कालजयी: साहब बीबी और गुलाम- कोई दूर से आवाज़ दे, चले आओ !

आज यानी 29 जुलाई , 2025 को 63 साल की हो जायेगी गुरुदत्त की क्लासिक फिल्म 'साहिब, बीबी और गुलाम।' संयोग से जुलाई का यह महीना गुरूदत्त के जन्म का भी है। तब साहिब बीबी और गुलाम ने चार फिल्मफेयर पुरस्कार जीते थे एक साथ और 2013 में भारतीय सिनेमा के शताब्दी वर्ष पर आईबीएन लाइव ने इस फिल्म को "सर्वकालिक 100 महानतम भारतीय फिल्मों" की सूची में शामिल किया था। बावजूद इसके यह फिल्म अपने रिलीज के वक्त एक हिट फिल्म नहीं थी। तब के दर्शक इसके अंत की वजह यानी परंपरानुसार छोटी बहू के चरित्र में आये गिराव की वजह से इसे नहीं स्वीकार पा रहे थे। फिर गुरूदत्त ने क्लाइमेक्स से 'साहिल की तरफ' गाना हटा दिया, जिसमें छोटी बहू भूतनाथ की गोद में अपना सिर रखती है। इस कालजयी फिल्म पर आज पढ़ते हैं आशुतोष दुबे को-

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।। उपन्यास ।।

'साहब बीवी गुलाम' विमल मित्र का उपन्यास है।

 उपन्यास बड़े फलक पर है और सामन्ती युग के पतन को सारे परिवेशगत ब्यौरों के साथ समेटता है। यह उपन्यास बहुत पढा गया और इसने विमल मित्र को बहुत यश दिया। 'खरीदी कौड़ियों के मोल', 'साहब बीबी गुलाम' और 'मुजरिम हाज़िर 'की एक त्रयी है जिनमें मित्र अपने लेखन के शिखर पर हैं।

इस बड़े कैनवास के उपन्यास को दो ढाई घण्टे की फ़िल्म में समेटना बहुत चुनौती पूर्ण रहा होगा। अबरार अल्वी विमल मित्र के साथ कई महीनों बैठे और दोनों ने इसे फ़िल्म की शक्ल में ढाला। यह काम खास तौर पर अल्वी ने किया होगा क्योंकि लेखक तो अपने लिखे हर हर्फ़ से मोह रखते हैं। लेकिन मित्र की रजामंदी ली जाती रही होगी। बाद में जब फ़िल्म बहुत मशहूर हुई तब मित्र ने कहा कि वे अब और किसी उपन्यास को फ़िल्म के लिए नहीं देंगे क्योंकि सब फ़िल्म ही देखते हैं उपन्यास कोई नहीं पढ़ता। सचमुच इसके बरसों बाद ही उनके 'मुजरिम हाज़िर' पर सीरियल बन पाया था जिसमें नूतन ने कालीगंज की बहू की यादगार भूमिका की थी।

मित्र की इस त्रयी में एक 'पॉज़िटिव गुड मैन' है, जो एक ग़लत दुनिया और उसके वैसे ही मूल्यों के बीच निहत्था अपनी अच्छाई के साथ खड़ा रहता है और इसकी कीमत चुकाता है। 'खरीदी कौड़ियों के मोल' में यह दीपंकर है, 'साहब बीबी और गुलाम' में भूतनाथ, 'मुजरिम हाज़िर' में सदानन्द।

अल्वी ने फ़िल्म की ज़रूरत के हिसाब से समय और परिवेश को चंद स्ट्रोक्स में समेट दिया और भूतनाथ को केन्द्र में रख कर कहानी कही। एक दृश्य है अंग्रेजों के अत्याचार का और एक जमींदारों की मुर्गालड़ाई है। एक दो मुजरे। इस सबमें तत्कालीन समय समेट दिया है और कहानी छोटी बहू के दर्द पर केंद्रित की है। घड़ी बाबू ( हरीन्द्रनाथ चट्टोपाध्याय ) समय की आत्मा की तरह हैं ही। इस तरह पटकथा बिखराव और भटकाव से बची और वह तमाम विस्तार जो उपन्यास में सोहता है लेकिन फ़िल्म के लिए अवांछनीय हो जाता है, फ़िल्म में अखरने का कारण नहीं बन पाया।

इस फ़िल्म को निर्देशित करने के अलावा अल्वी ने संवाद भी लिखे हैं। वे गुरुदत्त मंडल के खास सदस्य थे और दस वर्ष तक गुरुदत्त की मृत्यु पर्यन्त उनके साथ रहे। 'साहब बीवी और गुलाम' की पटकथा बहुत चुस्त है और इस बात की मिसाल भी कि किसी साहित्यिक कृति पर कितनी समझ के साथ फ़िल्म बनाना चाहिए।

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।। निर्देशक।।

साहब बीवी और गुलाम के निर्देशक कौन थे ?

