पिछले कुछ समय से रुपया लगातार डॉलर के मुकाबले गिर रहा है. ये गिरावट पिछले कुछ महीनों में तेज हो गई है. भारतीय रुपए की कीमत अमेरिकी डॉलर के मुकाबले 87 तक पहुंच गयी. नए साल के पहले महीने में ही अमेरिकी डॉलर के मुकाबले भारतीय रुपया 86.65 के न्यूनतम स्तर पर पहुंच गया। रुपये में हो रहे इस लगातार अवमूल्यन ने बढ़ती महंगाई, आयात लागत में वृद्धि और व्यापक आर्थिक प्रभावों को लेकर चिंता बढ़ा दी है।
मुद्रा का अवमूल्यन क्या है?
मुद्रा का अवमूल्यन का अर्थ है किसी देश की मुद्रा के मूल्य में गिरावट, जब उसकी तुलना अन्य विदेशी मुद्राओं से की जाती है। मुद्रा का अवमूल्यन आमतौर पर अस्थायी विनिमय दर प्रणाली में होता है। अस्थायी विनिमय दर प्रणाली में मुद्रा का मूल्य, विदेशी मुद्रा बाजार में मांग और आपूर्ति के आधार पर तय होता है। यह प्रणाली मुद्रास्फीति, ब्याज दरों और व्यापार संतुलन में बदलाव के प्रति संवेदनशील रहती है, जिससे विनिमय दर में उतार-चढ़ाव होता है।
किसी भी देश का केंद्रीय बैंक आमतौर पर केवल अत्यधिक अस्थिरता के समय हस्तक्षेप करता है। यह प्रणाली लचीलापन प्रदान करती है लेकिन कभी-कभी अस्थिरता पैदा कर सकती है, जो अंतरराष्ट्रीय लेन-देन के लिए समस्याप्रद हो सकती है। इसमें मुद्रा का अवमूल्यन या मूल्यवृद्धि हो सकती है। यह देशों को स्वायत्त मौद्रिक नीति अपनाने और आर्थिक संकटों से निपटने में मदद करती है। यह प्रक्रिया घरेलू और वैश्विक दोनों तरह के आर्थिक कारणों से हो सकती है। उदाहरण के लिए, अगर भारतीय रुपया अमेरिकी डॉलर के मुकाबले कमजोर होता है, तो इसका मतलब है कि एक डॉलर खरीदने के लिए अधिक रुपये की जरूरत पड़ेगी। जब कोई देश आयात अधिक करता है और निर्यात कम, तो विदेशी मुद्रा की मांग बढ़ जाती है, जिससे स्थानीय मुद्रा कमजोर हो जाती है। इसके अलावा, राजनीतिक अस्थिरता या वैश्विक वित्तीय बदलाव भी मुद्रा के अवमूल्यन का कारण बन सकते हैं।
मुद्रा के अवमूल्यन का कारण
विदेशी मुद्रा बाजार में किसी मुद्रा की कीमत उसकी मांग और आपूर्ति के अनुसार तय होती है, जैसे किसी उत्पाद की कीमत बाजार में तय होती है। मांग बढ़ने पर, आपूर्ति स्थिर होने पर कीमत बढ़ती है; जबकि मांग घटने पर कीमत गिर जाती है। विदेशी मुद्रा बाजार में वस्तुओं के बजाय मुद्राओं का विनिमय होता है।
मुद्रा का अवमूल्यन तब होता है जब उसकी मांग आपूर्ति की तुलना में कम हो जाती है। इसके विपरीत, दूसरी मुद्रा का मूल्य बढ़ जाता है। यह प्रक्रिया वस्तुओं की कीमत में बदलाव से पैसे की क्रय शक्ति पर पड़ने वाले प्रभाव जैसी होती है। मुद्रा की आपूर्ति का प्रमुख निर्धारक केंद्रीय बैंक की मौद्रिक नीति है। ढीली मौद्रिक नीति अपनाने से मुद्रा की आपूर्ति बढ़ती है, जिससे मूल्य गिरता है। सख्त मौद्रिक नीति के कारण मुद्रा का मूल्य बढ़ सकता है।
