प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इन दिनों फ्रांस की यात्रा पर हैं। आज वह फ्रांस के कैडराचे में दुनिया के सबसे उन्नत संलयन ऊर्जा परमाणु रिएक्टर का निरीक्षण करेंगे। कैडराचे में दुनिया भर के शीर्ष वैज्ञानिक पृथ्वी पर 'लघु सूर्य (मिनी सन)' बनाने के लिए जुटे हैं।
इंटरनेशनल थर्मोन्यूक्लियर एक्सपेरिमेंटल रिएक्टर (आईटीईआर) या 'द वे' नामक यह परियोजना दुनिया भर में स्वच्छ ऊर्जा का प्रसार करना चाहती है। इस मिनी सन को बनाने में 22 बिलियन यूरो से अधिक लागत लगी है। इस परियोजना में सात देश शामिल हैं जिनमें अमेरिका, रूस, दक्षिण कोरिया, जापान, चीन, भारत और यूरोपियन यूनियन शामिल हैं। इन सभी देशों का लक्ष्य "पृथ्वी पर आदित्य (सूर्य)" बनाना है।
2006 में बनी थी सहमति
हालांकि इस योजना पर पहली बार साल 2006 अमेरिका, रूस , भारत, चीन, दक्षिण कोरिया ने सहमति व्यक्त की थी। मौजूदा समय में करीब 30 देश इसका समर्थन कर रहे हैं। इस परियोजना में भारत का अहम योगदान है। इसमें लगने वाला रेफ्रिजरेटर भारतीय कंपनी लार्सन एंड ट्रुबो द्वारा गुजरात में बनाया गया था। इसका वजन 3800 टन से अधिक है और इसकी ऊंचाई 30 मीटर से अधिक है।
इसके अलावा भारत ने भारतीय उद्योग द्वारा निर्मित सामग्री का भी योगदान दिया है। सूर्य एक प्राकृतिक संलयन ऊर्जा का भंडार है और यदि सौर ऊर्जा बंद हो गई तो पृथ्वी पर जीवन असंभव हो जाएगा।
इसका निर्माण परमाणुओं का संलयन करके ऊर्जा उत्पन्न करना है। पारंपरिक परमाणु ऊर्जा परमाणुओं को विभाजित करके काम करती है और यह लंबे समय तक चलने वाले रेडियोधर्मी अपशिष्ट उत्पन्न करती है लेकिन हाइड्रोजन और उसकी बहनों के संलयन से अपशिष्ट उत्पाद एक सौम्य हीलियम गैस बन जाती है।
परमाणुओं का संलयन कर ऊर्जा उत्पन्न करता है सूर्य
सूर्य परमाणुओं को संलयन करके अपनी ऊर्जा उत्पन्न करता है और आज जब जलवायु संकट हम पर मंडरा रहा है तो ऊर्जा के स्वच्छ, कार्बन-मुक्त स्रोत की खोज पहले से कहीं अधिक महत्वपूर्ण हो गई है। लेकिन सूर्य का निर्माण करने की बात कहना आसान है लेकिन करना उतना आसान नहीं है।
इसे बनाने में आने वाले खर्च का करीब 45 प्रतिशत हिस्सा यूरोपीय संघ कर रहा है, वहीं इसके सदस्य देश 9.1 प्रतिशत का हिस्सा दे रहे हैं। इसमें दस लाख से अधिक अलग-अलग हिस्से हैं। इन हिस्सों को 45 से अधिक देशों से प्राप्त किया जाएगा और अब अनुमान है कि 2035 तक आईटीईआर मशीन अपने पहले पूर्ण प्रायोगिक संचालन के लिए तैयार हो जाएगी।
भारत इसके लिए अपने 100 इंजीनियर भेज सकता है क्योंकि एक समझौते के तहत प्रत्येक हिस्सेदार देश 10 प्रतिशत तक कर्मचारी भेज सकता है।
हालांकि एनडीटीवी की एक खबर के अनुसार, अभी इस प्रोजेक्ट में भारत के 25 से 30 सदस्य ही कार्यरत हैं। ऐसे में इस प्रोजेक्ट में भारत की अपेक्षा चीन के अधिक वैज्ञानिक हिस्सा ले रहे हैं। भारत की तरफ से कम लोग भेजने के पीछे कार्मिक विभाग के नियम हैं।
इन नियमों के अनुसार, सरकारी कर्मचारियों को दो साल और स्वायत्त संस्थानों में काम करने वाले लोगों को पांच साल के लिए विदेश में तैनात नहीं किया जा सकता है। ऐसे में कम ही भारतीय इस परियोजना का हिस्सा बन पा रहे हैं।