Tuesday, November 18, 2025
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रचनाकार का स्वप्न: स्वप्न और यथार्थ की दुनिया अलग-अलग नहीं है!

सपने इंसान की जिंदगी का अहम हिस्सा होते हैं। सपने देखना और उन्हें मुकम्मल करने की कोशिश ही इंसान को इंसान बनाती है। क्या किसी रचनाकार का स्वप्न आम मनुष्य के स्वप्न से अलग और वृहत्तर होता है? आज इस स्तम्भ की नवीनतम कड़ी में पढ़िये कहानीकार, पत्रकार सुधांशु गुप्त को-

स्वप्न पहले से था, रचना या रचनाकार का जन्म बाद में हुआ। यही प्रक्रिया है। ऐसे ही होता है। किशोरावस्था के सपने अलग थे। उस स्वप्न में यह कतई शामिल नहीं था कि कहानियाँ लिखनी हैं या साहित्य की ओर अग्रसर होना है। हाँ, पढ़ने का शौक था, तो ख़ूब पढ़ता था। प्रेमचंद, शरद, टैगोर, जैनेन्द्र, अज्ञेय, निर्मल वर्मा और विदेशी कथाकार (जो हिन्दी में उपलब्ध थे)। लेकिन इस पढ़ने में, लिखने की इच्छा या स्वप्न तक नहीं था, दूर-दूर तक नहीं था। उस समय के स्वप्न बहुत सादे से थे। नौकरी हासिल करना, घर की स्थितियाँ बेहतर करना। बेहतर दुनिया बनाने की कल्पना भी मेरे स्वप्न में नहीं थी। अजीब थे उस उम्र के सपने। एक स्वप्न यह भी था कि किसी रोज़ पचास तारे गिने जा सकें। घर छोटे थे तो गर्मियों में बाहर खाट बिछाकर सोना होता था। उस वक्त मैं आकाश के तारों को गिना करता था। लेकिन कभी दस तारों से अधिक नहीं गिन पाया। हमेशा लगता रहा कि एक न एक दिन यह कर पाऊंगा। हम जहाँ रहते थे, वहाँ अधिकांश लोग निम्न वर्गीय या मध्यवर्ग की ओर जाने का स्वप्न लिए लोग रहते थे। कुछ लोग प्रेस में काम करते थे और उनकी बंधी-बंधाई सेलरी थी, कुछ लोग छोटे-मोटे काम करके गुज़ारा चलाते थे। हमारी कॉलोनी के सामने ही एक पॉश कॉलोनी थी, जहाँ कोठियाँ बन रही थीं, कुछ बन भी चुकी थीं। हमारे एक- दो दोस्त कोठियों में भी रहते थे। लेकिन भारी आर्थिक असमानताओं के बावज़ूद कोई भेदभाव नहीं था…सब मित्रों की तरह ही रहते थे। पर दुनिया बदल रही थी, बदलने वाली थी और साथ ही उस उम्र के सपने भी बदलने को बेचैन थे।

एक दिन मेरे एक मित्र ने बताया कि उसने ‘टू व्हीलर’ खरीद लिया है। सब खुश हुए। यह भी संभव है कि बहुत से मित्रों के भीतर स्कूटर खरीदने का स्वप्न आकार लेने लगा हो। इसके बाद तो चीज़ें तेज़ी से बदलने लगीं। दरअसल यह सपनों के बदल जाने का समय था। और अधिसंख्य युवाओं के स्वप्न भौतिक सुख सुविधा की चीज़ों से जुड़े थे। यह ऐसा समय था जब हमारे जैसे युवाओं की प्राथमिकता बदलने लगी थी। हमारी ज़रूरतें बदलनी थीं। स्कूटर के बाद रोज़ पता चलता, किसी के घर टीवी (ब्लेक एंड व्हाइट) आया है तो किसी के घर फ्रिज़। ज़ाहिर है इनसे घरों में खुशी भी आती होगी! मैं जानता था कि मेरे हिस्से में ऐसी कोई खुशी नहीं है। मैं ऐसी किसी भी चीज़ को लाने की स्थिति में नहीं था। या इनमें से कुछ भी मेरी प्राथमिकता में नहीं था। मैंने सोचा कुछ ऐसा किया जाए जो मित्रों में से कोई और ना कर सके-सबसे अलग। किसी एक दिन, मेज़ पर बैठकर मैंने सादे लाइन वाले कागज़ों पर एक कहानी लिखी। शीर्षक था- ‘धूप का एक टुकड़ा’। मैं जानता था मेरे मित्रों में से कोई कहानी नहीं लिख पाएगा। अलग होने या दिखने का अहसास यहीं से जागृत हुआ। जो अब तक बना हुआ है। कहानी मैं ‘जनयुग’ (झंडेवालान ऑफिस) में दे आया। मुझे कतई विश्वास नहीं था कि कहानी छप भी सकती है। लेकिन कहानी छप गई। देखा तो वह अख़बार के आधे से अधिक पेज पर थी। मुझे बेहद खुशी हुई। मुझे लगा मैंने टू व्हिलर खरीद लिया है। बाद में जब पता चला कि निर्मल वर्मा की भी एक कहानी इसी शीर्षक से है तो मेरी खुशी दोगुना हो गई। अनायास ही मैंने ख़ुद को निर्मल के आसपास पाया।

