सरकार ने गैस विवाद को लेकर रिलायंस और उसके सहयोगियों को 2.8 अरब डॉलर का भेजा नोटिस

पेट्रोलियम मंत्रालय ने रिलायंस इंडस्ट्रीज और उसके सहयोगियों से पुराने गैस विवाद को लेकर 2.8 अरब डॉलर की मांग की है। इस मामले में दिल्ली हाई कोर्ट की तरफ से 14 फरवरी को फैसला सुनाया गया था।

Government Demanded 2.8 Billion Dollar Reliance Indusries Limited delhi high court judgement

सरकार ने रिलाइंस इंडस्ट्रीज और सहयोगियों को 2.8 अरब डॉलर के लिए भेजा नोटिस Photograph: (X)

नई दिल्लीः एक पुराने प्राकृतिक गैस प्रवासन विवाद में भारत सरकार ने रिलायंस इंडस्ट्रीज लिमिटेड और अन्य भागीदारों पर 2.81 अरब डॉलर (करीब 23,000 करोड़ रुपये) की मांग की है। रिफाइनिंग-टू-टेलीकॉम समूह ने मंगलवार को इसकी जानकारी दी है। इस मामले में रिलाइंस और उसके सहयोगियों को दिल्ली उच्च न्यायालय की तरफ से एक अनुकूल आदेश मिला था। 

रिलायंस इंडस्ट्रीज ने कहा कि कानूनी रूप से यह सलाह दी जाती है कि दिल्ली उच्च न्यायालय का फैसला और पेट्रोलियम मंत्रालय द्वारा यह अनंतिम मांग अस्थिर है। कंपनी की तरफ से कहा गया है कि वह फैसले को चुनौती देने के लिए कदम उठा रही है। कंपनी ने यह भी कहा है कि उसे मांग नोटिस के कारण किसी भी देनदारी की उम्मीद नहीं है। 

दिल्ली उच्च न्यायालय ने सुनाया था फैसला

बीती 14 फरवरी को दिल्ली उच्च न्यायालय में सुनवाई के दौरान एक डिवीजन बेंच ने एक अंतर्राष्ट्रीय मध्यस्थता न्यायाधिकरण के फैसले को पलट दिया था। अंतर्राष्ट्रीय मध्यस्थता न्यायाधिकरण द्वारा दिए गए फैसले में कहा गया था कि रिलायंस और उसकी सहयोगी बंगाल की खाड़ी में केजी-डी6 ब्लॉक से बेची गई प्राकृतिक गैस के लिए सरकार को कोई मुआवजा देने के लिए उत्तरदायी नहीं है।

वहीं, सरकार की तरफ से कहा गया था जिस ब्लॉक से गैस बेची गई थी। वह सरकार के स्वामित्व वाले तेल और प्राकृतिक गैस निगम यानी ओएनजीसी के अंतर्गत आती है। सरकार ने कहा कि यह गैस केजी-डीडब्ल्यूएन-98/2 से निकाली गई थी। 

सरकार ने 2016 में रिलायंस इंडस्ट्रीज और उसकी सहयोगी पर ओएनजीसी ब्लॉक से कथित तौर पर गैस निकालने को लेकर 1.55 अरब डॉलर की मांग की थी। इसके बाद कंपनी ने अंतर्राष्ट्रीय मध्यस्थ न्यायालय में मामला दर्ज कराया। यहां पर फैसला उसके पक्ष में आया। यह फैसला 2018 में दिया गया था। 

इस फैसले के पांच साल बाद सरकार ने 2023 में दिल्ली हाईकोर्ट में अपील दायर की थी। पहले इस मामले की सुनवाई एकल जज ने की तब अंतर्राष्ट्रीय कोर्ट के फैसले को बरकरार रखा लेकिन डिवीजन बेंच ने उस आदेश को रद्द करते हुए सरकार के पक्ष में फैसला सुनाया। 

रिलायंस इंडस्ट्रीज ने क्या कहा?

रिलायंस इंडस्ट्रीज ने चार मार्च को स्टॉक एक्सचेंज फाइलिंग में कहा "उपर्युक्त डिवीजन बेंच के फैसले के परिणामस्वरूप पेट्रोलियम और प्राकृतिक गैस मंत्रालय ने पीएससी (उत्पादन साझाकरण अनुबंध) ठेकेदारों अर्थात् रिलायंस इंडस्ट्रीज लिमिटेड, बीपी एक्सप्लोरेशन (अल्फा) लिमिटेड और NIKO (NECO) लिमिटेड पर 2.81 बिलियन अमेरिकी डॉलर की मांग की है। कंपनी को मांग पत्र 3 मार्च 2025 को सुबह 11:30 बजे प्राप्त हुआ था।"

इससे पहले, गहरे पानी के ब्लॉक केजी-डी6 में रिलायंस की 60 फीसदी हिस्सेदारी थी, जबकि यूके स्थित बीपी और कनाडा की निको की क्रमश: 30 फीसदी और 10 फीसदी हिस्सेदारी थी। हालांकि, बाद में निको इस ब्लॉक से बाहर निकल गया, जिससे रिलायंस की हिस्सेदारी बढ़कर 66.6 फीसदी और बीपी की हिस्सेदारी 33.3 फीसदी हो गई।

सरकार और रिलायंस इंडस्ट्रीज के बीच यह विवाद साल 2013 में सामने आया था। तब ओएनजीसी ने रिलायंस की कथित गैस बिक्री से होने वाले नुकसान के लिए मु्आवजे की मांग करते हुए दिल्ली हाई कोर्ट का रुख किया था। ओएनजीसी ने कहा था कि जिस ब्लॉक से इंडस्ट्री गैस निकालती है वे अपने बगल वाले ओएनजीसी के ब्लॉक से प्राकृतिक गैस खींचते थे। 

सरकार को स्वतंत्र अध्ययन का दिया था आदेश

2014 में दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा सरकार को इस मामले में स्वतंत्र अध्ययन के आदेश पर निर्णय लेने को कहा था। 

वैश्विक सलाहकार डीगोलियर और मैकनॉटन (डी एंड एम) ने इसका अध्ययन किया। डी एंड एम ने यह रिपोर्ट नवंबर 2015 में अंतिम रूप दिया गया था। डी एंड एम ने कहा कि उसके विश्लेषण ने ओएनजीसी और आरआईएल द्वारा संचालित "ब्लॉकों में जलाशयों की कनेक्टिविटी और निरंतरता का संकेत दिया।" एक महीने बाद, सरकार ने इस मुद्दे पर दिल्ली उच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश एपी शाह के नेतृत्व में एक सदस्यीय पैनल का गठन किया।

पैनल ने अपनी रिपोर्ट में यह कहा कि मुआवजे की हकदार सरकार है न कि ओएनजीसी। इसमें कहा गया कि देश के सभी संसाधनों का स्वामित्व सरकार के पास होता है।  इस पैनल की रिपोर्ट के आधार पर सरकार ने नवंबर 2016 में रिलायंस और उसके साझेदारों पर कुल 1.55 बिलियन डॉलर की मांग की। उसके बाद रिलायंस और उसके साझेदारों ने मध्यस्थता का फैसला किया जो अंततः उनके पक्ष में गया था। हालांकि दिल्ली उच्च न्यायालय ने फिर उस फैसले को पलट दिया।

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