एक बेहतर दुनिया के निर्माण का स्वप्न

सपने इंसान की जिंदगी का अहम हिस्सा होते हैं। सपने देखना और उन्हें मुकम्मल करने की कोशिश ही इंसान को इंसान बनाती है। क्या किसी रचनाकार का स्वप्न आम मनुष्य के स्वप्न से अलग और वृहत्तर होता है? आज इस स्तम्भ की नवीनतम कड़ी के रूप में पढिये प्रसिद्ध कवि, कहानीकार और सम्पादक ' संजय कुंदन ' के विचार-

DREAM

एक रचनाकार के रूप में अपने स्वप्न के बारे में सोचते हुए ठिठक कर मैं अपने आप से ही पूछता हूं- 'क्या मैं सही अर्थ में रचनाकार बन पाया हूं?' कह नहीं सकता। अपने रचनाकर्म को लेकर हमेशा एक संकोच रहता है मन में। कभी लगता है, मैं थोड़ा लेखक, थोड़ा पत्रकार, थोड़ा रंगकर्मी, थोड़ा अनुवादक, संपादक आदि हूं।

 दरअसल मैं एक ऐसा संवेदनशील इंसान हूं, जिसके पास दुनिया को लेकर कुछ स्वप्न हैं। इन्हीं स्वप्नों की वजह से मैंने लिखना शुरू किया। चूंकि मुझे उन स्वप्नों तक पहुंचना था, दूसरों से वे स्वप्न साझा करने थे तो मैंने लिखने, नाटक करने आदि को एक माध्यम के रूप में अपनाया। कुछ समय छात्र राजनीति से भी जुड़ा।  

कॉलेज के शुरुआती दिनों में रंगकर्म से जुड़ा। एक संस्था बनाई और नाटक करने लगा। लेकिन नाटक करते हुए एक चीज़ साफ़ थी कि मुझे कुछ सार्थक कहना है। नाटक सिर्फ़ अपने को अभिव्यक्त करने, रचनात्मक-कलात्मक संतोष हासिल करने या इसमें करियर बनाने के लिए तो नहीं ही था। उसके पीछे यह स्वप्न था कि समाज में जो कुछ हो रहा है, उस पर मुझे कुछ कहना है, इसलिए कहना है कि कुछ चीज़ों को लेकर मेरा विरोध है, मैं उसे बदलना चाहता हूं। मैं बदलकर इसे कैसा बनाना चाहता हूं, यह उस वक़्त बहुत साफ़ नहीं था। मैंने नुक्कड़ नाटक लिखे और उन्हें घूम-घूमकर प्रदर्शित किया। जो मंच नाटक लिखे या दूसरों के लिखे मंचित किए, उनमें भी अपनी ओर से समाज और राजनीति को लेकर द्वंद रहता था या समाज की कोई विडंबना होती। 

कविता लिखने की शुरुआत इससे पहले हो चुकी थी। और लिखते-लिखते जल्दी यह अहसास हो गया था कि इसके ज़रिए अपने समय के सामाजिक-राजनीतिक संघर्ष को व्यक्त करना है। उन्हीं दिनों बिहार सरकार का एक ऐंटी प्रेस बिल आया था, जिसका विरोध हो रहा था। मुझे इसकी बातें समझ में नहीं आती थीं। लेकिन इतना ज़रूर समझ में आता था कि यह ग़लत है। यह व्यापक समाज के हित के ख़िलाफ़ है। तो मैंने उसके ख़िलाफ़ कविता लिखने की कोशिश की। फिर ऐसे जो भी मुद्दे आए, उन पर कविता लिखी, बग़ैर यह परवाह किए कि ऐसी कविताओं को कोई कविता मानेगा कि नहीं। या कोई और ऐसी कविताएं लिख रहा है या नहीं। हमारे भीतर कोई स्वप्न क्यों आकार लेता है, या हम किसी स्वप्न से क्यों जुड़ जाते हैं- इसकी क्या प्रक्रिया होती है, मैं अभी इस पर कुछ नहीं कह सकता। मुझे लगता है, कुछ चीज़ें हमारे भीतर शायद जन्मजात होती हैं और वह बाहरी परिस्थितियों के प्रभाव में विकसित होती जाती हैं। 

तो जो स्वप्न मैं देख रहा था, शुरू में उसका एक धुंधला सा स्वरूप था, लेकिन धीरे-धीरे वह साफ़ होता गया, गाढ़ा होता गया। उन सपनों को लेकर मैं और दृढ़ होता गया। मैं ऐसे लोगों के संपर्क में आया, जो वही स्वप्न देख रहे थे। यह स्वप्न था- एक बेहतर दुनिया के निर्माण का स्वप्न। एक ऐसी दुनिया बने, जहां किसी तरह की ग़ैर बराबरी न हो। किसी भी आधार पर शोषण न हो। सबको आगे बढ़ने के बराबर मौके मिलें। जहां रिश्तों का आधार प्रेम और भाईचारा हो। एक ऐसी व्यवस्था हो, जिसमें प्रकृति और पर्यावरण को विशेष जगह मिले। 