यही सवाल रहा होगा जिसने अबरार अल्वी का ज़िन्दगी भर पीछा किया और अंत तक आते आते कुछ कड़वाहट से भर दिया।

इस फ़िल्म के लिए उन्हें फिल्मफेअर का बेस्ट डायरेक्टर अवार्ड मिला। फ़िल्म को इतनी तारीफ़ मिली। क्लासिक बनी। खुद गुरुदत्त ने कभी यह नहीं कहा कि निर्देशन अबरार ने नहीं उन्होंने किया है। तब भी अबरार की निर्देशकीय प्रतिभा पर शक के बादल घिरे रहे।

अल्वी से गुरुदत्त की मुलाकात 'आरपार' बनने के वक्त हुई थी। उन्होंने फ़िल्माए जा रहे किसी सीन का कोई पेंच ऐसे सुलझा दिया था कि गुरुदत्त ने उन्हें अपना ही बना लिया। उनकी लगभग हर ख़ास फ़िल्म की कहानी या संवाद या पटकथा से अल्वी जुड़े रहे।

फिर 'साहब बीबी और गुलाम' की उन्होंने पटकथा तैयार की। गुरुदत्त ने निर्देशन की ज़िम्मेदारी उन्हें दी। मगर गीतों को पिक्चराइज़ खुद ही किया। 

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गुरु दत्त (बाएं) और अबरार अल्वी Photograph: (X)

अल्वी ने गुरुदत्त पर एक किताब लिखी है। पत्रकार सत्या सरन ने भी उनसे लगातार बातचीत कर गुरुदत्त के साथ बीते उनके दस वर्षों पर एक किताब लिखी है। फ़िल्मों के साथ ही गुरुदत्त की ज़िंदगी में क्या हो रहा था, अल्वी जैसे उनके सहचर ही जान सकते थे।

गुरुदत्त की मृत्यु के बाद भी अबरार अल्वी ने अनेक फ़िल्में लिखीं । वे बहुत तरह की हैं। 'प्रोफेसर' जैसी कॉमेडी भी, 'मनोरंजन' जैसी कुछ पगलैट फ़िल्म भी, और भी बहुत सी।

गुरुदत्त के जाने के बाद कोई यह कहने वाला भी नहीं रहा कि मैंने नहीं, अबरार अल्वी ने 'साहब, बीवी और गुलाम' का निर्देशन किया है।

और खुद अबरार भी कोई और फ़िल्म निर्देशित करके इसे साबित कर सकते थे। मगर इस फिल्मफेअर विजेता निर्देशक पर किसी और ने जैसे भरोसा किया ही नहीं।

इस फ़िल्म के पहले भी अल्वी लेखक थे, बाद में भी वही रहे। 

पता नहीं इन किताबों में अल्वी ने कितना बताया और कितना नहीं, मगर 2009 में जब उनकी मौत हुई , वे यह पीड़ा अपने साथ ले गए होंगे कि एक महान फ़िल्म का श्रेय उन्हें मिल कर भी कभी नहीं मिला।

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।। कास्टिंग ।।


कास्टिंग फ़िल्म की समग्र डिज़ाइन में बहुत महत्त्वपूर्ण तत्व है। ख़ास तौर पर उस फ़िल्म के लिए जो सितारों के लिए नहीं, कहानी के लिए बनाई गई हो। तब पात्र के अनुकूल कलाकारों की खोज होती है, यह नहीं कि स्टार मिल गए, अब इनकी छवि के मुताबिक छप्पन फार्मूलों से खचाखच कोई कहानी गढ़ ली जाए। 

कास्टिंग के लिहाज से फ़िल्मों में 'साहिब बीबी और ग़ुलाम' मुझे परफेक्ट लगती है।

वहीदा छोटी बहू नहीं हो सकती थीं, भले वह यह भूमिका चाहती रही हों। छोटी बहू तो मीना कुमारी ही हो सकती थीं। दिप दिप करती उनकी वह बिंदिया, अपमानित और आहत होता स्त्रीत्व, अतृप्त मातृत्व और मोहिनी सिंदूर के छल का वह करुण भरोसा। 

छोटी बहू को कोई नहीं मार पाएगा। मीना कुमारी को भी नहीं।

वहीदा शोख , दबंग और बुद्धिमती जवाकुसुम हुईं। भंवरा बड़ा नादान है। आशा के खिलंदड़ चंचल स्वर को काया देती हुईं।

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Photograph: (Reddit)

भूतनाथ के रूप में गुरुदत्त हैं। ढहते हुए सामंती मूल्यों के रुग्ण परिसर में एक भोला भाला बाहरी आदमी जो छोटी बहू की व्यथा के समीप जाकर खड़ा हो गया है। अनजाने में उसी की शोकांतिका का कारण। कथा का सूत्रधार। गुरुदत्त इस भूमिका से एकाकार हैं। 

रहमान और सप्रू ही नहीं, और गौण पात्र भी। नज़ीर हुसैन, बड़ी बहू - प्रतिमा देवी, मंझली बहू- रंजीत कुमारी, मास्टर बाबू -कृष्ण धवन । यहाँ तक कि वह कृपण रसोइया भी जो भूतनाथ को पर्याप्त भात नहीं देता।

और घड़ी बाबू हरीन्द्र नाथ चट्टोपाध्याय के सिवा कौन हो सकते थे ?