किसी मुद्रा की मांग उस देश के सामान और परिसंपत्तियों की विदेशी मांग से निर्धारित होती है। उच्च मांग से मुद्रा का मूल्य बढ़ता है, जबकि मांग घटने से मूल्य गिरता है। इस प्रकार, मुद्रा की कीमत देश की आर्थिक स्थिति, व्यापार और निवेश के प्रति विदेशी विश्वास का प्रतिबिंब होती है।
भारतीय रुपये के अवमूल्यन की वजह
आज़ादी के बाद से भारतीय मुद्रा ने काफी उतार-चढ़ाव का अनुभव किया है. पिछले 77 सालों में कई भू-राजनीतिक और आर्थिक घटनाक्रमों ने इसकी चाल को प्रभावित किया है. लेकिन अगर हम अवमूल्यन और रुपये की गिरावट का इतिहास का अवलोकन करें तो पाएंगे की रुपया सदैव से डॉलर के मुकाबले कमजोर नहीं था, 15 अगस्त 1947 को जब भारत को आज़ादी मिली, तो रुपए की कीमत अमेरिकी डॉलर के बराबर थी, और भारत पर कोई विदेशी उधार नहीं था. लेकिन बाद के वर्षों में विशेष रूप से 1951 में आर्थिक विकास की गतिविधियों को वित्तपोषित करने के लिए पंचवर्षीय योजनाओं की शुरुआत के साथ सरकार ने बाहरी उधार लेना शुरू कर दिया और इसके लिए रुपये का अवमूल्यन करना पड़ा.
आज़ादी के बाद, भारत ने निश्चित विनिमय दर आधारित मुद्रा प्रणाली अपनाई। 1948 से 1966 तक रुपया डॉलर के मुकाबले 4.79 पर स्थिर रहा। लेकिन 1962 और 1965 के युद्धों से हुए बजटीय घाटे ने 1966 में रुपए का अवमूल्यन कर इसे 7.57 पर ला दिया। 1971 में रुपया ब्रिटिश पाउंड से अलग होकर अमेरिकी डॉलर से जुड़ गया। 1975 में इसका मूल्य 8.39 और 1985 में 12 रुपये प्रति डॉलर कर दिया गया। 1991 में भुगतान संतुलन के संकट, उच्च मुद्रास्फीति, कम विकास दर, और न्यून विदेशी मुद्रा भंडार के कारण मुद्रा का तेजी से अवमूल्यन हुआ, जिससे रुपया एक डॉलर के मुकाबले 17.90 पर आ गया।
1993 में भारतीय मुद्रा प्रणाली में बड़ा बदलाव आया। विनिमय दर बाजार द्वारा तय की जाने लगी, जबकि अस्थिरता के समय केंद्रीय बैंक को हस्तक्षेप की छूट दी गई। उसी वर्ष, मुद्रा का अवमूल्यन कर एक डॉलर के मुकाबले 31.37 किया गया। वर्ष 2000-2010 के बीच रुपया 40-50 के बीच रहा, 2007 में 39 के उच्चतम स्तर पर पहुंचा। 2008 के वैश्विक आर्थिक संकट के बाद से भारतीय मुद्रा का मूल्य धीरे-धीरे गिरने लगा।
भारतीय रुपया वर्तमान में डॉलर के मुकाबले अपने सबसे कमजोर और निम्नतर स्तर 86.65 पर पहुँच चुका है और लगातार गिरावट का सामना कर रहा है। विदेशी निवेशकों द्वारा हाल के महीनों में तेजी से धन निकासी ने रुपये पर दबाव बढ़ा दिया है। वैश्विक निवेशक विभिन्न देशों में अपने निवेश का पुनर्गठन कर रहे हैं, क्योंकि केंद्रीय बैंक अपनी मौद्रिक नीतियों में बदलाव कर रहे हैं। कोरोना महामारी के बाद उच्च मुद्रास्फीति से निपटने के लिए केंद्रीय बैंकों ने सख्त मौद्रिक नीतियां अपनाईं, लेकिन मुद्रास्फीति नियंत्रित होने पर इन्हें ढीला किया जा रहा है। इसका परिणाम यह हुआ कि निवेशकों ने भारत जैसे उभरते बाजारों से धन निकालकर अधिक उन्नत बाजारों में निवेश करना शुरू कर दिया।