तो उन लोगों को देखकर लगा कि यही सब तो मैं भी सोचता हूं। इसलिए मुझे लगा कि इन लोगों के साथ जुड़ना चाहिए। निश्चय ही इन लोगों के साथ रहकर मेरी दृष्टि विकसित हुई। मैंने महसूस किया कि ये आपसी व्यवहार में भी औरों से अलग हैं। ये संबंधों में ज्यादा जनतांत्रिक और खुले हुए हैं। मैंने इनमें से कुछ लोगों को अपने रास्ते से भटकते हुए भी देखा। पर मेरा अभी तक अपने रास्ते पर विश्वास बना हुआ है।

रोजी-रोटी की तलाश करते हुए मैं पत्रकारिता से जुड़ा। पत्रकारिता से जुड़ने का कारण यह रहा कि यह साहित्य के पड़ोस की विधा है। और यह काम भी मैं बचपन से ही कर रहा था। स्कूल के दिनों में हस्तलिखित अख़बार और पत्रिकाएं निकाली थीं। सब कुछ ख़ुद ही करता था। कविता, कहानी और लेख लिखना फिर उन्हें अच्छी लिखावट में उतारना। कभी-कभार एक मित्र भी मदद करता था। हालांकि उस वक़्त नहीं सोचा था कि पत्रकारिता में जाऊंगा। 

जाहिर है, पत्रकारिता की अलग दुनिया है। साहित्य से भिन्न। लेकिन इस दुनिया में खोया नहीं। अपने स्वप्न के साथ रहा। अपने लिए जितना हो सका, वह अवसर निकाला कि मैं वे बातें कह सकूं जो मैं साहित्य में कह रहा था। मैं पत्रकारिता के क्षेत्र में ख़ुद को आगे बढ़ाने और स्थापित करने के प्रलोभन में कभी नहीं पड़ा। मैंने महसूस किया कि कई लोग यहां भी ऐसे थे, जिनके भीतर एक छटपटाहट थी, चीज़ों को बदलने की। वे सब उसी स्वप्न को लेकर चल रहे थे। 

लेकिन स्वप्न जहां मज़बूत बनाते हैं, जीने का एक अर्थ देते हैं, वहीं अकेला भी कर देते हैं। कई बार महसूस हुआ कि अपने स्वप्न की वजह से अपने सामाजिक जीवन में अकेला पड़ता जा रहा हूं। अपने परिवार, दफ़्तर, पड़ोस में सामंजस्य बिठाने में नाकाम हो रहा हूं। शायद इसलिए कि ज्यादातर लोग बनी-बनाई व्यवस्था या यथास्थिति से अलग किसी धारणा को तुरंत स्वीकार नहीं कर पाते। ज्यों ही आप आम धारणा या प्रचलित पर्सेप्शन से अलग बात करते हैं, तो आप थोड़ा मिसफिट होते जाते हैं। पिछले कुछ समय से मैं ऐसा ज़्यादा ही महसूस कर रहा हूं।

आज लगता है कि वह स्वप्न बिखर रहा है। हम उस स्वप्न के क़रीब न जाकर उससे और दूर जा रहे हैं। यह कैसी दुनिया बन रही है! अब तो ग़ैर बराबरी बढ़ती जा रही है। ऐसे आंकड़े आ रहे हैं जो बताते हैं कि दुनिया में संपत्ति और संसाधनों के बंटवारे में व्याप्त असमानता बढ़ी है। चंद लोगों के पास संपत्ति केंद्रित होती जा रही है। दुनिया के एक हिस्से में भूखमरी है, जबकि अनाज की कमी नहीं है। ऐसा हो रहा है सिर्फ़ युद्ध की वजह से। अनेक देशों में युद्ध की वजह से कृषि और खाद्य वितरण प्रणालियां चौपट हो गई हैं। पूरे विश्व में ताक़त का बोलबाला हो गया है। जनतंत्र, विश्व बंधुत्व, राजनय, मानवाधिकार जैसी बातों का तो कोई मतलब नहीं रह गया है। 

अब सारे संबंध ताक़त पर टिके हुए हैं। अगर कोई आर्थिक या सैन्य बल में शक्तिशाली है, तो वह कुछ भी कर सकता है। ऐसे दो-चार देश मिलकर पूरी दुनिया को अपने इशारे पर नचाना चाहते हैं। वे जब चाहते हैं किसी की बांह मरोड़ देते हैं, उसकी गर्दन पर फंदा कस देते हैं। ताक़त का यह खेल दुनिया से लेकर अपने मोहल्ले अपने आसपास भी दिख रहा है। हमारे देश में जिस तरह धर्मांधता और नफ़रत का प्रसार हुआ है, वह हैरान करने वाला है। 

