नई दिल्ली: ईरान के सर्वोच्च नेता आयातुल्लाह अली खामेनेई ने अपने एक बयान में कहा है कि गाजा और म्यांमार के साथ-साथ भारत में भी मुसलमान पीड़ित हैं। उन्होंने एक्स पर एक पोस्ट में कहा, ‘यदि हम म्यांमार, गाजा, भारत या किसी अन्य स्थान पर एक मुसलमान को होने वाली पीड़ा से बेखबर हैं तो हम खुद को मुसलमान नहीं मान सकते।’
भारत सरकार ने ईरानी नेता के बयान पर तीखी प्रतिक्रिया दी और पहले खुद का रिकॉर्ड चेक करने की सलाह दे डाली। भारतीय विदेश मंत्रालय ने कहा कि खामेनेई के ‘भारत में अल्पसंख्यकों के संबंध में की गई टिप्पणियों की कड़ी निंदा करते हैं। ये गलत सूचनाओं पर आधारित हैं और अस्वीकार्य हैं। अल्पसंख्यकों पर टिप्पणी करने वाले देशों को सलाह है कि वे दूसरों के बारे में कुछ भी कहने से पहले अपना रिकॉर्ड देख लें।’
संयोग देखिए, ईरान ने जिस दिन (16 सितंबर) भारत में मुस्लिमों के पीड़ित होने की बात कही, वह महसा अमिनी की मौत की दूसरी वर्षगांठ का दिन था। महसा अमिनी…वही कुर्द ईरानी महिला जिसे 22 साल की उम्र में हिजाब नहीं पहनने के लिए गिरफ्तार किया गया और पुलिस हिरासत में पिटाई से उसकी मौत हो गई।
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इस घटना के बाद ईरान में महिलाओं का आक्रोश नजर आया और हिजाब के विरोध में बड़े पैमाने पर आंदोलन शुरू हुए। यह अब भी पूरी तरह से खत्म नहीं हुआ है। खामेनेई के ही कार्यकाल में ईरान में पिछले दो वर्षों में हिजाब के विरोध में आंदोलन में कई महिलाओं को मारा गया है और जेल में डाला गया है। 30 सितंबर 2022 को ऐसे ही आंदोलन को दबाने की कोशिश में सुरक्षा बलों ने 80 से ज्यादा लोगों की गोली मारकर हत्या कर दी।
ईरान में कैसे हैं अल्पसंख्यकों के हालात?
ईरान की कुल आबादी में 99 प्रतिशत से ज्यादा मुस्लिम समुदाय से हैं। इसमें भी 90 से 95 फीसदी शिया जबकि करीब पांच से सात फीसदी सुन्नी मुस्लिम हैं। ऐसे में सुन्नी मुस्लिमों को यहां अक्सर भेदभाव और उत्पीड़न का शिकार होना पड़ता है। इसमें शिक्षा से लेकर रोजगार, राजनीति और धार्मिक स्थलों तक में यह भेदभाव है। केवल सुन्नी ही नहीं अन्य अल्पसंख्यक मसलन बहाई, ईसाई, यहूदी, यारेसन, कुर्द, बलूच लोगों के साथ भी भेदभाव है और इसमें सीधे-सीधे सरकार की भूमिका नजर आती है।
मानवाधिकार संगठन एमनेस्टी इंटरनेशनल की 2023 की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि मुस्लिम माता-पिता के बच्चे अगर दूसरा धर्म या नास्तिकता को अपनाते हैं तो उन पर ‘धर्मत्याग’ के आरोप में गिरफ्तारी, उत्पीड़न, मौत की सजा तक मिलने का खतरा रहता है। दूसरे धर्म को मानने या पालन करने के लिए कई लोगों को मनमाने ढंग से हिरासत में लेने और उनके खिलाफ पक्षपातपूर्ण तरीके से मुकदमा चलाने, यातना देने की कई रिपोर्ट्स मौजूद हैं।
1979 की ईरान की इस्लामी क्रांति के बाद तो एक आदेश के बाद कई साल तक गैर-मुसलमानों की सरकारी संस्थानों में आधिकारिक पदों पर नियुक्ति करने पर प्रतिबंध लग गया था। यह बैन देश भर के शैक्षिक विभागों और सेना, नौसेना और पुलिस सहित सशस्त्र बलों तक फैला हुआ था। हालांकि, 1980 के दशक में ईरान-इराक युद्ध के दौरान इस निर्देश में कुछ ढील दी गई। हालांकि आज भी गैर मान्यता प्राप्त समुदाय जैसे बहाई लोगों के लिए आर्म्ड फोर्स के दरवाजे बंद हैं।
सुन्नी मुस्लिमों के साथ भेदभाव
खामेनेई ने जब भारत में मुस्लिमों के ‘पीड़ित’ होने का जिक्र किया तो इसी दौरान उन्होंने एक ट्वीट में ये भी कहा कि मुसलमानों का बुरा चाहने वाले इन्हें शिया और सुन्नी में बांटना चाहते हैं और हमेशा से ऐसा करते रहे हैं। उन्होंने अपने एक पोस्ट में राष्ट्रीयता, भौगोलिक सीमाओं से इतर ‘मुसलमानों की एकता’ की बात कही। हालांकि हैरान करने वाली बात है कि खामेनेई के अपने ही देश में शिया और सुन्नी का भेदभाव चरम पर नजर आता है।
Using ideological, propagational, media & economic factors, ill-wishers work to separate Shia from Sunni, within our country & all over the world. They exacerbate divisions by encouraging people on both sides to insult & offend the other side. The solution is focusing on unity.