समय बदला और साथ ही सपने भी बदलते गए। नौकरियाँ मिलती गईं, छूटती गईं। अगर नहीं छूट पाया तो कहानियाँ लिखना। अलग दिखने की इच्छा से लिखी पहली कहानी ने ही मेरा आगे का सफ़र तय कर दिया। मैं दो काम एक साथ करता रहा-पत्रकारिता की दुनिया में नौकरी जिससे आजीविका चलती रहे और लेखन जिससे मेरे भीतर का संसार बचा रहे और बचे रहें मेरे स्वप्न।

मेरे रचनात्मक जीवन के विषय में कोई पूछे तो मेरे लिए बताना मुश्किल है, बहुत मुश्किल है। मुझे कभी भी रचना जीवन से बाहर नहीं लगी। मैं जैसा जीवन देखता हूँ, जीता हूँ, अनुभव करता हूं, वही जीवन अपनी कहानियों में भी दर्ज करता हूँ। दिलचस्प बात यह है कि मेरे स्वप्न भी अब मेरे जीवन, मेरी कहानियों का हिस्सा हैं। कई कहानियां ऐसी हैं, जिन्हें मैं जागृत-सचेत अवस्था में पूरी नहीं कर पाता तो मैं इंतज़ार करता हूँ कि कोई सपना दिखाई देगा जो मुझे बताएगा कि कहानी कहाँ जाएगी। मैं कहानी को सपने के अनुरूप ही समाप्त करता हूँ। मेरे लिए ‘रियल’ और ‘स्वप्न’ की दुनिया अलग नहीं है। मेरे साथ कई बार यह भी हुआ कि बाहर की दुनिया में कोई व्यक्ति मिला और मैं निरंतर सोचता रहा कि इससे कहाँ मिला हूँ, बाद में पता चला कि इस व्यक्ति को तो मैंने सपने में देखा था। मुझे यह भी लगता है कि बाहर की दुनिया में बोली जाने वाली भाषा झूठ बोल सकती है, लेकिन सपनों की भाषा कभी झूठ नहीं बोलती, लिहाज़ा मैं सपनों की भाषा पर यकीन करता हूँ। काफ़्का ने तो अपने लेखन की भाषा ही स्वप्न में खोजी थी। मैं ऐसी कोई भाषा नहीं खोजता। जो घटना या व्यक्ति मेरे अनुभव का हिस्सा बनते हैं, वही मेरी कहानियों में आते हैं, उसी सहजता से जिस तरह जीवन में आते हैं। लेकिन यह भी सच है कि कहानी लिखते समय मैं रियल वर्ल्ड की घटना या व्यक्ति को बिल्कुल भूल जाता हूँ, अपने सपनों में देखे व्यक्ति या घटनाओँ और कल्पनाशीलता पर भरोसा करता हूँ। मैं कहानी लिखते समय, लिखने से पहले यह भी नहीं जानता की शुरुआत क्या होगी, कहानी का अंत क्या होगा। मैं किसी भी वाक्य से कहानी शुरू कर देता हूँ, जैसे-…और वह बाहर निकल आया, सड़क पर कोई नहीं था, मौसम उदास था उसके मन की तरह…। तो इसे आप मेरी रचना प्रक्रिया कह सकते हैं, अन्यथा मेरा तो यही मानना है कि यह मेरे जीने और सोचने का ढंग ही है। मैंने कभी किसी अन्य लेखक की तरह नहीं बनना या लिखना चाहा, मैं मोपासां, चेखव निर्मल वर्मा कभी नहीं होना चाहता। मैं जो हूँ, जैसा लिखता हूँ, वैसा ही रहना और लिखना चाहता हूँ।

यह भी सच है कि कहानियाँ लिखने के लिए दशकों बाद मेरे स्वप्न भी शायद बदल गए हैं। मैं मौज़ूदा समय और उसके सवालों से मुठभेड़ करता हूं, लेकिन मैं अपनी कहानियों में उन्हें आरोपित कभी नहीं करता, वे उसी रूप में आते हैं जैसे एक सामान्य आदमी उन सवालों का सामना करते हुए महसूस करता है। एक सच यह भी है कि पहली कहानी लिखते समय जो बात सोची थी (सबसे अलग दिखना और सबसे अलग लिखना) वह आज भी ज्यों की त्यों हैं। हम एक बेहतर दुनिया बनाएं, इसके लिए प्रयास करें, सामूहिकता से आत्मकेन्द्रिकता की ओर ना जाएँ, यही मेरे-रचनाकार के स्वप्न हैं।

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