चंडीगढ़: हरियाणा में हाल ही में बनी नायब सिंह सैनी की सरकार ने अपने एक महत्वपूर्ण पहल के तहत अनुसूचित जाति (एससी) समुदाय को दो उपसमूहों में बांटने और उप-कोटा लागू करने का फैसला लिया।सरकार के इस फैसले से हरियाणा देश का पहला ऐसा राज्य बनने जा रहा है, जहां इस तरह का नया प्रयोग हो रहा है।
मुख्यमंत्री सैनी ने शुक्रवार को ऐलान किया कि उनकी सरकार ने राज्य अनुसूचित जाति आयोग की रिपोर्ट की सिफारिशों को मंजूरी दे दी है। रिपोर्ट के अनुसार, हरियाणा में एससी समुदाय को दो श्रेणियों में बांटा गया है।
पहली श्रेणी में वंचित अनुसूचित जाति (डीएससी) शामिल है, जिसमें बाल्मीकि, धानक, मजहबी सिख और खटिक जैसी जातियां हैं। दूसरी श्रेणी में अनुसूचित जाति (ओएससी) शामिल है, जिसमें चमार, जटिया चमार, रेहगर, रैगर, रामदासी, रविदासी और जटा शामिल हैं।
हरियाणा सरकार का यह कहना है कि उप-कोटा लागू करने का उद्देश्य आरक्षण के लाभ को समाज के सबसे पिछड़े और जरूरतमंद समूहों तक पहुंचाना है। साथ ही इसका लक्ष्य बड़े समूहों के भीतर छोटे, कमजोर वर्गों के अधिकार को सुरक्षित करना है, ताकि वे भी इसका समुचित लाभ उठा सकें।
मौजूदा दौर में हरियाणा में अनुसूचित जातियों के लिए 15 फीसदी और अनुसूचित जनजातियों के लिए 7.5 फीसदी आरक्षण की व्यवस्था है। आयोग की रिपोर्ट के अनुसार इस 22.5 फीसदी आरक्षण के अंतर्गत हरियाणा में एससी और एसटी के उप-समूहों को विशिष्ट कोटा आवंटित किया जाएगा, जिनका रोजगार और शिक्षा में कम प्रतिनिधित्व है।
राज्य अनुसूचित जाति आयोग की रिपोर्ट में क्या था?
राज्य अनुसूचित जाति आयोग की रिपोर्ट ने स्टेट में की गई अनुसूचित जातियों की आंकड़ों को सामने लाते हुए बताया कि वंचित अनुसूचित जाति (डीएससी) के लोगों की सरकारी नौकरियों में भागीदारी काफी कम है।
आयोग ने सिफारिश की है कि एससी के लिए उपलब्ध 20 फीसदी आरक्षित रिक्तियों में से 50 फीसदी उनके लिए निर्धारित किया जाए। हालांकि, अगर इस श्रेणी में योग्य उम्मीदवार नहीं होते हैं, तो रिक्तियों को ओएससी के उम्मीदवारों से भरा जाएगा। अगर ओएससी में भी योग्य उम्मीदवार नहीं मिलते हैं, तो रिक्तियों को डीएससी से भरा जाएगा।
रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि इस निर्णय का लक्ष्य उच्च-स्तरीय सरकारी नौकरियों में डीएससी समूह का प्रतिनिधित्व बढ़ाना है। हरियाणा में एससी आबादी का एक बड़ा हिस्सा होने के बावजूद, ओएससी की तुलना में उन पदों में उनकी हिस्सेदारी काफी कम है।
आयोग की रिपोर्ट में उन समूहों के बीच नौकरियों के बंटवारे में भारी अंतर की ओर संकेत किया गया है। यह साफ हुआ कि ओएससी का उच्च सरकारी नौकरियों में बेहतर प्रतिनिधित्व है जबकि डीएससी इन पदों पर काफी पीछे हैं।
डीएससी समुदाय के लोग अक्सर स्वच्छता जैसी निचले स्तर की नौकरियों में अधिक हैं, जो उनकी जातिगत बैकग्राउंड से जुड़ी होती हैं।
सरकार को उम्मीद है कि इस बदलाव से नौकरी के अवसरों का उचित वितरण होगा और कुछ जातियों और विशिष्ट व्यवसायों के बीच संबंध खत्म हो जाएगा। यह फैसला एक जरूरी कदम है जिससे समाज के हाशिये पर पड़े वर्गों को उनके हक दिलाने में सहायता मिलेगी।
बिहार और तमिलनाडु की व्यवस्था क्या है?
