असम विधानसभा में जुमे की नमाज की छुट्टी पर ब्रेक लगा तो खतरे में आ गई धर्मनिरपेक्षता!

धर्म निजी आस्था का विषय है। उसे संसदीय परंपरा की गरिमा में दखल का हथियार बनाएंगे तो वो दोधारी हथियार आपके लिए भी घातक होगी। इसीलिए संवैधानिक कार्यों के दायित्व ने धर्म को नहीं घसीटना चाहिए। इसपर से कमाल देखिए कि जो ऐसा कर रहे हैं, वही संविधान की दुहाई भी दे रहे हैं।

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Secularism in danger when break imposed in Assam Assembly on Friday prayers holiday

असम विधानसभा में जुमे की नमाज की छुट्टी पर ब्रेक लगा तो खतरे में आ गई धर्मनिरपेक्षता! (फोटोः बोले भारत)

पूर्वोत्तर के राज्य असम की विधानसभा में शुक्रवार के रोज जुमे की नमाज के लिए मिलने वाले तीन घंटे का ब्रेक अब खत्म हो गया है। इसके साथ ही खुद को धर्मनिरपेक्ष कहने वाले राजनीतिक दलों ने बीजेपी, असम सरकार और असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा पर हमला बोल दिया है।

क्या शुक्रवार को नमाज के लिए तीन घंटे की छुट्टी को खत्म करना धर्मनिरपेक्षता के खिलाफ है। क्या हेमंत बिस्व सरमा की सरकार ने ये फैसला मुसलमानों को उकसाने या चिढ़ाने के लिए किया है। या फिर ये फैसला हिंदू वोटों के तुष्टीकरण के लिए हुआ है। साल 1937 में ब्रिटिश राज के दौरान ही सरकार बननी शुरु हुई तो असम विधानसभा का कामकाज शुरु हुआ।

उस वक्त मुस्लिम लीग के नेता और तत्कालीन असम के प्रमुख या प्रधानमंत्री सैयद सादुल्लाह ने ये परंपरा शुरु की कि मुस्लिम विधायकों को जुमे की नमाज अदा करने की सुविधा देने के लिए शुक्रवार सुबह 11 बजे सदन की कार्यवाही दो घंटे स्थगित कर दी जाएगी। वही परंपरा 87 वर्षों से लगातार चली आ रही थी।

लेकिन अब इस पर रोक लग गई है। लेकिन रोक के साथ ही राजनीति भी तेज हो गई है। कांग्रेस, समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय जनता दल जैसे नेताओं ने असम सरकार के फैसले का विरोध किया।

असम विधानसभा के स्पीकर ने एक बात कही है कि दूसरे धर्मों के लोग भी अपनी पूजा अर्चना के लिए छुट्टी मांग रहे थे। बात सही है कि अगर शुक्रवार को इस्लाम को मानने वालों को नमाज पढ़ने के लिए छुट्टी चाहिए तो सोमवार को शैव परंपरा वाले विधायक शिव भक्ति के लिए छुट्टी मांगते, मंगलवार को हनुमान भक्तों को हनुमान चालीसा पढ़ने के लिए छुट्टी चाहिए होती।

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बुधवार को गणेश जी की पूजा के लिए छुट्टी चाहिए। फिर हिंदू धर्म तो छोड़िए, अल्पसंख्यक तो मुसलमानों के अलावा दूसरे कई धर्मावलंबी भी हैं। क्या उनको अपनी धार्मिक परंपराओं के लिए ब्रेक नहीं चाहिए। फिर इस ब्रेक में सदन की परंपरा कैसे चलती।

धर्म निजी आस्था का विषय है। उसे संसदीय परंपरा की गरिमा में दखल का हथियार बनाएंगे तो वो दोधारी हथियार आपके लिए भी घातक होगी। इसीलिए संवैधानिक कार्यों के दायित्व ने धर्म को नहीं घसीटना चाहिए। इसपर से कमाल देखिए कि जो ऐसा कर रहे हैं, वही संविधान की दुहाई भी दे रहे हैं।

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