आम सुबह में तूफ़ान आ जाता है। पुलिस तेरह साल के जेमी को गिरफ़्तार कर लेती है। तमाम घर में सबूतों की तलाशी की उथलपुथल। अविश्वास। सम्भ्रम। पैनिक। यह सीरीज़ पूरी तसल्ली से, विस्तार की लय में पुलिस प्रक्रिया को दिखाती है। वैसे ही स्कूल को। वैसे ही साइकोलॉजिस्ट के साथ जेमी की बातचीत को। वैसे ही तेरह महीने बाद जेमी के पिता के जन्मदिन की घटनाओं को। उनके दबे हुए गुस्से को। परिवार की यातना और जेमी के अपराध स्वीकार को। ऐसा होने के पीछे अपने को टटोलते, सिहरते, सहमते, खुद को समझाते, समझते, एक दूसरे को दिलासा और भरोसा देते, आंसुओं में डूबते और उबरते माता पिता और बहन को। 

अस्वीकार से बोध तक की यात्रा

यह सीरीज़ किसी एक को अपराधी ठहरा कर विसर्जित नहीं होती। यह अपने दर्शकों में भी एक बेचैनी पैदा कर देती है। एक अजीब तरह की संलग्नता, एक अपरिभाषेय हलचल। यही इसकी अन्यतम विशेषता है। अस्वीकार से बोध तक की यात्रा। 

नवागत कलाकार ओवेन कूपर , जिन्होंने तेरह साल के जेमी मिलर की भूमिका निभाई है, ने पहली बार कैमरे का सामना किया है। वे उन पाँच सौ बच्चों में से चुने गए थे, जिन्होंने ऑडिशन दिया था। सोशल मीडिया में दर्शक उनके लिए अभिनय के सर्वोच्च पुरस्कारों की माँग कर रहे हैं। साइकोलॉजिस्ट के साथ वाले लम्बे दृश्य में ओवेन ने जो रेंज दिखाई है, ग़ज़ब है। स्टीफ़न ग्राहम, जिन्होंने इस सीरीज़ को जैक थॉर्न के साथ मिल कर रचा है, पिता के रोल में भी हैं। माँ हैं क्रिस्टीन ट्रेमार्को। एशले वॉल्टर्स ने डिटेक्टिव ल्यूक बॉस्कोम्बी का चरित्र अभिनीत किया है। 

यह केस इस पुलिस वाले को भी अपने किशोर बेटे से भी जैसे एक नये ढंग से परिचित करवाता है। पटकथा के ऐसे ही पहलू इस सीरीज़ को किसी आम 'हू डन इट' वाली श्रेणी से उठा कर एक ऐसी गहनता प्रदान करते हैं जो सामान्य तौर पर दिखाई नहीं देती। 

पिता के आंसू, जो दिखाई नहीं देते

जेमी के पिता एडी मिलर (स्टीफ़न ग्राहम) का वह दृश्य जब वे, अपनी रुलाई को अस्वर रखने की असफल कोशिश करते हुए जेमी के सूने कमरे में रो पड़ते हैं, उसके टेडी को लिहाफ़ ऐसे ओढ़ा देते हैं जैसे खुद उसी को ओढ़ा रहे हों, बहुत मार्मिक है। ये पिताओं के वे आँसू हैं, जो आम तौर पर परिवार को दिखाई नहीं देते। 

'अडॉलसॅन्स' की सार्वभौमिक अपील उस शाश्वत अपराध बोध में है, जो अक्सर हर अभिभावक महसूस करता है लेकिन कह नहीं सकता। हम अपने बच्चों के अपराधी हैं। उन्हें न समझने के। उन्हें अपनी संपत्ति की तरह बरतने के। उन तक कोई पुल न बनाते हुए उनके लिए रास्ते तय करने के। इस सीरीज़ ने हमारी किसी दुखती रग पर हाथ रख दिया है। हम एडी के पास जाकर खड़े हो जाते हैं क्योंकि उसकी ही तरह हमारी भी समझ से बाहर है कि ग़लती हुई कहाँ। क्योंकि हम भी एडी हैं, अपने जेमियों की दुनिया से बाहर : बहुत दिनों बाद जब हम उनके कमरे का दरवाज़ा खोलते हैं तो अन्दर कोई नहीं मिलता। 

एक अस्फुट रुलाई उठती है, देह और आत्मा को झिंझोड़ती। और दुनिया के सामने हमें अपने आँसू पोंछ कर जाना है।