Friday, November 7, 2025
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थार की कहानियां: थार की रेत में जीवित इतिहास- जूना किले की गाथा

‘जूना बाहड़मेर के किले’ का इतिहास करीब 800 साल से भी पुराना है। 12वीं शताब्दी में राव बाहड़देव परमार ने इसका निर्माण कराया। जूना किले की यात्रा केवल इतिहास की यात्रा नहीं है, यह राजस्थान के हृदय और आत्मा में डूब जाने जैसा है।

हाल ही में मैं अपने सरहदी शहर बाड़मेर जिसे “थार नगरी” भी कहते है वहां से छः कोस दूर दक्षिण पश्चिम से होकर गुजर रहा था। मखमली रेतीले धोरे (रेत के टिब्बे) और अरावली पर्वत श्रृंखला का अद्भुत दृश्य साथ साथ चल रहा था। राजस्थान का कल्प वृक्ष खेजड़ी सांगरी से लटालूम है। तभी वहाँ पहाड़ी पर स्थित खंडहर हो चुके किन्तु सीना ताने खड़े किले को देखकर मेरे कदम अनायास ही रुक गए। जैसे उस किले ने आवाज देकर मुझे रोक दिया हो। मैंने पूछा “कौन हो भाई ?”

उत्तर मिला कि “मैं जूना बाहड़मेर का किला हूँ।” जूना माने पुराना। अपने ही शहर का पुराना रूप देखकर और अधिक जानने की जिज्ञासा से कई सारे प्रश्न किए। जूना गढ़ ने अपने इतिहास और पुरानी नींवों के अनुसार ही बड़े धैर्य से अपना इतिहास बताना प्रारंभ किया।

किला सगर्व बोला कि “हे पथिक! तुम आज मेरी इस जर्जर स्थिति को देखकर मुझ पर जरा भी दया या दीनता का भाव मन में मत लाओ। मेरा बड़ा ही गौरवमयी इतिहास रहा है। आज से कोई 800 बरस पहले 12 वी शताब्दी में राव बाहड़देव परमार ने मेरी स्थापना की।”

”ऐतिहासिक ‘सिल्क रूट’ का कारवां यहीं से होकर गुजरता था, इसलिए मैं और मेरा पड़ोसी किराडू बहुत ही समृद्ध नगर हुआ करते थे। हाँ, वही किराडू जिसका इतिहास मेरे साथ का ही है। 108 तो मंदिर ही थे, सोचो नगर कितना विशाल रहा होगा। अब मारू गुर्जर शैली में बने पांच मंदिर शेष है।’

रेशम, ऊन, नमक, कीमती पत्थर उत्तर और पश्चिम से राजस्थान की ओर तथा मसाले, कपड़ा, चांदी, सोने के आभूषण भारत से अरब और मध्य एशिया की तरफ जाते थे। थार का यह हिस्सा एशिया के स्थलीय व्यापार मार्ग को गुजरात के समुद्री मार्गों से जोड़ता था। मेरी स्थापना करने वाले परमार वंश के क्षत्रिय थे। कहावत भी प्रसिद्ध थी कि:–

“पृथ्वी परमारां तणी अनै, पृथ्वी तणां परमार”
एक आबू गढ़ बेसाणो, दूजी उज्जैनी धार!”

अर्थात् पृथ्वी के बहुत बड़े भूभाग पर परमार वंश का शासन था। किन्तु धरती ने कभी अपना धणी (यानी मालिक) रखा ही नहीं। शासक, शासन, वंश और व्यवस्था बदलती ही रही है। इसी प्रकार कालांतर में मुझ पर भी परमार वंश का शासन समाप्त हुआ और चौहान साम्राज्य की स्थापना यहाँ जूना के किले में हुई। हर बदलाव कीमत मांगता है। यहाँ भी ऐसा ही हुआ।

