नई दिल्ली: बुलडोजर कार्रवाई को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने असम सरकार को अवमानना नोटिस जारी किया है। यह नोटिस असम के 47 लोगों द्वारा दायर की गई याचिका के बाद दिया गया है।
याचिका में राज्य पर शीर्ष अदालत के पिछले आदेश को नहीं मानने का आरोप लगाया गया है। सुप्रीम कोर्ट ने 17 सितंबर को फैसला सुनाते हुए बिना अदालत के इजाजत के इस तरह से बुलडोजर की कार्रवाई करने को मना किया था।
लेकिन याचिका में असम सरकार पर आरोप लगे हैं कि बिना उन्हें कोई नोटिस दिए हुए और शीर्ष अदालत के इस फैसला का उललंघन कर उनके मकान को गिराए गए हैं। जस्टिस बीआर गवई और केवी विश्वनाथन की पीठ ने यह नोटिस जारी किया है।
पीठ ने असम सरकार को जवाब देने के लिए तीन सप्ताह का समय दिया है। यही नहीं कोर्ट ने आदेश दिया है कि अगली सुनवाई तक मौजूदा स्थिति में कोई बदलाव नहीं किया जाना चाहिए।
याचिकाकर्ताओं ने कहा कहा है
याचिकाकर्ताओं ने दावा किया है कि 17 सितंबर के सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद असम सरकार ने उनके घरों को ध्वस्त किया है। उन्होंने यह भी कहा है कि 20 सितंबर को असम के महाधिवक्ता ने गुवाहाटी हाई कोर्ट को यह आश्वासन दिया था कि याचिकाओं के समाधान से पहले कोई भी कार्रवाई नहीं की जाएगी।
याचिका करने वालों के अधिवक्ता अदील अहमद ने दायर अवमानना याचिका में कहा है कि सरकार ने बिना उन्हें बताए उनके घरों को विध्वंस के लिए चिह्नित किया था।याचिकाकर्ताओं का आरोप है कि सरकार द्वारा उनके घर अवैध होने की कोई खबर, सूचना या फिर किसी भी सुनवाई से पहले उसे अवैध करार दिया गया है।
यही नहीं याचिका में उन लोगों ने यह भी आरोप लगाया है कि अधिकारियों ने कानूनी प्रोटोकॉल की अनदेखी की है। उन्होंने कहा है कि बिना एक महीने का बेदखली नोटिस और अपने मामले को पेश करने का उचित मौका दिए हुए यह कार्रवाई की गई है।
याचिका में दावा किया गया है कि इस कार्रवाई के कारण उनके मौलिक अधिकारों का उललंघन हुआ है। उन लोगों ने पीठ के सामने संविधान के अनुच्छेद 14, 15 और 21 के तहत समानता और जीवन के उनके अधिकारों का उल्लंघन का जिक्र भी किया है।
क्या है पूरा मामला
यह मामला असम के कामरूप जिले के सोनापुर का है। सोनापुर कामरूप मेट्रो जिले के भीतर गुवाहाटी के बाहरी इलाके में आता है। कुछ दिन पहले यहां के कचुटोली पथार गांव और उसके आसपास के इलाकों में सरकार द्वारा अतिक्रमण हटाने के लिए अधिकारियों को कार्रवाई करने का निर्देश दिया गया था।
जिला प्रशासन ने क्षेत्र के कई निवासियों को आदिवासी जमीन को अवैध तरीके से कब्जा करने के लिए वर्गीकृत किया था। इसके बाद अधिकारियों द्वारा कथित अवैध मकानों को तोड़ने का काम शुरू किया गया था जिसका काफी विरोध भी हुआ था।
इस तोड़फोड़ अभियान में हिंसा भी भड़की थी जिसमें कई लोगों की जान चली गई थी। घटना के बाद सरकार द्वारा फिर से कथित अवैध अतिक्रमण हटाने की प्रक्रिया शुरू किया गया था। सरकार के इस कदम पर याचिकाकर्ता हुजैफा अहमदी समेत 47 लोगों ने सुप्रीम कोर्ट का रुख किया है।
याचिकाकर्ताओं ने क्या दावा किया है
याचिकाकर्ताओं ने दावा किया है कि उन्होंने कोई भी जमीन कब्जा नहीं किया है। उनका तर्क है कि वे मूल भूमिधारकों के साथ समझौते के तहत दशकों से वहां रह रहे हैं। याचिका करने वालों ने यह भी दावा किया है कि पावर ऑफ अटॉर्नी के जरिए जमीन पर उनका अधिकार है जहां उनके घर बने हुए हैं।
यही नहीं याचिकाकर्ताओं ने यह भी दावा किया है कि यह जमीन 1920 के दशक से उनके परिवार के पास है। उनका यह भी तर्क है कि क्षेत्र में संरक्षित जनजातीय बेल्ट की स्थापना के बहुत पहले से ही यह जमीन उनके परिवार के पास है।
पीठ के सामने याचिकाकर्ताओं ने राशन कार्ड, आधार कार्ड और वोटर आईडी कार्ड भी पेश किया और दावा किया कि उनके निवास के आधार पर सरकारी कागजात भी मौजूद हैं। उन लोगों ने आरोप लगाते हुए कहा कि सरकार ने सभी कानूनों का उललंघन करते हुए उनके घरों को विध्वंस के लिए लाल स्टिकर के साथ चिह्नित किया था।
बुलडोजर कार्रवाई पर सुप्रीम कोर्ट ने पहले क्या कहा था
इससे पहले जमीयत उलेमा-ए-हिंद के तरफ से सुप्रीम कोर्ट में बुलडोजर कार्रवाई को लेकर एक याचिका दायर की गई थी। याचिका में कहा गया था कि बीजेपी शासित राज्यों में मुस्लिमों को निशाना बनाया जा रहा है और उनके खिलाफ बुलडोजर की कार्रवाई की जा रही है।
याचिका पर सुनवाई करते हुए पीठ ने एक अक्टूबर तक बिना कोर्ट की अनुमित के बुलडोजर कार्रवाई पर रोक लगा दी थी। शीर्ष अदालत द्वारा यह फैसला 17 सितंबर को सुनाया गया था।
कोर्ट ने साथ में यह भी कहा था कि सड़क या रेलवे जैसी सार्वजनिक जमीन से जुड़े मामलों को छोड़कर, देश भर में विध्वंस न्यायिक मंजूरी के बिना नहीं हो सकता है।