नई दिल्लीः सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार, 19 नवंबर को ट्रिब्युनल रिफॉर्म्स एक्ट 2021 के न्यायाधिकरण सदस्यों की नियुक्ति और कार्यकाल संबंधी प्रावधानों को रद्द कर दिया है। अदालत ने इन प्रावधानों को इस मुद्दे पर पूर्व निर्णयों का उल्लंघन बताया। अदालत ने इस दौरान सरकार की निंदा भी की।
जस्टिस बी आर गवई और जस्टिस विनोद चंद्रन की पीठ ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा पहले खारिज किए गए प्रावधानों को केंद्र सरकार ने मामूली बदलावों के साथ फिर से लागू कर दिया है।
सुप्रीम कोर्ट ने सुनवाई में क्या कहा?
इस मामले में सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि “इसलिए, विवादित अधिनियम के प्रावधानों को बरकरार नहीं रखा जा सकता। वे शक्तियों के पृथक्करण और न्यायिक स्वतंत्रता के संवैधानिक सिद्धांतों का उल्लंघन करते हैं, जो संविधान के पाठ, संरचना और भावना में दृढ़ता से अंतर्निहित हैं। विवादित अधिनियम सीधे तौर पर बाध्यकारी न्यायिक घोषणाओं का खंडन करता है, जिन्होंने न्यायाधिकरण के सदस्यों की नियुक्ति, कार्यकाल और कार्यप्रणाली को नियंत्रित करने वाले मानकों को बार-बार स्पष्ट किया है।”
अदालत ने आगे कहा इस न्यायालय द्वारा पहचाने गए दोषों को दूर करने के बजाय विवादित अधिनियम थोड़े से संशोधित रूप में उन्हीं प्रावधानों को पुनः प्रस्तुत करता है जिन्हें पहले निरस्त कर दिया गया था। अदालत ने कहा कि यह सख्त अर्थों में विधायी अवहेलना के समान है। अदालत ने इसे अंतर्निहित संवैधानिक कमियों को दूर करने के बजाय बाध्यकारी न्यायिक निर्देशों को निष्प्रभावी करने का प्रयास कहा है। इस दौरान पीठ ने कहा “हमारी संवैधानिक व्यवस्था के तहत ऐसा दृष्टिकोण अस्वीकार्य है।”
इसके बाद अदालत ने फैसला सुनाया कि “तदनुसार विवादित प्रावधानों को असंवैधानिक घोषित कर रद्द किया जाता है।”
इसके साथ ही अदालत ने न्यायाधिकरणों के कामकाज पर सुप्रीम कोर्ट के बार-बार दिए गए निर्णयों का पालन न करने के लिए भी केंद्र सरकार की आलोचना की। पीठ ने यह भी टिप्पणी की कि न्यायपालिका द्वारा निरस्त किए गए प्रावधानों को बार-बार लागू करना यह दर्शाता है कि ‘प्रशासन का स्वरूप’ संविधान की भावना के साथ असंगत बनाया जा रहा है जैसा कि डॉक्टर अंबेडकर ने सभा में रेखांकित किया था।
इसमें आगे कहा गया है कि “यह वास्तव में दुर्भाग्यपूर्ण है कि न्यायाधिकरणों की स्वतंत्रता और कार्यप्रणाली के प्रश्न पर इस न्यायालय द्वारा निर्धारित सुस्थापित सिद्धांतों को प्रभावी बनाने के बजाय, विधायिका ने उन प्रावधानों को फिर से लागू करने या फिर से पेश करने का विकल्प चुना है जो विभिन्न अधिनियमों और नियमों के तहत समान संवैधानिक बहस को फिर से खोलते हैं।”
पीठ ने और क्या कहा?