डॉलर के मुकाबले रुपये की गिरावट का प्रमुख कारण भारत और अमेरिका के बीच मौद्रिक नीतियों में अंतर है। अमेरिकी फेडरल रिजर्व द्वारा ब्याज दरें बढ़ाने से पूंजी भारत से बाहर जा रही है, जबकि भारतीय रिज़र्व बैंक (RBI) की मौद्रिक नीति तुलनात्मक रूप से नरम रही है। इसके अलावा, भारत के उच्च आयात, विशेषकर कच्चा तेल और सोने की पारंपरिक मांग, जो डॉलर की आवश्यकता को बढ़ाती है, रुपये को कमजोर कर रही है। 2025 में कच्चे तेल की कीमत $81.20 प्रति बैरल तक पहुंचने से विदेशी मुद्रा की मांग और बढ़ी है। वहीं, निर्यात में अपेक्षित वृद्धि न होने और विदेशी मुद्रा की धीमी आमदनी ने भी रुपये पर नकारात्मक प्रभाव डाला है।
वैश्विक आर्थिक अस्थिरता, जैसे व्यापार युद्ध, आर्थिक मंदी और भू-राजनीतिक तनाव, ने भी निवेशकों का विश्वास कमजोर किया है। राजनीतिक अस्थिरता और वित्तीय घाटे ने विदेशी निवेशकों को डॉलर को प्राथमिकता देने पर मजबूर किया, जिससे पूंजी निकासी बढ़ी। इसके अतिरिक्त, वैश्विक बाजार में सरकारी इक्विटी की बिक्री और निवेशकों के विश्वास में कमी ने रुपये की आपूर्ति बढ़ाई, जिससे इसका मूल्य और गिरा। इन सब कारणों ने मिलकर रुपये के अवमूल्यन को गहराया है, जो भारत की आर्थिक स्थिरता के लिए चिंता का विषय है।
अवमूल्यन का भारतीय अर्थव्यवस्था पर प्रभाव
- सकारात्मक प्रभाव:
अवमूल्यन के परिणामस्वरूप आयात महंगे हो जाते हैं। इसलिए नागरिकों द्वारा प्राय: आयातित वस्तुओं की कम खरीद की जाती है। दूसरी ओर, अंतरराष्ट्रीय क्रेताओं के लिए निर्यात की जाने वाली वस्तुएं अपेक्षाकृत सस्ती हो जाती हैं, परिणामस्वरूप निर्यात की मांग में वृद्धि हो जाती है जिससे आने वाले दिनों में फार्मास्यूटिकल्स, वस्त्र और आईटी सेवाओं जैसे निर्यात क्षेत्रों की मांग बढ़ सकती है। इस प्रकार, आयात में कमी तथा निर्यात में वृद्धि के फलस्वरूप न केवल व्यापार घाटे में कमी लाई जा सकती है, बल्कि इससे अधिशेष का भी सृजन हो सकता है। रुपये का अवमूल्यन भारतीय उत्पादों को वैश्विक बाजार में अधिक प्रतिस्पर्धी बनाता है, खासकर आर्थिक सुधार और वैश्विक अनिश्चितता के समय। हालांकि, व्यापार घाटे में आशानुरूप कमी नहीं हो सकती है और कुछ परिस्थितियों में इसमें वृद्धि भी हो सकती है, जैसे यदि ऐसी आवश्यक वस्तुओं का आयात किया जा रहा हो, जिन्हें घरेलू उत्पादों से प्रतिस्थापित करना कठिन हो।
- नकारात्मक प्रभाव:
- विदेशी मुद्रा भंडार में कमी: मुद्रा अवमूल्यन के परिणामस्वरूप भारत का विदेशी मुद्रा भंडार घट रहा है. इसका मूल्य सितम्बर, 2024 में 700 बिलियन डॉलर से घटकर दिसम्बर, 2024 के अंतिम सप्ताह में 640 बिलियन डॉलर पर आ गया जो आठ माह का निम्नतम स्तर है. हालांकि विश्लेषकों का मानना है कि यदि आरबीआई ने डॉलर के मुकाबले रुपये को सहारा देने के लिए हस्तक्षेप नहीं किया होता तो रुपये का अवमूल्यन और भी अधिक बुरा होता.