बिहार में अलग हालात है। इस साल जून में राज्य सरकार द्वारा वंचितों, आदिवासियों और पिछड़े वर्गों के लिए 65 फीसदी आरक्षण के फैसले को पटना हाई कोर्ट ने रद्द कर दिया था।
इसके बाद राज्य सरकार ने हाई कोर्ट के फैसले को चुनौती देते हुए सुप्रीम कोर्ट का रुख किया। वहां भी हाई कोर्ट के फैसले को सही ठहराया गया। सुप्रीम कोर्ट ने 50 फीसदी से बढ़ाकर 65 फीसदी करने पर रोक लगा दी।
बिहार की तुलना में तमिलनाडु की स्थिति अलग है। यहां पिछले 35 वर्षों से नागरिकों को 69 फीसदी आरक्षण दिया जा रहा है। यह एक विशेष परिस्थिति है, क्योंकि 1993 में राज्य सरकार ने इसे विधानसभा में पारित किया था।
तमिलनाडु के आरक्षण कानून को बाद में संविधान की नौवीं अनुसूची में शामिल किया गया, जिसके बाद इन कानूनों की न्यायिक समीक्षा का अधिकार कोर्ट के पास नहीं रहा।
यही कारण है कि पूरे भारत में केवल तमिलनाडु एक ऐसा राज्य है, जहां 50 फीसदी से अधिक आरक्षण मौजूद है, भले ही सुप्रीम कोर्ट ने साल 1992 में इंदिरा साहनी मामले में आरक्षण की सीमा को 50 फीसदी पर सीमित कर दिया हो।
सुप्रीम कोर्ट का क्या कहना है?
इस साल अगस्त में सुप्रीम कोर्ट की एक संविधान पीठ ने अनुसूचित जातियों के उपवर्गीकरण की अनुमति दी थी, जिससे अनुसूचित जातियों के भीतर अधिक पिछड़े समूहों के लिए अलग से कोटा प्रदान किया जा सके।
यह निर्णय 6-1 के बहुमत से लिया गया था, जिसमें न्यायमूर्ति बेला त्रिवेदी ने असहमति जताई थी। सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले ने साल 2004 के उस फैसले को पलट दिया है जिसमें अनुसूचित जातियों के भीतर कुछ उप-जातियों को विशेष लाभ देने से इनकार किया गया था।
साल 2004 का केस ईवी चिन्नैया बनाम आंध्र प्रदेश से जुड़ा था, जिसमें पांच जजों की संवैधानिक पीठ ने यह कहा था कि अनुसूचित जाति (एससी) और अनुसूचित जनजाति (एसटी) के सदस्य एक समान समूह हैं, जिन्हें आगे किसी उप-समूह या वर्गीकरण में बांटा नहीं जा सकता है।
हालांकि, 2020 में रिटायर हो चुके न्यायमूर्ति अरुण मिश्रा की अध्यक्षता वाली पांच न्यायाधीशों की पीठ ने कहा था कि इस फैसले पर एक बड़ी पीठ द्वारा फिर से विचार करने की जरूरत है। उस समय कोर्ट ने कहा था कि आरक्षण का सही लाभ जरूरतमंद और गरीबों तक नहीं पहुंच रहा है।
हरियाणा की सैनी सरकार द्वारा किया गया यह निर्णय अनुसूचित जातियों के भीतर भेदभाव को खत्म करने पर जोर देने वाला है। इससे पिछड़े समूहों को लाभ मिलने की संभावना है। यह न केवल हरियाणा के लिए, बल्कि पूरे देश के लिए एक अच्छी व्यवस्था हो सकती है, जो सामाजिक न्याय की अवधारणा को आगे बढ़ाती है।