आज से बीस-पचीस साल पहले कोई कल्पना भी नहीं कर सकता था कि भारत में कभी ऐसा भी हो सकता है। आज केंद्रीय सत्ता में ऐसी ताक़तें बैठी हैं, जिन्होंने सुनियोजित ढंग से न सिर्फ अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ़ अभियान छेड़ दिया है, बल्कि वैज्ञानिकता, तार्किकता और विवेक की भी धज्जियां उड़ाकर रख दी हैं। अब ये इतिहास, शिक्षा, कला-साहित्य सब पर क़ब्ज़े में लगी हैं। उन्हें तहस-नहस किया जा रहा है। असहमति, बहस-मुबाहिसे की तो अब कोई गुंजाइश ही नहीं रह गई है। यह ताक़त का नंगा खेल है। यह सब देखकर मुक्तिबोध की कविता ‘अंधेरे में’ की मृतक दल की शोभायात्रा याद आती है। 

लेकिन ऐसा क्यों हुआ? क्या एक जनतांत्रिक, समरस, सहिष्णु समाज की कल्पना करने वालों के प्रयासों में कोई कमी रह गई? या उनके किन्हीं विरोधाभासों के कारण स्थितियां ऐसी हो गईं? इन सब पर सोचता रहता हूं पर कोई जवाब नहीं मिलता। हमारे सपने टूटे हैं, लेकिन क्या हमें हाथ पर हाथ धरकर बैठ जाना चाहिए। हमारे कितने ही मित्र हैं, जिन्होंने घुटने टेक दिए हैं। वे ताक़त के खेल का एक हिस्सा बन गए हैं। यह और भी दुखी करने वाली बात है। एक लेखक ऐसे हालात में क्या करे? 

इस अंधेरे दौर में भी मुझे उन लोगों से रोशनी मिलती है, जो अपने स्तर पर सत्ता तंत्र की साज़िशों का विरोध करते हैं। वे उसकी पोल खोलते हैं। ऐसे समय जब सच छुपाया जा रहा हो, वे सच को सामने लाते हैं। उनमें कोई कॉमेडियन है, कोई गायिका है, कोई पत्रकार है, कोई विद्यार्थी है, कोई वकील या सामाजिक कार्यकर्ता है। उन्हें देखकर हौसला मिलता है। एक लेखक के रूप में मुझे लगता है- मैं जो कर रहा था, मुझे करते रहना चाहिए। मैं आज की विकट स्थितियों को बस दर्ज करता रहूं, यह भी कम नहीं है। 

वैसे भी हर दौर के श्रेष्ठ साहित्य की यह ज़िम्मेदारी रही है कि वह अपने समय के संघर्ष और कशमकश को दर्ज करे। ब्रेख्त की यह मशहूर पंक्ति हैः क्या अंधेरे समय में भी गीत गाए जाएंगे? हां, अंधेरे समय के ही गीत गाए जाएंगे।’ 
यानी अपने समय के बारे में लिखते रहना होगा। और एक लेखक के रूप में मैं यह दायित्व भी महसूस करता हूं कि उनके पक्ष में खड़ा रहूं जो पीड़ित हैं। हाल के वर्षों में भारत में अल्पसंख्यकों, दलितों-आदिवासियों पर सबसे ज्यादा हमले हो रहे हैं। मैं उनकी पीड़ा को लिख सकूं तो यह मेरे लेखन की सार्थकता होगी। मेरे सामने मार्खेज की यह बात हमेशा रहती है कि लेखक का स्वप्न है– एक बेहतर, न्यायपूर्ण और मानवीय दुनिया की कल्पना करना, और उसका दायित्व है – इस कल्पना को शब्दों के माध्यम से साकार करने की कोशिश करना, भले ही वह मुश्किल हो। 

लेकिन क्या एक रचनाकार सिर्फ़ समाज और दुनिया के लिए ही सोचता है? ख़ुद के लिए अपने निजी जीवन के लिए कोई सपने नहीं देखता? मैं कई बार सोचता रहा हूं कि मैं किसी छोटे शहर में रहता, जहां कम लोग रहते। जहां ज़्यादा भीड़भाड़ नहीं रहती। जहां सड़क पर जब चाहे चहलक़दमी करना संभव हो पाता। अभी मैं जहां रहता हूं, वहां तो सड़क पर पैदल चलना ही मुश्किल है। हर समय सचेत रहना पड़ता है। मैं कल्पना करता हूं कि ऐसे शहर में रहता जहां घर से कुछ सोचते हुए निकलता और फुटपाथ पर किसी बेंच पर बैठ जाता। फिर वहां से किसी परिचित के घर चला जाता। यह सब महानगर में नहीं हो पाता है। 

यहां हमेशा एक दबाव सा महसूस होता है। लेकिन ये चीज़ें नहीं मिलीं तो इसका मलाल भी नहीं है। मैं निराश-हताश होता ज़रूर हूं, पर सपने देखना नहीं छोड़ता। यही वह चीज़ है, जो मुझे जीवन से जोड़े हुए है।

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