— Khamenei.ir (@khamenei_ir) September 16, 2024
दुनिया भर की तमाम रिपोर्ट बताती है कि धार्मिक रूप से ईरान में अल्पसंख्यक सुन्नी मुसलमानों को विभिन्न क्षेत्रों में भेदभाव का सामना करना पड़ता है। ईरान वायर की रिपोर्ट बताती है कि इन अल्पसंख्यकों को सरकारी पद प्राप्त करने में बाधाओं का सामना करना पड़ता है। चयन प्रक्रियाओं में पूर्वाग्रहों का सामना करना पड़ता है। यही नहीं, ईरान में अधिकांश जगहों पर सुन्नी मुस्लिमों के पास नमाज पढ़ने के लिए अपनी मस्जिद तक नहीं है। नौकरशाही हो या राजनीति, सुन्नी मुस्लिमों को बड़े पदों पर पहुंचने से रोका जाता है।
बहाई लोगों के साथ भेदभाव
ईरान वायर की एक मार्च-2024 की रिपोर्ट के अनुसार ऐसे तो ईरान का संविधान आधिकारिक तौर पर धार्मिक अल्पसंख्यकों के अधिकारों को मान्यता और गारंटी देता है, लेकिन इसके बावजूद खुलेआम उनके खिलाफ भेदभाव होता रहा है। रिपोर्ट में कहा गया है कि संविधान की दी गई गारंटी और असल सच्चाई के बीच एक बड़ा अंतर है। इसमें अल्पसंख्यकों के लिए रोजगार में बाधा, संपत्ति की जब्ती और खुल के अपने धार्मिक समारोहों के आयोजन तक पर प्रतिबंध शामिल हैं।
इस्लामिक गणराज्य ईरान आधिकारिक तौर पर तीन धार्मिक अल्पसंख्यकों – ईसाई, पारसी और यहूदी को मान्यता देता है। इन्हें ईरानी संविधान के अनुच्छेद 13 के तहत अपने अनुष्ठानों, शिक्षाओं और व्यक्तिगत मान्यताओं का पालन करने की स्वतंत्रता मिली है। इसके अतिरिक्त इनके लिए संसद में अधिकतम पांच प्रतिनिधियों की सीट भी आरक्षित है। हालांकि, बहाई समुदाय जो ईरान का सबसे बड़ा गैर-मुस्लिम धार्मिक अल्पसंख्यक है, उन्हें ही देश के संविधान के तहत मान्यता प्राप्त नहीं हैं। ये सबसे ज्यादा सभी क्षेत्रों में सताए जाते हैं।
ह्यूमन राइट्स वाच की रिपोर्ट के अनुसार 1979 की क्रांति के बाद ईरानी अधिकारियों ने बहाई समुदाय के नेताओं सहित सैकड़ों बहाईयों को मार डाला या जबरन गायब कर दिया। समुदाय के हजारों लोगों ने अपनी नौकरियां और पेंशन गंवा दी है या उन्हें अपना घर या देश छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा है। बहाई समुदाय के लिए ईरान में मौत के बाद भी राहत नहीं है। बहाई अंतरराष्ट्रीय समुदाय (बीआईसी) के मुताबिक इसी साल मार्च में तेहरान में समुदाय के 30 कब्रों को ईरानी अधिकारियों ने तबाह कर दिया। इन पर बुलडोजर चलाए गए और इसे समतल कर दिया गया।