मैंने सेनाओं को आपस में लड़ते, भिड़ते और कटते देखा। घोड़ों की हिनहिनाहट और हाथियों की चिंघाड़ से कांपती मेरी दीवारों की हलचल मैं आज भी महसूस करता हूँ। मैने तलवारों की टंकार, शरीर से पार होते भाले और रक्त की नदियों को देखा। मैने शौर्य, पराक्रम, त्याग और बलिदान का अदभुत दृश्य देखा। तुम्हे विश्वास नहीं हो तो यहां तुम्हे जालौर के प्रतापी शासक कान्हडदेव के शासन का शिलालेख भी मिल जाएगा जिसमें परमारो को चौहानों का सामंत बताया गया है। कारण कि इतिहास बातों से नहीं तथ्यों और साक्ष्यों से सिद्ध होता है।

फिर समय का पहिया घुमा और रावत लूंका (रावल जगमाल के पुत्र और रावल मल्लीनाथ जी के पौत्र) ने अपने भाई रावल मण्डलिक के साथ मिलकर चौहान शासक (राव मुंधा) को हराकर मुझ पर अधिकार किया और अपना शासन स्थापित किया। रावल मल्लीनाथजी यहां के विख्यात शासक हुए। वो कुशल शासक और वीर होने के साथ ही संत भी थे। उनके नाम के कारण ही आज इस क्षेत्र को मालाणी भी कहा जाता है।

तो अब मुझपर राठौड़ो का शासन था। तुम्हारे आधुनिक इतिहास में कहते थे न कि “अंग्रेजों के राज में कभी सूर्य अस्त नहीं होता ” वैसे ही हमारे थार में कहावत थी- ”राठौड़ो माथे सूरज तपे”, मतलब राठौड़ इतने पराक्रमी थे कि उनके बल और तप से सूरज तपता है। सुनो पथिक! तुम थोड़ अंदर जाओगे न तब तुम्हे एक तालाब नज़र आएगा, अब तो वो सूख गया है।

इसे रावत लूंका ने खुदवाया था और इसका नाम लूंकासर था। इसी तालाब के पास नागर शैली में बना मंदिर भी दिख जाएगा। यही अब सबसे सही हालत में है। इसकी शैली देखकर तुम मेरे वैभव का अंदाजा लगा सकते हो। थोड़ा और पहाड़ी पर चढ़ सको तो मेरा विहंगम रूप देख पाओगे। कई किलोमीटर में फैला परकोटा और अनेकों बुर्जे देख पाओगे।

मुझसे अब रहा नहीं गया तो किले की बात को बीच में काटते हुए बोला कि “तुम्हारे और आज के बाड़मेर शहर का क्या संबंध है ?” किला हल्की मुस्कुराहट के साथ बोला कि “बताता हूँ, सब बताता हूँ। पर तुम्हारी आज की पीढ़ी है बड़ी अधीर। हमारे समय में बड़े धैर्यवान लोग होते थे। यहां जितना गहरा पानी था उतने ही गहरे लोग थे। खैर कोई बात नहीं, तुम तुम्हारा उत्तर सुनो!”

”धीरे धीरे समय बदलता गया। व्यापारियों की आवाजाही भी कम हो गई। नगर का अब वैसा वैभव नहीं रह गया था। सो रावत लूंकाजी के वंशज रावत भीमाजी ने सन् 1552 में आज के वर्तमान शहर बाड़मेर की स्थापना की और राजधानी जूना बाहड़मेर से बाड़मेर हो गई। मेरी शुभकामनाएं नए बाड़मेर के साथ रही। आज तुम्हारा बाड़मेर जिला मुख्यालय है, पहले पानी के कुएं भी नहीं थे तुम्हारे बाड़मेर में अब तेल के कुएं है। सब तरह का वैभव है तुम्हारे शहर में। अपने ही नए रूप को देखकर मुझे बड़ी खुशी होती है। पर मैं कहाँ जाता पथिक! मेरी नियति में अभी न जाने कितने लश्कर देखने शेष है।”

अचानक मैने खुद को देखा तो पाया कि मैं जूना के किले के आगे दंडवत हो गया हूँ। शरीर में सिहरन है, रोंगटे खड़े हो गए है और आँखें नम है।

महेंद्र सिंह तारातरा
महेंद्र सिंह तारातरा
सामाजिक कार्यकर्ता और स्वतंत्र लेखक। भाषा, इतिहास और संस्कृति के संरक्षण और संवर्धन को लेकर सक्रिय।
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