इसी दौरान पीठ ने निर्देश भी दिया कि जब तक न्यायालय के निर्णयों को प्रभावी बनाने के लिए कोई कानून नहीं बनाया जाता तब तक उसके पूर्व निर्णयों द्वारा निर्धारित सिद्धांत और निर्देश न्यायाधिकरण के सदस्यों और अध्यक्षों से संबंधित नियुक्ति, योग्यता, कार्यकाल, सेवा शर्तों और संबद्ध पहलुओं से संबंधित सभी मामलों को नियंत्रित करेंगे।
न्यायालय ने आदेश दिया कि आयकर अपीलीय न्यायाधिकरण (आईटीएटी) के ऐसे सभी सदस्यों की सेवा शर्तें जिन्हें 11 सितंबर, 2021 के आदेश द्वारा नियुक्त किया गया था, पुराने अधिनियम और पुराने नियमों द्वारा शासित होंगी।
इसके अलावा सदस्यों और अध्यक्षों की सभी नियुक्तियां जिनका चयन या सिफारिश खोज-सह-चयन समिति द्वारा न्यायाधिकरण सुधार अधिनियम, 2021 के लागू होने से पहले पूरी हो गई थी लेकिन जिनकी औपचारिक नियुक्ति अधिसूचना अधिनियम के लागू होने के बाद जारी की गई थी संरक्षित रहेंगी।
पीठ ने आगे कहा “ऐसी नियुक्तियां मूल कानूनों और एमबीए (IV) तथा एमबीए (V) में निर्धारित सेवा शर्तों के अनुसार संचालित होती रहेंगी न कि ट्रिब्यूनल रिफॉर्म्स एक्ट, 2021 द्वारा शुरू किए गए संक्षिप्त कार्यकाल और परिवर्तित सेवा शर्तों के अनुसार।”
इसके अलावा न्यायालय ने केंद्र सरकार को चार महीने के भीतर राष्ट्रीय न्यायाधिकरण आयोग गठित करने का निर्देश दिया। पीठ ने जोर देकर कहा कि आयोग को इस न्यायालय द्वारा व्यक्त सिद्धांतों का पालन करना चाहिए, विशेष रूप से कार्यकारी नियंत्रण से स्वतंत्रता, पेशेवर विशेषज्ञता, पारदर्शी प्रक्रियाओं और निगरानी तंत्रों के संबंध में, जो प्रणाली में जनता के विश्वास को मजबूत करते हैं।
गौरतलब है कि ट्रिब्युनल रिफॉर्म्स एक्ट 2021 ने पहले के ट्रिब्युनल रिफॉर्म्स (रेशनलाइजेशन एंड कंडीशंस ऑफ सर्विस) ऑर्डिनेंस 2021 की जगह ली है जिसमें इसी तरह की संवैधानिक चुनौतियां सामने आईं थीं।
इससे पहले जुलाई 2021 में सुप्रीम कोर्ट ने ट्रिब्युनल रिफॉर्म्स ऑर्डिनेंस 2021 द्वारा संशोधित वित्त अधिनियम, 2017 की धारा 184 को इस हद तक रद्द कर दिया था कि इसने ट्रिब्युनल्स के सदस्यों और अध्यक्ष का कार्यकाल 4 वर्ष निर्धारित किया गया था।
सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाया था कि वित्त अधिनियम की धारा 184(11), जो सदस्यों के लिए चार साल का कार्यकाल निर्धारित करती है, शक्तियों के पृथक्करण, न्यायपालिका की स्वतंत्रता, कानून के शासन और भारत के संविधान के अनुच्छेद 14 के सिद्धांतों के साथ-साथ मद्रास बार एसोसिएशन III मामले में शीर्ष अदालत के फैसले के विपरीत है ।
सुप्रीम कोर्ट का 2020 आदेश
इससे पहले नवंबर 2020 में सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में आदेश दिया था कि न्यायाधिकरण के अध्यक्ष और सदस्यों का कार्यकाल पांच वर्ष का होना चाहिए। न्यायालय ने इस संबंध में 2020 के नियमों में कुछ अन्य संशोधनों का भी आदेश दिया था।
इससे निपटने के लिए सरकार ने 2021 का अध्यादेश पेश किया था जिसमें कार्यकाल चार साल रखा गया था। जुलाई 2021 के फैसले में इस कदम को एक बार फिर रद्द कर दिया गया जिसके बाद ट्रिब्यूनल सुधार अधिनियम, 2021 लागू किया गया।
इसके बाद इस कानून को मद्रास बार एसोसिएशन, कांग्रेस नेता जयराम रमेश और अन्य याचिकाकर्ताओं द्वारा सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई थी। गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में सभी पक्षों को सुनने के बाद अदालत ने 11 नवंबर को फैसला सुरक्षित रख लिया था।
इससे पहले सीजेआई बीआर गवई ने सरकार को इस मामले में फटकार भी लगाई थी क्योंकि सरकार की तरफ से इस पर सुनवाई स्थगित करने की मांग की गई थी। बीआर गवई ने इस दौरान कहा था कि सरकार उनकी अध्यक्षता वाली पीठ से बचने का प्रयास कर रही है क्योंकि उनका रिटायरमेंट होने वाला है।
याचिकाकर्ताओं की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता अरविंद दातार और सीएस वैद्यनाथन ने पक्ष रखा था वहीं कुछ अन्य अधिवक्ता भी प्रतिनिधित्व के लिए आए थे।
इस मामले में सरकार की ओर से अटॉर्नी जनरल आर.वेंकटरमणी और अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल ऐश्वर्य भाटी पेश हुईं।