- आयात खर्च में बढ़ोतरी: रुपये के अवमूल्यन से आयात महंगा हो जाता है, क्योंकि आयातकों को समान मात्रा में विदेशी मुद्रा खरीदने के लिए अधिक भुगतान करना पड़ता है।
- ब्याज दरों पर असर: कमजोर रुपये से आयातित मुद्रास्फीति बढ़ती है, जिससे RBI के लिए ब्याज दरों को कम बनाए रखना चुनौतीपूर्ण हो जाता है। यह आर्थिक विकास और मूल्य स्थिरता के बीच संतुलन में बाधा डालता है।
- विदेश यात्रा और शिक्षा का खर्च: अंतरराष्ट्रीय यात्रा और विदेश में शिक्षा भारतीयों के लिए अधिक महंगी हो जाती है।
- विदेशी ऋण का दबाव: विदेशी मुद्रा में लिया गया कर्ज रुपये के अवमूल्यन से महंगा हो जाता है, जिससे कर्जदाताओं पर दबाव बढ़ता है।
- मुद्रास्फीति में उछाल: आयात लागत में बढ़ोतरी घरेलू बाजार में कीमतों को बढ़ाती है, जिससे उपभोक्ताओं की क्रय शक्ति घटती है और आर्थिक स्थिरता प्रभावित होती है।
- चालू खाता घाटा पर प्रभाव: अवमूल्यन से आयात लागत बढ़ने के कारण विदेशी मुद्रा भंडार पर दबाव पड़ता है, जिससे व्यापार संतुलन और वित्तीय घाटे का प्रबंधन कठिन हो जाता है।
- विदेशी निवेश में गिरावट: अवमूल्यन को आर्थिक कमजोरी का संकेत मानते हुए, यह विदेशी निवेशकों के विश्वास को कमजोर कर सकता है। हालांकि, आयात घटने और निर्यात बढ़ने से निवेश में सुधार की संभावना भी बन सकती है।
- वैश्विक वित्तीय अस्थिरता: अवमूल्यन व्यापारिक भागीदारों और पड़ोसी देशों को प्रतिस्पर्धात्मक अवमूल्यन के लिए प्रेरित कर सकता है, जिससे वैश्विक वित्तीय बाजार अस्थिर हो जाते हैं और आर्थिक कठिनाइयां बढ़ती हैं।
भारतीय रिजर्व बैंक (RBI) की रुपए के अवमूल्यन को नियंत्रित करने में भूमिका
रुपये के अवमूल्यन का अर्थव्यवस्था पर गंभीर नकारात्मक प्रभाव हो सकता है। इसे रोकने के लिए RBI विभिन्न उपाय कर सकता है:
- विदेशी मुद्रा भंडार की बिक्री: रुपये को स्थिर करने के लिए RBI अपने विदेशी मुद्रा भंडार का एक हिस्सा बेच सकता है। इससे बाजार में तरलता बढ़ती है और रुपये के गिरते मूल्य को नियंत्रित करने में मदद मिलती है। विदेशी मुद्रा भंडार का उपयोग करेंसी संकट के समय तेज गिरावट को रोकने में प्रभावी हो सकता है।
- NRI खातों के माध्यम से पूंजी प्रवाह को बढ़ावा देना: अनिवासी भारतीयों (NRIs) के जमा को प्रोत्साहित करना विदेशी मुद्रा की आपूर्ति बढ़ाने का प्रभावी तरीका हो सकता है। जब NRIs भारत में धन जमा करते हैं, तो वे अपनी विदेशी मुद्रा को रुपये में बदलते हैं, जो रुपये के मूल्य को सहारा देता है। RBI इस प्रक्रिया को आकर्षक ब्याज दरों और NRI बॉन्ड्स की पेशकश के माध्यम से प्रोत्साहित कर सकता है।
- पूंजी प्रवाह को प्रोत्साहन: विदेशी निवेश आकर्षित करने के लिए RBI नीतिगत सुधार करता है, जिससे विदेशी मुद्रा भंडार में वृद्धि होती है।
- आयात-निर्यात प्रबंधन: RBI निर्यात प्रोत्साहन और आयात नियंत्रण उपायों को लागू करता है, जिससे चालू खाता घाटा कम करने में मदद मिलती है।
- मुद्रा विनिमय समझौता: मुद्रा विनिमय लेनदेन में RBI रुपये को बैंकिंग प्रणाली में हस्तांतरित करते है। यह प्रक्रिया तरलता को प्रबंधित करने में मदद करती है और अल्पकालिक रूप से विनिमय दर को स्थिर कर सकती है।