गुरुदत्त के प्यारे जॉनी वॉकर के लिए यहाँ कोई भूमिका नहीं थी, सो वे नहीं हैं।

और संगीतकार, ओ पी नैयर नहीं, एस डी बर्मन नहीं, हेमंत कुमार हैं। क्या लाजवाब संगीत। 

मैंने जाना कि आ गए सांवरिया मोरे
झट फूलन की सेजिया पे जा बैठी !

अबरार अल्वी और गुरुदत्त की यह सृजन साझेदारी हिंदी सिनेमा की अविस्मरणीय धरोहर है। अच्छी कास्टिंग का उदाहरण भी।

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।। गीता दत्त ।।

मीना कुमारी के बारे में सोचना मेरे लिए गीता दत्त के बारे में सोचना क्यों हो जाता है ?

यूँ तो लता जी ने उनके लिए क्या ख़ूब गाया है : रुक जा रात ठहर जा चन्दा , बीते ना मिलन की रैना ...

वही उंगलियों में से फिसलती रेत जैसी उम्मीद की तड़प। पर वह जैसे किसी आकुल तपस्विनी का पवित्र स्वर है।

यह गीता दत्त की आवाज़ है जो मीना कुमारी की रूह का जैसे असली ठिकाना है।

कोई दूर से आवाज़ दे चले आओ !

आमन्त्रण की पुकार में गुंथी नाउम्मीदी की टूटन। यह निराश उम्मीद कुछ और तरह की है। यही गीता दत्त है।

आसक्ति और अतृप्ति के बीच जो एक जगह है, वही गीता दत्त की आवाज़ का पता है। राग और तड़प की ऐसी युति कहीं और नहीं।

अपने शोख़, मस्ती भरे गीतों में भी इस आवाज़ में एक आसन्न अवसाद की आहट सुनाई दे सकती है। यह आवाज़ उतनी परफ़ेक्ट भी नहीं जितनी बाद में आशा की आवाज़। इसमें उस एक उदासी की , सुख के अधूरेपन की, उसके संभाव्य अवसान के घिरते हुए बादल की छाया अक्सर तिर आती है । इसके इम्परफेक्शन ने इसे वह तह, वह सलवट दी है जो न होती तो यह गीता दत्त की आवाज़ न होती। 

साहब बीवी और गुलाम की छोटी बहू के कंठ में इसके अलावा कौन सी आवाज़ रह सकती थी ?

मैं आज तुमको जाने न दूँगी

जाने न दूँगी !

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।। त्रासदी ।।

'साहब बीबी और गुलाम' एक ट्रैजिडी थी। कैसा संयोग है कि यह ट्रैजिडी उससे जुड़े कई लोगों के जीवन में भी रिसती रही।

इस त्रासदी के मूल में इन सबका अल्कहॉलिक होना था जिसे जीवन और सम्बन्धों की टूटफूट ने आत्मनाश की खाई तक पहुँचा दिया था।

मीना कुमारी की ज़िन्दगी का अक्स छोटी बहू में था या छोटी बहू स्वदेश दीपक की मायाविनी की तरह मीना कुमारी में प्रवेश कर गईं, पता नहीं लेकिन एक अतृप्त जीवन को शराब के सहारे खेने की कोशिश अंततः 38 बरस के जीवन का पूर्ण विराम बनी। शराब से मीना कुमारी का राब्ता इसी फ़िल्म के बाद शुरू हुआ।

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नायक गुरुदत्त अपनी तमाम सफलताओं और प्रसिध्दि के बावजूद 'ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है' के निरर्थकता बोध से घिरे और उसी 39 बरस की उम्र में उन्होंने शराब के साथ नींद की बहुत सी गोलियां खा कर आत्महत्या की।

मीना कुमारी की आवाज़ रहीं गीता दत्त इसी शराब का शिकार बनीं। भग्न दाम्पत्य और पति के अवसान के बाद नर्वस ब्रेकडाउन का शिकार हुईं। खुद को सम्हालने की कोशिशों के बावजूद वह उस दलदल से बाहर नहीं निकल सकीं जिसमें उनका जीवन जा धँसा था। 41 की उम्र में जिस तरह उनकी मृत्यु हुई उसे बस तकनीकी तौर पर आत्महत्या नहीं कहा जा सकता, मगर वह थी वही।

छोटे सरकार यानी रहमान को ज़िन्दगी तो 62 सालों की मिली, लेकिन शराब ने उन्हें भी बुरी तरह जकड़ा। कहते हैं पक्षाघात के बावजूद वे शराब से दूर नहीं रह पाते थे।

फ़िल्में सिर्फ़ दर्शकों पर ही असर नहीं डालतीं। कभी कभी वे कलाकारों के मानस पर भी काले बादल की तरह घिर जाती हैं। दिलीप कुमार ट्रैजिक रोल करते करते जब अवसाद के मुहाने पर पहुँच गए थे तब उससे उबरने के लिए उन्होंने कॉमिक और कुछ लाउड भूमिकाएँ करने में ही त्राण पाया।

मर्ज और दवा कभी कभी एक ही होती है। बस किसी किसी को कोई दवा उबार नहीं पाती।

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