- विनियम और निगरानी: RBI वित्तीय संस्थानों और बाजारों पर निगरानी रखकर रुपये की कमजोरी से जुड़ी आर्थिक अस्थिरताओं को नियंत्रित करता है।
- मौद्रिक नीति: RBI ब्याज दरों को समायोजित कर निवेश और मुद्रा प्रवाह को प्रोत्साहित करता है। यह कदम रुपये की मांग और आपूर्ति को संतुलित करने में मदद करता है।
भारतीय रुपए की स्थिरता मजबूत करने के उपाय
- प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (FDI) को बढ़ावा: दीर्घकालिक FDI को प्रोत्साहित कर स्थिर पूंजी प्रवाह सुनिश्चित किया जा सकता है, जिससे रुपये का मूल्य सुदृढ़ होगा और अस्थिर विदेशी पोर्टफोलियो निवेश (FPI) पर निर्भरता घटेगी।
- प्रेषण बढ़ाने के प्रयास: एनआरआई (प्रवासी भारतीयों) के लिए धन भेजने की प्रक्रियाओं को सरल बनाकर विदेशी मुद्रा भंडार को सुदृढ़ किया जा सकता है।
- संतुलित वित्तीय नीति: सरकार को विवेकपूर्ण वित्तीय प्रबंधन और संतुलित राजकोषीय स्थिति बनाए रखने पर ध्यान देना चाहिए, जिससे निवेशकों का विश्वास बढ़े और रुपये को स्थिरता मिले।
- घरेलू उत्पादन का विस्तार: आयात निर्भरता कम करने के लिए घरेलू विनिर्माण को प्रोत्साहित करना आवश्यक है। इससे विदेशी मुद्रा बहाव कम होगा और अर्थव्यवस्था अधिक आत्मनिर्भर बनेगी।
- निर्यात प्रतिस्पर्धा में सुधार: प्रौद्योगिकी, फार्मास्यूटिकल्स, वस्त्र और विनिर्माण क्षेत्रों में निवेश कर निर्यात बढ़ाने से विदेशी मुद्रा आय में वृद्धि होगी।
- विदेशी निवेश को आकर्षित करना: विदेशी बैंकों और सॉवरेन फंड्स को भारतीय सरकारी बांडों में निवेश के लिए प्रेरित कर विदेशी मुद्रा भंडार को मजबूत किया जा सकता है।
- आयात पर नियंत्रण: गैर-जरूरी आयात को सीमित करने और घरेलू उत्पादों को प्रोत्साहित करने से चालू खाता घाटा को नियंत्रित किया जा सकता है।
- वैश्विक जोखिम प्रबंधन: भू-राजनीतिक तनाव और वैश्विक आर्थिक अस्थिरता से निपटने के लिए रणनीतिक नीतियां अपनानी चाहिए।
- स्थानीय उत्पादों का समर्थन: ‘मेक इन इंडिया’ जैसी पहलों को बढ़ावा देकर घरेलू उत्पादन और आत्मनिर्भरता को बढ़ाया जा सकता है।
- व्यापार और आर्थिक सुधार: व्यापार सुगमता, बुनियादी ढांचे का विकास, और स्थिर नीतिगत ढांचे के माध्यम से निवेशकों का विश्वास मजबूत किया जा सकता है।
अंततः हम ये कह सकते हैं कि, भारतीय रुपये का अवमूल्यन विदेशी मुद्रा बाजार में मांग और आपूर्ति असंतुलन, अमेरिकी डॉलर की मजबूती, और आयात-निर्यात में असंतुलन के कारण हो रहा है। यह उच्च आयात लागत, विदेशी मुद्रा भंडार में कमी, और मुद्रास्फीति को बढ़ावा देता है। हालांकि, निर्यात को सस्ता बनाकर व्यापार संतुलन में सुधार की संभावना उत्पन्न करता है। भारतीय रिजर्व बैंक (RBI) विदेशी मुद्रा भंडार का उपयोग, मौद्रिक नीति समायोजन, और विदेशी निवेश प्रोत्साहन जैसे उपायों से रुपये को स्थिर करने का प्रयास कर रहा है। रुपये को स्थिर रखने के लिए आत्मनिर्भरता बढ़ाना, निर्यात प्रतिस्पर्धा सुधारना और संतुलित वित्तीय नीतियां आवश्यक हैं।